निराला के वैचारिक लेखन की मूल अंतर्वस्तु भी उनके बाकी के साहित्य के क्रम में है। स्वाधीनता, हिंदी जाति का उत्थान और राष्ट्र निर्माण की चिंता से उनका साहित्य आकार लेता है।
मनुष्य की मुक्ति, राष्ट्र के निर्माण, जातीय उत्थान के जितने भी नवीन विचार आते हैं, निराला उसे ग्रहण करते हैं। वह विचार दुनिया के किसी भी भूगोल से हो, निराला उसके पास जाते हैं। इसी क्रम में निराला ने स्त्री पराधीनता पर भी विचार किया है, जो राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के सापेक्ष है।
निराला के लिए राष्ट्रीय मुक्ति और सामाजिक मुक्ति एक दूसरे से अंतःक्रिया करता हुआ चलता है। सामाजिक मुक्ति का सवाल निराला के यहां आजादी मिलने तक के लिए मुल्तवी नहीं है। या, पहले राष्ट्र फिर मनुष्य और समाज की बात निराला के चिंतन में नहीं है, जो प्रायः अमूर्त ढंग के राष्ट्रवादी चिंतन में या छद्म राष्ट्रवादी चिंतन में होता है।
हिंदी नवजागरण में भी प्रायः ऐसा ही रहा कि राष्ट्र धार्मिक प्रतीकों में व्यक्त होता रहा या धार्मिक दायरे में व्यक्त हुआ। इससे अगर बाहर भी निकला तो औपनिवेशिक सत्ता के थम्हाये मुस्लिम भारत और हिंदू भारत के छल भरे अवधारणा में विश्वास कर राणा प्रताप और शिवाजी को मुस्लिम विरोधी छवि के साथ राष्ट्र के प्रतीक में बदल दिया।
तिलक के राष्ट्रवाद का हिंदी साहित्य पर बड़ा असर रहा। 1920 के दशक में इस राष्ट्रवाद का एक प्रतीक गणेश और एक प्रतीक शिवाजी बने। सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस राष्ट्रवाद में राष्ट्र वही था, जो वर्ण व्यवस्था में पूज्य सामाजिक हिस्सा था। अर्थात, वर्णवाद में सामाजिक वर्चस्व में रहने वाले, उनका विश्वास, उनकी आस्था, उनके हित ही वस्तुतः राष्ट्र के रूप में अभिव्यक्त हुए। दलित और स्त्री इस राष्ट्र से बाहर थे।
इन बातों के सापेक्ष जब निराला का साहित्य रख कर देखा जाएगा, तब उसका महत्व और मूल्य दोनों समझ में आएगा। निराला ने अपने पूरे साहित्य में स्त्री को जो ओहदा दिया है, वह जाहिर है। कविता, कहानी, उपन्यास में वह प्रभावी ढंग से उपस्थित है।
वैचारिक लेखन में भी निराला ने स्त्री की सामाजिक पराधीनता को समस्या मानते हुए स्त्री स्वाधीनता पर विचार किया है। ‘बाहरी स्वाधीनता और स्त्रियां'(‘सुधा’, मासिक, लखनऊ, जून 1930), ‘कला और देवियाँ’ (‘चाबुक’ में संकलित), ‘समाज और स्त्रियाँ'(‘सुधा’, मासिक, लखनऊ, नवंबर 1929), ‘हिंदू अबला’ (‘सुधा’, मासिक, लखनऊ, जनवरी 1930), ‘राष्ट्र और नारी’ (‘सुधा’, मासिक, लखनऊ, फरवरी 1930), ‘सारदा बिल का विरोध’ (वही, मई,1930), ‘वर्तमान आंदोलन में महिलाएं’ (वही, जून 1930), ‘विवाह के विचार पर बर्नार्ड शाॅ’ (वही, सितंबर 1930), ‘हमारी महिलाओं की प्रगति’ (वही, जनवरी 1931), ‘समाज और महिलाएं’ (वही, सितंबर 1932), ‘टर्की की समुन्नति’ (वही, 1 दिसंबर 1933), ‘सौंदर्य और विवाह’ (‘सुधा’, अर्द्ध मासिक, 16 दिसंबर 1933), ‘विवाह की उम्र’ (‘सुधा’ अर्द्ध मासिक, लखनऊ 16 जनवरी 1934), ‘चीनी महिलाओं का भारतीय आदर्श’ (वही, 16 जनवरी 1934) ‘रूस की स्त्रियाँ’ (‘सुधा’, मासिक, लखनऊ, जुलाई, 1935) शीर्षक लेख इसकी ताकीद करते हैं।
