आलोक रंजन
सोनू यशराज की अधिकांश कविताएँ किताबों को समर्पित हैं और शेष स्त्री प्रश्नों से जुड़ी हुई । किताबों के माध्यम से रचनाकार ने एक ऐसी दुनिया के सृजन की कोशिश की है जिसमें सबकुछ ठीक होने की उम्मीद है । किताबें उम्मीद और ज़्यादातर बार आदर्श और बचाव के एकमात्र साधन के रूप में पेश हुई हैं । किताबें भेदभाव नहीं करती , वे अकेलेपन की साथी हैं, उनसे दुनिया बेहतर हो सकती है और ऐसा न हो तो वे ख़यालों व कल्पना की दुनिया देने की क्षमता रखती है ।
इन कविताओं को पढ़ते हुए किताबों की असीमित संभावनाएँ सामने आती हैं साथ ही, वह उन तथ्यों को अनदेखा करती भी दिखती हैं जहाँ किताबों ने ही भेद पैदा किए । सोनू ने अपनी कविताओं के माध्यम से किताबों की जिस दुनिया को हमारे सामने रखा है वह एक रेखीय नहीं बल्कि तमाम संभावनाओं से लैस है । वहाँ किताबों के होने से जितने सुखद परिवर्तनों की उम्मीद है उतनी ही उनकी उपेक्षा से पनपती आशंका भी । हमारा समकाल किताबों को कैसे देखता है यह हमारी रोज़ की गतिविधियों में स्पष्ट हो जाता है । आज हम तकनीक और जान लेने के तुरंता तरीकों पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं जो किताबों की ओर लौटने का मौका ही नहीं देता । वहाँ सब कुछ तैयार माल के रूप में उपलब्ध है लेकिन ज्ञान प्राप्त करने की यह सरलता उस प्रक्रिया और मेहनत को भोथरा बना चुकी है जिसमें धारणीयता और विश्वसनीयता थी ।
कवयित्री इन सबसे निकलने के लिए भी किताबों की ओर ही देखती हैं ।
जिंदा करती है कोई अच्छी किताब
जिंदगी में संतुलन रच देती किताब
रचनाकार ने बेहद वाजिब तरीके से किताबों की मार्फत रोज़मर्रा की वे दिक्कतें बताने की कोशिश की है जो आम तौर होते हुए भी नज़रों से ओझल रहती हैं । उनका इतना सामान्य होना कि उधर ध्यान ही न जाये ।
“ठीक उसी वक्त एक लड़की के भविष्य के बारे में
उसके पिता ने सुना दिया है
उसे किताबों से दूर ले जाता हुआ एक फैसला”
लड़की के भविष्य के सारे फैसले सहजता से कोई और कर सकता है और पाश की शब्दावली लेकर कहें तो वह हमारी ‘आँखों को नहीं चुभता’ । लड़की की एजेंसी को यूं हस्तगत करते हुए उसके लिए सारे फैसले करना रोज़ ब रोज़ हमारे सामने होता है और हमें उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता । ‘किताबें और लड़की’ शीर्षक कविता पढ़ते हुए दुनिया को देखने के दो तरीके मिलते हैं । लेकिन यह इतनी सरलता से विभाजित होती नहीं दिखती । उन तरीकों का एक दूसरे में प्रवेश और वहाँ बना रहना निरंतर चलता रहता है ।
पर लड़की पढ़ती थी
ऐसा जो विराट कर दे उसकी दुनिया
इस कड़ी की सभी कविताओं को एक बड़े शीर्षक के अंतर्गत रखा जा सकता है । ऐसा न केवल उनके ‘फॉर्म’ बल्कि उनकी कथ्य – क्रमबद्धता को देखकर भी लगता है । सरसरी तौर पर देखने से ये कविताएँ लंबी कविता ही लगती हैं ।
सोनू यशराज ने किताबों को केंद्र में रखकर उस बहस को फिर से सामने रखा है जिसमें पढ़ने की संस्कृति और पढ़ने से संभव हो सकने वाले परिवर्तन महत्वपूर्ण हैं ।
इन कविताओं के अतिरिक्त स्त्री संवेदनाओं से जुड़ी कुछ कविताएँ भी हमारे सामने आती हैं । इनमें सामाजिक सोच और मान्यताओं के तयशुदा ढर्रे में बंधी स्त्री का जीवन चक्र दिखता है , जहाँ उनके लिए अवसर तो हैं ही नहीं ऊपर से रूढ़िबद्ध जीवन का दारुण बोझ भी लगातार बना रहता है । इन कविताओं में इन सबसे निकलने और अपनी तरह के समाज के निर्माण व परिवर्तन की मजबूत संभावना के स्वर को भी देखा जा सकता है ।
आज बुद्ध के सामने बैठी ये स्त्री
