समकालीन जनमत
कहानी

वास्को डी गामा की साइकिलः लोकतंत्र में उम्मीद और छल की कहानी

कुँवर प्रांजल सिंह


सामान्यतः “आम और ख़ास” बनने की बीमारी और खूबी प्रत्येक भारतीय में लगभग- लगभग पायी जाती है l इस पूरी अवधारणा का वास्ता राजनीतिक दुनिया से है । प्रवीण कुमार के द्वारा लिखी गई कहानी “वास्को डी गामा की साइकिल” का मुख्य किरदार बजरंगी की मुराद भी कुछ इसी प्रकार की है ।

बंजरगी जिस राजनीति में प्रवेश कर रहा है वह किसी चुनाव से जीते हुए किरदार के रूप में न होकर क्षेत्रीय अस्मिता और भीड़ की ढीले- ढाले अर्थों से अपने वजूद के तौर पर शामिल होता है ।

कहानी के इस किरदार को राजनीतिक दुनिया के सैद्धांतिक दीवारों से मुठभेड़ कराने से पहले राजनीति से जुड़े कुछ सवालों को सामने रखना आवश्यक है । मसलन, जिसे हम राजनीति कह रहे हैं उसकी दिशा और दशा कैसे तय होती है? बजरंगी का सामाजिक हो जाना राजनीति के किस धुरी से तय होता है ? इन सवालों को सर्वप्रथम सैद्धांतिक गिरेवान में झांक लेना आवश्यक है ।
बजरंगी और भाई साहेब के संवाद ने राजनीति की परिभाषा में जिस संभावना नामक सद्गुण को जोड़ा है वह अपने आप में राजनीतिक समाज का पर्याय बन जाता है ।

पार्थ चटर्जी के द्वारा परिभाषित किया गया यह ‘राजनीतिक समाज’ का पद अपने आप में सबाल्टर्न के राजनीतिक अंदाजे-बयां की ही एक अभिव्यक्ति है।

इस राजनीतिक अंदाजे-बयां का मूल पहलू रोजमर्रा की जिन्दगी के जद्दोजहद से जुड़ा है , जहाँ लोग गैर-क़ानूनी ढंग से अपने जीवन निर्वाह के लिए एकत्रण की प्रक्रिया को अंजाम देते है और सदा राज्यशील राजनीति के लिए एक भीड़ के रूप में देखे और परिभाषित किये जाते है ।

कहानी का मुख्य किरदार बजरंगी भी भाई जी के लिए भीड़ का आउटसोर्स की तरह ही था । बजरंगी का यह किरदार उसे राजनीतिक किरदार के रूप में अंकित करता है , जिसे बजरंगी अपने जीवन के परिवर्तन से जोड़ लेता है और इस परिवर्तन से वह ऐशो-आराम की कल्पना करने लगता है।

बजरंगी सीढियों से चढ़कर ऐसे कमरे में दाखिल होता है जो उसके लिए स्वप्न जैसा महसूस होता है , जिसमें लाल कालीन की छुवन और दीवारों पर लगे कालीन से वह अंदाजा लगाने लगता है कि जो शक्स मिलने आने वाला है वह कोई देवता ही होगा , और देखते ही देखते देवता प्रकट हो जाते हैं ।

बजंरगी ने मन ही मन कहा की अब मालूम पड़ा की बड़े लोग देवता क्यों लगते है। इसी कहानी का एक टुकड़ा साझा करते हुए आम और ख़ास के बीच के फासले का अंदाजे बयां कुछ यूँ है कि :

“ देवता समान साहेब ने बजरंगी से आग्रह किया “ आप बहुत दूर बैठे है बजरंगी जी । मेरे पास आइए । इशारा उनका अपनी बगल वाली कुर्सी का था जिस पर किसी ने कभी बिठाने की हिम्मत नहीं की । बजरंगी संकुचाते हुए और बहुत जान लगा कर आहिस्ता- आहिस्ता उनके पास सरक आए और बहुत कायदे से बगल वाली कुर्सी पर जा बैठे । इस पूरी प्रक्रिया में बजरंगी प्रसाद ने न तो सांस अंदर खिंची और न तो बची हुई सांस को फेफड़े के बाहर जाने दिया । बाप रे बाप! इतना सम्मान!ओह! कोई फोटो खीच लेता-हे प्रभु । आज सुमन यहाँ होती तो देखती बजरंगी का जलवा।4

बजरंगी जिस देवता समान साहेब की तरफ बढ़ता हुआ वह एक ऐसे वैधानिकता को महसूस करने लगता है, जो सत्ता के बनावट के करीब है । लोकतंत्र में भी इस प्रकार के बहुलतावाद का मिश्रण देखने को मिलता है , जिससे राजनीतिक विश्वास कुछ समय के लिए जीता जा सकता है लेकिन उनके बीच विकास के किस मायने को जोड़ा जाये, जहाँ बजरंगी बेहतर जीवन की अभिलाषा को अपने घर में बैठ कर भी महसूस कर सके ।

