राणा प्रताप
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‘भविष्य उन लोगों का होगा जिन्हें आधुनिक समाज की आत्मा की पकड़ होगी और अत्यंत परिशुद्ध सिद्धांतों को छोड़कर जीवन की अपेक्षाकृत तार्किक और संवेदनशील समझदारी को अपनाएंगे।’ – एमिल जोला।
कवि रामेश्वर प्रशांत सामाजिक संरचना के बहुस्तरीय आयामों को पहचानते थे। पुराने किसी खाके से मुक्त होकर सामाजिक संरचना का अवलोकन करने की क्षमता रखते थे।
वे छात्र-जीवन से ही रैडिकल धारा के साथ जुड़ चुके थे। उन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ मार्क्सवाद-लेनिनवाद के स्कूल से ख़ुद को जोड़ा था। उन्होंने मन ही मन जैसे संकल्प कर लिया था कि मार्क्सवाद के रास्ते पर चलकर समाज और साहित्य की सेवा करनी है। दो साल पहले 6 जून 2019 का उनका निधन हुआ।
प्रगतिशीलता और जनवाद से आगे नव-जनवाद की बात करना तब शायद अपने-आप में खतरे से खाली नहीं था जब रामेश्वर प्रशांत ने इसे अपनी कविताओं का स्वर बनाया।
नक्सलबाड़ी के किसानों ने जो क्रांति की मशाल जलाई थी उसके प्रति नौजवानों में एक ख़ास किस्म का आकर्षण था। वसंत का वज्रनाद एकबारगी सभी खर-पतवारों को किनारे लगाने लग गया था। तेलुगु भाषा के क्रांतिकारी कवि श्री श्री ने जब कविता की क्रांतिकारी धारा को चिन्हित किया तो कई भाषाओं की सरहदें टूटने लगीं। एक साथ तेलुगु, बंगला, हिंदी, पंजाबी, मराठी आदि भाषाओं में सड़ी-गली व्यवस्था के विरुद्ध क्रांतिकारी कविताएं और कहानियां लिखी जाने लगीं।
कविता के इसी प्रवाहमान धारा के क्रांतिकारी कवि एवं एक्टिविस्ट साथी रामेश्वर प्रशांत हैं। उन्होंने कभी न झुकने और न टूटने की कसम खाई थी। इस कसम को उन्होंने ताजिंदगी निभाया। तनिक उफ् तक नहीं की। उनकी निष्ठा, ईमानदारी और प्रतिबद्धता के हम सब कायल हैं। क्या ही खूब कहा था उन्होंने – ‘चलिये जब तक चलना है/दीप – शिखा – सा जलना है।’ सतत् चलने की बात नोबेल पुरस्कार प्राप्त गीतकार बाॅब डिलान ने भी की थी। सतत चलना ही तो जीवन है, गति है, संघर्ष है। इससे भागकर आप कहां जाएंगे?
रामेश्वर प्रशांत सिर्फ एक संवेदनशील कवि ही नहीं, बल्कि एक योद्धा और चिंतनशील प्राणी भी हैं। उनकी चिंता बहुत दूर तक फैली हुई है। समाज के तमाम रिसते जख्मों का उन्हें पता है। क्या अतीत, क्या वर्तमान और क्या भविष्य के सुनहले सपने – एकता, पहल और संघर्ष!
‘चिड़िया’ शीर्षक कविता का उल्लेख कई मित्रों ने किया है। इस कविता पर गंभीर बातचीत बेहद ज़रूरी है। खासतौर से कविता का अंतिम तीन पैरा अत्यंत महत्वपूर्ण है. कवि सवाल करता है – ‘ओ चिड़िया! तुमने तो नहीं बेधा है किसी मनु-पुत्र को/अपने तीक्ष्ण चोंचों से कभी/तुमने तो नहीं लूटी है/किसी की खुशियां। सुख-शांति कभी/तुमने तो नहीं उजाड़ा है/किसी का भरा-पूरा घोंसला कभी’। वाबजूद इसके कवि का अगला सवाल उस चिड़िया से – ‘ओ चिड़िया! ये निर्मम मनु-पुत्र/हमेशा ही करते रहते हैं तुम्हारा शिकार/मिटाते रहेंगे अपनी क्षुधा/तृप्त होते रहेंगे उनके स्वार्थ!’