तटस्थ होकर खोद देगी एक दिन
देखना तुम्हारी रूढ़ियों की जमीन
इन कविताओं की ऊपरी सतह हटाकर देखा जाये तो इनमें आदर्शवाद का पुट दिखता है । यह आदर्शवादिता संसार को व्यवस्थित करने और एक हद तक नैतिक बनाने की समझ से आती है । यहाँ वर्तमान मूल्यों के मूर्त रूपों के प्रति खीज और असंतोष है । इसी के बरक्स यह आदर्श निर्मित हो रहा है ।
समताविहीन संवेदनहीन समाज में
स्त्री बुद्ध हो जाना चाहती है
यहाँ दी गयी कविताओं में एक कविता है ‘खब्बू’ । स्त्री के लिए वामांगी शब्द प्रयोग किया जाता है । यह शब्द प्रयोग पुरुष के परिप्रेक्ष्य में स्त्री को रखता है और उसी के हिसाब से स्त्री को सामाजिक रीति – रिवाजों में बांधने और रखने का चलन भी है । यह कविता उसे बख़ूबी सामने लाती है।
बाएं को मिली हर गाली
जमा होती है सदियों से
स्त्री के खाते में
सोनू की ये कविताएँ अभिव्यक्ति के विस्तार में जाती हैं लेकिन इनमें गहरायी में उतरने की संभावना रह जाती है । वर्तमान स्थितियों से उपजा असंतोष आदर्श में अपने उत्तर तलाशने की कोशिश करता है इससे इन कविताओं में नैतिकता की ओर झुकाव आना स्वाभाविक हो जाता है । सामाजिक यथार्थ से टकराकर ही उसके जवाब मिल सकते हैं । ये कविताएँ अपने भीतर उस संभावना को लाने से चूकती हैं ।
इन कविताओं की भाषा सरल है और भाषिक प्रयोग चमत्कृत भले ही न करें लेकिन अपने कथ्य को व्यक्त करने में पूरी तरह सक्षम दिखते हैं । कथ्यपरक होने से इन कविताओं का शिल्पगत सौन्दर्य प्रभावित होता है लेकिन समग्रता में वह व्यक्ति भावों के सापेक्ष ही प्रतीत होता है । ये कविताएँ अपने भीतर कथ्य और शिल्प की खूब सारी संभावनाएँ समेटे हुए हैं इन्हें उनके परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है ।
सोनू यशराज की कविताएँ
1. किताबें -एक
किताबें कभी नहीं पूछतीं
तुम्हारे दुनियावी रिश्तों का गणित
नहीं तोलती नातेदारों की तरह
तुम्हें अर्थ के तराजू में
और तो और मानती हैं तुम्हें साधु
न जात पूछती हैं ,न ही रखती हैं
स्त्री पुरुष के खाँचे में
ये जिल्द वाली और
बिना जिल्द वाली किताबें
कभी नहीं बंधी सामाजिक दायरे में
फिर भी बांधती हैं अपने मोहपाश में
किताबों के साथ
अकेला कहाँ होता है आदमी !!
2. किताबें –दो
मैंने देखा कई बार
शीशे वाली दीवार के पार
किताबों की दुकान पर बैठा आदमी
अकेले में बतियाता है.
मैंने भी की हैं
मैक्सिम गोर्की और अमृता प्रीतम से बातें
कितनी बार शमशेर बहादुर और महादेवी के साथ
जिया है मौन को
निर्मल वर्मा से चला बरसों एकालाप
इतिहास से जीवित होती भारतेंदु की मल्लिका
और कितने प्रिय लेखकों के पात्रों के
संग – साथ अनगढ़ जीवन जिया मैंने
पात्र और घटनाएं सजीव होती रहीं
यात्राओं में भी साथ साथ
परदेस गए पति के इंतजार में
रविन्द्र की नायिकाएं वास्तव में थी
हमारे ही आसपास
जैसे हर तारीख गवाह हो
ऐसे गवाक्ष बने अज्ञेय के पात्र
चेखव और ब्रेख्त भी जिंदा रहे
बहुतों के साथ कॉफी हाउस के प्यालों में
शेक्सपियर के नाटक
सरहद पार कर पहुँचे
बाँटने अकेलापन
गाँव के सारे बैल, होरी
और कमली जैसी छोरी
लगते रहे दूर दराज के शहर भी अपने से
किताबों की बदौलत
ये अपनी यायावरी के किस्से सुनाती रही
तुम्हारे मन की फितरत को पनाह देती
किताबें अनजाने प्रेमपत्रों सी होती हैं
कभी पता नही बदलती
3. किताबें –तीन ( चोरी )
म्यूजियम, बैंक या किसी शानदार पार्टी से
कड़ी सुरक्षा के बीच हीरा चोरी की रोमांचक खबर
हर कोई सुनता है ठिठक कर
हर कालखण्ड में धूम मची रहती है ऐसी फिल्मों की..
