समकालीन जनमत
कविता

पूनम सोनछात्रा की कविताएँ प्रेम और दर्शन के महीन सिरे हैं

नवीन रांगियाल


कई बार मैं महसूस करता हूँ कि कविताएँ किसी की नींद की तरह होनी चाहिए. उसकी धड़कन की हल्‍की आवाज़ें महसूस करने की तरह. ठीक जैसे कोई नवजात बगल में सो रहा है और हम उसे छुए बगैर उसके मुस्‍कुराते हुए चेहरे को देखते रहे. कविता सिर्फ हमारे आसपास एक बेहद महीन और नाज़ुक उपस्‍थिति दर्ज कराती हुई हमारे साथ चलती रहे. उनमें कोई लाउडनेस न हो, कोई अराजकता न हो, और वो अपने गहन अर्थों में वो सारी बातें कहती जाए जो भी कवि कहना चाहता है. पूनम सोनछात्रा की कविताओं में मुझे इसी तरह के महीन, नाजुक और मौन तत्‍व महसूस होते हैं.

शायद इसलिए वे उच्‍चारण को भी दोष मानती हैं, इसलिए एक कविता में वे कहती हैं कि

‘मोक्ष की तरफ़ क़दम बढ़ाते
किसी समाधिस्थ तपस्वी की तरह
पुकारो उसे हौले-हौले
क्योंकि छोड़ कर जाते हुए
प्रियतम का नाम
ज़ोर से पुकारने से लगता है
उच्चारण दोष’

यह कविता इस बात की गवाही है कि वे अपने किसी दुख, किसी विदाई, किसी अलगाव को भी आवाज में नहीं पिरोना चाहती हैं. उसे बगैर आवाज के ही देखना और लिखना चाहती हैं. वे अपने लेखन में बहुत मौन हैं.

पूनम की कविताएँ प्रेम के मामले में भी दैहिक नज़दीकी बरतने से बचना चाहती हैं, वो देह का परहेज़ करती हैं और मन के स्‍तर पर ही दर्ज होती हैं. उनकी कविताएँ पति को समाज का कोई गढ़ा हुआ परमेश्‍वर नहीं, बल्‍कि उसे साथी के रूप में देखना चाहती हैं, उन्‍हें ‘बातों का प्रेम’ चाहिए. वरियता के क्रम में भले को वो सबसे ऊपर हो, लेकिन जिंदगी में वो साथ नजर आए. उनकी कविताएं प्रेम की बहुत छोटी- छोटी आंकाक्षाओं से बिंधी नजर आती हैं. वे उन सारी आकांक्षाओं की कामना करती हैं, जो प्रेम के शुरुआती दौर में बर्ताव करने के लिए जानी जाती हैं. अपने प्रेम की सबसे परिपक्‍व अवस्‍था में भी वो बहुत शुरुआती और नाजुक मांग करती हैं कि उनका प्रेमी उन्‍हें ‘सुंदर’ कहे. वो बहुत बोलने वाला ‘बातूनी प्रेमी’ चाहती हैं.

कहीं न कहीं स्‍त्री के भीतर के बच्‍चे को निरंतर बचाए रखने की उत्‍कंठा भी है पूनम की प्रेम कविताएँ

हालांकि उनकी कविताएँ अपने भीतर एक तरह की कातरता भी महसूस कराती हैं. वे मानती हैं कि जैसे बोलने से ‘उच्‍चारण दोष’ लगता है, वैसे ही छूने से, स्‍पर्श से नींद और सुकून दोनों नष्‍ट हो सकते हैं. हालांकि पूनम यह सारी बातें अपनी कविताओं में बहुत धीमे से कहती हैं, इसीलिए उनकी कविताओं में कोई लाउडनेस नहीं है, कोई विद्वेष नहीं है किसी के प्रति, कोई बैर नहीं. वे सिर्फ अपनी तरफ़ की, अपनी तरफ़ से बात कहती हैं.

