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ज़ीरो माइल अयोध्या

अयोध्या, पिछले दिनों हुए लोकसभा के आम चुनाव के परिणाम आने के बाद, फिर से चर्चा में आ गया।

पिछले सात दशकों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद व  साम्प्रदायिक  सियासत के केन्द्र में अयोध्या रहा है।

2014 के बाद संघ-भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद अयोध्या केन्द्रित हिन्दूवादी  राजनीति अधिक  आक्रामक हुई।

इस साल के जनवरी महीने में 22 तारीख को राम मन्दिर उद्घाटन के दौरान  यह अपने चरम पर थी। पूरी दुनिया के सामने अयोध्या को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद व हिन्दू राष्ट्र की राजधानी की तरह पेश किया गया।

लेकिन जून महीने में आये 2024 के आम चुनाव परिणाम में एक दलित प्रत्याशी से  भाजपा की हार  दुनिया भर में खबरों की सुर्खी बन गयी।

इसके बाद अयोध्या, कभी रामपथ के निर्माण में घपले को लेकर, तो कभी जमीन की खरीद-फरोख्त में सियासी संलिप्तता को लेकर आम चर्चा में बना रहा।

इन चर्चाओं से अलग अयोध्या कुछ और भी है। अयोध्या का इतिहास, लोकवृत्त, सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टता पहले से एक खास पहचान लिए रही है।

उसकी इस पहचान को अभी हाल में आयी पुस्तक ‘ज़ीरो माइल अयोध्या’ अपना अंतर्वस्तु बनाती है। इस पुस्तक के लेखक,  पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह हैं।

यह पुस्तक उन्नीस प्रकरणों में विभाजित है, जो अलग-अलग शीर्षकों के अंतर्गत है। इसमें ‘मत-मतांतर, मेलजोल’, ‘सीता और बड़ी बुआ’ प्रकरण में अयोध्या की सामूहिक, साझी सांस्कृतिक विरासत और पहचान को उभारा गया है।

इसमें  बौद्ध, हिन्दू और मुस्लिम  संस्कृति के मानवीय तत्व एक-दूसरे में घुले-मिले हैं। इन्हें अलगाना मुश्किल है।

पुस्तक में यह बात उसी तरह से रखी गयी है, जिस तरह से वह अयोध्या के लोक व नागर सामाजिक जीवन में उपस्थित है। कोई अतिरिक्त जोर नहीं, कोई आग्रह नहीं।

आग्रह है, तो वह एक पत्रकार की सच के प्रति खुद से तय की गयी जिम्मेदारी है। पहले प्रकरण में लेखक का प्राक्कथन इसे व्यक्त करता है।

पूंजी और साम्प्रदायिक सत्ता के गठजोड़ ने सत्य को संदिग्ध बना दिया है। सत्य की समझ को धुंधला किया है। उदारीकरण और बाबरी मस्जिद विध्वंस के तीस साल के समय में  यही हुआ है।

लेखक इन तीस सालों में एक शहर के मार्फत एक -एक बदलाव को दर्ज करता है। इस दौरान लेखक खुद भी ‘युवा और आवारा’ से ‘वरिष्ठ और वयोवृद्ध’ हो चुका है।

उसकी एक पत्रकार और जिम्मेदार नागरिक के बतौर यात्रा भी इसमें शामिल है। लेखक की खुद की स्वीकारोक्ति बहुत कुछ कहती है। लेखक की आवारगी दरअसल सच  और परिवर्तन के सपने के लिए है।

‘टूटता हुआ सपना’ उप-शीर्षक में लेखक लिखता है,

“…ज़िंदगी की जद्दोजहद में उठते-गिरते और घिसटते व जाने कितने पापड़ बेलते ‘युवा और आवारा’ से ‘वरिष्ठ और वयोवृद्ध’ होने लगा हूँ। वय का पता ऊंचाई पर चढ़ते वक़्त फूलती हुई सांसों से पाता हूँ तो वरिष्ठ होने का पता सम्पादकों द्वारा किसी लेख या रिपोर्ट में अपने नाम के आगे लिखे ‘वरिष्ठ पत्रकार’ से। अन्यथा क्या वरिष्ठता और क्या वार्धक्य,  दोनों एक जैसी असहायता के पर्याय लगते हैं। लगें भी क्यों नहीं, दुनिया में उस सच को सच की तरह लिखने, पढ़ने, छापने, दिखाने-सुनाने और समझने व समझाने का चलन ही उठता जा रहा है, आवारगी के दिनों में जिसका सपना देखने की हमने भरपूर गुस्ताख़ी की थी।”

लेखक एक शहर के भीतर से गुजरते हुए बतौर बाशिन्दा, पत्रकार, नागरिक यह गुस्ताख़ी करता है।

शहर है अयोध्या। वह अयोध्या, जो फ़ैज़ाबाद का जुड़वा शहर था। जो  साझे संघर्ष, और साझी संस्कृति के बल पर आधुनिक शहरों में शुमार हुआ था। फ़ैज़ाबाद जिले का नाम जब अयोध्या किया गया, तब लेखक उसे इस तरह देखता है,

“…आज की तारीख़ में जब कई महानुभावों द्वारा गर्व के साथ याद किया जाता है, कि योगी आदित्यनाथ ने फ़ैज़ाबाद का नाम व निशान मिटा डाला है, तो आसफ़उद्दौला के साथ फ़ैज़ाबाद के ‘दुश्मनों’ में उनका नाम लेने वाले फ़ैज़ाबादियों को समझ में नहीं आता कि फ़ैज़ाबाद ने कब उनकी कौन-सी खेती चर ली थी! उसकी तो जो भी लाग डाँट थी, दिल्ली और लखनऊ से थी। अयोध्या का तो वह जुड़वा शहर था, प्रतिद्वन्द्वी नहीं।”

