शम्सुल इस्लाम
इतिहास इस सच्चाई का गवाह है कि अनेकों बार देश और उनके राजनैतिक निज़ाम बाहरी दुश्मनों के काराण नहीं, बल्कि आतंरिक तत्वों, जो ख़ुद को देश का पहरेदार बताते हैं, की काली करतूतों की वजह से तबाह कर दिए जाते हैं।
जर्मनी और इटली इस की जीती जागती मिसालें हैं, जहां हिटलर के नेतृत्व में नाज़ी पार्टी और मुसोलिनी के नेतृत्व में फ़ासिस्ट पार्टी ने देशभक्ति के चोले पहनकर, वहां की प्रजातान्त्रिक व्यवस्थाओं को कुचल कर, तानाशाही शासन स्थापित किए।
आज हमारा देश भी इसी तरह के खतरनाक दौर से गुज़र रहा है। आज नेताओं की जो टोली प्रधान मंत्री मोदी के नेतृत्व में देश पर राज कर रही है, वह आरएसएस के स्वयंसेवक हैं जिनका मक़सद प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत को हिन्दू राज्य में बदलना है जहाँ मानवता विरोधी मनुस्मृति के तहत देश को चलाया जाएगा।
आरएसएस को भारत के मौजूदा संविधान की जगह मनुस्मृति का राज चाहिए!
हिन्दू दक्षिणपंथी मनुस्मृति को भारतीय संविधान के स्थान पर लागू करना चाहता है। मनुस्मृति इनके लिए कितना पवित्र है, यह हिन्दुत्व के दार्शनिक तथा पथ-प्रदर्शक वी.डी.सावरकर और आरएसएस के निम्नलिखित कथनों से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है। सावरकर के अनुसारः
“मनुस्मृति एक ऐसा धर्मग्रंथ है जो हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सर्वाधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति रीति-रिवाज, विचार तथा आचरण का आधार हो गया है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक एवं दैविक अभियान को संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिन्दू अपने जीवन तथा आचरण में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिन्दू विधि है।”
जब भारत की संविधान सभा ने भारत के संविधान को अंतिम रूप दिया (नवम्बर 26, 1949) तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने मनुस्मृति को भारत का संविधान घोषित नहीं किए जाने पर ज़ोरदार आपत्ति व्यक्त की। अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र में एक संपादकीय में उसने शिकायत कीः
“हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लिखित है, विश्व भर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।”
26 जनवरी 1950 के दिन भारत को एक गणतंत्र घोषित किया गया और संविधान को पूर्ण रूप से लागू किया गया। इस अवसर पर उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश शंकर सुब्बा अय्यर ने आरएसएस मुखपत्र में ‘मनु हमारे हृदय को शासित करते हैं’ शीर्षक के अन्तर्गत लिखाः
“हालांकि डा. अम्बेडकर ने हाल ही में बम्बई में कहा कि मनु के दिन लद गए हैं, पर फिर भी यह एक तथ्य है कि आज भी हिन्दुओं का दैनिक जीवन मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों में उल्लिखित सिद्धांतों एवं आदेशों से प्रभावित है। यहां तक कि जो रूढ़िवादी हिन्दू नहीं है, वे भी कुछ मामलों में स्मृतियों में उल्लिखित कुछ नियमों से अपने को बंधा हुआ महसूस करते हैं और वे उनमें अपनी निष्ठा का पूरी तरह परित्याग करने में लाचार महसूस करते हैं।”
डा. अम्बेडकर की मौजूदगी में जलाई गई मनुस्मृति
यहां यह जानना ज़रूरी है कि 20 मार्च, 1927 के दिन डा. अम्बेडकर की मौजूदगी में महाड के स्थान पर मनुस्मृति को एक अमानवीय ग्रंथ मानकर इसकी प्रति जलाई गई थी। भारत के मौजूदा संविधान के बारे में गोलवलकर के विचार भी कम चौंकाने वाले नहीं हैं। आरएसएस के इस परम पूज्य दार्शनिक के अनुसारः
“हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों में से लिए गए विभिन्न अनुच्छेदों का एक भारी-भरकम तथा बेमेल अंशों का संग्रह मात्र है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जिसको कि हम अपना कह सकें। उसके निर्देशक सिद्धान्तों में क्या एक भी शब्द इस संदर्भ में दिया है कि हमारा राष्ट्रीय – जीवनोद्देश्य तथा हमारे जीवन का मूल स्वर क्या है? नहीं।”
तिरंगे का तिरस्कार!
