( गरीबी के कारण पढ़ नहीं पा रही कुशीनगर जिले की बेटियों की दास्तां )
16 वर्षीय वंदना भारती कुशीनगर जिले के कसया ब्लाक के पिपरा ग्राम पंचायत की रहने वाली है. गांव की और लड़कियों की तरह वंदना के पिता तुफानी प्रसाद अशिक्षित नहीं हैं. वह बीए तक पढ़े हैं और पढ़ाई का महत्व जानते हैं लेकिन ग्रेजुएट होने के बावजूद उन्हें न कोई नौकरी नहीं मिली न ढंग का कोई काम. उन्होंने अपनी जिंदगी का लंबा समय बेकारी में गुजारा. शादी के बाद उन्हें पांच बच्चे हुए. तीन लड़कियां और दो लड़के. लगातार बेकारी के कारण बच्चों की परवरिश, पढ़ाई पर काफी प्रभावित हुई है और न सिर्फ तुफानी प्रसाद बल्कि उनके बच्चों को भी संघर्ष करना पड़ रहा है.
वंदना की दो जुड़वा बहनें ललिता और सविता भारती हैं. आर्थिक तंगी के कारण ललिता अपने मामा के घर रहती है और हाईस्कूल तक पढ़ने के बाद उसकी पढ़ाई बंद हो गई है. यही हाल सविता का है. उसका भाई विकास आठ तक पढ़ने के बाद स्कूल से दूर हो गया और अब अपने लिए काम ढूंढ रहा है.
वंदना ने एक से पांच तक सरकारी प्राईमरी स्कूल में पढ़ाई की. इसके बाद वह आठ तक पूर्व माध्यमिक विद्यालय सपहां में पढ़ी. इसी वक्त उसके घर में काफी आर्थिक तंगी थी. आगे की पढ़ाई के लिए पिता तुफानी प्रसाद के पास पैसे नहीं थे क्योंकि वह बेरोजगार थे. इसी वर्ष उसके दादा का भी निधन हो गया. वंदना की अगली कक्षा के लिए एडमिशन नहीं हो पाया. वह वर्ष 2016 से 2018 तक घर बैठी रही और परिवार की आय बढ़ाने के लिए मां मीना देवी के साथ खेतों में मजदूरी करने लगी.
मई 2018 में एक सामाजिक संगठन के सम्पर्क में आने के बाद उसने फिर से अपनी पढ़ाई का निश्चय किया। एडमिशन के लिए 1600 रूपए की जरूरत थी. उसने जून-जुलाई के महीने में रोपनी का काम कर 1500 रूपए जमा किए थे. उसे रोपनी के काम में प्रति दिन 100 रूपए मजदूरी मिलती थी. ये रूपए उसके एडमिशन में काम आए और इस तरह वह एक बार फिर स्कूल से जुड़ गई.
वंदना का एडमिशन एमडी इंटर कालेज सपहां में हुआ है. यह कालेज उसके घर से चार किलोमीटर दूर है. उसके घर में सिर्फ एक साईकिल है जिसका उपयोग उसके पिता करते हैं. उन्हें इस वक्त ईंट भट्ठे पर काम मिला हुआ है. वंदना चार किलोमीटर पैदल स्कूल जाती है. स्कूल आने-जाने में उठे रोज आठ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है.
स्कूल में फिर से एडमिशन हो जाने भर से वंदना की मुश्किलें दूर नहीं हुई हैं. काॅपी-किताब और स्कूल के हर महीने की फीस के लिए पैसे जुटाना अभी भी उसके लिए मुश्किल बना हुआ है. उसे हर महीने दो सौ रूपए फीस देनी होती है. घर के आस-पास आठवीं के बाद सरकारी हाईस्कूल व इंटर कालेज नहीं होने के कारण गांव की लड़कियों को प्राइवेट स्कूल में ही एडमिशन लेना पड़ता है. प्राइवेट कालेज में एडमिशन व फीस के बतौर चार से छह हजार रूपए सलाना खर्च होता है. यह खर्च उठाना वंदना और उसके जैसे श्रमिक माता-पिता के लिए बहुत मुश्किल होता है. वंदना की कई महीनों की फीस फिर बकाया है. स्कूल प्रबंधन थोड़ा उदार है, इसलिए वह उसकी पढ़ाई में बाधा उत्पन्न नहीं कर रहा है.