इन लेखों में एक जैसी विचार सरणि या विचार स्रोत नहीं है। निराला जैसे-जैसे नवीन विचारों के संपर्क में आते हैं, खुद के विचार या अपने को भी बदलते हैं। ‘समाज और स्त्रियाँ’ शीर्षक लेख में लिखते हैं,
“इस समय संसार में वैज्ञानिक ज्ञान लोक का जितना ही विस्तार बढ़ता जा रहा है, सभ्यता तथा स्त्रियों से संबंध रखने वाले विचार क्रमशः उतने ही बदलते जा रहे हैं। समाज, जाति तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही स्त्रियों की समान स्वतंत्रता की आवाज भी उतनी ही ऊंची सुनाई दे रही है। बड़ी-बड़ी नौकरियां तथा और भी अनेक प्रकार के जो जीवन उपाय तथा प्रतिष्ठा के कार्य पुरुषों के अधिकार में आज तक थे, वह अब स्त्रियों के अधिकार में भी आ गये हैं। जीवन संग्राम में पुरुष-पुरुष का ही द्वंद्व नहीं, बल्कि स्त्री-पुरुष की भी स्पर्धा बढ़ गयी है और स्त्रियाँ हर विषय में पुरुषों का बड़ी खूबसूरती से मुकाबला करती हुई अपने अधिकार के मैदान में आगे बढ़ती चली जा रही हैं।”
निराला यूरोप की स्त्रियों के संबंध में यह लिखते हुए एशिया और भारत की स्त्रियों की दशा पर विचार करते हैं-
“उनकी स्त्री स्वतंत्रता जिन-जिन परिवर्तनों के भीतर से बदलती हुई आज इस रूप को पहुंची है, काली जातियों में वह बात नहीं है। वे केवल यूरोप और अमेरिका की शिक्षा के आधार पर ही अपने सुधार कर रही हैं।”
निराला का यह लेख 1929 ईस्वी में छपा है। 1929-30 तक निराला के भीतर यूरोप अमेरिका में हुए परिवर्तनों के प्रति सकारात्मक झुकाव के साथ जातीय स्वत्व या जातीय पहचान को लेकर एक द्वंद्व शुरू हो जाता है।
इसके पहले हिंदी जाति के भीतर मौजूद वैदिक, पौराणिक चारित्रिक आख्यानों का प्रभाव निराला पर अधिक था। उसके पीछे एक कारण यह भी था, कि हिंदी की शिक्षा उन्होंने इन्हीं आख्यानों से अधिक पायी थी। लेकिन 1929-30 तक इसमें एक द्वंद्व दिखने लगता है।
यह समय पूरी दुनिया में हलचल का भी समय है। इसी लेख में वे यूरोप के प्रभाव में शहरों में एक परिवर्तन देखते हैं, लेकिन उसके सापेक्ष गाँव की स्त्रियों पर विचार करते हुए वे लिखते हैं,
“गाँव की शिक्षा में इस तरह की शिक्षा के फैलने की आशा भी नहीं की जा सकती। वहां स्त्रियों के मस्तिष्क में सीता और सावित्री का ही आदर्श भरा हुआ है, जो हर तरह पति के अनुकूल बल्कि अधीन रहने की ही शिक्षा देता है। इससे स्त्री स्वतंत्रता का यह रूप भारत वर्ष में कहां तक कामयाब होगा, इसमें संदेह है।”
