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‘महाजनी सभ्यता’ निबन्ध वर्तमान समय का आईना है

आज़मगढ़ में प्रेमचंद जयंती के अवसर पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। शहर के रैदोपुर स्थित राहुल चिल्ड्रेन एकेडमी में  ‘महाजनी सभ्यता’ और प्रेमचंद की भविष्यदृष्टि, विषय पर यह केन्द्रित थी।

इस गोष्ठी का आयोजन जसम, जलेस, प्रलेस, जनवादी लोकमंच और इप्टा की तरफ से हुआ। गोष्ठी में बोलते हुए जयप्रकाश नारायण ने कहा कि प्रेमचंद के लेख, ‘महाजनी सभ्यता’ पर कम्युनिस्ट घोषणापत्र की अनुगूँज है।

प्रेमचंद इस लेख में तीन सभ्यता का ज़िक्र करते हैं। जागीरदारी या सामंती सभ्यता, महाजनी या पूंजीवादी सभ्यता तथा साम्यवादी सभ्यता।

इसमें साम्यवाद को उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था से उत्पन्न अमानवीय स्थितियों के समाधान के रूप में रखा है।

उन्होंने कहा कि प्रेमचंद ने जब यह लेख लिखा, तब भारत में पूंजीवादी व्यवस्था के प्रभाव उतने प्रकट नहीं थे। लेकिन प्रेमचंद की भविष्यदृष्टि ही है कि उन्होंने उस व्यवस्था के मूल को पहचान लिया। उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था में मनुष्य के विलगाव तक की बात इस लेख में की है।

आज भारत में वे सारी बातें खुलकर सामने आ चुकी हैं। सत्ता, समाज, परिवार की मूल संचालन शक्ति आज पूंजीवाद के हाथ में है।

भारत में यह धर्म, सत्ता, कारपोरेट के गठजोड़ के रूप में शासन में है। इसके खिलाफ लोग संघर्षरत भी है।

ऐतिहासिक किसान आन्दोलन इसका एक उदाहरण है और समाज के अन्य हिस्से भी इसके खिलाफ संघर्षरत हैं। यह संघर्ष अभी चलेगा।

प्रेमचंद ने साम्यवाद के रूप में जो समाधान देखा था, वही महाजनी सभ्यता से संघर्ष की मुख्य राह है। उसी की तरफ हमें चलना है।

अध्यक्ष मंडल की ओर से बोलते हुए डाॅ. कन्हैया यादव ने महाजनी सभ्यता में व्यक्त विचार को प्रेमचंद के उपन्यासों के सन्दर्भ से जोड़ कर रखा।

प्रलेस, आज़मगढ़ के महासचिव डाॅ. हसीन खान ने  प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद प्रेमचंद में हुए परिवर्तन को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद ने इसके बाद महाजनी सभ्यता निबन्ध और गोदान उपन्यास लिखा।

जसम, आज़मगढ़ से जुड़े डाॅ. उदयभान यादव ने महाजनी सभ्यता के विचारों के शिक्षा के क्षेत्र में पड़े प्रभाव की चर्चा की।

इसी तरह से जलेस, आज़मगढ़ के सचिव अरुण मौर्य ने परिवार के भीतर पूंजीवादी सम्बन्ध के बढ़ते प्रभाव पर बात रखी। जलेस, आज़मगढ़ के अध्यक्ष डाॅ. अजय गौतम, इप्टा, आज़मगढ़ के सचिव बैजनाथ यादव  ने भी चर्चा में हिस्सा लिया।

प्रलेस, आज़मगढ़ के अध्यक्ष राजाराम सिंह ने अध्यक्ष मंडल के बतौर इस गोष्ठी में अपने विचार रखे। गोष्ठी का विषय प्रवर्तन जसम के कल्पनाथ यादव ने किया। संचालन जनवादी लोकमंच के डाॅ. रविन्द्र नाथ राय ने  तथा आभार जसम के दुर्गा सिंह ने किया।

इसी तरह इलाहाबाद में प्रेमचंद जयंती की पूर्व संध्या पर आयोजित गोष्ठी में ‘महाजनी सभ्यता’ का पाठ एवं विस्तृत रूप से उस पर चर्चा हुई।

इस निबंध में प्रेमचंद ने पूंजीवादी व्यवस्था के चरित्र और समाज, राजनीति, संस्कृति, शिक्षा और मानवीय मूल्यों पर पड़ने वाले इसके ध्वंसात्मक रूप का विश्लेषण किया है और इसके बरक्स एक ऐसी समाजवादी व्यवस्था का भी ज़िक्र किया है जो मनुष्य के होने को, बराबरी, समान भागीदारी और न्याय जैसे मूल्यों को महत्व देते हैं।