मसलन, अपने आत्‍म-सम्‍मान के लिए वो सबकुछ कर लेना चाहती हैं अपने साथ, उनका कवि हवा से, बारिश से, तितलियों से इंटरएक्‍ट करते हैं, यहाँ तक कि वे अपने लिए एकांत चुनने को भी तैयार हैं, लेकिन उस आदमी के प्रेम का हिस्‍सा नहीं होना चाहती, जिसके प्रेम में उनके आत्‍म-सम्‍मान को ठेस पहुंचे.

‘प्रेम में देह और देह में प्रेम’ यह कई लोगों के चिंतन का विषय रहा है, इनमें ज्‍यादातर वे लोग शामिल हैं, जिन्‍हें महसूस होता है कि प्रेम सिर्फ बोध में और भाव में स्‍थित है, प्रेम का विषय सिर्फ बोध और भाव हैं, वे प्रेम में देह के इस्‍तेमाल को प्रेम के नष्‍ट हो जाने की वजह मानते हैं. इसलिए जीवनपर्यंत यह उनके खोज का विषय बना रहता है कि शरीर प्रेम है या आत्‍मा प्रेम है. वे दो तत्‍वों के बीच झूलते रहते हैं. पूनम की एक कविता का ये अंश यही इशारा करता है.

मेरी चुप्पी एक ऐसे विस्मय और भीरूता की कारक थी
जहां मैं प्रेम में देह
और देह में प्रेम के अस्तित्व को लेकर
एक लंबे समय तक असमंजस में रही
शायद… अब भी हूँ

ज़ाहिर है, जहाँ प्रेम है वहाँ दर्शन भी उपस्‍थित होगा. पूनम की एक कविता प्रेम से लिए गए अंतराल और अवकाश में दर्शन की तरफ ही लौटती दीखती है. वे दुनिया में कई दृश्‍य देखती हैं, दृश्‍य के भीतर दृश्‍य. दृश्‍यों के कई शेड्स उनकी इस कविता में नजर आते हैं. आमतौर पर जहां देखना है, वहीं प्रेम है और दर्शन है. पूनम की कविताओं को प्रेम और दर्शन के बेहद महीन सिरे कहना कुछ गलत नहीं होगा.

 

पूनम सोनछात्रा की कविताएँ

1. अंतिम पुकार

धीरे
और धीरे पुकारो उसका नाम

कुछ ऐसे कि दलदल में धँसते हैं पैर
जैसे बिना बताए
हौले-हौले डूबता है सूरज, निकल आता है चाँद
और चाँदनी फूलों पर गिरती है
जैसे पत्तियों से ओस की बूँदें बरसती हैं

सर्दियों की रात झरते हरसिंगार सा
या गर्मियों के गुलमोहर सा सुर्ख़

भावनाओं के आवेग में पूरा डूबकर…
संसार की समस्त कामनाओं से होकर विरक्त
इकतारा की धुन पर अपने ही गीतों में मगन
किसी जोगी की तरह
या फिर
मोक्ष की तरफ़ क़दम बढ़ाते किसी समाधिस्थ तपस्वी की तरह

पुकारो उसे हौले-हौले

क्योंकि छोड़ कर जाते हुए
प्रियतम का नाम
ज़ोर से पुकारने से लगता है उच्चारण दोष

 

2. बातों का प्रेम

अनेक स्तर थे प्रेम के
और उतने ही रूप

मैंने समय के साथ यह जाना कि
पति, परमेश्वर नहीं होता
वह एक साथी होता है
सबसे प्यारा, सबसे महत्वपूर्ण साथी
वरीयता के क्रम में
निश्चित रूप से सबसे ऊपर