सीता और सावित्री का आदर्श स्त्री स्वतंत्रता में बाधक है, इस निष्पत्ति पर निराला क्रमशः पहुंचते हैं। प्रारंभ में या 1920-30 के बीच में उनके यहां ऐसे निष्कर्ष नहीं मिलते। निराला के यहां यह इसलिए है कि नवीनता, स्वाधीनता निराला के स्व निर्माण की अस्थि मज्जा है।
कविता में भी जो बार-बार नव, नवीन, स्वाधीन आता है, वह इसी के अंतर्गत है। निराला को समझने की यही एक सबसे जरूरी कुंजी है। स्त्री स्वाधीनता पर विचार करते हुए निराला इसीलिए हिंदी की जातीय संस्कृति में मौजूद पुरातनता व तथाकथित आदर्श और नैतिकता से टकराते हैं।
इसके बावजूद निराला जातीय संस्कृति के स्वत्व निर्माण के लिए भी उतने ही सचेत हैं। इसीलिए वे उसमें ऐसी किसी निरंतरता की तलाश भी करते हैं, जो नवीन विचारों के अनुकूल हो।
निरंतरता की इस तलाश के साथ महत्वपूर्ण यह है कि निराला स्त्री पराधीनता के सापेक्ष स्त्री स्वाधीनता के सभी नवीन विचारों तक जाते हैं। यूरोप में स्त्री स्वाधीनता पर ही वह नहीं रुकते, बल्कि वह इससे आगे बढ़ते हैं और ‘रूस की स्त्रियां’ तक आते हैं।
इसमें वह भारतीय ललनाओं को रूस की ललनाओं की तरह होने की बात करते हैं। निराला ऐसा इसलिए नहीं करते हैं, कि वह कम्युनिस्ट हो गये थे, बल्कि निराला ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि निराला हिंदी समाज में स्त्री की गुलामी को देखते हैं, महसूस करते हैं और इसी के सापेक्ष स्वाधीनता की खोज करते हैं और सभी नवीन विचारों तक जाते हैं। यह कोई संयोग नहीं है, कि निराला की कहानियां और उपन्यासों में अधिकांश शीर्षक स्त्री नामवाची हैं। ‘पद्मा और लिली’, ‘कमला’, ‘श्यामा’, ‘अलका’, ‘चमेली’, ‘प्रभावती’ आदि। खैर
‘रूस की स्त्रियाँ’ लेख में वे लिखते हैं,
“सब स्त्री और पुरुष बिना किसी भेदभाव के सामूहिक रूप से सामाजिक तथा राष्ट्रीय नियंत्रण में दत्तचित्त हो रहे हैं। वे लोग इस मूल मंत्र को समझ गये हैं, कि पुरुष और स्त्री का जीवन पूर्ण स्वतंत्रता और पूर्ण सहकारिता के भावों से ओत-प्रोत है। तात्पर्य यह कि स्त्री-पुरुष फूल और पौधे की भांति परस्पर संबद्ध हैं। वह परस्पर विचारों की स्वाधीनता की निर्मल वायु में प्रेम और समुन्नति की वर्षा और धूप में ही पनप सकते हैं। अतः हमारी भारतीय ललनाओं का यह कर्तव्य है, कि वह भी रूस की स्त्रियों की भांति उन्नतशील बनें और जहरीले अंध परंपरा के बंधन से मुक्ति प्राप्त कर वास्तविकता और शिक्षा की ओर अप्रतिहत वेग से अग्रसर हों, इसी में समाज तथा देश का कल्याण है।”
यह लेख ‘सुधा’ में जुलाई 1935 का छपा है। यह लेख संपादकीय के रूप में है। इसमें वे भारतीय ललनाओं को जहरीले अन्ध परंपरा के बंधन से मुक्ति प्राप्त करने की बात करते हैं।
यह जहरीली अंध परंपरा जाहिर है हिंदी समाज में व्याप्त वर्णवादी व्यवहार और नैतिकता थी, जो समाज से लेकर निजी संबंध तक में स्तरीकृत ढंग से मौजूद और क्रियाशील व निर्णायक थी। इस व्यवहार में स्त्री दोयम दर्जे से भी नीचे थी। ‘हिंदू अबला’ लेख में वे लिखते हैं,