शोषण-उत्पीड़न का यह जो अंतहीन सिलसिला है आखिर कब तक चलता रहेगा? निर्दोष और मासूम लोग कब तक उसका ग्रास बनते रहेंगे? कवि ने यहां मनु पुत्रों का जिक्र करके अतीत की गांठों को भी खोलने की कोशिश की है। इससे आगे कविता के अंतिम पैरा में एक संदेश देने की कोशिश भी है, जैसे – ‘ओ चिड़िया! तुम आओ/एकजुट हो चहचहाओ/मुक्त आकाश में विचरो-गाओ/हिंसक मनु-पुत्रों को/अपनी तीक्ष्ण चोंचों से बेधों अपनी रक्षा करो/ओ चिड़िया! ओ चिड़िया! ओ चिड़िया!’
यह सिर्फ दाल का दाना लाने वाली चिड़िया की कहानी नहीं है, बल्कि बहुसंख्य शोषितों-उत्पीड़ितों के यथार्थ जीवन के अति संवेदनशील चित्र हैं। साथ ही एक ‘आह्वान’ है। इस शब्द पर हमारे आलोचक अथवा समीक्षकगण हाय-तौबा मचाते हैं। कहते हैं, एक अच्छी संवेदनशील कविता में राजनीति आ गई। अरे, भाई! राजनीति कोई बुरी चीज थोड़े ही है कि उसके आते ही कविता अस्पृश्य हो गई?
लातिन अमरीकी लेखक एदुआर्दो गालेआनो ने कितना सही कहा है कि ‘‘मुझे बस मानव इतिहास में से एक ऐसे लेखक का नाम बता दीजिए जो राजनीतिक नहीं था।’’ हिंदी आलोचना में राजनीतिक कविताओं के प्रति एक उपेक्षा का भाव रहा है। राजनीतिक कविताओं पर बातचीत करने की कोई कसौटी ही अब तक विकसित नहीं हुई है। इससे राजनीतिक कविताओं का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। जबकि सभी लोग जानते हैं कि ‘शुद्ध कविता’ जैसी कोई चीज नहीं होती। अब तो आपकी चमड़ी का रंग और सोचने का तरीका भी राजनीतिक हो चुका है। यह बात यहां मैं इसलिए कह रहा हूँ कि रामेश्वर प्रशांत की अगली लंबी कविता है, ‘शुरू हो जाएगी एक और नई कविता।’ यह कविता पूरी तरह एक राजनीतिक सवाल से उलझती है। मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने इस कविता के बारें में ठीक की कहा है, ‘‘यह एक महत्वपूर्ण महाकाव्यात्मक गरिमावाली कविता है, जिसमें यथार्थ और विडम्बना-बोध अपने सघन रूप में किसी महत्तर आख्यान की तरह वर्णित है।’’ कविता शुरू ही होती है राजनीतिक विडम्बनाओं के बारे में तेज-तर्रार सवालों से – ‘कितने नारे/कितने झंडे/कितने शोर-शराबे/ये नारे, ये झंडे/ये जुलूस/ये प्रदर्शन/कहां ले जाएंगे ये ?’