लेकिन मैं ज़रा लालची रही

मुझे पति के साथ-साथ
उस प्रेमी की भी आवश्यकता महसूस हुई
जो मेरे जीवन में ज़िंदा रख सके ज़िंदगी
संँभाल सके मेरे बचपने को
ज़िम्मेदारियों की पथरीली पगडंडी पर
जो मुझे याद दिलाए
कि मैं अब भी बेहद ख़ूबसूरत हूँ
जो बिना थके रोज़ मुझे सुना सके
मीर और ग़ालिब की ग़ज़लें
उन उदास रातों में
जब मुझे नींद नहीं आती
वह अपनी गोद में मेरा सिर रख
गा सके एक मीठी लोरी

मुझे बातों का प्रेम चाहिए
और एक बातूनी प्रेमी
जिसकी बातें मेरे लिए सुकून हो

क्या तुम जानते हो
कि जिस रोज़
तुम मुझे बातों की जगह अपनी बाँहों में भर लेते हो
उस रोज़
मैं अपनी नींद और सुकून
दोनों गँवा बैठती हूँ

 

3. पर ऐसा मन मिला…

याद करने के लिए कितनी बातें थीं
याद करने के लिए कितनी बातें हैं

कितने पल हैं
जिनके लिए ज़रा उचक कर
बार-बार चूम सकती हूँ तुम्हारा माथा
घंटों क्षितिज में देखते हुए
मन ही मन मुस्कुरा सकती हूँ
या फिर अपनी हथेली को अपनी ही हथेली से थाम कर
वह रेखा ढूंढते हुए
तुम्हारा नाम बुदबुदा सकती हूँ
जो मेरी हथेली में है ही नहीं

कितने पल हैं
जो छूटती हुई रूलाई को थामे खड़े हैं
अनगाए गीतों के संगीत तले आख़िरी साँसे गिनते हुए
बातों के वे हिस्से सुनने की फ़िराक़ में
जो स्टेशन के शोर तले दब-कुचलकर मर गईं

आवाज़ देने के लिए कितने मुहावरे हैं
दूरियाँ लाँघने के लिए
चिर-परिचित शब्दों के पुल राह तकते हैं
नेपथ्य में
आभासी मुलाक़ातों का एक कोरस
अपने गीतों के बोल तलाश रहा है

याद करने के लिए
कभी न ख़त्म होने वाली रात में
निमिष मात्र में बीत गई रातों की अनगिन स्मृतियाँ हैं
गहराते अँधेरे, छीजती संवेदनाओं, मद्धम पड़ती पुकार
और उनींदी आँखों में
जो याद नहीं है
वह एक पल जिसमें
संवादों से लहूलुहान अबोलापन छूट गया है

याद करने के लिए वर्तमान था
याद करने के लिए अतीत है

 

4. प्रेम का बदल अगर प्रेम नहीं होता

नहीं करती किसी आदमी से प्रेम
किसी पुराने तालाब में
कंकर-कंकर
गुडुप करती अपनी सारी कामनाएँ
कछुओं से सपने कहती
लहरों संग पकड़म-पकड़ाई का खेल खेलती
चाँद की चिरौरी कर रोक लेती अपने हिस्से का पानी
और फिर गहरे पानी में उतरकर
मछलियों की भाँति
पानी में पानी हो चुकी प्राणवायु
अपने भीतर सोखती

या किसी बूढ़े बरगद की जड़ों में
छोड़ आती अपने सारे प्रेम-पत्र
किसी शाम जब सूरज और अँधेरे के बीच की जंग
ज़रा जल्दी हार जाता सूरज
मैं बरगद के सारे पीले पत्ते इकट्ठे कर
उनसे एक हवा महल बनाती
तितलियों की परछाइयाँ पकड़ती
तने की कोटर में मुँह छुपा
कह डालती अपने सारे दुःख
आसमान से उतरती जड़ों से लिपटकर
अपने आँसुओं से उन्हें सींच देती

नहीं करती किसी आदमी से प्रेम
चुनती अपना एकांत
अपने सम्मान के साथ.

