रूपम मिश्र
(बिहार चुनाव में भाकपा मा-ले की भागीदारी पर रवीश कुमार की रपट पर एक टिप्पणी)
रवीश कुमार की हाल ही की एक रिपोर्ट में स्त्रियों के “निखड़हरे जन गीत” को सुनकर प्रभात की “लोकगायिका” कविता की याद आ गयी जिसमें वे लिखते हैं कि-
आज भर के लिए नहीं हैं
उनके विकल विरल स्वर
अनंत काल तक के लिए हैं
रवीश अपनी रिपोर्ट में कहते हैं कि महिलाओं का ये नेतृत्व बताता है कि पार्टी को यकीन है कि महिलाओं के पास बची हुई है जन की भाषा। मुझे महेश्वर की कविता का अंश याद आ गया कि-
“उनकी नसों में उर्वर धरती का आवेग
उनके माथे पर चमकता है जांगर का जल
उनके हाथ की रेखाओं में रची जाती है सभ्यता की तस्वीर
उनकी बिवाइयों से फूटते हैं सभ्यता के अंकुर
उनके पास उनकी होरी है
चैईता, कजरी और बिरहा है
हजारों हत्याकांडों के बावजूद सही-सलामत है उनका वजूद”
इसी रिपोर्ट में जब रवीश कहते हैं कि सीपीआई एम एल ने इन महिलाओं को कार्यकर्ता में बदल दिया है । पार्टी पिछड़ी धारा की महिलाओं में नेतृत्व क्षमता को विकसित कर रही है। उनपर भरोसा करना मेहनतकशों पर भरोसा करना है। ये वही मनुष्य हैं जिन्हें कवि मंगलेश डबराल “अपने जन, कहते थे ।
रवीश जब कहते हैं कि गाँव की गलियों में एक महिला डफली लेकर गा रही है और तमाम महिलाएं गाते हुए उसके पीछे चल रही हैं । वो दृश्य देखकर जैसे मन भर आया , एक कवि की वो साकार कविता बन गयी है। वो कच्ची ऊभड़ -खाबड़ जमीन मेड़-डाँड़ ,चकरोड पर चलती जा रही है, उनके साथ चल रहा स्वतंत्रता का स्वप्न ।
मुझे वीरेन डंगवाल की कविता याद आती है, उन्होंने समता राय के लिए जो स्वप्न देखे थे वो जैसे देह धरे दिख रहा था। ‘समता के लिए’ कविता में वीरेन जी कहते हैं कि-
“एक दिन बड़ी होना
सब जगह घूमना तू
हमारी इच्छाओं को मज़बूत जूतों की तरह पहने”
समता राय महिलाओं के साथ गाँव-गाँव घूम घूम कर, जिस तरह से जनगीत गा रही हैं वो काबिलेतारीफ है। ये गीत वही गीत हैं जो महिलाएं शादी विवाह और त्योहारों पर गाती हैं लेकिन गीत के तेवर एकदम नये हैं। भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ वो एक अनवरत आगाज़ है।
महिलाएं गाती हैं कि-
चोरी छुपे सेठवा से चंदा मंगवावे जी
जे केहू चंदा नाही देह जेल पठवावे जी।
एक बहुत बड़े घोटाले को ये महिलाएं सहजता से समझा रही हैं, यह सहजता दुर्लभ है। इसी तरह आगे गाती हैं कि-
माई-बहिनी के इज्जत माटी में मिलाये जी
मणिपुर के बतिया पर ओठ न हिलावे जी।
इलेक्ट्रोरल बांड से लेकर मणिपुर की हिंसा व महिला पहलवानों का यौन उत्पीड़न और फर्जी मुक़दमे में जेल भेजने जैसे तमाम राजनीतिक मुद्दों को जो आमजन तक नहीं पहुँचते, उन्हीं मुद्दों को ये महिलाएं जिस तरह से जन तक पहुँचा रही हैं उसकी जड़ें जनांदोलन में धंसी हैं। महिलाएं अपनी पार्टी की उस बात को साकार कर रहीं हैं कि पार्टी के लिए चुनाव जनांदोलन के संघर्ष का ही हिस्सा हैं ।
जन-जागरूकता बहुत बड़ी बात होती है, उसी के न होने के कारण जनता ऐसे लोगों को चुन लेती है जो रोज अपने तइँ गाँधी की हत्या करते रहते हैं।
ये महिलाएं फर्जी मुकदमे में अपने लोगों की गिरफ्तारी को लेकर जब गाती हैं तो लगता है कि वेदना स्वर में ढल गयी है, उनकी पीड़ा उनके गीतों से होकर बहती है। उस आवाज में शोक हैं और आक्रोश भी हैं ।
वे कहती हैं हमारे लोगों की हत्या की गयी और हमारे ही लोगों को जेल में डाल दिया गया। मैं सोचती थी कला और गीत आखिर क्या है- इन महिलाओं को गाते हुए सुनती हूँ तो लगता है यही कला है और यही गीत है। गीत जिसमें मनुष्य की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति होती है । जैसा कि नवारुण भट्टाचार्य कहते हैं कि-