फिर अचानक मुक्तिबोध की कविताओं की तरह सवाल का स्वरूप बदल जाता है – ‘कितनी बार ठगा गया हूं मैं/इन नारों, इन झंडो से/उफ! कितनी बार और ठगा जाऊंगा/ये फिर आएंगे/ये फिर आएंगे मेरे पास/मुझे नोच खाएंगे।’ जलते-सुलगते यथार्थ का चित्र तेजी से बदलता है। कवि को लगता है, उसे बोध होता है – ‘हर बार मैंने भेजा है इन्हें/संसद विधानसभा में/अपनी सुरक्षा के लिए/अपना प्रतिनिधि मान/किंतु ये कीड़ों की तरह रेंगते/बंदरों की तरह कूदते रहे/और उन्होंने मुझे फेंका है हमेशा ही/अंधेरे घने जंगलों में/या असुरक्षा के रेगिस्तानों में।’
सुरक्षा के लिए उन्हें अपना प्रतिनिधि मान संसद और विधान सभाओं में भेजा। लेकिन मिला क्या? भय, असुरक्षा और अपमानकारी जीवन! उन्होंने हमेशा हमें अंधेरे घने जंगलों में फेंका है या जलते हुए रेगिस्तान में बूंद-बूंद पानी के लिए तड़पने के लिए छोड़ दिया है। यह है हमारी सत्तर साला आजादी का सबब! हमने कहा था, ‘मशाल जलाओ। भेड़िया भाग जाएगा।’ लेकिन आज- ‘आदमी की शक्ल के भेड़िए/सच, इस चलते रथ के/ये सब ही तो पहिये हैं/जिस रथ ने कुचला है/मेरी मां को/मेरे पिता को/मेरी पत्नी को/मेरे पुत्र को /और मेरी मासूम इच्छाओं को/इसने रौंदा है उगते पौधों को/भरे-पूरे खलिहान को /इसके खुरों से चिथड़ा-चिथड़ा हो गया है देश/देश, जो मुझे बहुत-बहुत प्यारा है!’
कवि का सामाजिक मनोविज्ञान देश की इस दुर्व्यवस्था तक आते-आते जैसे रक्त से लथपथ हो जाता है। लेकिन वह हारता नहीं। उसका आशावाद एक बार पुनः पूरब की लालिमा की ओर मुड़ जाता है, जैसे – ‘मैं पूरब की ओर मुड़ जाना चाहता हूं/नईं किरणों के साथ होना चाहता हूं/नई शुरूआत देखना चाहता हूं/मेरी आशा/मेरा विश्वास/मेरा सब कुछ/उगते सूरज में अटक गया है।’
और यह अटकाव तभी छूटेगा जब कोई बड़ी टकराहट होगी यानी क्रांति होगी, या कोई बड़ा विस्फोट होगा। तब निश्चय ही ज्योति फूटेगी और सारा पथ ज्योतित हो जाएगा। हालांकि कवि को युद्ध से नफरत है, महाभारत की विभीषिका से भी नफरत है लेकिन अगर जबरन उस युद्ध में फेंक ही दिया जाता है तो उसे यह पक्का विश्वास है कि जो पैदा करते हैं जोंक या जहरीले कीड़े सभी के सभी उस महाविस्फोट में खत्म हो जाएंगे और तब देश-देशांतर में घूमेगी कविता। हर आदमी तक पहुंचेगी कविता। शुरू हो जाएगी एक और नई कविता।
कवि का कविता पर इतना भरोसा सीधे नेरूदा से जा जुड़ता है। नेरूदा ने साफ शब्दों में कहा था, ‘‘मुझे बिकाऊ सपनों पर नहीं कविता पर भरोसा है। केवल कविता ही अतांन्द्रियदर्शी होती है।’’ पाब्लो नेरूदा पर ‘पाब्लो नेरूदा’ शीर्षक से रामेश्वर प्रशांत की एक मार्मिक कविता है जो मां को सम्बोधित है – ‘मां, मुझे ऐसा लगता है/कि अपने यहां भी एक दिन/पाब्लो नेरूदा मारा जाएगा/इतिहास एक बार फिर दुहराया जाएगा।’ इतना ही नहीं, नेरूदा के साथ-साथ ‘सदी का सूर्यास्त’ नामक संकलन में नागार्जुन, बेंजामिन, शमशाद सहर और सर्वहारा के सर्वप्रसिद्ध नेता लेनिन पर भी अत्यंत संवेदनशील और विचारपरक कविताएं शामिल हैं। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि रामेश्वर प्रशांत की कविताएं इन्हीं कवियों की क्रांतिकारी परंपरा की कविताएँ हैं।
रामेश्वर प्रशांत की कविताएँ
1. मेरी कविता
पाक चढ़े धागे की तरह
जब कोई बात पक जाती है
तब कविता जन्म लेती है
मेरी कविता
जो इतिहास बदलने की मशीन का
एक पुर्जा बनना चाहती है
कई कई बार लाल भाटि्ठयों में पकती है
खेतों में खटने वाले किसानों के पास दौड़ती है
आधा पेट खाकर
काम करने वाले मजदूरों से बतियाती है
और उनका चारण बन जाना चाहती है
और जिनकी अपनी धरती नहीं
कोई घर नहीं
कोई देश नहीं
अपना कोई भविष्य नहीं
पूरब के क्षितिज की ओर
देखती रहती है वह एकटक
ताकि उगते सूरज की अगवानी कर सके
क्योंकि वृद्ध सूरज मर चुका है!
