रंजना मिश्र
10 जनवरी, 1952 को जन्मी डोरियन लाउ/ लॉक्स के अब तक छह कविता संग्रह प्रकाशित हैं। वे यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑर्गोन में रचनात्मक लेखन विभाग की प्रमुख हैं और इन्हें कई साहित्यिक पुरस्कारों से नवाज़ा गया है।
डोरियन लाउ की कविताओं को तथाकथित सफलता के शिखर पर बैठे एक देश की एक कवि की संयत आतंरिक आवाज़ की तरह देखा और पढ़ा जाना चाहिए, यह समझते हुए कि समग्र मानवता, सफलता और असफलता की परिभाषाओं से परे एक सा ही सोचती और महसूस करती है, मनुष्य की संवेदना एक ही तरह के संत्रास, चिंताओं और विडंबनाओं का सामना करती है। इन्हें एक परिष्कृत स्त्री मानस द्वारा अपने आस पास और जीवन के विविध पहलुओं के अंतर्द्वंद्व की ओर सतत इशारा करती, इंगित करती, धीमी संयत में पुनः याद दिलाती कविताओं की तरह भी पढ़ा जाना चाहिए जिनका दायरा विस्तृत है। इनमें प्रेम, परिवार, यौनिकता, दर्शन, राजनीतिक अंतरधाराएँ और अंततः गहन चिंता और करुणा है। इसी कारण ये अपनी सांस्कृतिक भौगोलिक राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि से आगे निकल मानवता के अंतर्विरोधों को रेखांकित करती हैं और यही इनका मूल स्वर है।
ये कविताएँ जाहिर रूप से राजनीतिक प्रतिरोध की कवितायेँ नहीं पर प्रतिरोध और विविध स्थापनाओं के विरुद्ध पूरी नम्रता से खड़ी होती होती हैं। इनमें जटिलता नहीं पर अर्थ बहुलता, अंतर्ध्वनियाँ, रोज़मर्रा के जीवन से लिए गए रूपक हैं जो धीमी बहती हवा सी छूकर गुज़रती हैं और हम इन्हें अचानक ठहरकर दोबारा पढ़ने को मजबूर हो जाते है।
यहाँ छः कविताओं के अनुवाद हैं जो उनके कविता संकलन ‘स्मोक’ (२०००) से लिए गए हैं।
डोरियन लाउ की कविताएँ (अनुवाद: रंजना मिश्र)
1. अजनबियों की खातिर
फर्क नहीं पड़ता कैसा दुख है,
इसका बोझ ढोते हम अहसानमंद हैं
उठकर रफ्तारशुदा होते,
एक मुरझाया सा दम खम हमें भीड़ में धकेल देता है
और तब वह छोकरा मुझे रास्ते बताता है, उत्साह से
एक स्त्री मेरे खोखले शरीर को रास्ता देते
धीरज के साथ
कांच के दरवाज़े खोलकर खड़ी हो जाती है
यह सारा दिन चलता है,
मेहरबानियां एक दूसरे को छूती हुईं
एक अजनबी किसी अनजान के लिए गाता हुआ
पेड़ अपने फूल भेंट करते हुए
एक बच्चा अपनी बादाम सी आँखें उपर उठा
मुस्कुराता हुआ
जब मैं रास्ते से गुजरती हूं
किसी न किसी तरह वे मुझे ढूंढ ही लेते हैं
कई बार मानो इंतजार करते से
मुझ ही से मुझ को बचाने की खातिर
उन चीज़ों से बचाने की खातिर
जो मुझे पुकारती हैं, जैसा उन्हें भी पुकारती होंगी
यह लालच, कगार से कूद पड़ने का
और हल्के होकर गिरते जाने का
दुनिया से दूर …
2. कैसे होगा यह, कब
तो तुम वहां हो, फिर से पूरी रात रोने से थकी
सोफे पर सिकुड़ी, फर्श पर, पलंग के पाए से लिपटी
जहां कहीं भी गिरती, रोती हुई ढह पड़ती, अविश्वास से भरी कि
शरीर की सीमा कहां तक हो सकती है,
यह महसूस करते कि तुम और नहीं रो सकती
और वहां हैं वे, उसकी जुराबें, कमीजें,
तुम्हारे अंतर्वस्त्र, गर्म दस्ताने, सारे एक ढेर में, गुसलखाने के दरवाजे के करीब और तुम फिर से ढह पड़ती हुई
