दीक्षा पाण्डेय
पिछले काफी अरसे से, खासतौर से तब, जब से डोनाल्ड ट्रम्प ने दो से अधिक जेंडर्स को दी गई आधिकारिक मान्यता को वापस लेने का संकेत दिया है, ट्रान्सजेंडरों का मुद्दा दुनिया भर के अखबारों की सुर्खियां बना हुआ है। अब अपने देश की बातें करें तो हालात कुछ अलग हैं। हालांकि इस दिशा में कुछ प्रगति तो हुई है, फिर भी सामान्य लोगों की तुलना में ट्रान्सजेंडरों का जीवन अधिक दुरूह है। विधिक मान्यता से लेकर स्वास्थ्य संबंधी मामलों और यहाँ तक कि आधारभूत सुरक्षा के मामलों में भी ट्रान्सजेंडरों को अधिकांशतः ऐसे अवरोधों का सामना करना पड़ता है जिनके बारे में हम कभी सोचते भी नहीं।
आइये, इस बात पर एक नज़र डालते हैं कि भारत ट्रान्सजेंडर के अधिकारों के मामले में कहाँ खड़ा है और जो आज़ादी सामान्य लोगों को सहज ही प्राप्त होती है उसे पाने के लिए ट्रान्सजेंडरों क्या-क्या करना पड़ता है। 2014 में भारतीय उच्चतम न्यायालय के ‘नालसा’ न्याय (राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारतीय संघ मामले में दी गई व्यवस्था) द्वारा ट्रान्सजेंडर लोगों को तृतीय जेंडर के रूप में मान्यता प्रदान किया जाना, एक बड़ा फैसला था। इससे उस समूह को खुद के पहचान का अधिकार मिला, इस समुदाय की प्रगति की दिशा में लगाई गई यह एक बड़ी छलांग थी।
पर ट्रान्सजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) कानून 2019 ने इसकी प्रक्रिया को बहुत ही जटिल बना दिया। इस कानून के अनुसार ट्रान्सजेंडर लोगों को अपनी पहचान सत्यापित करने के लिए ज़िला मजिस्ट्रेट से एक प्रमाणपत्र प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। ज़रा सोचिए कि एक वर्ग को अपना अस्तित्व सिद्ध करने के लिए कागजी कार्रवाई करनी पड़ती है जबकि दूसरे वर्गों को ऐसा करने की कोई जरूरत ही नहीं है। यह व्यवस्था उन्हें बहुत गहराई तक साल जाती है और पहले से ही हलाकान ट्रांसजेंडर के सामने एक और नई चुनौती आन खड़ी होती है। तो, कानून उन्हें मान्यता तो देता है पर हमारी व्यवस्था उनके सामने अनावश्यक अवरोध खड़ा कर देती है।
अधिकांश ट्रान्सजेंडर लोगों के लिए शिक्षा एवं रोजगार जैसे मौलिक अधिकारों की प्राप्ति का प्रयास करना भी पहाड़ चढ़ने के बराबर होता है। स्कूलों में सहपाठियों की दादागिरी और उत्पीड़न के चलते कइयों को तो बहुत जल्दी ही पढ़ाई छोडनी पड़ जाती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और उत्तर प्रदेश में 2018 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार लगभग 30% ट्रांस बच्चे कभी स्कूल गए ही नहीं, 46% के आस-पास ट्रांस बच्चों ने दसवीं कक्षा के पहले ही स्कूल छोड़ दिया था और केवल 2-3% बच्चे ही स्नातक की डिग्री प्राप्त कर सके। शिक्षा के अभाव में कोई अच्छा रोजगार पा लेना लगभग असंभव है। कानून तो यह है कि कोई नियोक्ता उनके साथ भेद-भाव नहीं कर सकता पर अक्सर किसी कार्यस्थल पर उन्हें स्वीकार नहीं किया जाता। 2022 की एक ‘आउटलुक डेस्क स्टडी’ के अनुसार ट्रान्सजेंडर लोगों में से लगभग 92% लोगों को औपचारिक रोजगार मयस्सर नहीं है, उनकी योग्यता चाहे कुछ भी हो। अधिकतर ट्रान्सजेंडर लोगों को भीख मांगने या यौन व्यापार करने के लिए विवश होना पड़ता है, उनके लिए रोजगार के दूसरे दरवाजे बंद ही मिलते हैं। अन्य लोगों के लिए भी शिक्षा और रोजगार की चुनौतियाँ वैसी ही हैं पर सिर्फ ट्रान्सजेंडर होने के सामाजिक कलंक के चलते उन्हें कदम-कदम पर जिन अतिरिक्त कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है उनसे सामान्य लोग फिलहाल अछूते ही रहते हैं।