इस विषय पर चर्चा की शुरुआत करते हुए प्रियदर्शन मालवीय जी ने प्रेमचंद के ही समय के प्रतिष्ठित लेखक जयशंकर प्रसाद से तुलना करते हुए कहा कि उस समय जब देश-दुनिया की व्यवस्थाओं में परिवर्तन आ रहे थे, पूंजीवाद अपने पैर पसार रहा था, मानवीय मूल्यों में परिवर्तन आ रहे थे तब प्रसाद में इन बातों को लेकर बेचैनी थी, घबराहट थी जो उनकी रचनाओं जैसे’ ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे’ जैसी कविता में भी झलकती है जबकी उसी समय प्रेमचंद इन्हीं व्यवस्थाओं का विश्लेषण कर रहे थे।

अपनी बात रखते हुए प्रियदर्शन जी ने ये भी कहा कि हिन्दी साहित्यकारों में प्रेमचंद पहले हैं जिन्होंने साहित्य में समाजवाद की बात की।

आगे विवेक ने ये सवाल किया कि जबकि पूंजीवाद बाजार से संचालित है और कई मायनों में सामंती समाज से भिन्न है फिर पूँजीवाद के आने के बाद भी समानता क्यूँ नहीं आई? जिसका जवाब देते हुए के. के. पांडे ने कहा कि बाजारवाद पूंजीवाद का बाइप्रोडक्ट है जो कि लगातार वर्गीय असमानता को बढ़ा रहा है।

प्रेमचंद ने उपनिवेशवाद, सामंतवाद और पूँजीवाद का गठजोड़ देखा है और ये भी समझा है कि कैसे देश की विशिष्टता के साथ पूंजी की भयावहता बढ़ती है।

साक्षी ने कहा कि प्रेमचंद का ये लेख वर्तमान समय में आईना बनकर हमारे सामने खड़ा है।

चर्चा के इसी क्रम में कवि ने प्रेमचंद की अन्य रचनाओं गोदान, मंत्र आदि का उदाहरण देते हुए प्रेमचंद की विचार प्रक्रिया को स्पष्ट करने की कोशिश की. इस लेख में मानवीय संबंधों के ‘बिजनेस इज़ बिजनेस’ में तब्दील होते जाने को गोदान में राय साहब और खन्ना के माध्यम से प्रेमचंद ने दर्ज किया।

इसी प्रक्रिया में कवि ने कहा कि शिक्षा के नाम पर लूट खसोट, मूलभूत मानवीय जरूरतों का भी जनता की पहुंच से दूर होना और पूंजी का केंद्रीकरण ही हमारे समय की सच्चाई बनता जा रहा है। वीरेन डंगवाल के शब्दों में ‘किसने आखिर ये समाज रच डाला है जिसमें वही चमकता है जो काला है’।

राहुल सांकृत्यायन भी ‘साम्यवाद ही क्यूं ‘ में कहते हैं “पूंजीवाद धन अर्जन का वह खास ढंग है जिसमें एक मनुष्य दूसरे पर प्रभुत्व न रखते हुए भी सिर्फ अपनी पूंजी के बल पर चीजों को बनाने के बहुमूल्य साधनों पर अधिकार कर बहुसंख्यक मनुष्यों के श्रम के कितने ही भाग को मुफ्त ही अपने निजी लाभ और अपनी मदतगार पूंजी के बढ़ाने में उपयोग करता है।”

नीलम शंकर जी ने कहा कि सामंती व्यवस्था में हिंसा मानवीय मूल्यों की चादर ओढ़े होते थी लेकिन अब तो हिंसा अपने नग्न रूप में विद्यमान है।

समता राय ने प्रेमचंद के ‘मनोवृत्ति’, ‘गोदान’, ‘सेवासदन’ आदि रचनाओं का हवाला देते हुए आज के समय की बात कही और कहा कि प्रेमचंद की वो सारी बातें आज भी पूरी तरह से प्रासंगिक हैं।

बैंक रोड, इलाहाबाद में आयोजित इस गोष्ठी में शहर के प्रतिष्ठित कथाकार प्रियदर्शन मालवीय, नीलम शंकर, प्रोफेसर विवेक तिवारी, वंदना , निरुपमा, जनमत के संपादक के. के. पांडे, समता राय, छात्र विवेक, राहुल, साक्षी, कवि और शिवानी आदि शामिल रहे।

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