मैं चाहती हूँ
दुनिया की तमाम लाइब्रेरियों से चोरी हों किताबें
गली के शोहदों के कारण
नही जा पा रही शाम की लाइब्रेरी में
मंजुला, नीमा, अरुणिमा
चोरी की गयी कुछ किताबें
भिजवा दी जाएं उनके घर
ताकि उनका घर बन जाए दुनिया
कुछ किताबें अनाथालयों, वृद्धाश्रमों की चौखट पर भी
छोड़ दी जाएं चुपचाप
ताकि वहाँ बीसियों बार पढ़ी गयी
जर्जर किताबें मुक्ति पा सकें
कुछ किताबें भिजवा दी जाएं जेल के भीतर
ताकि सजायाफ्ता कैदी सोच सकें
इतनी भी बुरी नही है ये दुनिया
कुछ किताबें गाँवों की
स्कूल लाइब्रेरियों में भिजवाई जाएं
आप जानते ही हैं
उन्हें जगह भी आवंटित है और रैक भी
कुछ किताबों को पहाड़ ,खेत में भी छितरा देना चाहिए
गडरिये के किस्से खत्म होने को हैं
और खेतों की मुंडेर पर बैठे बच्चों की टोली को चाहिए
अपने सपनों के लिए कोई नई कहानी
कुछ किताबें उस दर पर क्यों न पहुंचे
जहाँ आते हैं सिर्फ रूप के ग्राहक
कुछ किताबों को ठेले पर,
गलियों में ले जाकर देनी चाहिए हाँक
ताकि लोग जान- मान सकें
किताब को रोजमर्रा की सबसे ज़रूरी चीज
ये हीरे जैसी किताबें कब तक प्रतीक्षा करेंगी
लाइब्रेरियों में हमारी
इनके पास पंख हैं
इन्हें उड़ कर जाना चाहिए हर जगह…
(यह कविता छह भारतीय भाषाओँ में अनूदित हुई है-मराठी ,कन्नड़ ,सिन्धी ,पंजाबी ,राजस्थानी ,संस्कृत और अंग्रेजी )
4. किताबें –चार
मेरे हाथ में किताब है
जो पढ़ रही है मेरा मन
जैसे कोई पढ़ता है
आँखों को बिना बोले बिना तोले
जब मैं मुस्कुराते हुए पढ़ रही हूँ किताब
ठीक उसी वक्त एक लड़की के भविष्य के बारे में
उसके पिता ने सुना दिया है
उसे किताबों से दूर ले जाता हुआ एक फैसला
कहीं किसी शहर में एक पिता ने बेच दी हैं
अपने लड़के की प्रिय किताबें
अपनी शाम का इंतजाम करने के लिए
एक सौतेली माँ ने रख दी हैं परछत्ती पर किताबें
और सो रही देर तक
सुबह के पानी की फ़िक्र किये बिना
एक परिवार ने बनाने शुरू कर दिए हैं,
किताबों से थोक के भाव में लिफ़ाफे
परदेस गए अपने पति के प्रिय लेखक की
कुछ किताबें रद्दी में दी हैं
एक पतिव्रता स्त्री ने अभी-अभी
मेरे अपने गाँव में
चूल्हे को समर्पित की हैं
काकी ने कुछ किताबें
मेरे आसपड़ोस की दुनिया में
किताबें कम होती जा रहीं हैं
और मुस्कुराहटें भी
किताबें होती हैं एक जिंदा शै
देखा नहीं कैसे फड़फड़ातें हैं पन्नें
झपट्टा मारते हैं बाज की तरह
शब्द तुम्हारी आँखों में, और कौंधतें हैं मन में विचार
किताब साथ होने के मायने जानता है
कल साइकिल चलाते हुए पैर तुड़वा बैठा एक लड़का
और तीन महीने बाद काम पर निकले उसके अभिभावक .