“वह पशुओं से भी नीचा जीवन व्यतीत करती है। उसका संसार में पदार्पण होते ही- हिंदुओं के विश्वास के अनुसार- पृथ्वी कई अंगुल नीचे धँस जाती है। फटी थाली को बजाकर दुनिया में उसका स्वागत किया जाता है। जन्म से लेकर बाल्य-काल तक वह प्रकृति और माता की कृपा से जीवित रहने पाती है। पिता और अन्य पुरुष संबंधियों की आंखों में तो वह कांटे की तरह चुभा करती है। बीमारी और वेदना में वह विरले ही पुरुषों की सहानुभूति पाती है।”
निराला स्त्रियों की इस स्थिति को स्वीकार नहीं करते और इसीलिए स्त्री शिक्षा और स्वाधीनता के नवीन विचारों को अपनाते हैं।
‘बाहरी स्वाधीनता और स्त्रियाँ’ में वे लिखते हैं,
“धार्मिक संस्कारों के चक्र की प्रदक्षिणा करते रहने के कारण ही हम पराधीन हैं, हम पर दूसरी-दूसरी जातियों के बुद्धिमान् लोग प्रभुत्व कर चुके हैं और कर रहे हैं। हम लोग स्वयं जिस तरह गुलाम हैं, उसी तरह अपनी स्त्रियों को भी गुलाम बना रक्खा है, बल्कि उन्हें दासों की दासियाँ कर रक्खा है। इस महादैन्य से उन्हें शीघ्र मुक्ति देनी चाहिए। तभी हमारी दासता की बेड़ियाँ कट सकती हैं। जो जीवन बाहरी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकता , वह मुक्ति जैसी सार्वभौमिक स्वतंत्रता कब प्राप्त कर सकता है? उसकी धर्म की साधना भी ढोंग है।”
इसी लेख में वे आगे लिखते हैं,
“रूढ़ियाँ कभी धर्म नहीं होतीं, वे एक-एक समय की बनी हुई सामाजिक श्रृंखलाएँ हैं। वे पहले की श्रृंखलाएँ जिनसे समाज में सुथरापन था, मर्यादा थी- अब जंजीरें हो गयी हैं। अब उनकी बिलकुल आवश्यकता नहीं। अब उन्हें तोड़कर फेंक देना चाहिए।”
निराला धर्म को स्त्रियों की गुलामी की एक व्यवस्था के रूप में पाते हैं। और वह तब जब वे नवीनता और स्वाधीनता के विचार को खुद के तईं भी अपनाते हैं। स्त्रियों के लिए भी वे उसी की बात करते हैं, “जब तक स्त्रियों में नवीन जीवन की स्फूर्ति भर नहीं जायगी, तब तक गुलामी का नाश नहीं हो सकता।”
यह ‘नवीन जीवन’ आधुनिक शिक्षा और बाहरी स्वतंत्रता देकर ही हो सकता है।
‘चीनी महिलाओं का भारतीय आदर्श’ लेख में भी सन यात सेन के स्त्री सुधार की चर्चा करते हैं। निराला सुधार के कार्यक्रमों में स्त्रियों की आधुनिक शिक्षा, रोजगार के साथ चीनी स्त्रियों के जातीय स्वाभिमान को याद करते हैं। चीन की स्त्रियां यूरोप, अमेरिका की आधुनिकता तो अपनाती हैं लेकिन वह गृहस्थी में भी काम करती हैं।
यहां निराला का लक्ष्य है, कि भारतीय महिलाएं आधुनिकता को अपनाये लेकिन चीन की स्त्रियों की तरह अपनी जातीय पहचान को बनाए रखें। निराला ने यह लेख किसी श्री चमन लाल के उदाहरण और बातचीत के हवाले से लिखा है। तब तक रूस की तरह चीन की स्त्रियों में क्रांतिकारी बदलाव नहीं हुए थे। लेकिन सुधार के कार्यक्रम प्रारंभ हो गए थे। निराला इन सुधारों को भी नजर में रखते हैं, क्योंकि तब तक यह विचार ही प्रगतिशील विचार था, नवीन विचार था। 1949 ई. के बाद चीन की स्त्रियों की भूमिका बदल जाती है और पुरुषों की भी। बहरहाल