 

5. अपने होने से बेख़बर

दृश्य के भीतर अनेक दृश्य हैं
दृश्य के बाहर केवल एक

एक शब्द विकल्पों के अभाव से जन्मा
संसार का सबसे सुकूनदेह शब्द है
परंपराओं से परिपूर्ण
सोचने-समझने के श्रम से मुक्त
एक बँधी-बधाई लीक पर अनवरत चलता

किसी दृश्य को देखने का नज़रिया इतना आम है
कि किसी को देखते हुए देखने वाले के मन में भी
यही ख़याल आता है कि
देखने वाला देखते हुए
कुछ ऐसा ही सोच रहा होगा

दृश्य के बाहर रहना सहज है
और सरल भी
दृश्य के भीतर होना मुश्किलों से भरा हुआ है
दृश्य के भीतर इतने दृश्य हैं
हर एक दृश्य एक अलग समतल पर है
हर समतल का एक अलग आयाम है
और हर आयाम पर अनगिनत सीढ़ियाँ
समय की चौथी विमा के साथ
दृश्य के भीतर दृश्य बदलते हैं
दृश्य के भीतर का आदमी
बार-बार मरता और पुनर्जीवित होता है
बावजूद इसके
दृश्य के बाहर
दृश्य के सारे उतार-चढ़ाव अदृश्य रहते हैं

हम सब अपने-अपने दृश्यों में क़ैद हैं
और दृश्य के बाहर
समूचा संसार दर्शक है

 

6. छूट जाना

तुम्हारी बात के हर पूर्ण विराम के बाद
हमारे जीवन से
अल्प विराम के अंतराल जितना छूट जाती हूँ

छूट जाती हूँ घड़ी की दो सुइयों के टकराने के साथ
समूह का हिस्सा बनते-बनते रह जाती हूँ
हँसी की फुहार में भीगते हुए भी
नहीं जान पाती उसकी ठोस वजह
पानी में बहते तिनके सा छूट जाती हूँ
प्रेम के विशाल वट वृक्ष से

छूट जाती हूँ दूध में पानी सा
जब समय हंस बन मेरा शिकार करता है
आँख में किरकिरी बन छूटती हूँ
उड़ते गुलाल और भरी पिचकारी से जब
होली में रंग बरसते हैं
छूट जाती हूँ उदासी की मुस्कान सा
‘बहरहाल’ के बाद कहते-कहते रह गई
किसी अनकही बात सा छूट जाती हूँ
छूटती हूँ मुट्ठी से फिसलती रेत सा
सागर में मिलने से ठीक पहले
किनारे पर छूट जाती हूँ।

 

7. संपूर्ण अपूर्णता

मेरी अपनी कोई भाषा नहीं है
मैं अलग-अलग शहरों में पली-बढ़ी
और इस नाते
हर शहर की भाषा मुझ में ज़रा-ज़रा घुलती रही
कुछ ऐसे कि
किसी भी भाषा की मौलिकता क़ायम न रह सकी

मैंने मुझे मिलने वाली हर भाषा से वैसे ही किया प्रेम
जैसे एक बच्चा अपनी माँ से
अपनी मातृभाषा से प्रेम करता है
हर भाषा ने भी मुझे किसी अनाथ बच्चे की तरह दुलारा
अपने शब्दों में गढ़े मेरे आँसू
मेरी कभी न खिलने वाली मुस्कान को
कविताओं में एक उम्मीद दी

मैंने टुकड़ों-टुकड़ों में ज़िंदगी बुनी है
मैं अधूरी कतरनों का दस्तावेज़ हूँ
मुझे मेरे अधूरेपन में ही
संपूर्णता के साथ पढ़ना।

 

8. झुंझलाहट

यूँ तो इस झुंझलाहट के कई संभावित कारण हो सकते हैं
लेकिन इतना ज़रूर है
कि झुंझलाहट उस बात पर तो नहीं ही है
जिस पर प्रकट की जा रही है

बात की कितनी तहें होती हैं
पिछली तह से अगली तह तक
परत दर परत
कोमल और अधिक कोमल
और जितनी अधिक कोमल
उतनी ही साधारण
जैसे शिशु के रोने सी कोई आम घटना
लेकिन उतनी ही हृदय विदारक

