[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]कुमार[/author_info] [/author]
कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्जे की बहार
खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
सात दशक पहले बंटवारे के दर्द को लेकर रची गयी फैज़ की यह पंक्तियां आज भी वैसी ही सुर्ख है. और तमाश देखिए कि बंटवारे को लेकर जिन्ना के नाम पर हाय-तौबा मचाने वाली मिशनरी ने ही फैज़ की बहत्तर साल की बेटी को अपमानित किया.
दुखी मुनीज़ा हाशमी पूछती हैं कि क्या हम पाकिस्तान से छूत की बीमारी लेकर आए थे , नहीं मुनीज़ा यह छूआ-छूत की बीमारी यहां बहुत गहरे है और हाल के वर्षों में यह नये नये प्रतिमान गढ रही घृणा के. प्रतिमा पूजकों के इस देश में पिछले महीनों में संवधिान निर्माता अंबेडकर की कितनी मूर्तियां टूटी हैं, आपको शायद पता नहीं.
मुल्कों की अदावत की कीमत तो केवल जनता चुकाती है, रहनुमा तो हमेशा सुर्खरू चेहरा लिए सीमाओं के आर-पार जाते आते रहते हैं, सारी बंदिशें आम लोगों के लिए होती हैं.
मुनीज़ा हाशमी इस सम्मेलन में महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर अपनी बात रखने वाली थीं. ऐसे समय में जब बलात्कारों की सुर्खियां भारत की छवि को दागदार किये है क्या यह मिशनरी उनके सवालों को झेलने से इतना डर गयी कि उन्हें न केवल सम्मेलन में भाग नहीं लेने दिया बल्कि उन्हें उस सम्मेलन में एक दर्शक के बतौर शामिल तक होने से रोक दिया. पथराती ताकतों का वजूद कैसा कांपता है, भाषाई कीमियागिरी के सामने, यह उसका एक नमूना है.
फैज़ के नाती पूछते हैं कि क्या यही है शाइनिंग इंडिया जहां मेरी 72 वर्षीय मां को औपचारिक तौर पर निमंत्रित करने के बावजूद कार्यक्रम में न हिस्सा लेने दिया गया और न बोलने दिया गया. यह शर्मनाक है.
नहीं प्यारे, यह उसके आगे का, अच्छे दिनों का भारत है, यहां किसान धरण पर झूल जाना पसंद करते हैं और प्रेमी डालों पर झूलकर जन्नत में मिलन का सपना देखते हैं.
इस शर्मनाक घटना की सुर्खियों से गुजरते पाश याद आते हैं –
यह सब कुछ हमारे ही समयों में होना था
कि समय ने रूक जाना था थके हुए युद्ध की तरह
और कच्ची दीवारों पर लटकते कैलेंडरों ने
प्रधानमंत्री की फोटो बन कर रह जाना था…
यह गौरव हमारे ही समयों को मिलेगा
कि उन्होंने नफरत निथार ली
गुजरते गंदलाये समुद्रों से…