लेकिन निराला नवीनता और स्वाधीनता के तत्व जहां भी मिलते हैं उसे अपनाते हैं और भारतीय विशेषता के साथ उसके द्वन्द्व को विमर्श में रखते हैं। ‘समाज और महिलाएं’ लेख में वे अंतर्धार्मिक और अंतर्जातीय विवाह की वकालत करते हैं। इस लेख की शुरुआत में वे लिखते हैं,
“हमारे जातीय सितार के साज पुराने हो गए हैं। तारों में जंग लग गया है।… राष्ट्र और वर्तमान धर्म का गला उससे नहीं मिलता।”
फिर आगे लिखते हैं, “अब फिर जाति के सामने वह सवाल पेश है। यही परिवर्तन जाति के जीवन की सूचना है। आज संसार के सभी राष्ट्र अपनी पुरानी प्रथाओं में शिघ्रातिशीघ्र परिवर्तन करते जा रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं, उन्हें संसार के समुन्नत राष्ट्रों से साम्य रखना है। यहां धर्म का कोई सवाल नहीं। कारण, धर्म तो मनुष्य की भीतरी प्राणों की भावना है। बाहरी कर्मों, वेशभूषा आदि में भाषा के परिवर्तन की तरह बराबर रद्दोबदल जरूरी है। पर हम इस सामाजिक कार्य में उन्नतशील सभी देशों से पीछे हैं। बड़ा वही है, जिसे अधिकांश प्रतिष्ठित जन बड़ा कहें। संसार के सभी जन हमें अपने बराबर बैठाने में संकुचित होते हैं।”
जाहिर है निराला राष्ट्र और धर्म को अलग-अलग देखते हैं। दूसरे, जो धार्मिक वर्ण विभाजन है, उसे सामाजिक उन्नति और आधुनिक सभ्य राष्ट्र निर्माण में बाधक भी पाते हैं। पुनः वे इसे महिला या स्त्री संदर्भ से जोड़ते हुए कहते हैं,
“इसके मूल में प्रधान कारण हमारी महिलाएं हैं। देश ने महिलाओं की प्रगति पर ध्यान दिया तो है पर काम तीव्रगति से नहीं हो रहा है। हमारा मतलब यह नहीं कि महिलाएं यूरोपीय बीवियां बनाई जायँ। हम केवल उनके शिक्षा-सुधार और स्वतंत्रता के लिए कहते हैं।”
ध्यान रहे कि 1932 के इस लेख के समय तक धार्मिक सांप्रदायिक वर्णवादी पितृसत्तात्मक संगठन राष्ट्रवाद का ऐसा स्वरूप पेश कर रहे थे, जिसमें स्त्री, दलित के लिए जगह नहीं थी। उस राष्ट्रवाद या हिन्दुत्व के राष्ट्र में यह बहिष्कृत जन थे। निराला स्त्री शिक्षा और स्वाधीनता पर बात करते हैं, तो उनके सामने धार्मिक या सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की नैतिकताएं जाहिर हैं। आज भी कोई देखे तो पायेगा कि इस्लामिक हो या अपने देश में प्रस्तावित हिंदू राष्ट्र, उसमें सर्वाधिक हमला स्त्री स्वत्व, शिक्षा और स्वतंत्रता पर है। ईरान, सऊदी अरब, पाकिस्तान और अभी के भारत में कोई इसे बहुत आसानी से देख सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक राजनीतिक संगठन अपनी पूरी ताकत से सनातनी वर्णवाद को हिंदू राष्ट्र के रूप में स्थापित करना चाह रहे हैं, जिसमें स्त्री की शिक्षा, स्वत्व और स्वाधीनता तीनों का अपहरण है, उस पर हमला है और जो भी आजादी की लड़ाई और उसके बाद के सत्तर सालों के संघर्ष का हासिल है, उसे खत्म करने की शक्तिशाली कोशिश है।