मर चुका है!!
मर चुका है!!!
2. पाब्लो नेरुदा
मां, तुमने तो पाब्लो नेरुदा का नाम
सुना नहीं होगा न!
वह भी तुम्हारे बेटे की तरह ही
एक अच्छा आदमी था
और/एक अच्छा कवि भी था मां
एक अच्छे समाज की
कल्पना में जीता था
कविता उसकी
आदमी के दर्दों की कविता होती थी
और दर्दीली जिंदगी को
वह अपनी सहानुभूति का अमृत रस देता था
ऐसा ही आदमी था वह
और ऐसा ही कवि भी था मां!
पर मां
उसने एक भूल कर दी थी
कि साथी अलेंदे के साथ
दुश्मन के संसदगृह को अपना घर समझ
उसमें बैठ झूम-झूम
प्रगति गीत गाने लगा था
अपना मन बहलाने लगा था
आदमखोर पशुओं को छुट्टा छोड़ रखा था
विषधर नागों को दूध दिया करता था
पर यह सब तो उसकी अतिशय सहानुभूतिशील
होने के कारण था मां!
मां, आदमखोर पशु कभी अपने नहीं हो सकते
विषधर नागों पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता
मां, उसके उन्हीं आदमखोर पशुओं ने उसे मार डाला
उन्हीं विषधर नागों ने उसे डंस लिया
पाब्लो नेरुदा अब नहीं रहा
पाब्लो नेरुदा अब नहीं रहा
मां!
अपने यहां भी जो पाब्लो नेरुदा है
जो बर्फ के पहाड़ की तरह जमी हुई
दर्दीली जिंदगी को काटने के लिए
तेज – धारदार कविताएं लिखते हैं
उन्हें कभी गरीबी हटाएंगे के झूठे नारे
कभी समाजवाद लाएंगे के मिथ्या संकल्पों को
रटते हुए/वे घेरने लगे हैं
एक खतरनाक साजिश होने लगी है, मां!
मां, मुझे ऐसा लगता है
अपने यहां भी एक दिन
पाब्लो नेरुदा मारा जाएगा
इतिहास एक बार फिर दोहराया जाएगा
और तब मैं तुमसे कहने चलाऊंगा मां
लो, अपना पाब्लो नेरुदा मारा गया न!
3. चिड़िया
सुबह/बहुत सुबह
जब भोर का कुहासा नहीं फटता
सूरज की लाल डिम्भी
आकाश की धरती पर नहीं फूटती
चिड़िया चाहती हुई
मुझे जगाने चली आती है
उसका चहचहाना
मुक्त आकाश में उड़ना
उड़ती पतंग की तरफ बल खाना
कितना अच्छा लगता है
किंतु जब कोई उसे
अपने गन की गोलियों का निशाना बनाता है
उसके पंख बेजान हो जाते हैं
वह आर्तस्वर में चीखकर भूशायित हो जाती है
तब मेरे भीतर भी चीखें गूंजने लगती है
दर्दों का पारावार उमड़ पड़ता है
चीखें/जिन्हें मैं गीतों में गाता हूं
दर्द/जिन्हें कविताओं में लिखता हूं
ओ चिड़िया!
तुमने तो नहीं बेधा है किसी मनु पुत्र को
अपनी तीक्ष्ण चोंचों से कभी
तुमने तो नहीं लूटी है
खुशियां/सुख शांति कभी
नहीं उजाड़ा है भरा पूरा घर-घोंसला कभी
ओ चिड़िया!
ये निर्मम मनु पुत्र
हमेशा ही करते रहेंगे तुम्हारा शिकार
मिटाते रहेंगे अपनी क्षुधा
तृप्त होते रहेंगे उनके स्वार्थ
ओ चिड़िया?