स्वास्थ्य-सुविधा तक अपनी पहुँच बनाना भी ट्रान्सजेंडर लोगों के लिए एक बड़ी चुनौती है। ‘ट्रान्सजेंडर रेस्पोंड्स’ ने अस्पतालों द्वारा वापिस कर दिये जाने और अन्य स्वास्थ्यकर्ताओं के असंवेदनशील व्यवहारों की सूचना भी दी है। राष्ट्रीय विधिक सेवा आयोग के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि अपनी लैंगिक पहचान के चलते 27% ट्रान्सजेंडर लोगों को इलाज़ से इंकार कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए लैंगिक निश्चयन सेवा, जैसे कि हॉरमोन थेरेपी या ततसंबंधी शल्य-चिकित्सा सेवाएँ बहुत मंहगी हैं और हमारे देश के अधिकांश भागों में उपलब्ध भी नहीं हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, भुबनेश्वर में प्रस्तुत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इस समुदाय के लोगों में मानसिक स्वास्थ्य विकार से पीड़ित हो जाने की संभावना भी 1.5 गुना अधिक होती है। 2019 का कानून कहता है कि स्वास्थ्य-कर्मी उनके साथ भेद-भाव नहीं कर सकते, परंतु ये वादे हक़ीक़त का आईना नहीं हैं। अधिकतर सामान्य लोगों को केवल आर्थिक क्षमता और लंबी प्रतीक्षा से ही जूझना पड़ता है, जबकि ट्रान्सजेंडर लोगों को इनके अलावा पूर्वाग्रह और उपेक्षा भी झेलनी पड़ती है।
सुरक्षित रहना और न्याय पाना मौलिक अधिकारों में आता है, परंतु ट्रान्सजेंडर लोगों के लिए इसकी कोई गारंटी नहीं है। अफसोस यह कि हिंसा, दुर्व्यहार एवं उत्पीड़न तो सामान्य है, लेकिन अधिकतर मामलों में और भी ज्यादा सताये जाने के भय से कोई रिपोर्ट ही दायर नहीं की जाती। अकसरहा ट्रान्सजेंडर लोग पुलिस पर एकदम भरोसा नहीं करते। पुलिस के उत्पीड़न और उन्हें उनके लैंगिक (कु)पहचान द्वारा संबोधित किए जाने के कारण किसी अपराध की रिपोर्ट दर्ज़ कराना उनके लिए भयावह दु:स्वप्न होता है। किसी अपराध की रिपोर्ट दर्ज़ कराये जाने के बावजूद अधिकांश मामलों में न्याय नहीं मिल पाता। इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ हैल्थ साइनसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भारत के 60% ट्रान्सजेंडर लोगों को किसी न किसी तरह का उत्पीड़न या हिंसा झेलनी ही पड़ती है। भारत में ट्रान्सजेंडर लोगों की सुरक्षा के लिए बने कानून न सिर्फ बेकार साबित हुए हैं बल्कि कई बार तो गलत तरीके से पीड़ित लोगों को ही दंडित भी कर दिया जाता है। जब सामान्य लोगों का मामला सामने आता है तो बिना किसी अतिरिक्त बाधा के वे विधिक व्यवस्था का लाभ उठा पाते हैं और वहीं ट्रान्सजेंडर लोगों को और भी कठिन जांच से गुजरना पड़ता है। यौन-कर्म और सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम-प्रदर्शन को केन्द्रित करके बनाए गए कानूनों का सबसे घातक असर ट्रान्सजेंडर लोगों पर ही होता है, क्योंकि रोजगार के सीमित अवसरों के कारण वे इस तरह के धंधों में जबरन धकेल दिये जाते हैं। और इसका सबसे बुरा हिस्सा तो वह है कि जब किसी ट्रान्सजेंडर व्यक्ति पर हमला या उत्पीड़न जैसा कोई अपराध होता है तो हमलावर या हमले की साजिश करनेवाले को बहुत मामूली सजा मिलती है बनिस्बत, सामान्य व्यक्ति के साथ हुए उसी प्रकार के अपराध में लोगों को दी जानेवाली सजा के, क्योंकि हमारी न्याय व्यवस्था भी ट्रान्सजेंडर लोगों के प्रति हुए अपराध की गम्भीरता को ठीक तरह से नहीं आँकती, उन्हें “कम गंभीर” मानती है। कई पुराने कानून आज भी ट्रान्सजेंडर पहचान को एक कलंकित-पट्टे की तरह देखते हैं और उनकी इसी पहचान के कारण उनकी गिरफ्तारी होती है, उनका उत्पीड़न होता है। कुल मिलाकर ट्रान्सजेंडर लोगों के विरुद्ध घटित अपराध में उनके साथ जिस प्रकार का व्यवहार होता है वह बताता है कि उनके प्रति भेद-भाव की भावना कितनी गहरी पैठी हुई है और उन्हें बहुत मामूली सुरक्षा के साथ खुल्ला छोड़ दिया जाता है और उनके अपराधियों को कोई हल्की-फुल्की सजा दे दी जाती है। सामान्य लोगों में इस प्रकार का व्यवस्थागत अविश्वास और कानून लागू किए जाने का भय नहीं होता, चाहे उनके साथ भी और दूसरी वजहों से भी कोई समस्या क्यूँ न हो।
