समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

हमें अपने विश्वविद्यालय में राजनीतिक कठपुतली नहीं चाहिए

डॉ. माद्री काकोटी एक ऐसी शिक्षिका हैं जो अपने विद्यार्थियों के लिए पूरी निडरता के साथ खड़ी होती हैं। एक ऐसी नागरिक जो केवल अपने लिए नहीं, बल्कि अपने साथी नागरिकों के लिए भी आवाज़ बुलंद करती हैं। जब लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रशासन और उत्तर प्रदेश पुलिस ने उन्हें निशाना बनाया, तब हमने चुप रह जाना अपने दायित्व से विमुख होना समझा। हमें हस्तक्षेप करना पड़ा। हमें संघर्ष करना पड़ा। क्योंकि यह कोई सामान्य या अकेली घटना नहीं थी — यह एक फासीवादी राज्य द्वारा सोची-समझी साजिश थी, जिसके ज़रिए असहमति और लोकतांत्रिक सोच रखने वाली आवाज़ों को मिटाने का प्रयास किया गया।

लेकिन फासीवाद कभी भी सीधे हमला नहीं करता। वह हमेशा अपने दमन के लिए कोई बहाना गढ़ता है। इस बार बहाना था — पहलगाम।

मैं यह साफ़ तौर पर कहता हूँ कि सरकार ने पहलगाम की घटना को जानबूझकर होने दिया, जबकि खुफिया सूचनाएँ पहले से मौजूद थीं। इसका उद्देश्य था कि बाद में उत्पन्न जनाक्रोश का उपयोग असहमति रखने वाली आवाज़ों के विरुद्ध किया जा सके, जैसे डॉ. माद्री काकोटी के विरुद्ध। विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक स्थानों से हर प्रकार की राजनीतिक चेतना और सवाल उठाने की ताक़त को समाप्त करने का यह सुनियोजित प्रयास है।

जो कुछ हुआ — एबीवीपी का प्रदर्शन, सरकार के इशारे पर काम करने वाले कुलपति द्वारा नोटिस जारी करना, और बिना किसी आधार के एक हास्यास्पद प्राथमिकी दर्ज कर देना — ये सब स्वतःस्फूर्त घटनाएँ नहीं थीं। यह एक पूर्व नियोजित हमला था। दंडित करने के लिए, डराने के लिए, मिटा देने के लिए।

जब भी यह फासीवादी हिन्दुत्ववादी सत्ता जनभावनाओं का उपयोग अपनी विफलताओं को छिपाने और असहमति को कुचलने के लिए करेगी, तब हमें बार-बार लोगों को याद दिलाना होगा कि इस देश को चलाने और इसकी जनता की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की है — न कि डॉ. माद्री काकोटी की।

हम डॉ. माद्री काकोटी की बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने संघ परिवार द्वारा प्रायोजित आतंरिक आतंकवाद को उजागर किया। हमें पाकिस्तान के आतंकवाद की आलोचना करने में कोई हिचक नहीं होती, लेकिन अपने देश के भीतर फैलाए जा रहे आतंकवाद को स्वीकार करने का साहस हमारे समाज में नहीं है।

ऐसे समय में विश्वविद्यालयों को लोकतांत्रिक स्थान होना चाहिए — जहाँ असहमति, बहस और विचार स्वतंत्रता से फल-फूल सकें। लेकिन वर्तमान शासक वर्ग ऐसी किसी भी विचारधारा से नहीं आता जो सोचने-समझने की आज़ादी को महत्व देती हो। वे चाहते हैं कि जनता केवल भावनाओं की दास बने, ताकि उन्हीं भावनाओं को राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल किया जा सके।

कुलपति आलोक राय की भूमिका इस पूरे मामले में केवल गैर-जिम्मेदाराना और कायरतापूर्ण नहीं है — बल्कि यह एक ख़तरनाक भूमिका है। आज जब हम छात्र उनसे मिलने गए, तब मैंने उनसे प्रत्यक्ष पूछा — विश्वविद्यालय प्रशासन को किस अधिकार के तहत एक शिक्षक को उनके निजी वक्तव्य के लिए कारण बताओ नोटिस भेजा गया? यह विश्वविद्यालय की आचार संहिता से कैसे जुड़ा है?

कुलपति का उत्तर चौंकाने वाला था। उन्होंने कहा — “अगर हमारे पास कोई अधिकार नहीं है तो यह प्रक्रिया टिकेगी ही नहीं।” उन्होंने यह भी कहा कि “मैंने तो बस एक जवाब माँगा क्योंकि कई छात्र और नागरिक समाज के लोग पूछ रहे थे कि हम क्या कर रहे हैं।”

यह उत्तर केवल अज्ञानता और कायरता नहीं है, बल्कि यह सत्ता, सत्ताधारी दल और उनके संगठनों के साथ एक सीधा संबंध भी प्रकट करता है।

एक ऐसा कुलपति, जिसे अपनी सीमाओं और अधिकारों की समझ नहीं है, और जब उसे बताया जाए कि वह मनमाने ढंग से काम कर रहा है तब भी उसे कोई संकोच नहीं होता — ऐसे कुलपति को तुरंत पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए।

हमें अपने विश्वविद्यालय में एक राजनीतिक कठपुतली नहीं चाहिए।
हमें ऐसा विश्वविद्यालय चाहिए जहाँ सत्य को भयमुक्त होकर बोला जा सके।
हमें ऐसा विश्वविद्यालय चाहिए जहाँ शिक्षा को किसी विचारधारा की गुलामी में न ढाला जाए।
हमें ऐसा विश्वविद्यालय चाहिए जो विद्यार्थियों और शिक्षकों का हो — संघ का नहीं।

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