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जाति के झूठे वर्णवादी आधारों का प्रत्याख्यान है बिल्लेसुर बकरिहा

बिल्लेसुर बकरिहा, निराला की चर्चित रचना है। विधा के बतौर इसे रेखाचित्र के रूप में भी रखा जा सकता है, लेकिन है यह एक उपन्यासिका के करीब। इसका रचना-समय 1941 ई. है। अर्थात,  1930-40 का दशक, जो आजादी की लड़ाई के साथ-साथ भारतीय समाज के भीतर के संघर्षों के उभरकर राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर आ जाने का समय है। निराला समय और समाज के इसी आलोड़न के बीच से एक कथा चुनते हैं।
बिल्लेसुर जाति के ब्राह्मण हैं, लेकिन वे जाति निर्धारित पेशे के वर्ण-अनुक्रम को भंग करते हैं।
“बिल्लेसुर जाति के ब्राह्मण हैं, ‘तरी’ के सुकुल हैं,  खेमेवाले के पुत्र खय्याम की तरह किसी बकरी वाले के पुत्र बकरिहा नहीं। लेकिन तरी के सुकुल को संसार पार करने की तरी नहीं मिली, तब बकरी का कारोबार किया।”

लेकिन बकरी के इस कारोबार तक बिल्लेसुर अचानक  नहीं पहुंचते।  निराला ने बिल्लेसुर  के जीवन-संग्राम  की एक-एक घटना और प्रसंग को ऐसा बुना है, कि उनसे जुड़ कर सामाजिक सत्य सहज तार्किक परिणति तक पहुँचता है।

बिल्लेसुर अपनी जीवन-स्थितियों और अनुभव से मनुष्य के मूल्य सत्य तक पहुंचते हैं। यह सत्य भौतिक जीवन स्थितियों की साधारण गतियों से निकलता है। इसी गति में बिल्लेसुर  तरी के सुकुल से बकरिहा होने में अपने झूठे जाति-बंधन के द्वन्द्व से पार पाते हैं।

भारत में वर्णवादी सिद्धांतों या ब्राह्मणवादी विचारधारा ने जो विभाजन और स्तर मनुष्य के बीच पैदा किया, उसने पीढ़ियों, सदियों तक के मानव-जीवन को नकली नैतिकता और मूल्यों से बांध दिया। लेकिन, इस बंधन को चुनौती इसी समाज में मिलती रही। और, इसीलिए वर्णों से बाहर असंख्य  जातियों का निर्माण हुआ।

अनेक ऐसी जातियाँ वर्ण-विभाजन से बाहर पड़ती थीं।  छठी-सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक ब्राह्मण वर्ण में वर्ण-धर्म  त्यागने के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। शिक्षा, दर्शन और पौरोहित्य से अलग पेशे अपनाये गये।

ब्राह्मणों ने पान और घोड़े का व्यापार शुरू कर दिया। खासकर गुजरात और मालवा के ब्राह्मणों ने। इसी तरह से क्षत्रियों में भी सैन्य काम छोड़कर धातुओं के व्यापार शुरू करने के उदाहरण मिलते हैं।

हालाँकि इनमें से कई  वर्ण-धर्म  से बाहर होकर भी  अपने वर्ण का दावा छोड़ने को तैयार नहीं हुए और एक नयी जाति के साथ वर्णव्यवस्था के ऊपरी पायदान में बने रहे। मजेदार यह कि ब्राह्मण वर्ण से अंतर्विरोधों के साथ।

लेकिन इनमें से कई ने वर्ण-विरोधी संप्रदायों का या तो निर्माण कर लिया या ऐसे संप्रदायों  की शरण में चले गये। सामाजिक-धार्मिक तनाव के साथ-साथ इस प्रक्रिया में यह भी हुआ कि एक ही वर्ण में कई जातियाँ अस्तित्व में आयीं और वे सब अपने को एक दूसरे से अलग मानने लगीं।

