कौशल किशोर
‘लड़ो/अन्तिम सांस तक लड़ो/…..जिन्दगी से भागो नहीं/जिन्दगी की खातिर लड़ो/लड़ो/क्योंकि लड़ना ही/जिन्दगी की अन्तिम संभावना है।’
आज की कविता का मुख्य स्वर व्यवस्था विराधी है। प्रेम नन्दन की कविताओं में इसे बखूबी देखा जा सकता है। एक और बात, व्यवस्था विरोध के साथ मजदूर और किसान की जैसी उपस्थिति यहां है, वह उनकी पीढ़ी के कम कवियों में मिलती है। इसके साथ यहां लोकजीवन और अपने परिवेश व स्थानीयता का रंग भी है। वे इस वर्ग विभाजित समाज की सच्चाई को समझते हैं। इसमें उन्हें किसका पक्ष लेना है, किसके हित में संघर्ष करना है, ये बातें स्पष्ट है। जहां श्रमिक वर्ग के प्रति अथाह प्रेम है, वहीं शोषक वर्ग के प्रति नफरत का भाव है। ‘मेहनतकश आदमी’ ऐसी ही कविता है जिसमें श्रमिक की मनःस्थिति का चित्रण कुछ इस तरह हुआ है:
‘पेट की आग से ज्यादा तीव्र होती है
काम करने की भूख उसकी
सबसे ज्यादा डरावने होते है वे दिन
जब उसके पास करने को कुछ नहीं होता है’
पूंजीवादी व्यवस्था लूट और झूठ की व्यवस्था है। वह इन्हीं पर टिकी है। वह श्रमिकों को लूटती है। यह व्यवस्था अपनी लूट को छिपाने के लिए तरह तरह के झूठ की रचना करती है। छल, छदम, पाखण्ड इसके हथियार हैं। प्रेम नन्दन लूट और झूठ की इस शोषक व्यवस्था पर चोट करते हैं। ‘कौन हैं वे लोग’ की शिनाख्त करते हैं जो भूख, गरीबी, अभाव पैदा करते हैं। कवि चाहता है कि लोग इस सच्चाई को समझे कि किसान अपना एक-एक बूंद पसीना बहाकर फसल पैदा करता है और क्यों उसे भूखे सोना पड़ता है? जो गगनचुम्बी इमारत बनाते हैं, उन्हें आसमान के साये में क्यों जिन्दगी गुजर-बसर करनी पड़ती हैं ? प्रेम नंदन ‘खामोश आंखों की भाषा’ पढने वाले कवि हैं। ये श्रम करने वालों की आंखें हैं जिन्हें खामोश किया गया है। इसी से उनकी वैचारिकी निर्मित होती है तथा इसी पर खड़े होकर वे अपने समय में हस्तक्षेप करते हैं, समस्याओं से रू ब रू होते हैं। उनके सौंदर्य बोध का निर्माण भी इसी से होता है। अपनी प्रतिबद्धता और संकल्पबद्धता को वे इस तरह व्यक्त करते हैंः
सुनना हो श्रमजीवी गीत
चखना हो स्वाद पसीने का
माटी की गंध सूंघनी हो
कष्टों को गले लगाना हो
वे ही आएं मेरे पास’
इसी सौन्दर्य और माटी व पसीने की गन्ध का विस्तार ‘धान रोपती औरतें’ में है। कविता का आरम्भ ही बिम्बों की खूबसूरत लड़ियों से होता है। मनमोहक दृश्य से कविता शुरू होती हैः
‘बादलों को ओढे हुए
कीचड़ में धंसी हुई
देह को मोड़े कमान-सी
उल्लासित तन-मन से
लोकगीत गाते हुए
रोप रही धान
खेतों में औरतें
अपना श्रम सीकर
