शशांक मुकुट शेखर
‘पलायन’ हमेशा दुखद होता है. किसी मनुष्य द्वारा सबसे मुलभूत आवश्यकता भोजन की तलाश को ही जीवन मान लेने को बाध्य हो जाना मनुष्यता और स्वतंत्रता पर खतरा है. और एक पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी में यह किसी भी सरकार के नैतिकता के पूर्ण पतन का घोतक भी है. पलायन रोकने में अक्षम सरकार का मनुष्य के विकास में एक तिनका योगदान भी नहीं हो सकता. ऐसी सरकार मानुष्यिक संबंधों की बर्बादी और मनुष्य की आजादी पर हमले के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदार होती है.
राज्य से पलायन रोके बगैर राज्य में विकास के किस तरह के मायने हैं? जीवन जीने को टेक्नोलॉजी से थोड़ा आसान बनाकर मनुष्य और समाज को इसके मायने से च्युत करने के विकास का क्या मतलब है? आज सड़कों की पहुँच दूर-दराज के क्षेत्रों तक हो गई है. मगर हमें यह सोचना चाहिए कि उन काली सड़कों से उतरकर आधे मील पर सोंगर के सहारे खड़ी मिट्टी के मकान में बैठी स्त्री को चुंबन लेने उसका प्रेम परदेश से आखिरी बार कितने महीने पहले आया था. और कहीं बहुत दूर रोटी के लिए जीवन के तमाम दूसरे आयाम से अनभिज्ञ ने अपने आँगन के आखिरी बार कब रोटी खाई थी?
पाश का कहना है ‘जरा सोचो- कि हममें से कितनों का नाता है जिन्दगी जैसी किसी वस्तु के साथ’. पृथ्वी पर मनुष्य की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अपना संपूर्ण जीवन दूसरे मनुष्य से जीभर बातें किए बिना गुजार देता है? कुछ ऐसी चीजें जो हर मनुष्य के लिए एक समान और पर्याप्त उपलब्ध रहना चाहिए उसी के लिए मनुष्यों की एक बड़ी आबादी पूरा जीवन गुजार देने के लिए विवश है. पलायन आज मनुष्यता का संकट बन गई है. सिर्फ विज्ञापन और भाषण(फेक) देने में व्यस्त सरकार आज जनता को भोजन उपलब्ध कराने को भी अपनी महान उपलब्धि बताते अघा नहीं रही है. यह एक बड़ा स्कैम जो देश ही नहीं बल्कि मनुष्य और समाज के विकास को विनाश की ओर अग्रसर कर रही है. जनता को जनता होने से पहले अपने मनुष्य होने को लेकर भी सोचना होगा.
एक नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाकर रहने और काम करने का अधिकार है. मगर अपना पेट भरने के लिए नागरिक का पलायन करने को विवश होना उसकी आजादी पर हमला है. ऐसे में लोकतंत्र कहाँ बचा रह जाता है? सामाजिक एकता तथा सौहार्द और मानवी संबंधों पर रोटी जुगाड़ करने की विवशता के हावी होने की स्थिति में लोकतंत्र के क्या मायने रह जाते हैं? और लोकतंत्र बचाने में अक्षम(विरोधी) सरकार किसी राज्य या देश का विकास कैसे कर सकती है? इस दौर में जब सरकारें पूंजी की गुलाम हो गई है, लोकतंत्र बचाने की जिम्मेदारी जनता की है और जनता अपने मनुष्य होने को नहीं भूल सकती है.
वर्तमान सरकार के ‘विकास’ का सीधा मतलब ‘विनाश’ है. सरकार पूंजी की सत्ता स्थापित करने के लिए जनता को उनकी मुलभुत आवश्यकताओं में ही उलझाए रखने के साजिश में मोहरे की तरह काम कर रही है. उसका जनता और देश से कोई सरोकार नहीं है. वो बस पूंजी की गुलामी कर पूंजीवाद को फलने-फूलने में मदद कर रही है. ऐसी सरकारों को बदल कर ही समाज को बचाए रखा जा सकता है. लोकतंत्र और देश को बचाए रखा जा सकता है. जनता को मनुष्य बने रहने के लिए ऐसी सरकारों को हटाना ही विकल्प है.