निराला इसी लेख में लिखते हैं,
“पुरुषों के अज्ञान का प्रहार महिलाओं पर होता है, जिससे देश की लक्ष्मी दुःखित रहती है।”
स्त्री स्वत्व, शिक्षा और स्वाधीनता पर बात करना स्वयं में ही सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का खंडन है, जो निराला करते हैं। साथ ही वे स्त्री को पुरुषों के बराबर सभी अधिकार देने की बात करते हैं। वे इसी लेख में लिखते हैं,
“शिक्षा-दीक्षा, आदान-प्रदान, सामाजिक, राजनीतिक और सांपत्तिक अधिकार भी उसके पुरुष की तरह के हों।” फिर आगे वे खान-पान और विवाह पर लिखते हैं, “खान-पान और वैवाहिक संबंध में जातीय व्यापक विशालता आवश्यक है।”
इस ‘व्यापक विशालता’ की व्याख्या को पिछले नौ सालों की हिन्दूवादी संकीर्णता और असहिष्णुता के सापेक्ष देखना चाहिए। पिछले नौ सालों में ‘गौमांस’ और ‘लव जिहाद’ के नाम पर हिंदूवादी संगठनों और सरकारों द्वारा सैकड़ों निर्दोषों की हत्या और करीब चालीस हजार से ऊपर नवयुवकों को बेवजह जेल में डाला गया है। ऐसे ही या इन आंकड़ों के संदर्भ से निराला का यह कथन खास मायने रखता है।
वर्णवादी या धर्म आधारित सामाजिक व्यवस्था में विवाह संस्था पूरी तरह से स्त्री को पराधीन और दोयम दर्जे की हैसियत में रखता है। निराला जब विवाह और खान-पान में ‘व्यापक विशालता’ की बात करते हैं तो उसका सीधा संबंध स्त्री स्वाधीनता से बनता है।
अपने एक अन्य लेख ‘सामाजिक व्यवस्था’ में वे लिखते हैं,
“हिंदुओं का सर्वोच्च वेदांत धर्म वैयक्तिक नहीं। इसलिए हिंदू धर्म को किसी खास परिभाषा के द्वारा सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। उसमें जो सामाजिक आचार-विचार समयानुसार बनते, चलते तथा बदलते रहे हैं, वे सनातन नहीं, वे समय के अनुसार आवश्यकता की पूर्ति तथा जाति की रक्षा के लिए तैयार किये गये हैं।”
अभी हाल ही में तमिलनाडु के खेल मंत्री ने जाति विभाजन के संदर्भ से सनातन धर्म की आलोचना की, जिसकी प्रतिक्रिया में हिंदूवादी संगठन से जुड़े तथा भारत सरकार में शीर्ष मंत्री, प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, गृह मंत्री तक ने कहा कि सनातन था सनातन है और सनातन रहेगा।
निराला 1930 ईस्वी में लिख रहे हैं, हिंदू धर्म की सामाजिक व्यवस्था सनातन नहीं है। जाहिर है, निराला अपने खुद के तर्क, विवेक और आधुनिक बोध के अंतर्गत इस नतीजे पर पहुंचे थे, जबकि हिंदूवादी संगठन तर्क, विवेक और आधुनिकता के विरोध में सदैव खड़े पाये गये हैं। आधुनिकता और तर्क, विवेक विरोधी हिन्दुत्ववादियों का रवैया जरूर सनातनी और जड़ है। निराला इसी लेख में आगे लिखते हैं,