मिला रही धरती में’।धान रोपती औरत के श्रम में समूचे समाज का सुखमय भविष्य है। धरती भी एक क्षण के लिए नहीं बैठती। वह भी श्रमिक की तरह क्रियाशील रहती है। औरत और धरती में यह समानता है। प्रेम नन्दन की कविताओं में स्त्री, उसका जीवन तथा संघर्ष की उपस्थिति है। वे ‘आधी आबादी के सच’ को सामने लाते हैं तो वहीं यह उनकी उम्मीद है जिसमें वे कहते हैं ‘कभी तो टूटेगी उनकी खामोशी’। प्रेम नन्दन की यह समझ है कि समाज की वे शक्तियां जो मुख्य संचालक हैं, आज हाशिए पर ढकेल दी गयी है। उनमें श्रमिक हैं, स्त्रियां हैं, दलित हैं, गरीब-गुरबा है। यह कवि का आशावाद है जिसमें वह उम्मीद नहीं छोड़ता। वह जानता है कि ये बिखरे हैं, बंटे हैं। जाति, धर्म, क्षेत्र, संप्रदाय आदि के आधार पर उन्हें विभाजित किया गया है, उनकी एकता को खंडित किया गया है। कवि को उनकी ताकत पर भरोसा है। वह कहता हैः
‘उन्हें नहीं मालूम
कि जिधर भी देखेंगी वे
निर्जीव हो जायेंगे अंधेरे ……
जब भी उठेंगे उनके हाथ
उनके कंधे पर उग आयेंगे करोड़ों हाथ
आखिरकार कभी तो टूटेगी ही
उनकी खामोशी’मनुष्य सपने देखता है – अच्छे भविष्य के और बेहतर दुनिया के। उसके सपने में वे भी सभी होते हैं जो मानव जीवन से जुड़े हैं। कवि जानता है कि जीवन पर संकट है अर्थात लोभ, लाभ, लालच के लिए जीवन को नष्ट किया जा रहा है। पेड़ कट रहा है और इसका कटना स्वप्न को खत्म किया जाना है। यह कवि का आशावाद है कि वह पेड़ों की जड़ों में जीवन को देखता है। उसी तरह फूलों की पंखुड़ियों मे। कवि का सपना क्या है ? मुक्त समाज, समता का समाज। यह सत्य है कि आज जिस तरह पाखंड, छल, छदम, आडंबर, जात-पात, सांप्रदायिकता, छुआछूत जैसे मनुष्य विरोधी मूल्यों को सामाजिक मूल्य बनाया जा रहा है, ऐसे में बेहतर और समतामूलक समाज को विचारों मे, कविता में जिंदा रखना होता है। कवि का सपना यही है कि प्रतिकूलता के बीच भी उस स्वप्न को जिंदा रखा जाए, नहीं कहीं तो अपनी रचनाओं मे। इतिहास इस बात का गवाह है कि काले व अंधेरे के दिनों में जब अभिव्यक्ति से लेकर मानव स्वतंत्रता को बाधित किया गया, उस वक्त कविता में कहा गया ‘जुल्मतों के दौर में क्या गीत गाये जायेंगे/हां, ज़ुल्मतों के बारे में भी गीत गाए जाएंगे’। (ब्रतोल्त ब्रेख्त)। प्रेम नंदन भी कहते हैं –
कुछ सपने जिंदा है अब भी’
यह कवि की उम्मीद है। वह इस उम्मीद को जिन्दा रखता है, जिलाए रखता है।
प्रेम नन्दन की कविताएँ
व्यवस्था की चक्की में पिसकर
आत्महत्या कर लेना
अपने बच्चे बेच देना
पलायन है संघर्षों से
सरासर कायरता है
अपमान है जिन्दगी कालड़ो
अंतिम साँस तक लड़ो
भूख से कुलबुलाती आँतों के लिए लड़ो जुल्म से टूटती साँसों के लिए लड़ो
पसीने की एक-एक बूँद के लिए लड़ोअपने सम्मान-स्वाभिमान के लिए लड़ो जिंदगी से भागो नहीं
जिन्दगी की खातिर लड़ोलड़ो
क्योंकि लड़ना ही
जिंदगी की अंतिम सम्भावना है।
मेहनतकश आदमी
वह घबराता है निठल्लापन सेबेरोजगारी के दिनों का खालीपन
कचोटता है उसको
भरता है उदासी
रोजी-रोटी तलाश रही उसकी इच्छाओं मेंपेट की आग से ज्यादा तीव्र होती है
काम करने की भूख उसकीसबसे ज्यादा डरावने होते हैं वे दिन
