बिना किसी महिमामंडन के कहें तो अध्यापन का काम विद्यार्थी पर अपनी सत्ता को स्थापित होते हुए देखने की खुशी है । इसीलिए निजी जीवन में जितनी भी समस्याएँ हों कक्षा में घुसकर उनका दबाव कम हो जाता है । अगर आप किसी आदर्श की धारणा के साथ किसी शिक्षण संस्थान में प्रवेश करते हैं तो पहला धक्का यही देखकर लगता है कि शिक्षण संस्थान भी अन्य सभी संस्थाओं की तरह ही होता है । हमारी तमाम शुभाकांक्षाओं के बावजूद सच यही है कि समाज में मौजूद ऊँच नीच का पुनरुत्पादन शिक्षण संस्थानों के जरिए होता है । अगर प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के बीच के अंतर और श्रेणीक्रम को छोड़ भी दें तो केवल उच्च शिक्षा में कालेज और विश्वविद्यालय के बीच की विषमता हम सबके अनुभव का अंग है ।
कालेज शिक्षकों की कमतरी को लेकर विश्वविद्यालयों के शिक्षक इतना गंभीर रहते हैं कि कालेज से विश्वविद्यालय आ जाने पर उन्हीं अध्यापकों के बारे में तमाम किस्म की शिकायतें करते रहते हैं । विश्वविद्यालयी जीवन में शिक्षणेतर कर्मचारियों के प्रति अध्यापकों और विद्यार्थियों के रुख का कारण उनके दिमाग में मौजूद ऊँच नीच की यही भावना होती है । स्वयं शिक्षकों के भीतर भी स्थायी और अस्थायी के दो मोटे वर्गों के अतिरिक्त स्थायी के भीतर लेक्चरर, रीडर और प्रोफ़ेसर के विभाजन बहुत स्पष्ट हैं । अब तो अस्थायी अध्यापकों की भी अलग अलग श्रेणियों का निर्माण हो रहा है । भारत की जाति प्रथा के बारे में थोड़ी भी जानकारी हो तो इन विभाजनों में उसका प्रतिरूप देखना मुश्किल नहीं है ।
इस विभाजन में सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े उत्तर प्रदेश के एक कालेज से मेरे अध्यापकीय जीवन की शुरुआत हुई । उत्तर प्रदेश में कुछ कालेज सरकारी होते हैं और अधिकतर सरकारी अनुदान से निजी प्रबंधन में चलते हैं । निजी प्रबंधन वाले इन कालेजों के लिए अध्यापकों का चयन सरकार की ओर से स्थापित एक संस्था करती है लेकिन नियुक्ति उस कालेज का प्रबंधक करता है । ऐसा एक कालेज पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले की एक तहसील मुख्यालय पर खुला था । इसी में मेरी नियुक्ति हुई । इस कालेज को सरकारी अनुदान नहीं मिला था इसलिए वेतन भी मनमाने तरीके से दिया जाता था । उस कालेज का पहला अध्यापक होने के सुख और दुख लगभग पाँच साल उठाने पड़े । कहने के लिए सम्मान अध्यापक को मिलता है लेकिन ऐसे कालेज के अध्यापक को कालेज से लेकर विश्वविद्यालय तक नौकरशाही के हाथों लगातार अपमानित होना पड़ता है ।
जिस कस्बे में कालेज था उसमें किताब की एकमात्र दुकान में स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम के लिए विभिन्न कालेजों के अध्यापकों की लिखी हुई कुंजियाँ मिलती थीं । परीक्षा में उत्तर पुस्तिकाओं को जाँचने वाले ही इन कुंजियों के लेखक हुआ करते थे । ऐसे में कुछ भी नया समझाने में मुसीबत थी कि उसे लिखने पर विद्यार्थी फ़ेल किया जा सकता था । विद्यार्थियों के हित में यही उचित लगा कि उन्हें पढ़ा तो दिया जाए लेकिन परीक्षा में वही लिखने की सलाह दी जाए जो कुंजियों में लिखा था । लड़कियों को साहित्य के कुछ पाठ, खासकर कालिदास के ‘कुमार सम्भव’ का नागार्जुन का अनुवाद, पढ़ाने में समस्या यह आई कि उसमें स्त्रियों के शारीरिक अंगों का अकुंठ वर्णन था । निर्णय किया कि बिना संकोच के पढ़ाना है और निगाह झुकाने से बेहतर होगा कि सीधे आँख में देखते हुए पढ़ाना है । परिणाम बुरा नहीं रहा । आधुनिक हिंदी कविता की पाठ्य पुस्तक वीरेन डंगवाल ने तैयार की थी । उसमें मुक्तिबोध की एक कविता ‘भूल गलती’ शामिल थी । कुंजियों में उसका अर्थ सही नहीं लिखा था । सही अर्थ लिखा जो बाद में एक लेख की शक्ल में प्रकाशित हुआ । उनमें से अनेक विद्यार्थी अब भी गाहे-ब-गाहे बात कर लेते हैं ।