एक ही वर्ण और जातियाँ भौगोलिक क्षेत्र के हिसाब से भी अपने को अलग मानने लगीं। उनमें ऊँच-नीच, भेदभाव तथा वैवाहिक रिश्ते पर प्रतिबंध लगने लगे।

निराला की कहानियों में ब्राह्मण जाति में विवाह को लेकर प्रतिबंधों पर बहुत कहानियाँ हैं। बिल्लेसुर को भी इसका सामना करना पड़ता है। निराला के काव्य ‘सरोज-स्मृति’ में तो इसकी छाया बेहद करुण और सघन होकर आती है।

इतिहास की इन घटनाओं के किस्से  अपनी निरंतरता में समाज में उपस्थित रहे। धार्मिक साहित्य से लेकर लोकवृत्त तक में। इसका कारण यही था, कि समाज की गति को इसने सदैव प्रभावित किया। अर्थात सामाजिक  द्वंद्व और तनाव तथा परिवर्तन होता रहा।  यानि कि, समूचे समाज के साथ-साथ एक ही जाति और वर्ण के भीतर भी द्वन्द्वरहित समाज-गति का कोई भी दावा झूठा है।

निराला बिल्लेसुर की कथा 1940-41 में लिख रहे हैं। यह वह समय है, जब एक तरफ औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति का संघर्ष अपने निर्णायक बिन्दु पर था तो साथ ही वर्ण-जाति की सामाजिक गुलामी तथा धर्म की गुलामी से आजाद वैयक्तिक मुक्ति का संघर्ष भी तीव्रतर और निर्णायक हो उठा।

इसी में से नये निराला बन रहे थे। ‘नये पत्ते’ का कुछ भी यौं ही नहीं था। बिल्लेसुर में निराला ब्राह्मण जाति के भीतर के तमाम सामाजिक तहों, भेदोपभेद को यौं ही नहीं रचते-बुनते हैं। और इसीलिए उनकी कथा-कहानियों के केन्द्र में ग्रामीण कृषि-समाज है, जहाँ जाति के भीतर जाति स्थूल रूप में भी दिख जाता है। खैर

बिल्लेसुर के चार  भाइयों के पालन-पोषण के लिए पैतृक संपत्ति नाकाफी है। लेकिन बिल्लेसुर के पास उस समय बकरी पालने का विचार नहीं है, क्योंकि अभी वे जाति-वर्ण की नैतिकता से मुक्त नहीं हैं। बिल्लेसुर आजीविका के लिए   बाहर निकलते हैं और साढ़े सात सौ कोस दूर बर्दवान पहुँच जाते हैं।

वहाँ पहुंचकर वे अपने से ऊंचे ब्राह्मण के यहाँ नौकरी कर लेते हैं। इस नौकरी की प्रक्रिया में वे जिस जीवन-अनुभव से गुजरते हैं, वह उन्हें वही गाँव वाला बिल्लेसुर  नहीं रहने देता।

धीरे-धीरे जाति संबंधी धर्म ढीले पड़ने लगते हैं, टूटने लगते हैं। मनुष्य धर्म ऊपर उठने लगता है। वहाँ उन्हें वे काम करने पड़ते हैं, जो उन्होंने गाँव में रहते हुए कभी नहीं किये।

“बिल्लेसुर जीवन-संग्राम में उतरे। पहले  गायों के काम की बहुत सी बातें न कही गयी थीं, वे सामने आयीं। गोबर उठाना, जगह साफ करना, मूत पर राख छोड़ना,  कंडे पाथना, कभी-कभी गायों को नहलाना आदि भीतरी बहुत सी बातें थीं।”

इसके अलावा भी उन्होंने ऐसे कड़े श्रम के काम पकड़े, जिससे उन्हें नकद पैसे मिलते। बिल्लेसुर काम पर काम करते गये और ‘अपनी जिंदगी की किताब पढ़ते गये’। जिन्दगी की यह किताब पढ़कर वे गाँव वापस लौटते हैं।