वंदना पढ़-लिखकर पुलिस में भर्ती होना चाहती है. वंदना कहती है कि आर्थिक तंगी के अलावा उसे और कोई दिक्कत नहीं है. सिर्फ एक बार स्कूल से लौटते हुए कुछ लड़कों ने उसे छेड़ने की कोशिश की लेकिन उसने निर्भीकता से जवाब दिया तो भाग खड़े हुए. पैदल आने-जाने के कारण उसका बहुत समय खर्च हो जाता है. यदि उसके पास साइकिल होती तो काफी आसानी हो जाती.
वंदना की यह कहानी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की पढ़ाई में आने वाली दिक्कतों से हमें परिचित कराती है. साथ ही ‘ बेटी पढ़ाओ ’ नारे के खोखलेपन से भी.
यह कहानी सिर्फ वंदना की नहीं
यह कहानी सिर्फ वंदना की नहीं है. उसके गांव की अमृता भारती, सिमरन, प्रीति भारती, काजल भारती की भी कमोवेश यही कहानी है.
पढ़ाई कर डाॅक्टर बनने का सपना देखने वाली शाहजहां परवीन शाहजहां परवीन कुशीनगर जिले के विशुनपुर ब्लाक के पटेहरा बुजुर्ग गांव की रहने वाली है. उसके पिता कभी गांव तो कभी शहर में जाकर मजदूरी करते हैं लेकिन उनके जीवन का अधिकतर समय बरोजगारी में कटा है. शाहजहां परवीन तीन बहने हैं. दोनों बड़ी बहने ननिहाल में रहती हैं. उसका ननिहाल बिहार के पश्चिमी चम्पारण जिले में पकड़ी डीह में है.
गरीबी के कारण शाहजहां का बचपन ननिहाल में बीता. वहीं उसने राजकीय माध्यमिक विद्यालय में जूनियर हाईस्कूल तक की पढ़ाई की. हाईस्कूल की पढ़ाई उसने कुशीनगर जिले के दुदही स्थित राधा कृष्ण मेमोरियल इंटर कालेज कोकिल पट्टी से पूरी की. इंटरमीडिएट की पढ़ाई उसने समाज कल्याण इंटर कालेज खेसिया, मंसाछापर से वर्ष 2016 में पूरी की.
इंटर करने के बाद उसकी दो वर्ष तक पढ़ाई बंद रही. वर्ष 2018 में उसने माता शिवराजी देवी वीर एकलव्य महाविद्यालय जंगल बकुलहा में बीए में एडमिशन लिया है. उसने बीए में इंग्लिश, होम साइंस व हिंदी विषय लिया है.
जब वह हाईस्कूल में थी तब उसके सामने स्कूल में एडमिशन फीस व पढाई के खर्चे के लिए पैसे नहीं थे. इस हालात में वह खाली समय में अपने नाना के दुकान पर बैठती थी और मोबाइल रिचार्ज कार्ड बेचती थी. नाना हर रिचार्ज कार्ड पर मिलने वाला कमीशन उसे दे देते थे. इस तरह उसने हर महीने 150 रूपए कमाए और उससे हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी की. इंटरमीडिएट कालेज के प्रिंसिपल ने उसकी आर्थिक हालत जान पूरी फीस माफ कर दी.
शाहजहां परवीन बताती है कि अभी उसका संघर्ष खत्म नहीं हुआ है. एक एक छोटे से घर में अपनी मां और पिता अलावा चाचा-चाची व चचेरे भाई-बहनों के साथ रहती है. बीए की पढ़ाई के लिए उसे 7200 रूपए कालेज को देने हैं. साथ में प्रेक्टिकल, काॅपी-किताब का खर्च अलग है. उसके घर से कालेज सात किलोमीटर दूर है. आटो से आने-जाने में एक दिन का खर्च 40-50 रूपए है. उसके पास साइकिल भी नहीं है. उसने अपनी फीस की पहली किश्त जमा कर दी है लेकिन आगे की तीन किश्ते कैसे जमा होगी, उसे नहीं पता.
छह हजार रूपए नहीं होने से मै एडमिशन नहीं ले पाई
ऐसे बहुत से लोग हैं जो सोचते हैं कि शिक्षा के प्रति जागरूकता नहीं होने के कारण ही लड़कियां पढ़ नहीं पाती या उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है. यह सच नहीं है. ऐसे तमाम लोग हैं जो अपनी बेटियों को पढ़ाना चाहते हैं और उनकी बेटियां भी पढ़ना चाहती हैं लेकिन कमजोर आर्थिक हालात के आगे वह मजबूर हैं.