यह बात लगभग लोकतंत्र के विमर्श से नदारद है । क्योंकि लोकतंत्र की परिभाषा में शक्ति की चकाचौंध के अलावा कुछ नज़र नहीं आता और यह बजरंगी की कल्पनाओं में इस प्रकार प्रवेश कर जाती है जहाँ राजनीति के कई अर्थों का विन्यास होने लगता है।

रही बात लोकतांत्रिक थ्योरी की तो उनका यह दावा है कि लोकतंत्र में आम जनता ही केंद्र में रहेगी । लेकिन लोकतंत्र की व्यवहारिकता का धरातल यह मानता है कि लोकतंत्र संवैधानिक व्यवस्था को जन्म देता है, जिसमें अधिकारों और कर्तव्यों का बटवारा कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के नाम पर होता है और इस बटवारे में राज्य की निगाह सिर्फ़ खास लोगों पर ही रहती है ।

आम लोग अधिकार संपन्न नहीं होते । जाहिर है कि जनता के सशक्तिकरण करने के सवाल पर लोकतंत्र को और विश्लेषित करने की आवश्यकता है ।
हालांकि समकालीन राजनीति में बजरंगी के प्रयास को भाई जी से हटा कर जनता की शक्ति की धुरी पर रख दिया जाये तो ऐसे आन्दोलन का कोण निर्मित किया जा सकता है जो लोकतंत्र के संस्थानों की बनावट से बाहर निकाल कर गैर- राजनीतिक प्रक्रियाओं में परिभाषित करने का आकलन पेश करने की गुंजाइश बन सकती है ।

इससे जिस राजनीति की संकल्पना बनती है वह उत्पीड़ित तबकों के कार्यवाहियों पर आधारित होती है। इससे यह कहा जा सकता है की लोकतंत्र के भीतर एक लोकतांत्रिक संघर्ष जारी है ।

यहाँ एक संभावना के आधार पर यह भी माना जा सकता है की यह संघर्ष एक लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना कर दे लेकिन वर्तमान “व्यवस्था” में दिए जा रहे राजनीतिक तर्क फिरकापरस्ती से ज्यादा जुड़े हुए हैं।

जिसमें जनता सिर्फ नेता से आशा लगाये हुए है कि नेता ही सब कुछ कर सकता है और रोज इसी सोच के साथ बजरंगी तथा भारतीय जनता की साइकिल चलती रहती है। जिसे मैं अपने इस लेख में ‘राजनीति’ के बहुआयामी मायने के रूप में विश्लेषित करूँगा।

राजनीति’ के मायने
बजरंगी के सामने राजनीति का अर्थ उसकी जिन्दगी की गुरबत और खास लोगों के जीवन के ऐशो- आराम से मिल कर बनी होती है। पहली राजनीति की दिलचस्प परिभाषा इशारों के खेल के रूप में समाने आती है ।

इस इशारे पर भारतीय राजनीति में कभी खुल के नहीं बोला गया लेकिन पूरी राजनीति इसी से निर्धारित होती है । भाई जी ने जब देवता से कहा कि “बहुत आबादी है अपने लोगों की यहाँ” तो “देवता ‘अपने लोगों’ का अर्थ शायद सटीक ढंग से समझ रहे थे”।

प्रवीण कुमार ने इस शब्द ‘अपने लोगों’ के बहाने भारतीय राजनीति के उस मर्म को छूने का प्रयास किया जहाँ जाति, धर्म, रीति- रिवाज अक्सर राजनीतिक निर्णय लेने का आधार बन जाते है जो वर्चस्व की राजनीति से जुडा हुआ है।

हालांकि रजनी कोठारी इसे अराजनीतिक समाज के विलक्षण गुणों की तरह परिभाषित कर रहे थे , क्योंकि उनका मानना था की यह एकीकृत राजनीतिक ढांचा निर्मित करने में सफल नहीं हो सके। लेकिन वर्तमान में यह चौधराहट का रूप धारण कर चुकी है।

बाहरी प्राधिकार से जाति और धर्म के नाम पर सौदेबाजी को जन्म दे रही है, जिससे पारंपरिक धड़ेबंदी से अलग राजनीतिक होड़ के आधार वाली धड़ेबंदी का निर्माण कर रही है ।

दरअसल, राजनीतिक सत्ता के एकमात्र आधार के रूप में जाति की वैधता का क्षय हो जाने के कारण जातीय गणित का महत्व बढ़ जाता है । विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न जातियों के संख्या बल, उम्मीदवारों के चुनाव, जातियों की भीतरी दलबंदी और जातियों का आर्थिक संबंधों का गणित बदलता रहता है । समझने की बात यहाँ यह है कि जातीय गणित की उस समय ज़रूरत नहीं थी जब कुछ जातियों के लोग ही सत्ता के दावेदार थे ।

लेकिन आज भीड़ जमा करने से लेकर राजनीति का क्षेत्र निर्धारित करने तक का आकलन जाति के आधार पर ही किया जा रहा है । सत्ता के कई आधार खड़े किये जा रहे हैं ।