“उन्होंने निश्चय किया,  देश चलकर रहेंगे, जमीदार की गुलामी से गुरु की गुलामी सख्त है, यहाँ से वहाँ की आबोहवा अच्छी,  अपने आदमी बोलने बतलाने के लिए हैं, अब यहाँ नहीं रहेंगे।”

गाँव आकर बिल्लेसुर  बकरियाँ पालते हैं। बकरी पालने से ब्राह्मण की जाति जाती है, इस बात से वे मुक्त हो चुके हैं।

“बिल्लेसुर ने लम्बे पतले बाँस  के लग्गे  में हँसिया बाँधा- बढ़ाकर गूलर-पीपल, पाकड़  आदि पेड़ों की टहनियाँ छाँट कर रख ली बकरियों को चराने के लिए। तैयारी करते दिन चढ़ आया। बिल्लेसुर  गाँव के रास्ते बकरियों को लेकर निकले। रामदीन मिले। कहा, ब्राह्मण होकर बकरी पालोगे?”

जाति के अनुसार पेशा या काम करने का प्रतिबंधित नियम-कायदा ही वर्णवादी या ब्राह्मणवादी नैतिकता या व्यवहार की अपनी विशेषता है।

भेदभाव, छूआछूत इससे अभिन्न रूप से जुड़ा है। इसने समाज में अलग तरह की जटिलताएं भी पैदा कीं।

औपनिवेशिक शासन के दौरान जब शहरी समाज और नये उभरते मध्यवर्ग की खान-पान या शौक संबंधी जरूरतें उत्पन्न हुई या पश्चिमी खानपान, रहन-सहन आदि के प्रभाव से  भारतीय समाज में भी ऐसी  आवश्यक वस्तुओं की मांग  हो गयी।

इन वस्तुओं का उत्पादन जाति संबंधी पेशे की बाध्यता के चलते नहीं होता था।  इसमें ऐसे ढेरों काम थे, जो ऊँचे वर्णों को  करने के लिए निषिद्ध थे। वे ऐसे कामों को हीन समझते थे।

नीचे के वर्ण में आने वाली जातियों  ने ऐसे ही काम करके धन अर्जित किया और धन आते ही अपनी सामाजिक उच्चता का दावा पेश किया।  जिसकी वजह से कई जगह सामाजिक तनाव उत्पन्न हुए।

ऐसा हर उस व्यवस्था के आने के दौरान हुआ, जो वर्णवादी व्यवस्था से भिन्न और उसकी जातिगत पेशे की बाध्यता को भंग करती थी।

मौर्य काल में खेती में लगी जातियों ने सामाजिक श्रेणी में उच्चता का दावा किया। इससे सामाजिक तनाव पैदा हुए, क्योंकि वर्ण व्यवस्था में खेती शूद्र-कर्म  माना गया था।

खेती और खेती से जुड़े औजारों को बनाने वाले, अन्न आदि के रखने के बर्तन बनाने जैसे काम नये थे। यह  कृषि उत्पादन के बाद ही स्थिति में पैदा हुए थे। इन पेशों को करने वाले शिल्पकारों ने और कृषि कार्य करने वालों ने धन और सामाजिक शक्ति अर्जित की।

इसी तरह  गुप्त काल में लेखन का तीव्र विकास हुआ। अधिकांश पुराण, शास्त्र, साहित्य इसी दौरान लिपिबद्ध  किये गये। इसने भी नयी जातियों का निर्माण किया। लेखन भी  वर्ण व्यवस्था में में शूद्र कर्म माना गया।

ब्राह्मण वर्ण के जिन लोगों ने खेती, शिल्पकारी, लेखन आदि अपनाया, उन्हें वर्ण बाहर किया गया। लेकिन उनकी सामाजिक हैसियत बढ़ी और कई बार इन वर्ण बाहर आयी और नये बने जाति  समूहों  ने नये संप्रदाय और अपने देवता भी बनाये।

संत साहित्य के उदय और सामाजिक चेतना के पीछे तो मुक्तिबोध का सिद्धांत ही इसी तरह के परिवर्तन से जुड़ा है।