तुम आओ
एकजुट हो चहचहाओ
मुक्त आकाश में विचरो-गाओ
हिंसक मनु पुत्रों को
अपनी तीक्ष्ण चोंचों से
अपनी रक्षा करो
ओ चिड़िया! ओ चिड़िया! ओ चिड़िया!
4. जाने कुछ खो गया
(जनकवि नागार्जुन की मृत्यु पर)
नागार्जुन
एक शख्सियत
संघर्षशील व्यक्तित्व का नाम
प्रिय था जिसे हरदम
व्यवस्था विरुद्ध युद्धरत आवाम
सरल सहज जीवन था उसका
उसकी कविता सा बोधगम्य
न कोई तामझाम था
न सुरुचिकर श्रृंगार
अजस्र नदी सा निरंतर प्रवहमान
वह जन कवि था
जन जन का कवि
जनता की आकांक्षाओं की तस्वीर
अपनी कविताओं में उतारता था
उनकी पीड़ाओं के गीत गाता था
कविताएं उसकी
जन जन की आंखों की पुतलियां थीं
शोषित पीड़ित जन समुदाय की शिराओं में
वह भरता रहता था वह ओज-उष्मा
करता रहता था उष्ण रक्त संचार
तरुणों में देखता था उज्जवल भविष्य
व्यवस्था जला डालने की आग
इसीलिए उन्हें
देता रहता था प्यार-पुचकार
वह जीवन पर्यंत
तप्त भट्ठी सा जलता रहा
जुल्म के खिलाफ
योद्धा-सा लड़ता रहा
वह जमीन का आदमी था
धरती का पुत्र
धरती का गीत गाते-गाते
वह सो गया
जाने कुछ हो गया।
5. वसन्त गीत
आओ रे S S
आओ मिल संग-संग
गायें गीत प्यार के
रितु है वसन्त की
दिन हैं बहार के
आओ रे S S
कोयलिया कूक रही
डाल-डाल डोल-डोल
तड़के से गूंज रही
बगिया में एक बोल
शर्बत-सी एक बोल
आओ रे SS
उघड़ रहे डाल-डाल
निकल रहे लाल पात
जैसे श्रमबाला का
गेहुंआ रंग गात-गात
जैसे इंजोर रात
आओ रे S S
नंगे-अधनंगे हैं
घूम रहे वक्ष तान
गलियों-चौराहों पर
गूंज रहे मुक्त गान
पाया है शिशिर-त्राण
आओ रे S S
6. बच्चे
बच्चे/परियों के देश में संचरण करते हैं
कल्पना के मोती बीनते हैं
सपनों की दुनिया में
दूर-बहुत दूर तलक
उड़ते चले जाते हैं
बच्चे बंदरों-सा कूदते हैं
चिड़ियों सा फुदकते-चहकते हैं
तितलियों सा यहां-वहां
उड़ते फहरते हैं
बच्चे उच्छल नदियों सा
किलकारियां भरते हैं
खिले फूल-सा
बिहंसते-खिलखिलाते हैं
अपने आसपास की दुनिया में खुशबू फैलाते हैं
वे निश्चिन्तता के आलम में जीते-जागते हैं
बच्चे सादा कागज होते हैं
हम उन पर सुंदर तस्वीरें बनाए
या अश्लीलता के चिन्ह उगाएं
यह हमारी मर्जी है
बच्चे भविष्य की आस होते हैं
धरती की हरियर घास होते हैं
उन्हें देख हृदय जुड़ाता है
मन क्या से क्या सोच जाता है
बच्चे मां की आंखों के तारे होते हैं
बच्चे बहुत बहुत प्यारे होते हैं।
7. सदी का सूर्यास्त
भूमंडलीकरण के बीच
अनेक स्मृतियों के साथ
हो रहा है सदी का सूर्यास्त
नहीं होगा अब वह शोरगुल कोलाहल
नहीं होगी वह चीख पुकार
नहीं होगा वह आर्तनाद-चीत्कार
सब कुछ बीते कल की बात हो जाएगी
फिर कभी नहीं लौटेगा वह कल
नदी की धार
जो पास से गुजर जाती है
वह कभी नहीं लौटती
अपने नाखूनों से
अपना चेहरा खरोंचती
लहूलुहान होती
फादर ग्राहम
और उनके मासूम बच्चों को
जिंदा जला दी
एक आतंक फैलाते
हमें भयातुर करती
यह सदी
फिर कभी नहीं लौटेगी
मौसमी हवा
जो हमें रोमांचित करती निकल जाती है
वह फिर कभी नहीं लौटती
हमारे सपनों की रंगीन तितलियां
बदहवास हो मौत का शिकार होती रहीं
पेटेंट होती रही हमारी चाहें
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिरफ्त में
फंसने लगी हमारी आकांक्षाएं
पिंजरबद्ध होने लगे स्वदेशी कपोत
हम नयी गुलामी की ओर अग्रसर हो
बढ़ने लगे हैं नई सदी की ओर
उस सदी को अलविदा कह
जो फिर कभी नहीं लौटेगी
जो घड़ी-पल
उष्मायित कर चले जाते हैं
वह फिर कभी नहीं लौटते।
8. वसन्त पंचमी के दिन
ओ वसन्त!