तट पर बँधी नाव सा है जीवन
मन लहरों के साथ बहा चला जाता है
प्रवंचना के क्षण स्वयं के स्वप्नों से रक्तरंजित हैं
कुछ करने और न कर पाने के मध्य
होना और न होना संदिग्ध है
रूँधे गले से बुदबुदाती है आत्मा
अस्तित्वविहीन लोगों का आत्म विलाप है झुंझलाहट

झुंझलाते हुए लोगों को कभी भी
अभिधा में नहीं लिया जाना चाहिए
उन्हें हाथ पकड़कर
दिया जाना चाहिए घड़ी भर का अवकाश
सुना है कि
रोने से मन के दाग़ धुल जाते हैं

 

9. ऊब

ऊबने की कोई उम्र नहीं होती
न ही कोई निश्चित वातावरण
न ही कोई निश्चित अवस्था

इंसान बैठे-बैठे भी ऊब सकता है
दौड़ते-दौड़ते भी
थककर भी ऊब सकता है
और ख़ाली बैठकर भी
और तो और खाते-खाते और सोते-सोते भी ऊबा जा सकता है
(काम करते हुए ऊबना
इतनी सहज प्रक्रिया है कि
उसका ज़िक्र करना भी यहाँ बेमानी माना जाएगा)
जो परदेश में है
उसे घर की याद ऊबाती है
घर में रहने वालों को
नदी, पर्वत, जंगल और झरने पुकारते हैं
ग़रीब ऊब जाता है अपनी रोज़ की दाल-रोटी से
अमीर को तो रोज़ खाना खाने की प्रक्रिया ही ऊबा डालती है
ऊबती हैं घर की दीवारें
वही उदासी रोज़-रोज़ देखकर
घर के खिड़की-दरवाज़े
ऊब जाते हैं एक ऐसे इंसान का रास्ता देखते-देखते
जिसे उस दरवाज़े की चौखट पर कभी पाँव नहीं रखना

हम ऊबकर भटकते रहते हैं यहाँ-वहाँ
लेकिन जिसके भी पास जाते हैं
वह भी ऊबा हुआ होता है
हर इंसान अपनी-अपनी ऊब के तहत
अपनी-अपनी भटकन जी रहा है

ऊबने की प्रक्रिया में
हर सुधार में नए सुधार किए जाते हैं
लेकिन परिवर्तन के शाश्वत नियम के तहत
सुधार की गुंजाइश हमेशा ही बनी रहती है

पतझड़ की एक छोटी-सी झपकी भर में आता है बसंत
बिजली की एक चमक की तरह
दूज के झीने चाँद जैसा
सुंदर और कोमल
लेकिन पूनम के चाँद की तरह घटने के लिए अभिशप्त
जैसे स्वयं के अस्तित्व से ही ऊब रहा हो
जब ऊब जाता है बसंत
तब पतझड़ आता है

पतझड़ कभी नहीं ऊबता…

 

10. भ्रम

प्रेम की सबसे सहज शर्तों में से एक था
मेरा उसकी भाषा में अनुवाद

मैं एक कुएँ की तरफ़ टकटकी बाँधे देख रही हूँ
जबकि मेरी पीठ के पीछे
लहराते समुद्र की नमकीन लहरें
मेरी देह पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए विकल हैं

मैं संवादो की सीमा को लाँघ जाना चाहती हूँ
उत्तरों के प्रत्युत्तर
आमने-सामने लगे दर्पणों की तरह
अंतहीन प्रतिबिंबों का भ्रम पैदा करते हैं

मेरी कोशिश है कि
किसी तरह भी मासूमियत को बचा लिया जाए

मैं हौले-हौले
स्वयं में सिमटने की कला सीख रही हूँ

लेकिन उदास रात के आख़िरी बिंदु पर
मेरा सब्र टूटता है
और मैं एक ऐसे दरवाज़े पर दस्तक देती हूँ
जिसके पीछे एक अँधेरी घाटी है
मेरा प्रेमी मुझसे कहता है,
“मेरा हाथ पकड़ो..
इस अँधेरे के उस पार जगमगाता सूरज है”