अलाउद्दीन खिलजी की बाजार व्यवस्था और मूल्य-निर्धारण तथा जमीन-खेती से जुड़े खुत, मुकद्दम, चौधरी जैसे बिचौलियों को खत्म करने के चलते जो सामाजिक बदलाव हुआ, उसमें आगे चलकर  कई शूद्र वर्ण में आने  वाली जातियों ने राज्य-निर्माण तक कर लिया। जाट, सतनामी, बुंदेला, मराठा, सिख राज्य ऐसे ही थे।

औपनिवेशिक शासन के दौरान ‘जातियों की आर्थिक परिधि’ नाम से  एक अध्ययन एफ.जी. बेली ने किया। जिसमें, वर्ण व्यवस्था में उच्च वर्ण द्वारा वर्जित पेशे अपना कर शूद्र या अछूत जातियों ने धन अर्जित किया और सामाजिक उच्चता  का दावा किया। इससे नये किस्म के सामाजिक तनावों ने जन्म लिया।

जातियों के भीतर का अपना जो मौखिक इतिहास है या लोकवृत्तांत है, उसमें ऐसे बहुत सन्दर्भ मिलते हैं।  बहुत सारी राजपूत जातियों ने तांबे, कांसे, सोने, चांदी से जुड़े व्यवसाय अपनाये और कालांतर में नये जाति समूह में बदल गये। वर्ण उच्चता का दावा वे फिर भी करते रहे।

इसी तरह तेल, मसाले, शराब  से जुड़े व्यवसाय अपनाने वाली जातियों ने भी धनी होकर सामाजिक उच्चता  का दावा पेश किया और तनावों  को जन्म दिया।

जाति सुधार आंदोलन और ब्राह्मण विरोधी आंदोलन ऐसे ही क्षेत्रों में ज्यादा हुए। औपनिवेशिक दौर में  बिहार,  मद्रास, बंगाल के समाजों में तनाव और संघर्ष के पीछे की वजहों में एक प्रमुख, निर्णायक  तत्व यह रहा।

इस दौरान कई पेशे खत्म भी हुए। जिससे उसे जुड़ी जातियां सामाजिक हैसियत में नीचे चली गयी और खेत मजदूर बन गयी।

और पीछे जाने पर सन्त आन्दोलन, शैव, शाक्त, बौद्ध आदि में भी यह मिलेगा।

उल्लेखनीय है कि जिस भक्ति साहित्य को रामचंद्र शुक्ल ने इस्लाम की प्रतिक्रिया कहा, दरअसल वह वर्णवाद या ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक मुखर सामाजिक प्रतिक्रिया थी।

जिसकी एक वजह वर्णगत पेशे की बाध्यताओं से मुक्त हुई जातियों या नयी बनी जातियों के भीतर की नयी चेतना थी।

यह अवसर जरूर इस्लाम या मुस्लिम शासन ने उत्पन्न किया। अगर पसमांदा मुस्लिम समाज का पेशेगत अध्ययन किया जाय तो ऐसे न जाने कितने सन्दर्भ मिल जाएंगे।

कहने का आशय यह कि जाति और वर्ण कभी भी ऐसी इकाई नहीं रही जो सामाजिक गतिशीलता से निरपेक्ष होकर विकसित हुई हो। इन सब बातों का संदर्भ  बिल्लेसुर बकरिहा से जुड़ता है। इसको कहानी के अंतिम पैरे से जाना जा सकता है।

निराला की इस रचना के पीछे का आशय या मुख्य विचार भी उसी से समझ में आएगा। लेकिन उस पर आने से पहले निराला ने जो प्रसंग और घटनाएं बुनीं हैं उसे देखते चले पहले-

“रास्ते पर जवाब देना बिल्लेसुर  को वैसा आवश्यक नहीं मालूम दिया।  साँस रोके चले गये। मन में कहा- जब जरूरत पर ब्राह्मणों को हल की मूठ पकड़नी पड़ी है, जूते की दुकान खोलनी पड़ी है, तब बकरी पालना कौन बुरा काम है?”