कुशीनगर जिले के कठकुइंया के धूस टोले की 19 वर्षीय रूबी की कहानी ऐसी ही है. उसने पिछले वर्ष यानि 2018 में बीए की पढ़ाई पूरी की. वह एमए में एडमिशन लेना चाहती थी. उसकी इच्छा बीएड करने की भी है लेकिन एमए में एडमिशन के लिए उसके पास जरूरी छह हजार रूपए नहीं थे. इस कारण वह एडमिशन नहीं ले पाई और पिछले आठ महीने से घर बैठी है.
रूबी के पिता घनश्याम प्रसाद के पास मामूली खेत है. घनश्याम प्रसाद मजदूरी कर अपने और घर का खर्च चलाते हैं. उनकी दो बेटियां और दो बेटे हैं. बड़ा बेटा भूषण आठ तक पढ़ाई करने के बाद एक महीने पहले भूटान चला गया. वहां वह बेल्डिंग का काम करता है. भूटान में मजदूरी करने वाले उसके एक रिश्तेदार वहां ले गए। छोटा भाई विशाल आठ वर्ष का है.
रूबी की बहन 16 वर्षीय निक्की शारीरिक व मानसिक रूप से विकलांग है. जब वह पांच वर्ष की थी तो उसे तेज बुखार हुआ और झटके आए. उसे पडरौना इलाज के लिए ले जाया गया. वहां एक प्राइवेट चिकित्सक के यहां इलाज चला जिसने बताया कि निक्की को इंसेफेलाइटिस है. पडरौना में चार-पांच दिन तक इलाज होने के बाद उसे बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर रेफर कर दिया गया. रूबी की जान तो बच गई लेकिन वह न तो ठीक से बोल पाती है न ठीक से समझ पाती है. उसके हाथ व पैर भी ठीक से काम नहीं करते हैं. उसके इलाज में काफी खर्चा हुआ. अब भी उसकी परवरिश में काफी मुश्किलें आ रही हैं.
घर की खराब हालत के बावजूद रूबी ने बीए तक लगातार पढ़ाई की. उसने वर्ष 2018 में पूर्वांचल स्कूल सिकटिया से राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र व प्राचीन इतिहास से बीए किया. उसे वर्षिक फीस के रूप में छह हजार रूपए देने पड़ते थे. कालेज दूर था. भाई के साथ वह कालेज जाती थी.
बीए करने के बाद जब एमए में एडमिशन का वक्त आया तो उसके पिता के पास पैसे नहीं थे. बीए में एडमिशन कराने के लिए उन्होंने कर्ज लिया था. इस बार उनकी कर्ज लेने की भी स्थिति नहीं थी. बड़ा बेटा बेकार बैठा था. इस कारण उसकी पढ़ाई छूट गई. घनश्याम प्रसाद को बेटी का एडमिशन नहीं करा पाने का आज भी मलाल है.
वंदना, शाहजहां, रूबी जैसी लड़कियों की शिक्षा में सबसे बड़ी दिक्कत पढ़ाई में होने वाले खर्च को जुटाना है. हाईस्कूल और इंटरमीडिएट तक सरकारी स्कूलों में पढ़ाई सस्ते में हो जाती है लेकिन ग्रेजुएशन और उससे उपर की पढ़ाई के लिए सरकारी और सरकार से सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थान कम हैं और लड़कियों की पहुंच से दूर है. ऐसी स्थिति में अभिभावक बेटियों को पढ़ाने की हसरत रहते हुए हिम्मत जुटा नहीं पाते हैं.
नेहा ने बताया कि उसे एक वर्ष में बतौर फीस करीब छह हजार रूपए देने हैं. काॅपी-किताब और कालेज आने-जाने का खर्च अलग है. दलित मजदूर घर की बेटियों के लिए यह धनराशि जुटा पाना बहुत मुश्किल है. सरकार की ओर से मेरी जैसी लड़कियों को पढ़ाई जारी रखने के लिए कोई सहायता नहीं है.
कुशीनगर जिले में है सिर्फ एक सरकारी डिग्री कलेज
कुशीनगर जिले में कुल 68 डिग्री कालेज हैं लेकिन इसमें सिर्फ एक ही राजकीय महाविद्यालय है. चार
वित्तपोषित महाविद्यालय हैं जबकि 63 स्ववित्तपोषित महाविद्यालय हैं.