मैं भ्रम में हूँ
कि जैसे जिये जा रहे ये पल महज़ एक स्वप्न हों

घाटी के उस पार
कहीं किसी धुंधली रोशनी में
दो रास्ते अलग-अलग दिशाओं में जाते हुए दिखाई देते हैं

यह कहना मुश्किल है
कि प्रेम और अवसाद
एक दूसरे के मित्र हैं अथवा शत्रु

 

11. चिर प्रतीक्षित

रात्रि उतनी ही लंबी है
जितनी लंबी है तुम्हारी प्रतीक्षा

मैं आहटों का कारोबार करती हूँ
प्रत्येक आहट कल्पनाओं एवं स्मृतियों के नये द्वार खोलती है
जिसके बदले में
मैं आधी-अधूरी कविताएँ बुनती हूँ

मुझे सितारे टूटने का नहीं
जुगनुओं के खो जाने का भय है

आधी रात
चाँद, सितारों संग आँख-मिचौली खेल रहा है
जितने तुम स्मृतियों में दूर हो
कल्पनाओं में उतने ही पास दिखाई देते हो

कभी-कभी लगता है कि
प्रेम छुपाछुपी के खेल से अधिक कुछ भी नहीं है

 

12. उपस्थिति

मुझे जहाँ होना चाहिए मैं वहीं थी

विडम्बना यह है कि
मैं वहाँ होकर भी वहाँ नहीं थी

मैने सब देखा, सुना, मुस्कुराई और
तालियाँ भी बजाई

लेकिन हक़ीक़त में
मैंने न कुछ देखा, न सुना, न मुस्कुराई
बस केवल तालियाँ ही बजाई

इस होकर भी न होने के क्रम में
आश्चर्य यह है कि
मैं कहीं भी नहीं होती

मेरा यह न होना
शायद मेरे होने तक यूँ ही क़ायम रहेगा

 

13. भूल

एक दिन मैंने अपने सारे दुःख उसे कह दिए

और उसके बाद

यह बात मेरे जीवन का
सबसे बड़ा दुःख बन गई

 

14. आज़ादी मुबारक

कुल मिलाकर ग्यारह बरस की उम्र रही होगी
जब एक रात
एक बंद अँधेरे कमरे में
मैंने एक तेज़ चाँटे की आवाज़ सुनी थी
तब तक मैं ‘वैवाहिक बलात्कार’ के साथ-साथ
‘बलात्कार’ शब्द से भी अपरिचित थी

बढ़ती उम्र ने
स्पर्श के अलग-अगल रंगों से परिचय करवाया
और साथ ही सिखाया
सिमटना और चुप रहना

मुझे अक्सर
पिता, भाई, मित्र, प्रेमी, पति, पड़ोसी और सहकर्मियों के चेहरे
आपस में गड्डमड्ड प्रतीत होते रहे

मेरी चुप्पी एक ऐसे विस्मय और भीरूता की कारक थी
जहाँ मैं प्रेम मे देह
और देह में प्रेम के अस्तित्व को लेकर
एक लंबे समय तक असमंजस में रही
शायद…अब भी हूँ

बावजूद इसके मैंने चुना
एक महानगर में अकेले रहकर नौकरी करना
अपने सपनों को जीना
और साथ ही साथ
प्रेम में होना
(हालाँकि इसे मेरा दुस्साहस ही समझा जाए)

मेरे ‘मौन’ और तथाकथित ‘अहंकार’ के बीच एक बेहद महीन रेखा रही
मेरे ‘आत्मसम्मान’ और तथाकथित ‘उच्छृंखलता’ की परिभाषाएँ लगभग एक सी थीं
ठीक वैसे ही जैसे मेरा सफल होना मेरी ‘चरित्रहीनता’ का पर्याय था