इतना ही नहीं, निराला जाति और वर्ग दोनों की गतिशीलता पर कैसी नजर रखते हैं,  उसकी झलक अगली पंक्ति में मिलती है-

“ललई कुम्हार अपना चाक चला रहे थे, बकरियों को देखकर एक कामरेड के स्वर से बिल्लेसुर  का उत्साह बढ़ाया।  बिल्लेसुर प्रसन्न होकर आगे बढ़े। ”

श्रम के इस वर्ण-विपर्यय से बिल्लेसुर  धन-संपदा से युक्त होते जाते हैं, लेकिन वर्ण-भेद पर टिके समाज में श्रम  ज्ञान का विषय नहीं बनता बल्कि उसमें लगातार यही बात होती है, कि बिल्लेसुर  के हाथ कोई खजाना लग गया है या बर्दवान में उन्हें सोने की पचासों ईंटें मिल गयी हैं।

किसी भी श्रमिक, कर्मकर समाज में यह उतना  रहस्य नहीं  रहता है। लेकिन, जहाँ बिना श्रम के जीवन है, जहाँ दूसरों के श्रम पर टिका सुख है, वैभव है, दूसरे के श्रम की लूट है, चोरी है, श्रम की महत्ता कम है, वहाँ रहस्य की तलाश है।

वहाँ नये रोजगार, नये पेशे, नये व्यवसाय को लेकर एक रहस्य ही रहता है, क्योंकि श्रम की  सामाजिक गतिकी का ज्ञान वहाँ वर्ण-विभाजन से बनी चेतना के नीचे दबा दी गयी है।

जमीदार से लेकर ब्राह्मण जैसे ऊँचे वर्ण के लोग हमेशा बिल्लेसुर के धनी होने का राज जानने और उन्हें लूटने की जुगत में लगे रहते हैं। ऊँचे जाति-समाज के इसी चरित्र को दिखाना निराला का लक्ष्य है।

बिल्लेसुर बकरी पालने के साथ-साथ अपने छोटे से खेत में खेती शुरू करते हैं। इसमें वे शकरकंद की फसल उगाते हैं। इसकी मांग पर्व, त्यौहार में होती है। अर्थात यह एक तरह से नकदी फसल है। बिल्लेसुर की अपनी आर्थिक परिधि के भीतर  से निराला ने नकदी फसल की खेती की तरफ इशारा किया है।

यह प्रगतिशील खेती  का संदर्भ लिए है। निराला इस बात को बताते भी हैं, कि यह प्रगतिशीलता बिल्लेसुर ने अपने जीवन की किताब पढ़कर अपनाया है। अपनी स्वाभाविक सहज बुद्धि से यह नयी दुनियादारी सीखी है।

इतना ही नहीं, बिल्लेसुर ने मनुष्य श्रम की समूची क्षमता खर्च कर यह धन अर्जित किया है।  वे बर्दवान में रहने के दौरान  दिन में बारह कोस तक चिट्टियाँ पहुँचाने का काम करते हैं और उसके बदले नकद पैसा पाते हैं।

यह काम वे पैदल और दौड़ कर कम समय में करते हैं, क्योंकि लौटकर उन्हें बर्दवान के महाराज के जमादार सत्तीदीन सुकुल के यहाँ भी नौकरी करनी है।

बिल्लेसुर के धनी होने का राज यही है।
“फावड़े से खेत गोड़ते देखकर गाँव के लोग मजाक करने लगे, लेकिन बिल्लेसुर  बोले नहीं, काम में जुटे रहे। दुपहर होते-होते काफी जगह गोड़ डाली। देखकर छाती ठंडी हो गयी। दिल को भरोसा हुआ कि छह-सात दिन में अपनी मेहनत से बकरे का घाटा पूरा कर लेंगे। … सात दिन की जगह पाँच  ही दिन में बिल्लेसुर ने खेत का खेत का वह हिस्सा गोड़ डाला।”