किसी दिन, वर्षों बाद, चीजें अलग होंगी
घर फिर से साफ, चीजें अपनी जगह
खिड़कियां चमकती हुई, सूरज की रौशनी
लकड़ी के फर्श के मोम की झीनी परत पर आसानी से फिसलती हुई और तुम, संतरे छीलती पड़ोस के छत की मुंडेर पर बैठे उस पंछी को अपनी उड़ान से ठीक पहले
पंख फड़फड़ाते, अपनी पूरी शक्ति संचित करते,
धीरे धीरे ऊंचा उठते, फिर हवा के फंदे में,
उड़ता देखोगी
तुम पढ़ रही होगी, और एक क्षण के लिए एक शब्द पर ठहरोगी
जिसे तुम नहीं पहचानती, कोई सरल सा शब्द जैसे – तश्तरी, दरवाजा या झाड़ू, और इसपर गौर करते, उस बच्चे की तरह, जिसने अभी अभी नई ज़बान सीखी है, तुम कहोगी – तश्तरी, बार बार, तबतक, जबतक इसके अर्थ
तुम्हारे भीतर न खुलने लगें
और तब, तुम पहली बार, कहोगी,
ऊंची आवाज में – ‘वह अब मृत है,
वह वापस नहीं आ रहा’
और तब पहली बार
तुम इसपर विश्वास करोगी
3. शाम
चांदनी बरसती है, निर्मम
कोई फर्क नहीं पड़ता कि पेड़ों के नीचे
कितने नष्ट हुए
नदी बहती जाती है
खामोशी हमेशा होगी
इससे बेखबर कि वहां उस घर के पार्श्व में
कोई कितनी देर से रोता है
नंगी बाहों में अपने छाले भींचे
हर कुछ नष्ट हो जाता है
पीड़ा भी, दुख भी
हंस तिरते रहते हैं
सरकंडे अपने सिर पर पंखों का भार लिए
कंकड़ और छोटे और चिकने होते जाते हैं
रात की खुरदरी धारा के नीचे
चलते हैं हम दूरियां तय करते
छकड़ों में हमारे, झोले, असबाब
बोझ उपहारों का
हम जानते हैं जमीन
समंदर के नीचे गुम होती जाती है
द्वीप निगल लिए जाते हैं
प्रागैतिहासिक मछलियों से
हम जानते हैं, अभिशप्त हैं हम
बर्बाद, खात्मे पर
फिर भी रोशनी हम तक आती है
हमारे कन्धों पर अब भी गिरती है
यहां भी, चांद जहां ओझल है
तारे कितनी दूर…
4. खबरदार
यह पतझड़ है
और हम किताबों से निज़ात पा रहे हैं
किसी छोटी सी आसानी से गुजर बसर लायक जगह के लिए
चीजों को छोड़ने को तैयार
हम पीछे लौट रहे हैं
घर को उम्र के अनुसार ढालते हुए
फर्श पर ऐसा कुछ नहीं जिससे फिसलकर गिरा जा सके
धीमे होते शरीर के लिए कोई रुकावट नहीं
दो लोगों के लिए एक छोटी सी मेज़
हमारी दुनिया सिमट रही है
आलमारियां करीब करीब खाली
तंग कपड़ों और नृत्य के जूतों से
घंटियां और सीटियां अब नहीं
कोई मेहमान जब हमारे घर आता है और शेक्सपीयर रचनावली, शब्दकोश में बाज़ के पंखों के बुकमार्क और ताखे में रखे सजावटी लोहे के फरिश्ते की तारीफ़ करता है,
हम कहते हैं
ले जाओ
यह सबसे महत्वपूर्ण समय है
यह जानते हुए छोड़ने का
कि हम जो पीछे छोड़ जाएंगे
वह फूलते वृक्षों की सुगंध सा है
जिसकी गंध तब भी बनी रहती है
जब आप उन्हें पीछे छोड़ आए हों
एक क्षण के लिए अपनी सांसों में भरते
अगले ही क्षण छोड़ देने के लिए
और एक मामूली सा मंगलवार
जब एक कहे खबरदार” और दूसरा हंस दे…
5. मृत्यु फिर से आई, वह लड़की
सूती झबला पहने, नंगे पैर, खिलखिलाती वह लड़की
मृत्यु, फिर से सामने आई
यह इतनी डरावनी नही, जैसा तुम समझती हो
अंधेरा और सन्नाटा, वह कहती है
वहां हवा में बजती सीटियां और नींबू की सुगंध है
