डॉ. रेखा सेठी ने वर्तमान की जटिलताओं एवं अंतर्विरोधों को समझने के क्रम में स्त्री रचनाशीलता के विविध आयामों को व्याख्यायित एवं विश्लेषित करने का श्रमसाध्य कार्य किया है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित रेखा सेठी की दो पुस्तकों ‘स्त्री-कविता : पक्ष और परिप्रेक्ष्य’ तथा ‘स्त्री-कविता : पहचान और द्वंद्व’ का लोकार्पण आज शाम 5:30 बजे ऑक्सफोर्ड बुक स्टोर में होगा. यह दोनों पुस्तकें हिंदी में स्त्री रचनाशीलता को समझने एवं उसपर बहस करने के लिए नए गवाक्षों को खोलती है।
‘स्त्री-कविता : पहचान और द्वंद्व’ में कविता की अवधारणा को लेकर विभिन्न स्त्री एवं पुरुष रचनाकारों के साक्षात्कार सम्मिलित है प्रस्तुत है सविता सिंह से बातचीत का एक अंश
पुस्तक अंश–स्त्री-कविता : पहचान और द्वंद्व
सविता सिंह की कविताओं में स्त्री का इंटलैक्चुअल एकांत है. एकांत इस अर्थ में नहीं कि वहाँ स्त्री की बहुवचन छवि न हो. ऐसे में तो बल्कि वहाँ नाम लेकर आप कुसुम, सुमन, विमला, नीता, सारा, रूथ को आवाज़ दे सकते हैं. नामों से बंधे परिभाषित पात्र, साझी नियति के संगी-साथी हैं जिन्हें सविता बड़े जतन से अपनी कविताओं में समेट लाई हैं लेकिन हाशिए उलाँघने की कोशिश उनके यहाँ बाहर की अपेक्षा भीतर घटती हैI यह एक सजग स्त्री का एकांत है जो नींद, रात और सपनों में परवान चढ़ता है.
रेखा सेठी: आपकी दृष्टि में स्त्री-कविता के मूल मुद्दे क्या हैं ?
सविता सिंह: स्त्री-कविता के मूल मुद्दे वही हैं जो दुनिया में आज तक स्त्रियों के मूल मुद्दे रहे हैं और जिन पर स्त्रियों ने लिखा भी है. मेरा यह मानना है कि स्त्री-कविता तमाम सामाजिक संरचनाओं में जो असमानता व्याप्त है, चाहे वह स्त्री को लेकर हो चाहे दूसरे ऐसे समूहों को लेकर, उन सब के प्रति संघर्ष को जायज़ ठहराती है. वह संसार को हर तरह की कुरूपताओं से मुक्त करना चाहती है. वह पितृसत्ता की भयावहता से मनुष्य को निजात दिलाना चाहता है. इसके लिए वह सुंदर की पहचान करना चाहती है. मैंने भी यह कोशिश की है कि जिन असमानताओं से हमारा समाज प्रभावित है उसके दर्द और अंधेरों को सामने लाऊं. स्त्री-कविता भी लगातार यह कोशिश करती है कि अपनी कविताओं के ज़रिए वह समाज को कैसे बदल सकती है. सामानांतर स्तर पर ऐसी सभ्यता के विकास में सम्मिलित हो जिसमें अंततः जो भी हमारी भिन्नताएँ हैं वह हमारे शोषण के लिए इस्तेमाल न होकर हमारी उन्नति के लिए हों, जिससे हम कह सकें कि एक सामूहिक, विनम्र, विश्व समुदाय बनाने में हमारी कविताओं का योगदान रहा है. हमारी कविताओं को पढ़ते हुए लगे कि वे व्यस्क स्त्री नागरिक की कविताएँ हैं. यह एक उपलब्धि होगी.
रेखा सेठी: कविता या साहित्य को जेंडर लेंस से देखने के क्या लाभ हैं और उसकी क्या सीमाएँ हैं ?