“मुसलमान तथा अन्य-अन्य जो जातियां हिंदुस्तान में बसी हुई हैं, उनसे यदि हिंदुओं का सामाजिक व्यवहार न रहे तो सदा ही उनसे तकरार होती रहेगी, जिससे नुकसान के सिवाय फायदा कभी नहीं हो सकता। रही बात यह कि शुद्धि के प्रचलन से मुसलमानों को हिंदू बनाओ, तो यह नितांत भ्रमोत्पादक उक्ति है। हिंदू अगर मुसलमानों को हिंदू बना सकते हैं तो मुसलमान भी तबलीग़ जानते हैं और इससे स्पर्धा के सिवा कभी मैत्री की स्थापना नहीं हो सकती। पर अगर मुसलमानों के साथ पान-पानी आदि प्राथमिक साधारण व्यवहार जारी हो जाय तो इससे हिंदुओं की जबानी मैत्री वास्तव में कुछ काम कर दिखा सकती है और हमेशा की यह मार-काट बंद हो जायगी। धर्म के नाम पर जो यह इतना बड़ा हत्याकांड हो जाया करता है, न होगा।”
निराला का यह विचार आज के हिंदूवादी सरकार के नुमाइंद के लिए अपथ्य होगा। निराला आगे लिखते हैं,
“समाज की यह प्रगति उसी शिक्षा के द्वारा हो सकती है, जिसमें वर्तमान देश, काल तथा पात्र के समझाने की शक्ति है। केवल मनुस्मृति को रटकर रख देने से अथवा त्रिकाल-संध्या की विधियों का बाक़ायदा निर्वाह करने से केवल कुछ ‘हं, लं, वं’ के द्वारा निरर्थक जीवन पार कर देना ही होगा, इससे शिक्षा का यथार्थ तत्व मस्तिष्क के अंदर नहीं पैठ सकता। रही बात इस भय की कि हिंदू मुसलमान में हजम हो जायँगे, सो यह भय तो पं. नत्थाराम को ही हो सकता है, किसी समझदार को नहीं, जो अपने मुसलमान भाई के यहां भोजन करके भी अपने इष्ट, देश, जाति तथा धर्म की दृष्टि में पवित्र ही रहता है।”
यह लंबा उद्धरण इस लिहाज से भी देखना चाहिए कि हिन्दूवादी या कोई भी साम्प्रदायिक संगठन स्त्री शुचिता को ही विभाजन और वैमनस्य का आधार बनाता है। अर्थात स्त्री उसे अपनी सम्पत्ति की तरह चाहिए, स्वतंत्र नहीं। प्रेम तो स्वतंत्रता के एक चरण को ही अभिव्यक्त करता है।
2013 में हिंदूवादी संगठनों ने यूपी के मुजफ्फरनगर में जो दंगे करवाए उसके कारण में हिंदू-मुस्लिम प्रेम को लेकर हुई हत्या को बहाना बनाते हुए सांप्रदायिक रूप दिया और इसी को आधार बनाते हुए सत्ता में आये। अभी हाल ही में झूठे तथ्यों पर आधारित हिंदूवादी प्रचारात्मक फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ में ‘लव जिहाद’ की झूठी स्थापना की गई और उसका राजनीतिक उपयोग करने की कोशिश की गयी। मणिपुर में भी अभी आरएसएस से जुड़े लोगों ने स्त्री स्वत्व पर हमला किया।
अर्थात, स्त्री स्वत्व, शिक्षा, स्वाधीनता को धार्मिक विभाजन, नफरत और वैमनस्य के द्वारा सीमित करने का काम सांप्रदायिक धार्मिक शक्तियां करती हैं। निराला जब यह सामाजिक व्यवस्था दे रहे हैं या ‘खानपान और विवाह’ में ‘व्यापक विशालता’ की बात करते हैं, तो जाहिर है कि वह एक आधुनिक राष्ट्र के अंतर्गत स्वाधीन स्त्री की परिकल्पना को अंतर्भूत करते हैं!