अभी कहां हुआ है शिशिर का अन्त?
तुम तो कहलाते हो ऋतुराज
हरते हो शिशिर का शीत-संताप
तुम्हारे आगमन की सूचना पा
उष्मायित होते हैं मन-प्राण
उल्लसित होता है जन-समुदाय
उन्मत्त हो
खेलने लगते हैं फाग
लोग-बाग
उड़ाने लगते हैं रंग-गुलाल
चतुर्दिक छा जाती है हर्षातिरेक की छटा
मदमस्त हो जाती है हवा
पर अभी तो दिखाई पड़ता नहीं कहीं
यह मनमोहक दृश्य मादक रंग
अभी नहीं हुआ है शिशिर का अन्त
ओ वसन्त!
अभी बहती है बर्फीली हवा
दिशाओं में छाई है ठिठुरन
दीन-दुखियों के कांपते हैं हाड़-मांस
आबाल-वृद्ध दुबक जाते हैं रजाई में
सरेशाम
सड़कें दीखने लगती हैं सुनसान
दुरा-दरवाजे पर
जलाने पड़ते हैं अब भी अलाव
कुहरावृत्त रहता है अब भी पूरा गांव
दादी मां अब भी रखती हैं
खाट तले आग जली बोड़सी
कहीं नहीं दिखती है शाम ढले षोडसी
अभी तो शिशिर का पाला
फैलाता है अग-जग में कसाला
ओ वसन्त!
अभी कहां आए हैं आम्र-तरुओं में बौर
कहां गूंजती है अभी तरु-कुंजों में कोकिला की कूक
कहां सुनाई पड़ते हैं भौंरों के गुंजार
अभी कहां खिली है
सूखे अधरों पर मुस्कान
अभी कहीं नहीं सुनाई पड़ते हैं
मादक गान
अभी कहां चले हैं मदन के पुष्प वाण
अभी तो है म्रियमाण
दिग-दिगंत
ओ वसन्त!
अभी कहां हुआ है शिशिर का अन्त।
(कवि रामेश्वर प्रशांत (जन्म 2 जनवरी 1940 – निधन 6 जून 2019)। गढ़हरा, जिला बेगूसराय (बिहार) में निवास। स्नातकोत्तर (पटना विश्वविद्यालय) के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ कर राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय। एकमात्र कविता संग्रह ‘सदी का सूर्यास्त” 2017 में प्रकाशित। आकाशवाणी, पटना व दरभंगा से रचनाओं का प्रसारण। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, बिहार के संस्थापकों में एक। जनवादी लेखक संघ, बेगूसराय द्वारा 2002 में शक्र साहित्य सम्मान, दिनकर काव्य रत्न सम्मान, ग्राम गौरव सम्मान आदि कई सम्मानों से सम्मानित।
टिप्पणीकार राणा प्रताप कवि कथाकार हैं और पटना से निकलने वाली पत्रिका ‘कथान्तर’ के संपादक हैं।
सम्पर्क: 9234763168)