“हमारी औकात एक औसत नक्षत्र के छोटे-से ग्रह पर तरक्की कर चुके बानरों की प्रजाति मात्र की है। पर हम कायनात को समझ सकतेहैं। यही हमें खास दर्ज़ा देता है। “
स्टीफेन हॉकिंग कौन थे? आम लोगों के मन में वे एक बड़े वैज्ञानिक थे, जिन्होंने हाल के वर्षों में कहा था कि अब हम पक्के तौर पर कह सकते हैं कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है, यानी खुदा ने यह कायनात न तो बनाई है और न ही इसको वह चलाता है। जाहिर है इस तरह के बयान से दुनिया के ज्यादातर लोगों पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। लोग अपनी आस्थाओं के साथ जीते हैं। पर यह बयान उस शख्स के बारे में कुछ कहता है, जिसे विज्ञान के अलावा अध्यात्म के सवाल पर कुछ कहने की ज़रूरत महसूस हुई।
मैंने स्टीफेन हॉकिंग को तक़रीबन छत्तीस साल पहले एक ही बार देखा था, जब मैं शोध-छात्र था। हमारे विश्वविद्यालय के साथ एक एडवांस्ड स्टडीज़ इंस्टीट्यूट था, जिसमें व्याख्यान के लिए उन्हें बुलाया गया था। वे भौतिक विज्ञान और कॉस्मोलोजी यानी ब्रह्मांड-विज्ञान के लिए उत्तेजना के साल थे। एक ओर पदार्थ की संरचना के सूक्ष्मतम पक्ष पर नए सिद्धांत सामने आ रहे थे, वहीं कायनात की शुरुआत पर समझ पक्की हो रही थी। मेरे विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञान विभाग से प्रो0 वाल फिच को के-मीज़ॉन कणिकाओं पर काम के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था। स्ट्रिंग थ्योरी के पहले युवा प्रस्तावकों में से एडवर्ड विटेन भी वहीं पढ़ाने लगे थे। ऐसे में ब्रह्मांड की भौतिकी पर स्टीफेन हॉकिंग को सुनने में हर कोई उत्तेजित था। पर जब हम सुनने गए तो जितना पहले से अंदाज़ा था, उससे भी ज्यादा तकलीफ यह देख कर हुई कि इतना बड़ा वैज्ञानिक शारीरिक रूप से बिल्कुल पंगु हो चुका था; यहाँ तक कि उसकी बात को एक मशीन के सहारे समझ कर उनकी नर्स हम तक पहुँचा रही थीं। उन दिनों हॉकिंग के बारे में सिर्फ विज्ञान-कर्मियों को पता था। आज हर कोई उन्हें खबरों में या हाल में उन पर बनी फिल्म ‘द थीओरी ऑफ एवरीथिंग’ के जरिए जानता है। मेरे लिए वह एकमात्र तज़ुर्बा था , जब मैं उनकी बातों को सुनने से ज्यादा उनको देखता रहा था और अचंभित हो रहा था कि कुदरत ने ऐसे इंसान भी पैदा किए हैं, जो किसी भी तरह हार मानने को तैयार नहीं हैं और अपनी धुन में काम किए जा रहे हैं। उन्हें 21 साल की उम्र में ही एमिओट्रॉफिक लेटरल स्क्लेरोसिस नाम की ऐसी बीमारी हो गई थी, जिसमें दिमाग नसों को संचालित नहीं कर पाता है। तब ऐसा माना जा रहा था कि उनके बस कुछ ही साल बचे हैं । ऐसी हालत में कोई सामान्य आदमी कामकाज छोड़ कर हताश बैठ जाएगा, पर स्टीफेन हॉकिंग और शिद्दत से शोध के काम में लग गए जैसे कि वे अपनी बची हुई ज़िंदगी में पूरी रफ्तार से कुदरत के राज खोल कर रख देना चाहते थे। हालाँकि उनका शरीर पंगु हो गया था और बस उँगलियों से मशीन के बटन दबाकर और आँखों के जरिए अपनी बात वे दूसरों तक पहुँचा पाते थे, पर उनका ज़हन सोच-समझ और वैज्ञानिक पहेलियों को सुलझाने में पूरी तरह काबिल रहा।
और उनकी जिजीविषा के सामने काल को हारना पड़ा। शायद ऐसे ही इंसानों के लिए शमशेर बहादुर सिंह ने ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ कविता लिखी होगी। बीमारी उस रफ्तार से आगे न बढ़ पाई जिसकी कि डॉक्टरों को शंका थी। उन्होंने अस्पताल में ल्यूकेमिया की बीमारी से पीड़ित एक लड़के को मरते देखा और अपनी ज़िंदगी में कुछ कर जाने की ठानी। उन्होंने कहीं कहा है, ” आगे सब अँधेरा दिख रहा था, पर मैंने अचरज के साथ पाया कि मुझे ज़िंदगी पहले से ज्यादा हसीन लगने लगी थी। मेरे शोध के काम में तरक्की होने लगी। … मेरा मकसद साफ था। मैं कायनात को पूरी तरह समझना चाहता था। जो कुछ है, वह ऐसा क्यों है, और यह है ही क्यों?” शुरुआत में वे बैसाखियों पर ही चलते-फिरते थे और लंबे समय तक वे व्हील-चेयर के इस्तेमाल से बचते रहे।