सविता सिंह: लाभ यह है कि आप सत्य के थोड़ा करीब होंगे और आपकी समझ आपके पाठ को अंतर्दृष्टि से संपन्न करेगी. उसकी सीमा यह इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि यह उसको स्त्री-विमर्श में कैद करने के लिए नहीं किया गया, किया गया है पाठ को खोलने के लिए. इसको एम्पेथेटिक रीडिंग या सहानुभूतिपरक पाठ कहते हैं जो मैंने किया है. स्त्रियाँ ज़्यादा आसानी से ऐसा पाठ कर सकती हैं (पुरुष भी चाहें तो ऐसा पाठ कर सकते हैं लेकिन इसके लिए उन्हें अपने को थोड़ा बदलना पड़ेगा) मैं यह मानती हूँ कि यह पाठ मैंने यह स्थापित करने के लिए किया है कि स्त्रियों द्वारा लिखी गई कविताओं का पाठ थोड़े अलग ढंग से करना चाहिए क्योंकि यह जिस चेतना की उपज हैं उसमें उसका स्त्री होना केंद्र में है. अगर आप इसको नदारद कर देंगे तो आप उसके आस-पास तो पहुँच सकते हैं लेकिन बहुत करीब नहीं जा सकते और पाठ को खोलना बहुत ज़रूरी है. ख़ासकर आज आलोचना की जो स्थिति है वह स्त्रीवादी नहीं है उसमें स्त्री के प्रति वह संवेदना नहीं है. मेरा ख़याल है कि जब इस तरह के कुछ और पाठ होंगे तो पाठ करने का जो यह ढंग है वह हिंदी आलोचना में ज़रूरी तौर पर शामिल हो जाएगा और इस अर्थ में यह हो सकता है कि यह प्रतिमान बने लेकिन उसकी मुझे ज़्यादा चिंता नहीं है. मुझे केवल इस बात में रूचि है कि जब हम इन कविताओं को पढ़ते हैं तो उनको थोड़ा सही ढंग से, थोड़ा करीब जाकर पढ़ सकें.
रेखा सेठी: एक कवि की हैसियत से आपकी क्या इच्छा होगी कि आपकी कविताओं को कैसे याद किया जाए किसी अस्मिता से जोड़कर या फिर विशुद्ध साहित्यिक रचना के रूप में ?
सविता सिंह: नहीं, मैं चाहूँगी कि मुझे एक स्त्री के रूप में याद किया जाए. मेरी कविताओं को स्त्री-कविता के रूप में पहचान मिले क्योंकि मैं उसी तरह लिख रही हूँ. मैं कभी नहीं भूलती कि मैं एक स्त्री हूँ और एक ऐसे समाज में रह रही हूँ जहाँ असमानता की गज़ब-गज़ब किस्म की प्रविधियाँ हैं. मतलब कि इस समाज ने नई-नई किस्म की असमानताओं का अनुसंधान किया है. ख़ासकर हमारे यहाँ जो जातिवाद है वह हमारी सोच को संकटग्रस्त करता है. मैं अभी कुछ पढ़ रही थी तो उसमें एक जगह यह बात आती है कि अमेरिका में एक शोध के दौरान श्वेत और अश्वेत स्त्रियों से एक प्रश्न किया गया कि जब वे आईने में अपने आप को देखती हैं तो क्या देखती हैं ? ज़्यादातर श्वेत स्त्रियों ने कहा कि वे एक स्त्री को देखती हैं जबकि अश्वेत स्त्रियों ने कहा कि ‘वह एक अश्वेत स्त्री को देखती हैं’ तो यह जो भिन्नताएँ है उनको अपनाते हुए उनके दर्द को अपने में सम्मिलित करते हुए मैं यह कहना चाहती हूँ कि जो मैं अपने को एक स्त्री कवि के रूप में देखती हूँ तो चाहती हूँ कि मुझे एक स्त्री होने के कारण जिन स्त्रियों से रू-ब-रू होना पड़ता है उनके दर्द को भी समझा जाए. मैं चाहूंगी कि मुझे स्त्री कवि के रूप में ही याद किया जाए जो सवर्ण जाति से होते हुए भी अपनी संवेदना में उन स्त्रियों की संवेदनाओं को शामिल करके चलती है जो जाति या वर्ण के कारण बहुत ज़्यादा शोषित और अपमानित हुई हैं. मैं चाहूंगी कि मुझे इसी रूप में याद किया जाए .