‘गोदी मीडिया गो बैक, गोदी मीडिया गो बैक, गोदी मीडिया गो बैक’ एनआरसी सीएए के खिलाफ़ हो रहे आंदोलन में ये नारा दिल्ली से लेकर पटना और गुवाहाटी तक गूँज रहा है। जब आप ‘गोदी मीडिया गो बैक’ सुनते हैं तो क्या पूर्वोत्तर और कश्मीर से उठने वाले नारे ‘इंडियन आर्मी गो बैक’ का साउंड नहीं आता? या जितना बर्बर आज का समय है उतने बर्बर समय यानि रॉलेट एक्ट की तरफ रुख़ करें तो क्या आपको ‘साइमन कमीशन गो बैक’ जैसा साउंड नहीं आता? दरअसल आज मीडिया एनआरसी-सीएए विरोधी जनदोलनों को उसी भांति कुचल रहा है जिस तरह से कि सरकार की पुलिस और अर्द्ध सैनिक बल। आज मीडिया भी उतनी ही बर्बर नज़र आती है जितनी की पूर्वोत्तर और कश्मीर में इंडियन आर्मी या ब्रिटिश इतिहास में ‘साइमन कमीशन’।
अगर एनआरसी-सीएए आंदोलनों पर मुख्यधारा की टीवी मीडिया की कुछ रिपोर्ट या कार्यक्रमों पर नज़र डालें स्पष्ट हो जाएगा कि इलेक्ट्रिनक मीडिया किस हद तक जनविरोधी हो चुका है-
‘ये प्रदर्शनकारी नहीं दंगाई हैं’ ये न्यूज नेशन की हेडलाइन है कल जामा मस्जिद से दिल्ली गेट तक हुए प्रदर्शन पर। ‘अफ़वाह छोड़ो भारत जोड़ो’ उसकी दूसरी हेडलाइन है।
‘अविश्वास का आंदोलन’ और ‘देश सबका है तो हिंसा क्यों?’ ये हेडलाइन है, एबीपी की।
‘नागरिकता कानून पर कोहराम’ और ‘कब थमेगा नागरिकता कानून पर बवाल’ जैसे उत्तेजक वाक्य आज तक न्यूज चैनल की हेडलाइन हैं। रिपबलिक टीवी और जी न्यूज की बात ही क्या करें। अगर न्यूज चैनलों के उपरोक्त कार्यक्रमों के साथ पेश किए गए चित्रों और वीडियों पर बात करें तो जिन फोटोज को जूम करके टीवी स्क्रीन पर बार बार दिखाया जा रहा था उससे स्पष्ट था कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रधानमंत्री मोदी के “कपड़े देख कर पहचान करने” वाली बात (एजेंडे) को लोगो के दिमाग में मैनिपुलेट करने के एजेंडे में लगा हुआ था।
वहीं दूसरी ओर मीडिया ने उन गैर-भाजपा शासित राज्यों में हुए बड़े, व्यापक और शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को को बिल्कुल ब्लैकआउट कर दिया। मुंबई की सड़कों पर 2 लाख लोग एनआरसी-सीएए के विरोध में उतरे ये कोई छोटी ख़बर नहीं थी। इसी तरह मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में भी लाख के ऊपर लोग प्रदर्शन में शामिल हुए लेकिन टीवी मीडिया की सुर्खियां तक नहीं बन सके क्योंकि वहां कोई हिंसा नहीं हुई थी।
इस एनआरसी-सीएए विरोधी आंदोलन को मीडिया ने देश विरोधी, शांति विरोधी, और मुस्लिम आंदोलन (सांप्रदायिक) साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
सरकार के एजेंडे को बढ़ाने में साथ दे रही मीडिया
मीडिया एनआरसी-सीएए के मुद्दे पर खुले तौर पर सरकार के साथ है। इसलिए नागरिकता संशोधन एक्ट के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों पर अगर सरकार का रैवया टकराव का है तो इसमें हैरान होने की ज़रूरत नहीं है. सरकार इस आंदोलन को मुसलमानों की गुंडागर्दी साबित करना चाहती है और मीडिया इसे पुरजोर साबित करने में लगी हुई है।
प्रधानमंत्री के कपड़े वाले बयान पर मीडिया उन्हें कठघरे में नहीं खड़ा करता बल्कि वो उनके कहे के मुताबिक कैमरा लेकर अल्पसंख्यकों के कपड़ो की शिनाख़्त में जुट जाता है।
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के – “प्रदर्शनकारियों से बदला लिया जाएगा” बयान पर मीडिया उन्हें कठघरे में नहीं खड़ा करती बल्कि 18 मौतों को जस्टीफाई करने लगती है। मीडिया सरकार से ये सवाल नहीं पूछती कि सिर्फ़ भाजपा शासित राज्यों में ही हिंसा क्यों हो रही है!