जब उसके पास करने को कुछ नहीं होतारोजी-रोटी में सेंध मार रही मशीनें
सबसे बड़ी दुश्मन हैं उसकी
साहूकार, पुलिस और सरकार
यहाँ तक कि भूख से भी
वह नहीं डरता उतना
जितना डरता है।
मशीनों द्वारा अपना हक छीने जाने से।
3. वे ही आएँ मेरे पास
मांसल देह के आलिंगन
तीखे और तेज परफ्यूम
मादक दृश्य पॉप संगीत
वे न आएँ मेरे पासजिन्हें देखना हो संघर्ष
सुनना हो श्रमजीवी गीत
चखना हो स्वाद पसीने का
माटी की गंध सूँघनी हो
कष्टों को गले लगाना हो
वे ही आएँ मेरे पास।
कीचड़ में धंसी हुई देह को
मोड़े कमान-सी
उल्लासित तन-मन से
लोकगीत गाते हुए
रोप रहीं धान खेतों में औरतेंअपना श्रम-सीकर
मिला रहीं धरती में
जो कुछ दिन बाद
सोने-सा चमकेगा
धान की बालियों में
पूरे समाज के
सुखमय भविष्य का
सुदृढ़ आधार है
इनका यह वर्तमान पूजनीय श्रम!
लाखों गुना अच्छा है
मेहनत का खुरदुरापन !सैकड़ों सौन्दर्य प्रसाधनों से लिपे-पुते
दुनिया के सबसे हसीन चेहरे से
लाखों गुना अच्छा है
धूल, मिट्टी और पसीने से सना
मजदूर का चेहरा !दुनिया भर की लफ्फाजी करती
दंभ भरी ,
बजबजाती आवाजों से
बहुत अच्छी है
अपने मेहनताने की आस में
टुकुर-टुकुर झरती
खामोश आँखों की भाषा !
6. आग भरो ठंडे शब्दों में
बढ़ने दो भाषा का ताप
ठंडी भाषा,
ठंडे शब्द,
हो जाते हैं घोर नपुंसक
इनसे बढ़ता है संताप।अगर भगाना है अँधियारा
और बदलना है माहौल
तो कवि सुनो
बात ये समझो
आग बिना गूँगे हैं शब्द
बिना ताप भाषा निर्जीव !आज समय की मांग यही है-
आग भरो ठंडे शब्दों में
बढ़ने दो भाषा का ताप…!
की लोकोक्ति को
अपने पक्ष में खड़ा करके
चादर छोटी ही होती रही
पैरों से हमेशा ।बाहर न निकल जाएँ
चादर से
इस कोशिश में
कई-कई बार
कटना पड़ा पैरों को
चादर में अटने के लिए द्यअब और कटने को तैयार नही पैरों की
खुली चुनौती है-
चादर अब छोटी होकर तो देखे
पैर भी कम जिद्दी नहीं हैं
भय, भूख, और भ्रष्टाचार के खिलाफ !हम हो रहे थे एकजुट
आम आदमी के पक्ष में
पर उन लोगों को
नहीं था मंजूर यह !
उन्होंने फेंके कुछ ऐंठे हुए शब्द
हमारे आसपास
और लड़ने लगे हम
आपस मे ही !
वे मुस्कुरा रहें हैं दूर खड़े होकर
और हम लड़ रहें हैं लगातार
एक दूसरे से
बिना यह समझे
कि यही तो चाहते हैं वे !
9. निर्जीव होते गांव
चिल्ला रही हैं खुरपियाँ
फावड़े चीख रहे हैं ।
कुचले जा रहे हैं
हल, जुआ, पाटा,
ट्रैक्टरों के नीचे ।धकेले जा रहे हैं गाय-बैल,
भैंस-भैसे कसाई-घरों में ।धनिया, गाजर, मूली, टमाटर,
आलू, लहसुन ,प्याज, गोभी ,
दूध ,दही, मक्खन, घी,
भागे जा रहे हैं
मुँह-अँधेरे ही शहर की ओर
और किसानों के बच्चे
ताक रहे हैं इन्हें ललचाई नजरों से !गाँव में
जीने की ख़त्म होती
संभावनाओं से त्रस्त
खेतिहर नौजवान पीढ़ी
खच्चरों की तरह पिसती है
रात-दिन शहरों में
गालियों की चाबुक सहते हुए ।गाँव की जिंदगी
नीलाम होती जा रही है
शहर के हाथों ;
और धीरे- धीरे …
निर्जीव होते जा रहे हैं गाँव !