भारत में ट्रान्सजेंडर लोगों के सामने खड़ी अनेक समस्याओं में से सबसे प्रमुख है उनके गले में डाला गया सामाजिक कलंक का पट्टा। कइयों को तो उनके परिवार के लोग ही खारिज कर देते हैं और वे हाशिये के समाज में रहने के लिए मजबूर हो जाते हैं। आपके ‘ऐसा ही’ होने के कारण यदि समाज आपको स्वीकार नहीं कर पाता तो सार्वजनिक-स्थल, सर छुपाने की छत और यहाँ तक कि ज़रूरी ज़रूरियात भी पा सकना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
कुछ सकारात्मक संकेत भी मिले हैं, जैसे तमिलनाडु और केरल में ट्रान्सजेंडर लोगों ने राज्य-स्तरीय चुनावों में भी भाग लिया है। प्रत्येक क्षेत्र में उनकी दर्शनीयता सकारात्मक विकास के लक्षण हैं, परंतु अधिकांश ट्रान्सजेंडर लोगों के प्रति भेद-भाव रोजाना की हक़ीक़त है। 17 राज्यों में 60,000 ट्रान्सजेंडर लोगों पर अध्ययन के पश्चात राष्ट्रीय महामारी संस्थान (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एपीडेमिओलोजी) की एक टीम ने पाया कि उनमें से बड़ी संख्या में लोगों को अपने जैविक परिवार से कोई संबल प्राप्त नहीं हुआ है। सामान्य लोगों को अपने जीवन में इस प्रकार के सम्पूर्ण तिरस्कार के अनुभव से कभी नहीं गुजरना पड़ता।
‘ट्रान्सजेंडर का अधिकार’ पर इस समय वैश्विक स्तर पर गरमागरम बहस का मुद्दा बना हुआ है। एक ओर जहां ‘नालसा’ न्याय’ और 2019 के कानून ने परिवर्तन की बुनियाद रखी है, वहीं दूसरी ओर नीतियों और व्यावहारिकता के बीच की खाईं चौड़ी ही रह गई है। ट्रान्सजेंडर लोगों को आज भी जिन सामाजिक, विधिक और व्यवस्थागत अवरोधों का सामना करना पड़ता है उनके लिए सामान्य लोगों को सोचना भी नहीं पड़ता।
ट्रान्सजेंडर लोगों के अधिकारों को सुलभ बनाने की दिशा में भारत ने उल्लेखनीय प्रगति की है, जैसे उन्हें तृतीय लिंग के रूप में मान्यता देना और कुछ विशिष्ट कानून बना कर उनके लिए सुरक्षा उपलब्ध कराना। फिर भी इस दिशा में बहुत कुछ करना है। कोई फर्क तभी समझ में आएगा जब उनकी पहचान की प्रक्रिया आसान कर दी जाय, बिना किसी नौकरशाही का सामना किए उनके पास स्व-पहचान का अधिकार होना चाहिए। स्कूलों का माहौल ट्रान्सजेंडर छात्रों के लिए इतना सुरक्षित होना चाहिए कि उनके साथ दादागिरी और भेद-भाव की गुंजाइश एकदम न रहे। कार्यस्थलों को जागरूकता के साथ ट्रान्सजेंडर लोगों को भी रोजगार उपलब्ध कराना चाइए और ऐसे वातावरण की सृष्टि करनी चाहिए जहां उनकी क्षमता का उचित मूल्यांकन हो सके। स्वास्थ्य-कर्मियों का प्रशिक्षण इस प्रकार होना चाहिए कि वे उनके प्रति संवेदनशील बनें और उनके लिए भी लैंगिक-निश्चयन की चिकित्सा उपलब्ध हो सके। और सुरक्षा तो सर्वोपरि है; ट्रान्सजेंडर लोगों, कानून लागू करवाने वाली संस्थाओं और ऐसी संस्थाओं के बीच, जो उनके प्रति हिंसा करनेवालों को दोषी ठहराने के जिम्मेदार हैं, विश्वास कायम करना आवश्यक है। यद्यपि काफी कुछ किया जा चुका है फिर भी ट्रान्सजेंडर लोगों के लिए जीवन चुनौतियों से भरा हुआ है- चाहे यह उनकी पहचान का मसला हो, रोजगार का मसला हो, उत्तम स्वास्थ्य-सुविधा का मसला हो या फिर सिर्फ भय-मुक्त जीवन जीने का। इनमें से ज़्यादातर अधिकार सामान्य लोगों के लिए सहज सुलभ हैं, लेकिन ट्रान्सजेंडर लोगों को मौलिक अधिकारों के लिए भी लड़ना पड़ता है। इससे पार पाने का एकमात्र रास्ता है कानून और वास्तविकताओं के बीच की खाईं को पाटना और लैंगिक भेद से परे सबके लिए गरिमा, आदर और आज़ादी का जीवन सुनिश्चित कराना।
लेखिका भारत में ट्रान्सजेंडर के अधिकार: कागजी कानून और वास्तविक संघर्ष टाटा सामाजिक अध्ययन संस्थान में शोधार्थी हैं। अनुवाद: दिनेश अस्थाना