समकालीन जनमत
कविता

शोभा सिंह की कविताएं गहन जीवन अनुभूति से युक्त, सघन बिम्बधर्मी और बहुरंगी हैं

लखनऊ. कवि, संस्कृतिकर्मी व सोशल एक्टिविस्ट शोभा सिंह की कर्म भूमि लखनऊ है लेकिन अब ज्यादातर उनका समय दिल्ली में गुजर रहा है। लेकिन एक बात उनके बारे में है कि वे लखनऊ में रहें या दिल्ली में उनकी रचनात्मक व सांस्कृतिक सक्रियता बनी हुई है। जब भी वे लखनऊ आती हैं, उनके पास नयी रचनाएं मौजूद रहती हैं जिन्हें वे अपने लखनऊ के मित्रों को सुनाना चाहती हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ।

प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से शीरोज हैंगआऊट, गोमती नगर, लखनऊ में शोभा सिंह के कविता पाठ और उस पर बातचीत का आयोजनं किया गया। कविता पाठ शुरू करते हुए उन्होंने कहा कि ये कविताएं हाल में लिखी हैं। कई इनमें बनने की प्रक्रिया में हैं। इसलिए वे अपनी कविताओं पर सभी की राय जानना चाहती हैं।

उन्होंने बताया भी कि इन दिनों वे अपने दूसरे कविता संग्रह की तैयारी में हैं। उनका पहला कविता संग्रह ‘अर्द्ध विधवा’ कई साल पहले गुलमोहर प्रकाशन, दिल्ली से आ चुका है।

इस मौके पर शोभा सिंह ने ‘रुकैय्या बानो’, ‘शहर लौटते हुए’, ‘बीडी़ मजदूर’, ‘कश्मीर’, ‘आजादी की लौ’, ‘मछली और औरत’, ‘कविमित्र से मिल कर लौटते हुए’, ‘दहशत’, ‘पुलिस कस्टडी में’, .शीर्षक से अपनी करीब डेढ़ दर्जन कविताओं का पाठ किया और अपनी कविता के विविध रंगों से श्रोताओं का परिचय कराया।

कविताओं पर बातचीत की शुरूआत करते हुए कवयित्री विमल किशोर ने कहा कि शोभा सिंह की कविताओं में वह डूब सी गई थीं। इन कविताओं में हम समाज की पीड़ा और यथार्थ से रूबरू होते हैं। ‘सागर का सम्मोहन’ व ‘समय से मुठभेड़’ मार्मिक कविताएँ हैं।

एपवा, लखनऊ की संयोजक मीना सिंह ने कविताओं पर टिप्पणी करते हुए अपने बचपन के दिन और वर्तमान समय की तुलना की। बचपन में कैसे वे भाई-बहन टी.वी. देखने के लिए झगड़ा करते थे। और आज ऐसा समय है कि टी.वी. के कार्यक्रमों को देखना मुश्किल है। आज हम पाँच मिनट के लिए भी टेलीविजन देखना झेल नहीं सकते। ‘बीड़ी मजदूर’ कविता की पंक्तियों-‘इतने सालों/उसने बीड़ी बनाई/उंगलियाँ टेढ़ी/आंख कमजोर/ क्यों नहीं/बदली उसकी जिन्दगी/मेहनत का वाजिब फल/कहाँ गया/ किसके पास/और क्यों ?’, को दुहराते हुए मीना सिंह ने कहा कि ये कविताएँ मनुष्य के बुनियादी सवालों को उठाती हैं।

कवि-आलोचक आशीष सिंह ने वीरेन डंगवाल पर लिखी कविता में उम्मीद के लिए प्रयुक्त शब्द ‘पीली फुदकन’ की सराहना की। आशीष ने आगे कहा कि अपनी कविताओं में कवयित्री शोभा सिंह स्वयं को सघन रूप से शामिल करते हुए भी निरपेक्ष रहती हैं। ये कविताएँ जद्दोजहद की कविताएँ हैं।

जसम के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष और कवि कौशल किशोर ने शोभा सिंह के एक्टिविस्ट रूप को याद किया और बताया कि वे मूलतः संघर्षो से बनी कवयित्री हैं। अमृत प्रभात में आलेख लिखा करती थीं। लोगों से जुड़ना, मिलना-जुलना इनका स्वभाव है। शोभा जी ट्रेड यूनियन लीडर रही हैं। वे स्त्रीवादी नहीं बल्कि जनवादी रचनाकार हैं। इसमें आम आदमी और उससे जुड़ाव है तो वहीं स्थितियों को बदलने की छटपटाहट भी। इनके काव्य शिल्प पर शमशेर जी का असर है। एक बार पाठ में अर्थ नहीं खुलता। इन्हें बार-बार पढ़ने की जरूरत है और हर बार कविता और ज्यादा बेहतर तरीके से सम्प्रेषित होती है।

सामाजिक कार्यकर्ता रेनू शुक्ला ने इन कविताओं की संवेदना को संघर्ष की उपज कहा। इनमें मनुष्य की पीड़ा झलकती है। नाटककार प्रदीप घोष का मानना था कि ये राजनीतिक कविताएँ हैं। आज के राजनीतिक हालात को बयान करती इन कविताओं से हम अपना तादात्म्य बहुत आसानी से बैठा लेते हैं। कवि-संस्कृति कर्मी अनीता सिंह का मत था कि शोभाजी की कविताएँ परंपरागत सौन्दर्य बोध को तोड़ती हैं।