अध्यापक समुदाय में प्रचंड जातिवादी और धार्मिक आग्रह थे । चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी मुसलमान था इसलिए अध्यापकों को पानी पीने के लिए अलग गिलासें दी गई थीं । उस कर्मचारी के हाथ से पानी पी लेना भी क्रांतिकारी काम था इसलिए किया । सफाई कर्मचारी से सम्मान से बात करना बुरा माना जाता था । व्यक्तिगत रूप से उसके साथ रहने का परिणाम निकला कि विद्यार्थी भी उससे तमीज से बात करने लगे । इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय सेवा योजना के बहाने विद्यार्थियों के भीतर की जातिवादी सोच ढीली करने में मदद मिली । सीखा कि अध्यापन केवल कक्षा में जाकर बोल देना नहीं होता । इसकी कीमत भी चुकाई लेकिन संतोष इसका रहा कि माहौल से लड़े, उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया ।
उस कालेज के बाद महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में अध्यापन का अनुभव बेशक बेहतरीन रहा क्योंकि लगभग सभी साथी अध्यापक हमउम्र थे और एक दूसरे से सीखने के लिए हमेशा तैयार रहते थे । वहीं समझा कि अध्यापक को हमेशा सीखने के लिए उत्सुक रहना चाहिए और विद्यार्थियों से भी सीखने में संकोच नहीं करना चाहिए । वहाँ रहते हुए एक साथी अध्यापक के साथ मिलकर साहित्यिक ग्रंथों की कुछ मुश्किल उलझनों को सुलझाया और कक्षा में गद्य को सरसता के साथ खोलने की उत्तेजना का अनुभव किया । भारतेंदु हरिश्चंद्र और निराला के लेखन को वहीं रहते हुए थोड़ा बहुत समझा । वहीं समझा कि कक्षा में पढ़ाते हुए कुछ सवाल उठते हैं जिनका समाधान जरूरी नहीं कि तत्काल हो जाए लेकिन वे सवाल दिमाग में अटक जाते हैं और जीवन भर उनका उत्तर खोजने की प्रक्रिया चलती रहती है । इस प्रक्रिया में अध्यापक और विद्यार्थी साथ साथ चलते रहे इसलिए ही वहाँ के विद्यार्थियों और अध्यापकों के साथ अब भी जीवंत संबंध बना हुआ है । तब तक नवाचार का पागलपन पैदा हो चुका था ।
हम अध्यापकों के मुकाबले विद्यार्थी इसमें अधिक कुशल थे । मूल्यांकन और परीक्षा के बतौर कक्षा में विद्यार्थियों की प्रस्तुतियों में पहली बार मार्टिन लूथर किंग का मशहूर भाषण ‘आइ हैव ए ड्रीम’ को सुना । उस विश्वविद्यालय से जुड़ी एक और बात का जिक्र जरूरी है । मुझे अनुवाद में पढ़ाना था लेकिन रुचि साहित्य में अधिक थी इसलिए साहित्य की कक्षाओं में भी पढ़ाया । निजी दोस्ती अहिंसा के अध्यापक से थी इसलिए अहिंसा की कक्षा में भी अध्यापन करता । इस कक्षा में वैश्वीकरण, लैटिन अमेरिका के देसी आंदोलन और मैकब्राइट रिपोर्ट का अध्यापन किया । संयोग से उन दिनों मैकब्राइट रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद भी किया जो दिल्ली स्थित भारतीय जन संचार संस्थान में अब भी पांडुलिपि की शक्ल में पड़ा होगा ।
इसके बाद पूर्वोत्तर भारत के सिल्चर स्थित असम विश्वविद्यालय में अध्यापन एक विशेष अनुभव रहा । वहाँ हिंदी साहित्य की पढ़ाई करने वाले लोग दो तीन तरह के थे । एक तो फौजियों की संतानें जो केंद्रीय विद्यालयों से पढ़े होते थे । दूसरे स्थानीय चाय बागानों में काम करने वालों की संतानें जिन्हें हिंदी भाषी कहा जाता था । तीसरी तरह के वे विद्यार्थी जिन्हें स्नातक स्तर पर आसान विषय के रूप में हिंदी दे दी जाती थी । स्नातकोत्तर कक्षा में ऐसे ही विद्यार्थी होते थे । शोध का निर्देशन वहीं से शुरू किया । उस विश्वविद्यालय में सबसे मुश्किल चीज हिंदी साहित्य को समझाना था क्योंकि जिस पर्यावरण का जिक्र हिंदी की रचनाओं में होता है उससे स्थानीय पर्यावरण पूरी तरह भिन्न था । चाँद से जुड़े बिम्ब संप्रेषित करने में कठिनाई आती थी क्योंकि बारिश और मच्छर के चलते वहां लोग खुले में नहीं सोते थे । जिस हिंदी साहित्य का अध्यापन किया जाता है उसका गहरा संबंध स्वाधीनता आंदोलन और भारत के इतिहास से है । इन दोनों ही प्रसंगों में विद्यार्थियों को कठिनाई आती थी, इसका एक बड़ा कारण यह था कि मणिपुरी विद्यार्थी के लिए इतिहास शेष भारत से थोड़ा अलग है । विद्यार्थियों में बहुत सारे मणिपुरी भी होते थे । इसी क्रम में एक अन्य चीज की ओर भी ध्यान गया । जिसे भारत के इतिहास का मध्यकाल कहा जाता है उसके साथ हिंदी साहित्य का गहरा संबंध है क्योंकि समूचा भक्ति साहित्य उसी समय की उपज है । उस मध्यकाल का सहज बोध मुस्लिम आक्रमण से बनता है । समूचे पूर्वोत्तर भारत के बोध में यह बात नहीं है ।