बगल में रहने वाला उसका खिलंदड़ा दोस्त ,स्मार्ट टीवी और फोन
ये सब उस अकेले लड़के का दुःख नही उठा पाएंगे ,
तब वो उठाएगा किताबें
बचपन की एलबम वाली किताबों से
अब तक की साइंस फिक्शन वाली किताबें
अजनबियों से भी बदलेगा खिड़की से किताबें
स्कूल छुड़ा दी गयी महावर रची लड़की
नुक्कड़ की दुकान से पढ़ेगी
कृष्णा सोबती, ममता कालिया की कहानियों की किताबें
वो पढ़ेगी दीवार फांदना मुश्किल है तो क्यों न
खिड़की पर पाँव धर लिए जाएं
किताब के बने लिफाफों को पढ़ता
हाथ फिराता दसवीं फेल लड़का
पिता की परचून की दुकान पर बैठा
अब इनसे प्रेम कर बैठेगा
घर से भागा लड़का स्टेशन पर भेलपुरी रखे कागज में
तलाशेगा अपनी किताबें
उधर उसकी माँ कथाकार सत्यनारायण की डायरी पढ़
जानना चाहेगी उसका मन
और इधर रैक में रखी उदास किताबों को देख
सोच रहें होंगे नगर के तमाम लाइब्रेरियन
महामारी में देनी थी चार किताबें ज्यादा
मेरे हाथ में अब भी किताब है
और मैं मुस्करा रही हूँ !
5. किताबें –पाँच
औंधे मुँह गिरती थीं सोफे पर
कभी सीने पर आँखें मूंदे
सपनों में भी चल देती थीं साथ
आज शेल्फ में सजी किताबें
अधिकतर घरों में सबसे गैरजरूरी हैं
क्या करें वक्त नहीं है पढ़ने का
कभी फुर्सत से पढ़ेंगे
अपना स्मार्ट फोन पल-पल देखते
गैर जरूरी ज्ञान में गोते लगा रहे हैं
पर आज भी संतुलन बनाना हो
तो अपने सर पर किताबें रख
पैयां पैयां चलते हैं
मोबाइल पर लाइव, वीडियो, मूवी चलाते ही
लेते किसी मोटी किताब का सहारा
जिंदा करती है कोई अच्छी किताब
जिंदगी में संतुलन रच देती किताब
इंतजार करती हैं तुम्हारा
कि शामिल कर लो
आत्मा के इस भोजन को
अपनी रोज़ाना की आदत में
पूछो अपनों से ,अपने मेहमानों से
एक कप चाय और हो जाए की तरह
मनुहार कर
लो अब ये किताब भी पढ़ो
आज देखना गौर से
शेल्फ में सजी बंद किताबों को
वे खुलीं तो
खिलेगा ये जहां !!
6. किताबें और लड़की
लड़की किताबें ज्यादा पढ़ती थी
लड़का रखता था दीन दुनिया की ख़बर
लड़की जब किताब बंद करती तो किरदारों को खोजती
उसे बाहरी दुनिया में साम्य दिखता
बेशक अक्सर नहीं भी
पर लड़की को मालूम था किताबें झूठ नही बोलतीं
और लड़के को मालूम था
किताबों से बाहर होती है
एक और दुनिया
लड़की परीकथाएं नहीं पढ़ती थी
न ही मनोहर कहानियां
पर लड़की पढ़ती थी
ऐसा जो विराट कर दे उसकी दुनिया
तिरोहित कर दे भीतर बैठा अनजान डर
और मानती थी
मुश्किलों ,तकलीफों के बावजूद
ज़िन्दगीं फिर भी खूबसूरत है!