अयोध्या की सामूहिक, साझी संस्कृति देश की आजादी के लिए चलने वाले संघर्ष में भी परवान चढ़ी थी।

‘शहर में 1857’, ‘किसानों का शक्ति प्रदर्शन’, ‘सशस्त्र क्रान्तिकारी संघर्ष’ प्रकरण में इसे बड़ी शिद्दत से पिरोया गया है।

हिन्दू-मुस्लिम एकता के साथ इसमें राजाओं की गद्दारी व अंग्रेजपरस्ती को भी उद्घाटित किया गया है।

1857 के नायक मौलवी अहमदउल्लाह शाह की दास्तान पढ़ने लायक है। दिलचस्प तथ्य है, कि

“फ़ैज़ाबाद की धरती का सपूत मौलवी अहमदउल्लाह शाह शाहजहाँपुर में शहीद हुआ और उसके ख़ून से उस जनपद की धरती सींची गई तो बीसवीं सदी के तीसरे दशक में शाहजहाँपुर की धरती के एक सपूत अशफाकउल्ला खां का पवित्र ख़ून फ़ैज़ाबाद की धरती पर गिरा। इतिहास का कैसा विचित्र संयोग है, कि एक फ़ैज़ाबाद से जाकर शाहजहाँपुर में शहीद हुआ, तो दूसरा शाहजहाँपुर में जन्मा और फ़ैज़ाबाद में शहीद हुआ।”

लेखक ने प्रसंगवश जिक्र किया है, कि सर्वोच्च न्यायालय के रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के फैसले के मुताबिक मस्जिद निर्माण के लिए जो पांच एकड़ भूमि प्रदान की गयी है, उस पर निर्माणाधीन मस्जिद को इन्हीं मौलवी का नाम दिया गया है।

मस्जिद निर्माण का काम देख रहे इण्डो इस्लामिक कल्चरल फाउण्डेशन ट्रस्ट के अनुसार उसने मस्जिद के साथ जोड़ने के लिए किसी ऐसी शख्सियत का नाम तलाशना शुरू किया, जो इस विवाद के कारण हिन्दुओं-मुसलमानों में पैदा हुई दूरियों के बरक्स दोनों में सद्भाव व सौमनस्य का वायस बन सके तो उसे मौलवी से बेहतर कोई नाम मिला ही नहीं। इसलिए उसने मस्जिद को ‘मौलवी अहमदउल्लाह शाह मस्जिद’ कहना ही पसंद किया।

अयोध्या को केन्द्रित कर की जाने वाली हिन्दूवादी साम्प्रदायिक राजनीति ने जिस तरह के परिणाम पैदा किये, उसकी भी विवेचना कई प्रकरणों में की  गयी है।

‘इंसाफ नहीं, फैसला’, ‘सरकारी दीपावली’ आदि ऐसे प्रकरण हैं। धर्म की राजनीति के पीछे के धन्धे, सरकारी योजनाओं के भ्रष्टाचार, सत्ता के चोंचले को भी लेखक ने बखूबी उघाड़ा है।

‘और अंत में…’ शीर्षक में लेखक लिखते हैं, “अकारण नहीं कि कई जानकार सत्ता प्रायोजित इस ध्वंस को गरीबों को उजाड़कर पर्यटकों की आवभगत के लिए पलक पांवड़े बिछाने की सरकारी कवायद के रूप में भी देख रहे हैं।  उन्हें लगता है कि यह कवायद उसी कड़ी में है, जिसमें हाल के दशकों की प्रायः सभी सरकारें नागरिकों के हितों के विरुद्ध निवेशकों के हितों को तरजीह देती आयी हैं। लेकिन लाख टके का यह सवाल पूरी तरह कोलाहल के हवाले कर दिया गया है कि इतिहास को बदलने और प्राचीन गौरव की पुनर्स्थापना के नाम पर अयोध्या के जिस इतिहास का ध्वंस किया जा रहा है, उसे सिरे से कैसे सृजित किया जायेगा? और नहीं किया जायेगा तो क्या भगवान राम को अपनी उजाड़ी गयी राजधानी की नयी फ़िज़ा रास आयेगी? बकौल क़ैफ़ी आज़मी,  छह दिसम्बर को तो वह रास नहीं आयी थी।”

भाषा और भाव की इसी शैली में ‘गरीबों-पीड़ितों का ठौर’ शीर्षक प्रकरण में आम जीवन की दुश्वारियों को लेखक ने संवेदनात्मक ढंग से उठाया है।

इसमें लेखक की द्वंद्वात्मक भौतिकवादी वर्गीय दृष्टि स्पष्ट होती है। इन सबके साथ पुस्तक में अयोध्या से जुड़े शायरों, लेखकों, कवियों, पत्रकारों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं के बारे में भी चर्चा है।

पुस्तक में लोक की किस्सागोई शैली को अपनाया गया है। साथ ही, पत्रकारिता के पदार्थ में साहित्य का रस मिला हुआ है। जो, इस पुस्तक को तथ्य, सत्य के साथ रोचक, भावपूर्ण और बेहद पठनीय बनाता है।

151 पृष्ठ की यह पुस्तक वाम प्रकाशन से, अक्तूबर, 2023 ई. में  छपी है। आवरण आकाश शेषाद्रि का है और इस पुस्तक का मूल्य 250 रूपये है। यह एक संजीदा पत्रकार की कलम से निकली संग्रहणीय पुस्तक है

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