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बहुजन समाज के नायक साहित्य के इतिहास से बाहर क्यों ?

 

लखनऊ में ” सन्तराम बी ए: प्रतिनिधि विचार ” का लोकार्पण

लखनऊ। सन्तराम बी ए फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित डा.महेश प्रजापति की पुस्तक ” सन्तराम बी ए: प्रतिनिधि विचार” का लोकार्पण 14 नवंबर को कैफ़ी आज़मी एकेडमी, लखनऊ में हुआ। समारोह के मुख्य अतिथि वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव और विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ कथाकार संजीव( दिल्ली) थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ने की। इस मौके पर संतराम बी ए के कर्म, चिंतन और संघर्ष पर इप्टा के महासचिव व वरिष्ठ रंगकर्मी राकेश, कवि व लेखक भगवान स्वरूप कटियार, जसम उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष व कवि कौशल किशोर और कथाकार व इतिहासकार सुभाष चंद्र कुशवाहा ने विचार व्यक्त किए।

गोष्ठी में बोलते हुए भगवान स्वरूप कटियार ने पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली, रामस्वरूप वर्मा ग्रंथावली, चन्द्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ के संकलन तथा सन्तराम बी ए : प्रतिनिधि विचार पुस्तक का उल्लेख करते हुए बहुजन वैचारिकी के नायकों के पुनः चर्चा में आने की बात कही। उन्होंने संविधान पर आसन्न खतरे से भी आगाह किया।

कौशल किशोर कहना था कि सन्तराम बी ए लेखक, चिंतक के साथ पत्रकार भी थे। उन्होंने सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं तथा पांच पत्रिकाओं का संपादन किया। उनकी मान्यता थी कि अस्पृश्यता और जाति के मूल में वर्ण व्यवस्था है। वे गांधी, निराला, मदन मोहन मालवीय आदि की इस बात की आलोचना करते हैं जो छुआछूत को तो ग़लत मानते थे परन्तु वर्ण व्यवस्था के हिमायती थे। जात-पांत तोड़क मंडल का उन्होंने गठन किया। आज उसके गठन के सौ साल बाद भी बकौल डॉ अम्बेडकर वह राक्षस की तरह समाज को दबोच रखा है। ऐसे में संतराम बी ए के विचार का बड़ा महत्व है।

संगोष्ठी को संबोधित करते हुए सुभाषचंद्र कुशवाहा ने कहा कि पंजाब में दलित आंदोलन की मजबूत धारा रही है। महाराष्ट्र से भी अधिक सक्रियता से दलित आन्दोलन चला था। संतराम बी ए का इसमें बड़ा योगदान है। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के पुनर्मूल्यांकन की बात भी उठायी।

वरिष्ठ रंगकर्मी व इंडियन पीपुल्स थियेटर के महासचिव राकेश ने मार्क्स और हीगल का उदाहरण देते हुए कहा कि भारतीय समाज व्यवस्था के संदर्भ में मार्क्स का भौतिक द्वन्द्ववाद और वर्ग संघर्ष असफल है। उन्होंने कहा कि मार्क्स समाज को दो हिस्सों में बांटकर उत्पादन के सम्बन्ध को बेस तथा जाति, धर्म और न्याय अन्याय आदि को सुपर स्ट्रक्चर में रखते हैं जबकि भारत में जाति बेस में मौजूद है। जाति इस व्यवस्था का आधार है। कोई भी सामाजिक बदलाव इस आधार के बदलाव से ही संभव है।

लोकार्पण समारोह के मुख्य अतिथि वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि सन्तराम बी ए उस समय की सभी प्रमुख पत्रिकाओं सरस्वती, चांद, माधुरी, हंस और विश्वमित्र में लिखा करते थे। उन्होंने जाति विनाश के मुद्दे पर गांधी, अम्बेडकर और पेरियार जैसे लोगों से संवाद किया लेकिन क्या कारण है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे विद्वानों और साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में उन्हें स्थान नहीं दिया।

संगोष्ठी में विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ कथाकार संजीव ने अपने विचार रखते हुए कहा कि भले ही उच्च वर्ग कहता है कि जाति जैसी चीज नहीं है लेकिन आज जाति हर कहीं मौजूद है। उन्होंने स्वतंत्रता के पश्चात भी जाति की समस्या न सुलझने पर भगतसिंह के बलिदान को याद करते हुए पीड़ा व्यक्त करते हुए एक शेर उद्धृत किया-‘गैर मुमकिन है कि हालात की गुत्थी सुलझे/अहले दानिश ने बहुत सोचकर उलझाया है। ‘

गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ने कहा कि हमें बचपन में जिन महापुरुषों के बारे में पढाया गया वास्तव में वह बहुजन समाज के महापुरुष थे ही नहीं। उन्होंने कहा कि दुनिया के किसी देश ने ऐसी नायाब व्यवस्था नहीं बनायी जैसी भारत के ऋषि मुनियों ने बनायी। गोष्ठी के अन्त में श्री राजेन्द्र प्रसाद प्रजापति द्वारा सभी अतिथियों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया गया। कार्यक्रम का संचालन भगवान स्वरूप कटियार ने किया।

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