एक और बात कि मुख्य धारा के हिंदी साहित्य में पूर्वोत्तर का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता । इसलिए वहां रहते हुए शोधार्थियों से काम ऐसे विषयों पर करने को कहा जिनमें पूर्वोत्तर का प्रतिनिधित्व हो । इनमें जीवन भर असम में अंग्रेजी के अध्यापक रहे हिंदी के निबंध लेखक कुबेर नाथ राय के बारे में शोध का निर्देशन करते हुए खुद भी बहुत कुछ सीखना समझना पड़ा । एक अन्य शोध पूर्वोत्तर भारत के बारे में लिखे उपन्यासों पर कराया जिसके चलते ढेर सारे उपन्यासों की जानकारी मिली और उपन्यासों में वर्णित समय और समाज के बारे में भी जानना पड़ा । इन जानकारियों के स्रोत होने के चलते इतिहास और बांग्ला के अध्यापकों से दोस्ती रही । उनके लिखे का अनुवाद भी किया । थोड़ा गर्व है कि हिंदी के उन लोगों में से हूँ जिन लोगों को पूर्वोत्तर के बारे में कुछ पता होता है ।
अध्यापकीय जीवन का सबसे आखिरी पड़ाव अंबेडकर विश्वविद्यालय है । यहां के अध्यापन में वर्धा का अन्यान्य विषयों के अध्यापन का अनुभव तो काम आता ही है इस अखिल भारतीय अनुभव से भी सहायता मिलती है । दिल्ली का विश्वविद्यालय होने के कारण यहाँ लगभग समूचे भारत से जुड़े विद्यार्थी मिलते हैं । उनके साथ संवाद में इस व्यापक अनुभव से आसानी हो जाती है । इतने दिनों में समझा कि अध्यापन में सबसे मददगार चीज निरहंकार होना है । कारण कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती और केवल औपचारिक शिक्षा से कोई शिक्षित नहीं हो जाता । दूसरी जरूरी चीज विद्यार्थी के प्रति लगाव है । हो सकता है विद्यार्थियों से औपचारिक रिश्ता भी ठीक होता हो लेकिन मेरा अनुभव विद्यार्थी के साथ शिरकत का रहा है । इससे कई बार विद्यार्थी कुछ अतिरिक्त छूट ले लेते हैं लेकिन जब कभी निजी समस्याओं पर सलाह माँगते हैं तो अच्छा लगता है । तीसरी जरूरी चीज होती है किसी को नकारात्मक शिक्षक के रूप में सामने रखना । हमारे पेशे के ये नकारात्मक उदाहरण सभी कालेजों और विश्वविद्यालयों में बहुतायत से मिलते हैं जिनसे सीखना होता है कि अध्यापक को क्या नहीं करना चाहिए । इनका यही योगदान काफी महत्व का है कि ईमानदार अध्यापक को ये पतन की संभावना से सावधान और सतर्क रखते हैं । इसलिए इन का ठीक से अध्ययन करना चाहिए ।
हम अध्यापकों में नौकरशाह बन जाने की प्रवृत्ति होती है । ढेर सारे अध्यापक तो ऐसे हैं जो नौकरशाह न बन पाने पर इस पेशे में आ गए । अपनी इस कमजोरी से हमेशा सतर्क रहना चाहिए । किसी भी अध्यापक के लिए गौरव का साकार रूप रणधीर सिंह ने कभी कहा था कि अध्यापन का पेशा सबसे कम अलगाव पैदा करता है लेकिन शिक्षण संस्थानों के भीतर नौकरशाहीकरण बढ़ने से अध्यापकों में अलगाव पैदा हो रहा है । इसके सामान्य लक्षण होते हैं पढ़ाने से जी चुराना, प्रशासनिक पद पाने की कोशिश करते रहना, आलोचक की जगह अपने झूठे प्रशंसक पैदा करना और व्यर्थ गंभीर बने रहना । बेहतर अध्यापक बनने के लिए इन बीमारियों के संक्रमण के बारे में सावधान रहना चाहिए । शोधार्थी को हमेशा संभावित अध्यापक मानता हूँ इसलिए उनसे मेरा रिश्ता हमेशा बराबरी का रहता है ।
( प्रो. गोपाल प्रधान अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में पढ़ाते हैं । फीचर्ड इमेज गूगल से साभार ।)
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