10. दूषित होती ताजी साँसे
मेरे गाँव की ताजी साँसे
हो रही हैं दूषित
सूरत, मुंबई, लुधियाना में…लौट रहीं हैं वे
लथपथ,
बीमारियों से ग्रस्त
दूषित, दुर्गन्धित ।उनके संपर्क से
दूषित हो रही हैं
साफ, ताजी हवा
मेरे गाँव की !
11. सपने जिंदा हैं अभी
मर नहीं गए हैं सब सपने ,
कुछ सपने जिंदा हैं अभी भी !एक पेड़ ने
देखे थे जो सपने
हर आँगन में हरियाली फ़ैलाने के ,
उसके कट जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसकी कटी हुई जड़ों में ।एक फूल ने
देखे थे जो सपने
हर माथे पर खुशबू लेपने के,
उसके सूख कर बिखर जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसकी सूखी पंखुड़ियों में ।एक तितली ने
देखे थे जो सपने
सभी आंखों में रंग भरने के ,
उसके मर जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसके टूटे हुए पंखों में ।एक कवि ने
देखे थे जो सपने
सामाजिक समरसता के,
आडंबर, पाखंड, जात-पात, छुआछूत से
मुक्त समाज के ,
उसके मार दिए जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसकी रचनाओं में ।मर नहीं गए हैं सब सपने ,
कुछ सपने जिंदा हैं अभी भी !
12. सबसे बेहतरीन कविता
जिस दिन
दूब बनकर उगेगी
हमारे भीतर
बुद्ध की बेचैनी
और हम
अपनी समस्त इन्द्रियों की
सजगता सहेजकर
उठ खड़े होंगे
उस दिन टपकेगी
उजाड़ और बंजर जमीन पर
इस दुनिया की
सबसे बेहतरीन कविता।
कवि प्रेम नंदन जनपद फतेहपुर (उ0प्र0) के एक छोटे से गाँव फरीदपुर में जन्म।
शिक्षा एम0ए0 (हिन्दी), बी0एड0, पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा। लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से। दो-तीन वर्षों तक पत्रकारिता करने तथा तीन-चार वर्षों तक भारतीय रेलवे में स्टेशन मास्टरी और कुछ वर्षों तक इधर-उधर भटकने के पश्चात सम्प्रति अध्यापन।
कविताएं, कहानियां, लघुकथाएं, समीक्षा, लेख आदि का लेखन और हिंदी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं, ई-पत्रिकाओं एवं ब्लॉगों में नियमित प्रकाशन।
दो कविता संग्रह ‘सपने जिंदा हैं अभी’ और ‘यही तो चाहते हैं वे’ प्रकाशित।
टिप्पणीकार कौशल किशोर, कवि, समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व पत्रकार
जन्म: सुरेमनपुर (बलिया, उत्तर प्रदेश), जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में प्रमुख.
लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक।
प्रकाशित कृतियां: दो कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ तथा ‘नयी शुरुआत’। कोरोना त्रासदी पर लिखी कविताओं का संकलन ‘दर्द के काफिले’ का संपादन। वैचारिक व सांस्कृतिक लेखों का संग्रह ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘शहीद भगत सिंह और पाश – अंधियारे का उजाला’ प्रकाशित। कविता के अनेक साझा संकलन में शामिल। 16 मई 2014 के बाद की कविताआों का संकलन ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ और प्रेम, प्रकृति और स्त्री जीवन पर लिखी कविताओं का संकलन ‘दुनिया की सबसे सुन्दर कविता’ प्रकाशनाधीन। समकालीन कविता पर आलोचना पुस्तक की पाण्डुलिपी प्रकाशन के लिए तैयार। कुछ कविताओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
मो – 8400208031)