कवि-कहानीकार उषा राय ने इन कविताओं को आगे तक जाती हुई कविताएँ कहा। यह कवयित्री उन गिने-चुने लोगों में से हैं जो वाम मोर्चे पर डटी हुई हैं। मानवीय पक्ष को लेकर चलने वाली ये कविताएँ बडे़ सवालों से टकराती हैं। श्रद्धा वाजपेई ने शोभा जी के आदर में अपनी लिखी एक कविता सुनाई।

कहानीकार फरजाना मॅहदी ने इन्हें हस्तक्षेप करने वाली और परिवर्तन कामी कविताएँ माना। संस्कृति कर्मी नूर आलम को इन कविताओं में जीवन दिखाई दिया। उन्होंने ‘रुकैय्या बानो’ कविता की पंक्तियाँ उद्धृत की-‘साँस लेना-जीना/सिर्फ अपने लिए नहीं/सबके बीच/बीज की तरह बंट गई तुम/ खुले दिल/ दिलों को जोड़ते जाना/नफरत की राजनीति से बहुत दूर/मजबूती से खड़ी/रुकैया बानो/तुम्हें सलाम !’

नाटककार राजेश कुमार ने इस बात पर बल दिया कि आज कविता को हथियार बनाने की जरूरत है। हमें नई परिस्थिति से लड़ने के लिए लड़ाई की नई तकनीक विकसित करनी होगी। अब घुमावदार या घटाटोप रचती भाषा में नहीं बल्कि सीधे-सीधे अपनी बात कहनी होगी। नरेश कुमार ने इस पर कहा कि हमें विपक्ष की बात करने की बजाय अपनी बात कहनी चाहिए और एकजुट रहना चाहिए।

अजित प्रियदर्शी ने स्नेहिल शब्दों में शोभाजी के साथ उनकी बहन निर्मला ठाकुर को याद किया और कहा कि शोभाजी को देख कर उन्हें अपनी गुरु माता निर्मला ठाकुर की याद आती है। निर्मला ठाकुर की ही तरह शोभाजी की आवाज भी धीमी पर साफ है। काव्य पक्ष पर अपनी बात रखते हुए आलोचक अजित प्रियदर्शी का मानना था कि इन कविताओं में तुतलाहट नहीं है। ये मुखर कविताएँ हैं। इन कविताओं पर अज्ञेय और शमशेर दोनों का असर है। ये सघन बिम्ब धर्मी कविताएँ हैं। गहन जीवन की अनुभूति से उपजी ये कविताएँ देर तक गूँजती हैं। गहन लगाव और पर्यवेक्षण से उपजे बिम्ब की ये कविताएँ, बहुरंगी हैं।

कथाकार कहानीकार किरण सिंह ने शोभा सिंह की रचना प्रक्रिया को जानना चाहा। शोभा सिंह ने बताया कि उनके मन में जब कोई विचार आता है तब वे अपने आस-पास की दुनिया से कट जाती हैं। उनका एक अलग संसार बन जाता है। कोई बात जब उनके दिमाग में चमक जाती है, उस पर कविता बनाने की सोचती हैं।

अन्त में अजय सिंह ने अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि उनके लिए शोभा सिंह की कविताओं पर बात रखना जरा कठिन है क्योंकि बहुत नजदीक से देखने पर आप बहुत सी बातों को ठीक से देख नहीं पाते हैं। लेकिन इतने विषयों पर इस तरह से लिखना, यह शोभा के ही बूते की बात है। इनकी कविताओं का दायरा विस्तृत है। ये जो कुछ देखती-सुनती हैं वह इनका कच्चा माल होता है जिसे मनन-चिन्तन के बाद कविता बनाती हैं। इनकी कविता के दायरे में धान का खेत है, रोपाई करती औरतें हैं, रूकैय्या बानो, बीड़ी मजदूर हैं। इनकी कविताओं में एक के बाद एक अर्थ छवियाँ इस तरह आती-जाती हैं जैसे हम बाइस्कोप देख रहे हों।

अजय सिंह ने स्वीकार किया कि वह भी अपने को कवि मानते हैं लेकिन शोभा सिंह जैसा रेंज उनके पास नहीं है। ये कविताएँ इनवॉल्व होकर लिखी गईं हैं। बहुत से ऐसे चित्र जिन्हें हम देखते हुए भी देख नहीं पाते वे चित्र शोभा की निगाह पकड़ लेती है। ‘मछली और औरत’ ‘बिल्ली’, ‘बच्चे’, ‘भूख’, इत्यादि कविताएँ बहुत अच्छी हैं। इनकी कविता बताती है कि भूखे के लिए भरपेट खाना ही आह्लाद का संगीत है। महिला रचनाकार जिन तत्वों को पकड़ लेती हैं पुरुष रचनाकारों के लिए उसे पकड़ना मुश्किल है। ‘रुकैय्या बानो’ को जिस दृष्टि से शोभा सिंह ने देखा है वह दृष्टि इन्हें आज के दौर की खास रचनाकार बनाती है। कार्यक्रम का संचालन किरण सिंह ने और धन्यवाद ज्ञापन उषा राय ने किया।

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