नई दिल्ली. भाकपा (माले) लिबरेशन ने गढ़चिरौली में मुठभेड़ के नाम पर हत्याओं की उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित दिशा-निर्देशों का सख्ती से पालन करते हुए तुरंत प्राथमिकी दर्ज कर न्यायालय की निगरानी में एक स्वतंत्र और समयबद्ध जाँच करने की मांग की है. पार्टी ने कहा ही कि राज्य-प्रशासन छापेमारी के नाम पर स्थानीय आदिवासी समुदाय का दोहन या उत्पीड़न बंद करे.
भाकपा (माले) लिबरेशन की केन्द्रीय समिति द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि 22 और 23 अप्रैल 2018 को ताड़गाँव, गढ़चिरौली में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल और सी-60 कमाण्डो के संयुक्त अभियान में माओवादियों के साथ तथाकथित ‘मुठभेड ’ में 37 लोगों को मार गिराया गया.
इस घटना की अनेक परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि ‘मुठभेड़ ’ की प्रमाणिकता पर अपने-आप सवालिया निशान खड़े होने लगते हैं.
सबसे पहली बात तो यह कि समाचारों के अनुसार जितने हथियार बरामद दिखाये गये हैं, मरनेवालों की संख्या उनसे कहीं ज्यादा है- इससे यह सवाल पैदा होता है कि क्या मरने वालों में से अधिकतर निहत्थे विद्रोही थे.
दूसरे, आधिकारिक अभिलेखों में भी यह कहा गया है कि माओवादी किसी गाँव में शादी में आये थे, वहीं वे आराम कर रहे थे कि उन्हें चारों ओर से घेर लिया गया. इसके अलावा इस पूरी वारदात में किसी भी पुलिसवाले या सीआरपीएफ के जवान को न तो कोई गम्भीर चोट पहुँची और न किसी की मृत्यु ही हुई. इससे अगला सवाल यह पैदा होता है कि क्या सीआरपीएफ और गढ़चिरौली पुलिस ने माओवादियों के हमले के जवाब में वास्तव में आत्मरक्षा के लिये समानुपातिक कार्यवाही की थी, क्या यह वास्तविक मुठभेड़ थी या एकतरफा नरसंहार था ?
भाकपा माले ने कहा कि तथ्य यह है कि सीआरपीएफ और पुलिस ने अंडर बैरेल ग्रेनेड लांचर का प्रयोग किया था जिसका प्रयोग इस उद्देश्य से किया जाता है कि मौतें अधिक से अधिक हों, इससे भी यह संकेत मिलता है कि ये हत्यायें वास्तव में मुठभेड़ तो नहीं थीं.
पी0यू0सी0एल0 बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने सितम्बर 2014 के एक फैसले में कहा था कि पुलिस मुठभेड़ में की गयी हत्यायें कानून के शासन और आपराधिक न्याय-व्यवस्था की विश्वसनीयता को प्रभावित करती हैं. इसपर उच्चतम न्यायालय ने प्रत्येक मुठभेड़ की स्वतंत्र एवं विश्वसनीय जाँच के लिये 16 विन्दुओं के मानक दिशा-निर्देश जारी किये थे. इन दिश-निर्देशों में पुलिस के लिये यह अनिवार्य कर दिया गया था कि (हाँलाकि महत्वपूर्ण जानकारियाँ उजागर नहीं की जाती फिर भी) आपराधिक गतिविधियों की कोई सूचना मिलने पर उसे किसी केस डायरी में किसी न किसी रूप में दर्ज अवश्य किया जाना चाहिये. मुठभेड़ में हुयी प्रत्येक हत्या के मामले में प्राथमिकी अवश्य दर्ज की जानी चाहिये और आपराधिक विधि की धारा 157 के अन्तर्गत उसे न्यायालय को अग्रेषित किया जाना चाहिये, किसी वरिष्ठ अधिकारी की देख-रेख में सी0आई0डी0 या दूसरे थाने की पुलिस टीम द्वारा उसकी स्वतंत्र जाँच अवश्य करायी जानी चाहिये.
इन दिशा-निर्देशों में किसी जाँच में उन मानदंडों का भी विस्तृत विवरण दिया गया है जिसका पालन किया जाना अनिवार्य है, और यह भी व्यवस्था दी गयी है कि प्रत्येक मुठभेड़ की सूचना राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या सम्बन्धित राज्य मानवाधिकार आयोग को अविलम्ब प्रेषित कर दी जानी चाहिये. यद्यपि उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों में इस बात की सख्त मुमानियत है कि जबतक न्यायालय में मुठभेड़ की वास्तविकता अन्तिम रूप से स्थापित न हो जाय तबतक किसी अधिकारी को वीरता पुरस्कार या अन्य कोई पुरस्कार न दिये जाँय, लेकिन इस निर्देश की प्रायः अवहेलना की जाती है. कुछ मीडिया ने तो इसका बहादुरीकरण करना पहले ही शुरू कर दिया है. गढ़चिरौली की हत्याओं पर सीआरपीएफ के जवानों के जश्न मनाने और नाचने के वीडियो वाइरल हो चुके हैं. सीआरपीएफ के जवानों के ऐसे व्यवहार से राज्य के सशस्त्र बल के पेशागत और नैतिक व्यवहार की मर्यादाओं की सारी सीमायें टूट गयी हैं, और मीडिया के कुछ भाग द्वारा भी इस पर जश्न मनाये जाने से किसी उत्तरदायी मीडिया से अपेक्षित व्यवहार के समस्त मानदंड भी टूट गये हैं.
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि खुद उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय भी ऐसी कोई तत्परता दिखाते प्रतीत नहीं होते कि प्रत्येक तथाकथित मठभेड़ के मामले में इन दिशा-निर्देशों का पालन सुनिश्चित किया ही जाता है. उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा तथाकथित मुठभेड़ों की बारिश, भोपाल में एक तथाकथित मुठभेड़ में सिमी के सदस्यों की हत्या- ये सभी फर्जी मुठभेड़ों के मामले हैं और उत्तर-प्रदेश पुलिस बल के सदस्यों के तो ‘मुठभेड़’ में मार डालने की धमकी देकर रिश्वत माँगने के सबूत भी मौजूद हैं और फिर भी कोई कार्यवाही नहीं की जाती.
हमारी माँग है कि गढ़चिरौली हत्याओं के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित दिशा-निर्देशों का सख्ती से पालन किया जाय- तुरंत प्राथमिकी दर्ज करके न्यायालय की निगरानी में एक स्वतंत्र और समयबद्ध जाँच सुनिश्चित करायी जाय. हम यह भी माँग करते हैं कि राज्य-प्रशासन छापेमारी के नामपर स्थानीय आदिवासी समुदाय का दोहन या उत्पीड़न न करे.