एक लंबा अरसा बीत चुका है
देह तब भी बंधन थी…अब भी बंधन है

मैं इस कतिपय आज़ादी में
आज़ादी की अपनी परिभाषाएँ आज भी तलाश रही हूँ
शायद कभी मैं ख़ुद से भी कह सकूँ
आज़ादी मुबारक

 

15.  सुनना ज़रूरी है

यद्यपि यह उसकी रूचि का विषय नहीं था
लेकिन फिर भी वह सुन रहा था

कभी-कभी वक्ता
कथ्य से अधिक महत्वपूर्ण होता है
ठीक वैसे ही
जैसे शब्दों से अधिक महत्वपूर्ण होता है
बात करने का लहजा
मंज़िल से अधिक ज़रूरी हैं बेहतर रास्ते
और ख़ूबसूरत रास्तों से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है
किसी अपने का साथ

सुनने से ज़्यादा ज़रूरी है
कहने वाले की मनोदशा समझना

संवेदनाएँ साक्षी हैं कि
सबसे उदास मौसमों में ही
सबसे सुंदर और उम्मीद भरी
कविताएँ लिखी गई हैं


कवयित्री पूनम सोनछात्रा, जन्म 7 अप्रैल 1982
जन्मस्थान : भिलाई छत्तीसगढ़
शिक्षा : एम. एस. सी. गणित, बी. एड.
दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना के अंतर्गत काव्य संग्रह ‘एक फूल का शोकगीत’ का प्रकाशन प्रस्तावित
अनेक पत्र-पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन
रेख़्ता पर ग़ज़लों का प्रकाशन
भारत भवन के कार्यक्रम ‘दिनमान’ में काव्य पाठ
नीलांबर कोलकाता के वार्षिकोत्सव लिटरेरिया में काव्य पाठ
‘शाम-ए-रेख़्ता’ कोलकाता में ग़ज़लों का पाठ

संप्रति : दिल्ली पब्लिक स्कूल
कोलकाता में गणित की शिक्षिका

सम्पर्क: poonamsonchhatra@gmail.com

 

टिप्पणीकार नवीन रांगियाल का जन्म 12 नवम्बर मध्यप्रदेश के इंदौर में हुआ। वे पेशे से पत्रकार हैं। नईदुनिया, लोकमत समाचार, प्रजातंत्र और दैनिक भास्कर जैसे राष्ट्रीय अखबारों में सेवाएं दे चुके हैं। फिलहाल दुनिया के सबसे पहले हिंदी पोर्टल वेबदुनिया डॉट कॉम इंदौर में असिस्‍टेंट एडिटर के पद पर कार्यरत हैं।

कविता और गद्य में विशेष रुचि। उनके आलेख, कविताएँ कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।

राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन। अपने ब्लॉग ‘औघटघाट’ पर इंडियन क्लासिकल और वेस्टर्न म्यूजिक पर भी नियमित लेखन। पत्रकारिता के साथ ही साहित्‍य में रचनात्‍मक लेखन के लिए उन्‍हें मध्‍यप्रदेश के स्‍टेट प्रेस क्‍लब के ‘शब्‍दऋषि’ पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया जा चुका है। उनकी कहानी ‘आवाज’ को ‘बिंज हिंदी’ के नेशनल राइटिंग कॉम्‍पिटिशन में एडिटर्स च्‍वॉइस से पुरस्‍कृत किया गया। नवंबर 2022 में उनका पहला कविता संग्रह ‘इंतजार में आ की मात्रा’ सेतु प्रकाशन दिल्‍ली से प्रकाशित हुआ है।

संपर्क: नवीन रांगि‍याल, 68, रजत जयंती कॉम्‍पलेक्‍स, स्‍कीम नंबर- 54, विजय नगर, इंदौर, मप्र

मोबाइल : 98930-93169

ईमेल: navin.rangiyal@gmail.com

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