जिले में माध्यमिक विद्यालयों की स्थिति देखें तो राजकीय इंटर कॉलेज- 19, वित्तपोषित- 55 और
वित्तविहीन- 222 माध्यमिक विद्यालय हैं.
इस जिले में 2177 प्राथमिक विद्यालय, 824 जूनियर हाईस्कूल, 88 अंग्रेजी माध्यम के प्राइमरी स्कूल- हैं. जबकि अंग्रेजी माध्यम निजी जूनियर हाईस्कूल- 88, निजी प्राइमरी स्कूल- 706 हैं.
स्ववित्तपोषित कालेजों को शिक्षकों के वेतन व अन्य खर्चों के लिए छात्र-छात्राओं की फीस पर निर्भर रहना पड़ता है. इसलिए वे छात्र-छात्राओं से बहुत ज्यादा फीस वसूल करते हैं और सरकार द्वारा निर्धारित फीस के मानक की अवहेलना करते हैं. सरकारी कालेज, सरकार सहायतित कालेज व स्ववित्तपोषित कालेज में ग्रेजुएशन व पोस्टग्रेजुएशन स्तर पर सलाना दो से ढाई हजार की फीस निर्धारित है लेकिन स्व वित्तपोषित कालेज इससे तीन गुना अधिक फीस वसूल करते हैं. ज्यादा फीस लेने के एवज में वे छात्र-छात्राओं को कालेज में हाजिरी में छूट देते हैं. कम वेतन देने और शिक्षकों की कमी के कारण स्ववित्त पोषित कालेजों की शैक्षिक गुणवत्ता बेहद खराब होती है. चूंकि हर जिले में सरकारी व वित्त पोषित कालेजों की संख्या बहुत कम है, इसलिए अधिकतर छात्र-छात्राएं पढ़ाई के लिए स्ववित्तपोषित कालेज पर निर्भर होते हैं.
ये स्थिति बेटियों के पढ़ने के लिए प्रतिकूल है. सरकारी या वित्त पोषित कालेज उनके घर से काफी दूर होते हैं जहां रोज आना-जाना मुश्किल होता है और स्ववित्तपोषित स्कूलों में पढ़ना उनके लिए महंगा होता है. यही कारण है कि सैकड़ों लड़कियों की पढाई छूट रही है.
‘ बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ ’ का 56 फीसदी यानि 364.66 करोड़ प्रचार में खर्च कर दिया गया
द वायर में 22 जनवरी 2019 को प्रकाशित खबर में कहा गया है कि देश में घटते लिंग अनुपात को बढ़ाने और लड़कियों को लेकर पिछड़ी सोच में बदलाव लाने के उद्देश्य से शुरू की गई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजना ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के तहत पिछले चार सालों में आवंटित हुए कुल फंड का 56 फीसदी से ज्यादा हिस्सा केवल उसके प्रचार में खत्म कर दिया गया.
चार जनवरी 2019 को लोकसभा में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री डॉ. वीरेंद्र कुमार ने बताया कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना पर साल 2014-15 से 2018-19 तक सरकार अब तक कुल 648 करोड़ रुपये आवंटित कर चुकी है. इनमें से केवल 159 करोड़ रुपये ही जिलों और राज्यों को भेजे गए हैं. कुल आवंटन का 56 फीसदी से अधिक पैसा यानी कि 364.66 करोड़ रुपये ‘मीडिया संबंधी गतिविधियों’ पर खर्च किया गया. वहीं 25 फीसदी से कम धनराशि जिलों और राज्यों को बांटी गई.
एक ऐसी योजना जिसका 56 फीसदी फंड प्रधानमंत्री ने अपने प्रचार में खर्च कर दिया हो, उसकी जमीनी हकीकत ऐसी ही होगी। लड़कियों के लिए अधिक से अधिक स्कूल खोलने, उनकी निश्शुल्क पढ़ाई की व्यवस्था करने के बजाय टीवी, अखबारों में पीएम की फोटो लगाकार विज्ञापन जारी करने से हालात नहीं बदलते। सैकड़ों लड़कियां फीस, कापी-किताब और स्कूल-कालेज आने-जाने का खर्च जुटा नहीं पाने के कारण पढ़ नहीं पा रही हैं लेकिन इससे ‘ आत्मप्रचार ’ में पूरे पांच साल व्यस्त रहीएक सरकार को क्या फर्क पड़ता है.
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