खुद के उद्यम और समय के अनुसार बदलकर बिल्लेसुर अपने को बनाते हैं।

कहानी के अंतिम पैराग्राफ में यह खुलता है-
“बारात निकली  अगवानी, द्वारचार, व्याह, भात, छोटा-बड़ा आहार, बरतौनी, चतुर्थी, कुल अनुष्ठान पूरे किये गये। वहाँ इन्हीं का इंतजाम था। मान्य कुल मिलाकर पाँच। बाकी कहार, बाजदार, भैयाचार। चार दिन के बाद दुल्हन लेकर बिल्लेसुर घर लौटे। फिर अपने धनी होने का राज जीते जी न खुलने दिया।”

बिल्लेसुर ने अपने धनी होने का राज भले से न खुलने दिया, लेकिन निराला ने तो वह राज खोल ही दिया। यही इस रचना का मुख्य लक्ष्य है। समाज में आधुनिक, प्रगतिशील तत्वों की पहचान करना ही इसका मुख्य विचार है। बिल्लेसुर की कहानी इसी के तहत रची गयी है।

जाति-वर्ण के झूठे, नकली, घेरेबंदियों को,  नैतिकता को तोड़कर नया मनुष्य जो बन रहा था, निराला की नजर उस पर थी।

यह बात और है, कि बिल्लेसुर के इस निर्माण में जिस जाति-वर्ण धर्म को उन्होंने छोड़ा, उसने बिल्लेसुर  को नहीं छोड़ा। धर्म के विपरीत सारे कर्म करने के बावजूद जाति-वर्ण समाज ने उन्हें ब्राह्मण बनाए रखा, बल्कि और सम्मान के साथ।

ब्राह्मणवाद की इस खासियत को जानने-समझने  के लिए भी यह रचना अद्वितीय है।

बिल्लेसुर बकरिहा की रचना-प्रक्रिया
निराला की कहानियों और उपन्यासों की रचना-प्रक्रिया जिन तत्वों से तय होती है, उसमें आधुनिक बोध, प्रगतिशील दृष्टि और मानवतावादी दर्शन के आलोक में बदलते हुए सामाजिक यथार्थ को रचना रूप देना है।

द्वन्द्व और आत्मसंघर्ष आधुनिक मनुष्य होने का प्राथमिक लक्षण है। निराला की रचना-प्रक्रिया में इन दोनों की उपस्थिति बहुत घनीभूत है।

कविता में तो यह अपने चरम पर है। क्योंकि वहाँ सत्य और संदेह के बीच कोई और नहीं सिर्फ कवि है। आगे-पीछे होता, जीतता-हारता, पछाड़ खाता, तन कर खड़ा होता आदि-आदि।

इस द्वन्द्व  और आत्म संघर्ष को हटाकर देखने से निराला की रचना के मानवीय मूल्य पीछे चले जाएँगे। बचेगा तो वह, जो बिना किसी प्रक्रिया के रच दिया गया हो और लोग अपनी सुविधा से उसमें अपने लिए चुन लें, कोई एक रचना, कोई कुछ अतुकांत पंक्ति  चुन ले, कोई आध्यात्मिकता या कोई प्रतिक्रियावाद।

लेकिन निराला के गद्य में यह  कम हो गया है। यहाँ रचनाकार के अलावा समाज ज्यादा स्थूल ढंग से उपस्थित है। उसमें रचनाकार का ‘स्व’ सामाजिक सत्य में घुल-मिल जाता है। उनके किसी भी कहानी और उपन्यास को उठाकर देखा जा सकता है।

फिर क्या वह द्वन्द्व  और आत्म संघर्ष गायब हो जाता है! नहीं, बिल्कुल नहीं! बल्कि वह विस्तार पा लेता है- वास्तविक जीवन संघर्ष, सामाजिक सच्चाई और भौतिक स्थितियों में। यहाँ निराला की रचना-प्रक्रिया के वे तत्व साफ-साफ देखे जा सकते हैं, जहाँ वे आधुनिक बोध के, नवजागरण के विवेकशील अग्रदूत बनकर दिखते हैैं।

(फीचर्ड इमेज गूगल से साभार)

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