हेरल्ड.ए.गोल्ड की तजवीज यहाँ प्रासंगिक हो जाती है कि जाति राजनीति की निर्धारण भूमिका से गिर कर उसे प्रभावित करने वाला एक परिवर्तन तत्व बन गयी है। इस प्रकार की राजनीति आज भी इशारतन ही की जाती है।

दूसरी तरफ राजनीति सार्थकता के रूप में बजरंगी के सामने थी। जहाँ बजरंगी सार्थकता का अभिप्राय सामाजिक जुड़ाव के भरोसे के रूप में सहेजता है। जिसमें इज्जत जैसी बुनियादी आवश्यकता मौजूद होती है।

बजरंगी की इस कल्पना में साइकिल यह कहते हुए प्रवेश कर जाती है कि भरोसे से कुछ होता है जी ? साइकिल बिदक कर कहती है “तो तुमको क्या लगता है कि तुम्हें शक्ति आएगी भैया जी जैसे लोगों से जुड़ने से ? माननीय बजरंगी जी, आज की राजनीति में तुम जैसे नेताओं की उम्र ही कितनी है बहुत ही कम पता कर लो। बजरंगी ने जबाव दिया की ‘ तो फैक्टरी में कौन सी लम्बी उम्र मिलने वाली है ?

लोहा गलाने वाले मज़दूर साठ भी नहीं पहुंचते। मैं साठ तक पहुंच जाऊँ तो बहुत अचरज की बात है। बजरंगी और साइकिल की इस मनोदशा को लोकतंत्र में सार्थकता की साजिश की राजनीति के रूप में देखा जाना चाहिए।

हालांकि यह लोकतंत्रिक कल्पनाओं में अटपटे मोड़ की तरह लग सकता है । लेकिन मजदूर को ऐसे दुनिया में ले जाकर खड़ा किया जाता है जहाँ तारतम्यता की हमशक्ल में उसकी गुरबत को लोकतंत्र की मजबूरी के रूप में दिखाये।

यहाँ जनता को सत्ता का आश्वसन दे उसके व्यक्तिगत जीवन को ही उथल-पुथल करने का प्रयास करती है , क्योंकि लोकतंत्र की राजनीति में नागरिकता की पहचान सीमित समय के लिए ही किया जाता है।

मसलन लोकतंत्र में दो प्रकार के “समय” होते हैं । एक विशिष्ट समय और एक सामान्य समय । दोनों समय में जनता को देखने का नज़रिया अलग-अलग होता है । चुनाव को विशिष्ट समय के रूप में देखा जा सकता है। जहाँ जनता की पहचान नागरिक के रूप में की जाती है ।

सामान्य समय में जनता, मजदूर प्रजा ही बने रहती है। लेकिन बजरंगी की भांति सत्ता की बनावट के चकाचौंध से कभी अपने आप को जोड़ते हुए खुश भी हो जाते है और कभी अपनी गुरबत को अपना कर्म मान कर अपने झोपड़े में जनता लौट जाती है ।

प्रवीण कुमार की कहानी का सबसे नायाब पक्ष भी यही है की वह विशिष्ट समय और सामान्य समय के बीच के द्वंद को उकेरने का प्रयास करते हैं । जिसमें बजरंगी के पत्नी का किरदार इस पूरे द्वंद का आइना बनता है ।

बजरंगी की पत्नी का जो विद्रोही तेवर है उसे जन-विद्रोह के तर्ज पर रख कर यह माना जा सकता है कि जन-विद्रोह और जनता के उत्सवों में खर्च हो जाने वालो उर्जा सही जगह लगाने के लिए कई तरह के कार्यक्रम डिजाइन किये जातेहैं।

आम लोगो के अज्ञानी और अस्थिरचित्त होने की छवियाँ उकेरी जाती हैं। इन गढ़े गये कार्यक्रमों और छवियाँ में एक बात समान है । हर जगह यह तस्वीर ऐसे सर्वहारा जनों की है जिनकी चेतना या तो अतीत के अवशेषों से दूषित हो चुकी है या फिर आज के ज़माने के सामाजिक मध्यस्थों ने उसे गन्दला कर दिया है।

यह सर्वहारा हमेशा ही ऐसे मजदूरों के रूप में दिखाया गया है जो “रचना के दौर में है” और आज भी जिसकी शिनाख्त उस चक्रीय लय से की जा सकती है। जिसके तहत ग्रामीण जनता की मेहनतकश जिंदगी और उनके त्यौहार और मनोभाओ की दुनिया को राजनीति का हिस्सा नहीं बनाया गया।

बल्कि उनकी पृष्ठभूमि को शहर की कोठियों ने चावल, बिहारी कह कर गरियाया ही है। माना जाता है कि शहर और देहात का यह सर्वहारा उस प्रतीकात्मक खेल में फंसा हुआ है जो प्राक्-आधुनिक शहरी जन-समूहों द्वारा शाही अफसरशाही के साथ खेला जा रहा है।

अंत में प्रवीण कुमार की कहानी कही खत्म नहीं होती और ना ही उबासी ले कर सो जाने वाली कहानियों की तरह है । बल्कि हर वाक्य एक वाक्यांश है भारतीय राजनीति की हक़ीकत का ।

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