पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ कवि
नीरज जी बेहद स्वाभाविक गीतकार थे. गीत जैसे उनकी साँस थे. उसके लिए उन्हें कोई श्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता था. अपनी साधना की बदौलत वाणी पर यह सहज अधिकार उन्होंने अर्जित किया था और जब वे डूबकर गीत गाते, तो महफ़िल चाहे हज़ारों की हो, गूँजता सिर्फ़ उनका गीत था, बाक़ी सबका अस्तित्व उसमें लय हो जाता था, ख़ुद उनका भी. गीत मानो उनके लिए समूची ज़िंदगी थे—एक ऐसा सात्त्विक नशा, जो दूसरों के भी ज़ेहन पर छा जाता और नतीजतन उन्हें ‘दूसरा’ रहने नहीं देता था.
लोकप्रिय गीतकार के साथ एक मुश्किल यह होती है कि उसे अक्सर ‘रोमैंटिसिज़्म’ या शृंगार से जोड़कर देखा और प्रचारित किया जाने लगता है और इस हल्ले में ज़िंदगी के यथार्थ की उसकी समझ और संजीदगी की अवहेलना होती रहती है. नीरज को इसकी शिकायत थी और ज़रा आत्ममुग्ध लहजे में सही, पर उन्होंने अपने रचना-कर्म का मर्मस्पर्शी सिंहावलोकन किया है : कभी यह कहकर कि “आज भले कुछ भी कह लो तुम, पर कल विश्व कहेगा सारा / नीरज से पहले गीतों में सब कुछ था, पर प्यार नहीं था. ” और आप इसे निरी रोमैंटिसिज़्म न समझ लें, इसलिए फिर यह कहकर भी :
” पदलोभी आलोचक कैसे करता दर्द पुरस्कृत मेरा
मैंने जो कुछ गाया, उसमें करुणा थी, शृंगार नहीं था “
इसी बिंदु पर लगता है कि वह प्यार की अहमियत और अपरिहार्यता पर बराबर इसरार करते रहे और वास्तविक जीवन में उसे असंभव जानकर उसकी करुणा से भी आप्लावित रहे. यथार्थ का एहसास न होता, तो यह शोक कहाँ से उपजता ? अहम बात यह है कि इसका उन्हें मलाल नहीं, गर्व है; क्योंकि यह पीड़ा उनके नज़दीक सच्ची मनुष्यता या जन-पक्षधरता और उससे भी अधिक जन से एकात्म होने की निशानी है :
” इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम हो गये मेरे आँसू
मैं उनका हो गया कि जिनका कोई पहरेदार नहीं था।”
इस सिलसिले में एक और गीत का हिस्सा ग़ौरतलब है :
“आँसू जब सम्मानित होंगे, मुझको याद किया जाएगा।
जहाँ प्रेम का चर्चा होगा, मेरा नाम लिया जाएगा।
मान-पत्र मैं नहीं लिख सका, राजभवन के सम्मानों का
मैं तो आशिक़ रहा जन्म से, सुंदरता के दीवानों का।
लेकिन था मालूम नहीं ये, केवल इस ग़लती के कारण
सारी उम्र भटकने वाला, मुझको शाप दिया जाएगा।”
मुझे लगता है कि ‘शृंगार’ और ‘रोमैंटिसिज़्म’ की ख्याति के कोलाहल या अपनी लोकप्रिय स्टार छवि की चकाचौंध में वास्तविक रचनाकार और उसके भीतर का मनुष्य हमसे बिछुड़ जाता है और हम उसे चाहने के नाम पर उसकी एक सुघड़ क़िस्म की उपेक्षा करते रहते हैं. हम यह जान नहीं पाते कि वह इस अत्याधुनिक सभ्यता में हमारे, यानी सामान्य मनुष्य के अकेलेपन का एक बड़ा रचनाकार है :
“सुख के साथी मिले हज़ारों ही, लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला ।
मेला साथ दिखानेवाले मिले बहुत,
सूनापन बहलानेवाला नहीं मिला।”
एक बर्बर पूँजीवादी निज़ाम में—जिसमें हम साँस लेने को विवश हैं—इंसान जब होश सँभालता है, तो यही पाता है कि लगातार लालच, छीनाझपटी, झूठ, लूट, बेईमानी, छल-कपट और हिंसा से उसका सामना है और इसमें उसे वंचित और लहूलुहान ही होते रहना है. यही वजह है कि प्रेम ऐसे परिदृश्य में एक स्वप्निल या असंभव स्थिति है. इस सचाई का जैसा मार्मिक और प्रभावशाली चित्रण नीरज ने किया, हिंदी कविता में वह बेमिसाल है :
“मैं जिस दिन सोकर जागा, मैंने देखा,
मेरे चारों ओर ठगों का जमघट है,
एक इधर से एक उधर से लूट रहा,
छिन-छिन रीत रहा मेरा जीवन-घट है,
सबकी आँख लगी थी गठरी पर मेरी,
और मची थी आपस में तेरी-मेरी,
जितने मिले, सभी बस धन के चोर मिले,
लेकिन हृदय चुरानेवाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हज़ारों ही, लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।”
नीरज जी का न रहना हिंदी के एक अप्रतिम गीतकार की विदाई है, शायद अंतिम बड़े गीतकार की विदाई। उनके गीतों से हमने जाना कि प्यार कितना मुश्किल है, फिर भी जीवन और समाज के लिए कितना अनिवार्य :
“गीत जब मर जायेंगे, तो क्या यहाँ रह जायेगा
इक सिसकते आँसुओं का कारवाँ रह जायेगा।”
शोक और शृंगार का एक ही समय में संश्लिष्ट एहसास कराने वाले वह अनूठे रचनाकार थे। जीवन कितना नश्वर है और इसीलिए प्यार कितना अमूल्य, इसकी कशिश उनकी रचना के महत्त्व को कभी धूमिल नहीं होने देगी :
” देखती ही रहो आज दर्पन न तुम
प्यार का ये महूरत निकल जायेगा !”