“हत्यारों द्वारा संचालित न्यायालय में
झूठ अशिक्षा के विद्यालय में
शोषण और त्रास के राजतंत्र के भीतर
सामरिक असामरिक कर्णधारों के सीने में
कविता का प्रतिवाद गूँजने दो”
आखिर मनुष्य अपनी सारी पीड़ा-दुख लेकर कहाँ जाए, कला ने उसे एक शरणस्थली दी है।
वे जब गाती हैं
“साथी हमने की लड़े के पड़ी…
झूठे मुकदमवा में साथी के फ़सवले…
तो साफ पता चलता हैं कि यहाँ कि लड़ाई उनपर थोपी गयी है। ये सताये लोग जिनका जीवन रोटी-धोती के लिए श्रम करते बीतता है उन्हें पूँजी और जाति की हनक से सने हुए सामन्तों से लड़ना पड़ रहा है। जाहिर सी बात है उनके लिए ये लड़ाई बहुत कठिन है, इतनी कि वे इसे लड़ते-लड़ते थके और उदास से लगते हैं लेकिन उनका जांगर,उनकी अस्मिता और उनके मनुष्य होने की गरिमा, सब उन्हें लड़ने, डटे रहने की प्रेरणा देते हैं।
आमतौर पर चुनावों प्रचारों में महिलाओं की भूमिका लगभग नदारद होती हैं। लेकिन बिहार में यह पार्टी सीपीआई एम एल ने अपने चुनाव प्रचार में महिलाओं के नेतृत्व को महत्वपूर्ण भूमिका में रखा है । वहाँ महिलाएं खासकर पिछड़ी धारा की महिलाएं जनगीतों में ढालकर राजनीति के जमीनी मुद्दों को लोगों तक पहुँचा रही हैं। जागरूकता ,महिला अधिकार आदि मुद्दों पर बात करते हुए इन महिलाओं ने चुनाव प्रचार को जनांदोलन में बदल दिया है। ऐसी ही धूपखाई महिलाओं के लिए महेश्वर ने कहा होगा कि-
वह जले हुए जंगलों से निचोड़ लायेंगीं हरीतिमा..
और उससे खींच देंगी सेवा और प्यार के बीच लकीर।
गोरख की कविताओं में जो महिलाएं दिखती हैं संघर्षरत और ‘गरीब मर्दों के कंधे से कन्धा मिलाकर लड़ती हुई’ अन्याय के सिपाहियों की टोपियां उछालती हुई उनका और इन महिलाओं का गहरा रिश्ता है । अपने प्रसिद्ध जनगीत ‘हिलेला झकझोर दुनिया’ में जिन महिलाओं को लड़ता देख गोरख कह उठे थे कि “लड़ेली बहिनिया लड़ेली महतरिया” ये उन्ही माओं की बेटियां हैं। ये ‘कैथरकला की औरतों’ की विरासत को अपने कंधे पर उठाए हुए हैं। जैसा कि गोरख को याद करते हुए प्रणय कृष्ण कहते भी हैं कि “गोरख के यहाँ स्त्री मुक्ति समस्त मानव मुक्ति में अभिभाज्य है । इसीलिए स्त्री मुक्ति आंदोलनों में कोई कविता, कोई सुचेता ,कोई नताशा ,कोई देवांगना इन आंदोलन की अगुवाई करती हुई दिखती हैं ,वो शहीद हो गयीं शीला या रोज रोज लड़ती कुंती की वंशज हैं,ये कैथर कला की लड़ती औरतों की शहरी वंशज हैं।
किसी पार्टी के इतिहास व वर्तमान में स्त्रियों की भूमिका तय करती है कि पार्टी की नींव किन मूल्यों पर रखी गयी है। वामपंथ की यह क्रांतिकारी धारा आरंभ से ही महिलाओं की संघर्षकारी व नेतृत्वकारी भूमिका को सुनिश्चित करती हुई नजर आती है। महिलाओं के लिए सबसे हिंसक समाजिकता वाले हमारे इस देश में मणिपुर से लेकर महिला पहलवानों के सवालों पर आप इस पार्टी के जन संगठनों आइसा और ऐपवा को आए दिन दिल्ली-लखनऊ-पटना-बनारस-इलाहाबाद की सड़कों पर प्रतिवाद करते,लाठियाँ सहते और जेल जाते हुए देखते होंगे।
बिहार के 12 विधायकों वाली इस चुनावी राजनीति के लिहाज से अपेकक्षाकृत छोटी पार्टी की सड़कों और संघर्षो में यह विजबिलिटी जितना चौंकाती है उतना ही आश्वस्त करती है कि महिला मुक्ति की राह जो समाज के सभी शोषितों की मुक्ति से नत्थी है, वह कठिन अवश्य हो पर इन ताकतों के रहते नामुमकिन कभी नहीं होगी । और जैसा कि वीरेन डंगवाल कहते हैं कि-
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है
आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलकर ही जाएँगे
आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे।
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