न्यूज चैनलों ने कभी भी अपने पैनल डिसकशन कार्यक्रमों में भी ऐसे लोगो को नहीं बुलाया जो असम एनआरसी को जमीन पर देख सुनकर आए हैं। जो एनआरसी और सीएए के नफे-नुकसान को ज़्यादा बेहतर और ज़्यादा यथार्थपूर्ण तरीके से लोगो के सामने रख सकते हैं बल्कि वो उन लोगों को बुलाती है जो हिंदू सेंटीमेंट को भड़काएं और एनआरसी-सीएए के पक्ष में बहुसंख्यक समुदाय के लोगो को लामबंद कर सकें।
प्रतिहिंसा को जस्टीफाई करते मीडिया का चरित्र
एनआरसी-सीएए विरोधी आंदोलन का बर्बरतापूर्ण पुलिसिया दमन को मीडिया लगातार जस्टीफाई कर रही है। वो जामिया में पुलिस की कार्रवाई को जस्टीफाई कर रही है। वो यूपी के मुख्यमंत्री के बदला लेने वाले बयान को जस्टीफाई कर रही है। वो आंदोलन के दौरान यूपी पुलिस की गोली से मरे 18 मौतों को जस्टीफाई कर रही है।
जनांदोलनों की रिपोर्टिंग में मीडिया की भूमिका उसका पक्ष किधर है ये काफी हद तक इस पर निर्भर है कि मीडिया का वर्ग चरित्र क्या है, जाति चरित्र क्या है? बहुत दूर न जाएं और सिर्फ़ पिछले 5-7 वर्षों का ही देख लें तो काफी कुछ स्पष्ट हो जाता है कि मीडिया ने लगातार प्रतिहिंसा को जस्टीफाई किया है। माँब लिंचिंग को मीडिया ने भी प्रमोट किया है।
एससी/एसटी एक्ट को डायल्यूट करने के फैसले के खिलाफ़ 2 अप्रैल 2018 को हुए ऐतिहासिक ‘भारत बंद’ आंदोलन को सत्ता संरक्षित संगठनों द्वारा हमला किया गया। आंदोलनकारियों पर भाजपा सदस्य राजा चौधरी का गोली मारते वीडियो वायरल हुआ लेकिन मीडिया ने उस पर सवाल पूछने की जहमत नहीं उठाई। उल्टा वो दिखाता रहा कि आंदोलन के कारण बीमार लोग अस्पताल नहीं पहुंच सके। आंदोलन के चलते ये नुकसान हुआ वो नुसान हुआ आदि। क्योंकि ये आंदोलन दलित-पिछड़े वर्ग समुदाय का आंदोलन था। इसलिए इस आंदोलन में मीडिया प्रतिपक्ष की भूमिका में थी।
इस आंदोलन के बाद कितने लोगों, बच्चों को पुलिस घर से उठाकर ले गई और फर्जी केस लगाकर सालों जेल में रखा इस पर मीडिया ने कुछ नहीं कहा।
इसी तरह सहारनपुर जातीय हिंसा में मीडिया का दलित विरोधी चेहरा दिखा। वो शोषक वर्ग का पैरवीकार बनकर रिपोर्टिंग करता दिखा।
पिछले दो साल में दिल्ली, मुंबई और मध्यप्रदेश में हुए किसान आंदोलनों को पहले तो मीडिया ने ब्लैकआउट कर दिया लेकिन जब सोशल मीडिया के जरिए किसान आंदोलन की ख़बरे लोगो तक पहुँची तो मीडिया ने किसान आंदोलन को लेफ्ट प्रयोजित कहकर उसे खारिज करने की कोशिश की। इसके लिए उसने जो फोटो और तर्क इस्तेमाल किया हास्यास्पद से ज़्यादा बेहूदे थे। जैसे कि मीडिया सवाल पूछने लगी कि किसान जींस पहनते हैं क्या, किसान के पेट निकलते हैं क्या, किसान बिसलेरी के पानी पीते हैं क्या। मध्यप्रदेश के मंदसौर में 6 किसानों की मध्यप्रदेश पुलिस की गोलीबारी में मौत हो गई थी। लेकिन मीडिया ने इसे इस तरह से पेश किया कि 6 किसान पुलिस की गोली से नहीं मरे।
इसी तरह नर्मदा बचाओ आंदोलन और पुनर्वास की समस्या के खिलाफ़ उठे आंदोलन को भी मीडिया ने ब्लैकआउट कर दिया।
जबकि पिछले एक दशक में सबसे हिंसक आंदोलन जाट आरक्षण आंदोलन था। जिसमें स्त्रियों से सामूहिक बलात्कार तक किए गए। रेलवे लाइनें उखाड़ दी गईं। घर, बाजार चौकी फूँक दिए गए लेकिन मीडिया अपने वर्ग चरित्र के चलते जाटों के पक्ष में खड़ा रहा। उसे ये हिंसा बर्बरता आगजनी तोड़-फोड़ दिखा ही नहीं।
धीरे धीरे ही सही अब लोग मीडिया की खतरनाक़ मंशा को भाप गए हैं। मीडिया किस तरह से आंदोलनों को कुचलती है और सरकार के पक्ष में जनमत तैयार करती है लोग ये भी समझ रहे हैं। तभी दिल्ली से लेकर कश्मीर और असम तक में ‘गोदी मीडिया गो बैक’ के नारे लगने लगे हैं।