इतना ही नहीं जब स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर दिल्ली के लाल किले से तिरंगे झण्डे को लहराने की तैयारी चल रही थी आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र (आर्गनाइज़र) के 14 अगस्त सन् 1947 वाले अंक में राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे के चयन की खुलकर भर्त्सना करते हुए लिखाः
“वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेय होगा।”
आरएसएस प्रजातंत्र का दुश्मन !
आरएसएस लोकतंत्र के सिद्धांतों के विपरीत लगातार यह मांग करता रहा है कि भारत में तानाशाही शासन हो। गोलवलकर ने सन् 1940 में आरएसएस के मुख्यालय, रेशम बाग़ में आरएसएस के 1350 उच्चस्तरीय कार्यकर्ताओं के सामने भाषण करते हुए घोषणा कीः
“एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्ज्वलित कर रहा है।”
याद रहे कि एक झण्डा, एक नेता और एक विचारधारा का यह नारा सीधे यूरोप की नाजी एवं फ़ासिस्ट पार्टियों, जिनके नेता क्रमशः हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाह थे, के कार्यक्रमों से लिया गया था।
आरएसएस के चेले जो देश पर राज कर रहे हैं वे इन सब राष्ट्र विरोधी विचारों को लागू करने में दिन-रात लगे हैं। मोदी खुद को ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ बताते हैं। ऐसा देश की आज़ादी के बाद पहली बार हुआ है कि उच्च संवैधानिक पद बैठे किसी व्यक्ति ने स्वयं को ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ बताया हो।
यहां यह याद करना भी ज़रूरी है की जिन हिन्दुत्ववादी आतंकियों ने गाँधी जी की जनवरी 30, 1948 के दिन हत्या की थी, उन्हों ने भी खुद को ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ बताया था। मोदी के मंत्रिमंडल में मौजूद आरएसएस के एक प्रिय नेता, अनंत कुमार हेगड़े यह घोषणा कई बार कर चुके हैं कि मोदी सरकार सत्ता में इस लिए ही आयी है ताकि संविधान को बदला जा सके।
यह बहुत अफ़सोसनाक है कि हिन्दुत्ववादी रथ, भारतीय प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष निज़ाम को रौंदता बिना किसी अंकुश के दौड़ता चल जा रहा है। संसद मौन है, नौकरशाही घुटने टेक चुकी है और उच्चस्तरीय न्यायपलिका जिस का फ़र्ज़ है कि प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष ढांचे को सुरक्षित रखा जाए, वे भी भीतरी संकटों से ग्रस्त हैं। भारतीय राज्य ‘माओवादियों’, ‘अर्बन नक्सल्स’, ‘ख़लिस्तानियों’, ‘इस्लामपंथियों’ और ‘दलित एक्टिविस्ट्स’ को फांसी देने और जेल में डालने में ज़रा भी संकोच नहीं करता क्यों कि यह सब उस के अनुसार देश के संविधानिक निज़ाम को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। लेकिन आरएसएस भक्त देश के शासकों पर किसी भी तरह का अंकुश लगता नज़र नहीं आता जो चिल्ला-चिल्लाकर देश के संविधानिक ढांचे को हिन्दुत्ववादी राज्य में बदलने के आह्वान कर रहे हैं। क्या यह प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के अंत की शुरुआत है ?
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