7. पाँव के अंगूठे से जमीन कुरेदती स्त्री
बुद्ध के ठीक सामने श्रावस्ती के विशाल प्रांगण में
नीचे मुंह किये बैठी एक मौन स्त्री
पाँव के अंगूठे से जमीन कुरेदती है
ये स्त्री अभी-अभी सह कर आई है
तीक्ष्ण निगाहों के चाबुक
क्यों -कहाँ -कब तक चली सवारी
जैसे जुमलों के जवाब देकर
ये स्त्री कल जब अबोध कन्या थी
तब चपल हिरनी सी ,भय और सीमाओं से परे
थी उर्जा और चेतना का पुंज ,सभी को तरंगित करती
फूलों में सुवास, बादल में पानी ,पंछियों में गीत और जीवन में संगीत
इसी की पुलक से थी सभी में जीवन की ललक
आज बुद्ध के सामने बैठी ये स्त्री
तटस्थ होकर खोद देगी एक दिन
देखना तुम्हारी रूढ़ियों की जमीन
8. स्त्री बुद्ध हो जाना चाहती है
संवेदनाओं के धरातल पर समृद्ध
सृष्टि की सबसे समर्थ शक्ति
प्रेम की सुवास से उर्वर ह्रदय
गन्धर्व गान सा अनूठा कंठ
प्रकृति की प्रतिकृति
नाद ब्रह्म पर लयबद्ध
चंचल चपल उत्सवप्रिय आनंदमयी लय
विराट की दृष्टि से उपकृत
अकूत सम्भावनाओं से युक्त है हर स्त्री
पर सदियों से रूढ़ियों के नश्तर
चुभते हुए आडम्बर ,अप्रासंगिक रीतियाँ-नीतियां
देहरी की परिधि के चक्र में
व्यक्तिमत्ता को नकार कर रचते सत्ता का अंतहीन ताना-बाना
समताविहीन संवेदनहीन समाज में
स्त्री बुद्ध हो जाना चाहती है
किसी भी जातक कथा में
बुद्ध नही “स्त्री”
पर स्त्री बुद्ध होना चाहती है
9. खब्बू
बाएं गाल पर तिल वाली लड़की
मानी जाती है
सुंदर और सौभाग्यवती
बाएं हाथ से हर काम करती
नई दुल्हन को मिलती है
ससुराल की तिरछी नज़र
बाएं पैर को पहले आगे बढ़ाती
गर्भवती स्त्री की चाल बाँच देती है
मनु के कुछ अलिखित नियम
बायीं कमर पर
लचक खायी एक औरत
देर तक निहारती है
कान्हा की त्रिभंगी मुद्रा
बाएं कंधे के दर्द को सहलाती स्त्री
दर्ज करती है विद्रोह कविता के पन्ने पर
बाएं को मिली हर गाली
जमा होती है सदियों से
स्त्री के खाते में
बाएं हाथ में मौली बंधवाती स्त्री
मुस्करा कर छोड़ देती है चावल
दाएं हाथ की मुट्ठी से
10. पहली बूंद नीली थी
वह मुझे बादल सौंपती थी मैं उसे बारिश
कल आकाश ने मुझसे कहा
वह छिटकाता था प्यार के बीज
मैं हरी हो जाती थी
कल धरती ने मुझसे कहा
मैंने उसे चाँद की किरणें दीं और सूरज की रोशनी भी
मेरी स्थिरता और उसकी चपलता
हम एक दूजे के लिए ही बने हैं
तारे मेरी आँखें हैं .मैं रोज उसे खरबों आंखों से ताकता हूँ
कल आकाश ने मुझसे कहा
उफ मैं उसे हर बहाने ताकती हूँ
उसका नीलापन मोह लेता है
उसे देख मेरा सागर नीला हो जाता है और नदी का उत्स भी उजला
मेरे पहाड़ उसको छूना चाहते हैं और पेड़ भी कोशिश करते रहते हैं
कल धरती ने मुझसे कहा
मेरा ब्रहांड उसके आँचल के सामने बौना है
उसके भीतर छुपे हैं
असंख्य रत्न, अनेक बीज
रत्न के लिए चीरते हैं उसकी छाती
और बीज खुद ब खुद फाड़ देता है
उसका सीना
उफ मैं सह नही पाता
उसका सहना, तपना और ये सिलसिले
तब मैं रोता हूँ
और हो जाती है बारिश
(कवयित्री सोनू यशराज, 14 जुलाई 1969 को राजस्थान के हनुमानगढ़ में जन्म !
शिक्षा – एम् काम ,पत्रकारिता एवं जनसंचार में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा
अनुभव – सूचना शिक्षा एवं संचार विशेषज्ञ के रूप में सहायक निदेशक के पद पर कार्य का अनुभव , पूर्व में राजस्थान पर्यटन विभाग में बतौर ट्रेवल राइटर एम्पेनल्ड ! प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए विशेष विज्ञापन अभियान का निर्माण !
लेखन की सभी विधाओं से सरोकार !
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, ई मैगजीन , ब्लॉग में कविताएँ ,कहानी,डायरी अंश ,संस्मरण प्रकाशित. आकाशवाणी व दूरदर्शन से जुड़ाव ! विभिन्न भारतीय भाषाओँ में कविताएँ अनूदित !
प्रकाशित काव्य संग्रह –पहली बूंद नीली थी
सम्प्रति – स्वतंत्र लेखन व यायावरी
सम्पर्क सूत्र : sonuyashraj5@gmail.com
टिप्पणीकार आलोक रंजन, चर्चित यात्रा लेखक हैं, केरल में अध्यापन, यात्रा की किताब ‘सियाहत’ के लिए भरतीय ज्ञानपीठ का 2017 का नवलेखन पुरस्कार ।)