हॉकिंग का वैज्ञानिक काम सैद्धांतिक था। आमतौर पर पूरी तरह से सैद्धांतिक काम करने वाले वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जाता है। इसलिए उन्हें नोबेल पुरस्कार तो नहीं मिला, पर बेशक पिछली सदियों के महानतम वैज्ञानिकों में उनको गिना जाता है।
हॉकिंग ने वयस्क जीवन में शोध का सारा वक्त कैंब्रिज विश्वविद्यालय में बिताया। उनके प्रमुख शोध-कार्यों में ब्लैक होल पर बनी नई समझ, और गुरुत्वाकर्षण (ग्रैविटी) और क्वांटम गतिकी के सिद्धांत को एक सैद्धांतिक ज़मीन पर लाना है। 1974 में ब्लैक होल पर लिखा उनका परचा दुनिया के शीर्ष वैज्ञानिकों के नज़र में आया और तब से वे सदी के बड़े वैज्ञानिकों में गिने जाने लगे। उनके नाम पर कई सिद्धांतों का नाम पड़ा, जैसे हॉकिंग रेडिएशन, जो विशेष स्थितियों में ब्लैक होल से निकलता है। 32 साल की उम्र में उन्हें रॉयल सोसायटी का फेलो चुना गया, जो अभूतपूर्व है।
कुछ सालों बाद वे अपनी पत्नी से अलग हो गए। तलाक के बाद अपनी नर्स से शादी की। उन्हीं दिनों उनकी किताब ‘अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम: फ्रॉम द बिग बैंग टू ब्लैक होल्स’ प्रकाशित हुई। आज भी बड़ी तादाद में स्कूल कॉलेज के बच्चे इस किताब को पढ़ते हैं। अब तक इस किताब की करोड़ से ज्यादा प्रतियाँ बिक चुकी हैं और चालीस भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। इस किताब पर आधारित एरोल मॉरिस की एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म भी आ चुकी है। विज्ञान की दुनिया में हर किसी को खुशी थी कि वे ज़िंदा हैं। अब तो लोग इस बात के आदी हो चुके थे कि उनको कभी ठीक न होने वाली बीमारी है। यह सोचना भी रुक गया था कि वे कभी भी गुजर जा सकते हैं। यह कमाल ही है कि वे इतने सालों तक ज़िंदा रह पाए, इसके बावजूद कि आधुनिक मेडिकल साइंस के मुताबिक उनका अब तक जीते रहना नामुमकिन था। यह भी अजीब वाकया है कि उनका जन्म 1942 में गैलीलीओ गालीली के 300 वें मृत्युवार्षिकी के दिन, 8 जनवरी को हुआ और मौत एल्बर्ट आइन्स्टाइन के 139 वें जन्मदिन 14 मार्च को हुई । संयोग से आज ही के दिन कार्ल मार्क्स का भी देहांत हुआ था। अपनी 76 वर्ष की ज़िंदगी में दुनिया भर में गए। यहाँ तक कि ऐंटार्कटिका भी गए। हिंदुस्तान भी आए। दिल्ली में एक विशाल भीड़ के सामने उन्होंने खुले में भाषण दिया। न्यू यॉर्क टाइम्स में प्राशित एक आलेख में डेनिस ओवरबाई ने लिखा है कि वे अपनी ह्वील चेयर में बैठे सारी कायनात का सफर करते थे। इस मायने में वे एक ऐक्टीविस्ट थे। वे दुनिया को दिखला देना चाहते थे कि विकलांगता से इंसान बेकार नहीं हो जाता है। इसी कोशिश में वे दिखला गए कि हमारे वक्त का सबसे मेधावी आदमी शरीर से विकलांग है और जिन्हें हम सामान्य या नॉर्मल मानते हैं उनसे कहीं ज्यादा मेहनती और अग्रगामी है। वे बातचीत में खुशमिजाज़ी और ज़िंददिली दिखलाते थे। उन्हें सुनने वालों में हर कोई उनकी हँसी-मजाक से भरी बातों का कायल रहा। वे संगीत प्रेमी थे, प्रसिद्ध जर्मन शास्त्रीय संगीतकार रिख़ार्द वाग्नर उनके पसंदीदा संगीतकार थे।
विज्ञान के अलावा सामाजिक समस्याओं पर वे यदा-कदा अपनी राय देते रहे। उनकी बातों से दुनिया भर में तरक्कीपसंद ताकतों को बल मिलता रहा। बीमारी की हालत में भी वे वियतनाम में अमेरिकी जंग के खिलाफ प्रदर्शनों में शामिल होते थे। वे आधुनिक पूँजीवादी और फौजी ताकत पर आधारित सभ्यता के विरोधी थे और इस बात से गंभीर रूप से चिंतित थे कि इंसान ने धरती को तबाह होने के कगार पर ला खड़ा किया है।
उनकी मौत से मुक्तिकामी सोच रखने वाले हर किसी को तकलीफ तो होगी, पर उनकी जिजीविषा आगे की हर पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत रहेगी। तर्कशील परंपरा में वे एक अद्वितीय सितारा थे।
(लाल्टू:10 दिसंबर 1957 को कोलकाता में जन्मे लाल्टू कविता, कहानी, पत्रकारिता, अनुवाद, नाटक, बाल साहित्य, नवसाक्षर साहित्य आदि विधाओं में समान गति से सक्रिय हैं.रसायन शास्त्र में अध्यापन करने के साथ –साथ वे शिक्षा के मुद्दे पर भी बहुत सक्रिय हैं. संपर्क : laltu10@gmail.com)