कभी कभी बारिश होती है
पर अधिकतर हवा सूखी और खुशनुमा होती है
मैं बालों और हड्डियों से बनी सीढ़ियों के नीचे बैठ
ज़िंदा लोगों की आवाज़ें सुनती हूं
वे मुझे अच्छी लगती हैं
अपने केशों से धूल झाड़ते हुए वह कहती है
ख़ासकर तब जब वे झगड़ते हैं
और गाते हैं…
6. कगार पर
अपनी मां के मरने के बाद, तुम जीना सीखती हो
जीवन के कगार पर, खुद को चेताते
जैसा वह करती थी, एक हाथ से डैशबोर्ड थामे,
दूसरे से तुम्हारा बटुआ जकड़े
जब तुम ठहरने के निशान से गाड़ी भगाती
कंधे तनाव में, आंखें मीचे उस भिडंत के लिए तैयार,
जो कभी नहीं होती
तुम पूरी रात जागना सीखती हो
यह जानते हुए कि अब वह नहीं है
कागज़ी हंस सी खुलती सुबह को देखते,
चौड़ी सड़क रात की,
एक सवाल जिसका जवाब तुम्हारे पास नहीं
जेल में स्त्रियां सिगरेट की राख़ और शैम्पू से गोदने बनाती हैं
उसकी पीठ में उगते मछली के धूसर शल्क
और मूंछों की कल्पना करो
जो आहिस्ते से उसकी गर्दन को चूमते हैं
उसकी बेटी के नाम के अक्षरों की कल्पना
उसकी कमर में बंधी काली जंजीर
उस क्षण से पिछले क्षण की दूरी क्या है ?
आख़िरी मुलाकात और उसके बाद की मुलाक़ात की ?
मुझे अपनी मां वापिस चाहिए
उसकी गंध से बौराई
मैं उसका पीछा करना चाहती हूं
एक उम्दा उपहार की तरह, दुकान दर दुकान
जब तक पांव न दर्द करने लगे
यही तुम्हारी जिंदगी का असबाब है
भरोसे का इशारा
यह बुरी तरह थके होने पर भी जागना
यह गले में अटकी सुई..
कवयित्री डोरियन लाउ (Dorianne Laux), जन्म: 10 जनवरी 1952, जन्मस्थान: औगूस्टा, मायने, अमेरिका
पीटरसन पुरस्कार, रोआनौक-चौवन पुरस्कार, द बेस्ट अमेरिकन पोएट्री प्राइज (1999, 2006, 2013, 2017),ओरेगोन बुक अवार्ड, लेनोर मार्शल पोएट्री प्राइज (2006), नेशनल बुक्स क्रिटिक सर्कल अवार्ड। ओरेगोन और उत्तरी कैरोलिना यूनिवर्सिटियों में रचनात्मक लेखन विषय की प्रोफ़ेसर। ’अलास्का’ त्रैमासिक की सहयोगी सम्पादक।
कृतियाँ: चौकन्ना (1990), हम क्या लाए (1994), चाँद का सच (2005), मरदों की किताब (2011), औरतों की किताब (2012), सिर्फ़ जैसे दिन लम्बा है (2019)
टिप्पणी और कविताओं का अनुवाद रंजना मिश्र, पुणे, महाराष्ट्र निवासी हैं । 1970 के दशक में जन्म, शिक्षा वाणिज्य और शास्त्रीय संगीत में.आकाशवाणी, पुणे से संबद्ध.
‘देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाएँ में कविताएँ, कहानी, और लेख। शास्त्रीय संगीत और कलाओं से संबंधित ई पत्रिका – ‘क्लासिकल क्लैप’ के लिए संगीत पर लेखन.
चार्ल्स बुकोव्स्की , तारा पटेल और कमला दास की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित.
साहित्य अकादमी की पत्रिका में कविताओं के अनुवाद प्रकाशित। भारत भवन, भोपाल में आयोजित युवा – 7 में कवितापाठ. सत्यजीत राय की फिल्मों पर लेखन और कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.
कथादेश में यात्रा संस्मरण, कवितायेँ, इंडिया मैग, बिंदी बॉटम (अँग्रेज़ी) में निबंध/रचनाएँ प्रकाशित,
प्रतिलिपि कविता सम्मान (समीक्षकों की पसंद) 2017.
सम्पर्क: ranjanamisra4@gmail.com