समकालीन जनमत
ख़बर

अरुंधति रॉय और शेख शौकत हुसैन के खिलाफ यूएपीए लगाने पर अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान का बयान

यूएपीए हटाओ/ लोकतंत्र बचाओ
1. हम भारत भर के लेखक, पत्रकार, कलाकार और बुद्धिजीवी दुनिया भर में सम्मानित लोकप्रिय भारतीय लेखिका अरुंधति रॉय और कश्मीर विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर शेख शौकत हुसैन के खिलाफ दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा दमनकारी यूएपीए [गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम)] कानून के तहत मुकदमा चलाने की इजाजत देने के फ़ैसले से आक्रोशित हैं। हम इसके विरुद्ध दुनिया भर के लेखकों कलाकारों के प्रतिवाद को संगठित करने का संकल्प लेते हैं।
2. साथ ही हम यूएपीए समेत सभी अन्यायमूलक दमनकारी कानूनों को निरस्त करने की मांग करते हैं और इसके लिए व्यापक जनजागरण अभियान चलाने की प्रतिज्ञा करते हैं।
3. हम सभी को यह मालूम है कि ताज़ा मामला आज से 14 साल पहले सन 2010 में दिल्ली में हुए कश्मीर मसले पर हुए एक सम्मेलन में हुई चर्चा से संबंधित है जिसका उन्वान था: आजादी- द ओनली वे. आजादी का लफ्ज़ आते ही हिंदूराष्ट्र-वादी जमात को देशद्रोह की ललकार सुनाई देने लगती है. सच्चाई यह है कि भारतीय लोकतंत्र आजादी की एक गौरवशाली लड़ाई से उपजा है। आजादी हमारे संविधान का सर्वोच्च मूल्य है। भारतीय संघ आजादी और लोकतंत्र के मूल्यों के आधार पर ही संगठित हुआ है। सभी नागरिकों और समाजों के लिए लोकतांत्रिक आजादियों की गारंटी करना इसका परम उद्देश्य है।  देश की तमाम समस्याओं को हल करने की राह एकमात्र इन्हीं आजादियों की गारंटी से निकलती है। हम यह नहीं भूल सकते कि कश्मीर की अवाम ने भारत के साथ आने का फैसला आजादी, बराबरी, बहनभाईचारा और धर्मनिरपेक्षता के उन मूल्यों के आधार पर ही लिया था, जो हमारी आजादी की लड़ाई की देन थे।
4. हम समझते हैं कि ऐसी आजादियों को प्रतिबंधित करने या उनमें कटौती करने की हर कोशिश भारतीय लोकतांत्रिक राज्य को कमजोर करने की कोशिश है। लोकतंत्र की बुनियाद यही है कि हर किसी को अपनी बात कहने की आजादी मिलनी चाहिए चाहे उसकी बात बहुमत के कानों के लिए कितनी ही अप्रिय हो।
5. यूएपीए एक ऐसा कानून है जो लोकतंत्र की इसी बुनियाद पर प्रहार करता है। यह एक ऐसा कानून है जो केवल कहने की नहीं, सोचने की आजादी को भी प्रतिबंधित करता है। इस कानून के दायरे में भारत के लिए ‘अप्रीति या डिसअफेक्शन पैदा करना या ऐसा करने का इरादा रखना ’ भी गैरकानूनी गतिविधि है। इस कानून में जानबूझकर इस पदबंध के व्यावहारिक आशय को परिभाषित नहीं किया गया है। कानून और न्याय की भाषा में यह जरूरी होता  है कि उसमें प्रयुक्त प्रत्येक पद की स्पष्ट व्यावहारिक परिभाषा दी जाए। ऐसा न करने से राज्य द्वारा कानून की मनमानी व्याख्या करने की असीमित गुंजाइश पैदा हो जाती है। यही कारण है कि सोशल मीडिया पर किसी नेता या घटना के प्रति असंतोष की सामान्य अभिव्यक्ति को भी बार-बार इस कानून के दायरे में ले आया जाता है। कोई चाहे तो अप्रिय मौसम की शिकायत को भी भारत के लिए अप्रीति फैलाने के ‘इरादे‘ से जोड़ सकता है।
इतना ही नहीं, यह कानून आधुनिक न्याय की समूची अवधारणा को सर के बल खड़ा कर देता है। न्याय का तकाज़ा यह है कि किसी आरोपित व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाए जब तक उसे पर आरोप सिद्ध नहीं होता। साथ ही आरोप सिद्ध करने की जिम्मेदारी आरोप लगाने वाले पर होती है। अगर ऐसा न हो तो शक्तिशाली लोग संस्थाएं और सरकारें कानूनी ढंग से  अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी भी निर्दोष व्यक्ति को दंडित और प्रताड़ित करने का अधिकार पा जाएंगी। यूएपीए कानून ठीक ऐसा ही करता है।
2019 के संशोधन के बाद यह कानून सरकार को यह शक्ति भी प्रदान करता है कि वह चाहे तो किसी एक अकेले व्यक्ति को आतंकवादी घोषित कर सकती है। चाहे उस व्यक्ति का किसी आतंकवादी राजनीतिक समूह से कोई संबंध न हो, चाहे उसने कभी किसी हिंसक घटना में भाग न लिया हो और चाहे उसके किसी भी कार्य से कहीं कोई हिंसा न हुई हो, सरकार महज संदेह के आधार पर उसे आतंकवादी घोषित कर सकती है। ऐसी घोषणा के बाद स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी भी आरोपित व्यक्ति पर ही आयद होती है, भले ही पुलिस उसे पहले ही गिरफ्तार कर चुकी हो।
इस कानून में ऐसी धाराएं भी जोड़ी गई है, जिनके कारण आरोपित व्यक्ति के लिए अदालत से जमानत प्राप्त करना लगभग नामुमकिन हो गया है। जमानत तभी दी जा सकती है, जब कोई जज यह कहने का साहस करे कि लगाए गए आरोप पहली ही नजर में झूठ प्रतीत हो रहे हैं। जमानत का फैसला करते समय जज को पुलिस द्वारा दाखिल किए गए आरोप पत्र पर विचार करने का या किसी भी रूप में उसकी जांच करने का अधिकार भी नहीं है। यानी लगाए गए आरोपों पर संदेह करने के कोई व्यावहारिक साधन उसके पास नहीं छोड़े गए हैं। इसका व्यावहारिक अर्थ यह है इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे के असीमित समय तक जेल में बंद रखा जा सकता है। 10-12 साल जेल में रखने के बाद अगर किसी को आरोपमुक्त भी कर दिया जाए, तो भी वह एक न किए गए अपराध की कठोरतम सजा भुगत चुका होता है। लंबे कारावास के अपमान और यंत्रणा को झेलते हुए वह अगर किसी तरह अपना आत्मविश्वास बचा ले जाए तो भी उसका निजी जीवन, उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और उसका अमूल्य जीवनकाल उससे छीना जा चुका होता है।
6. हमने आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले 84 वर्षीय कर्मकर्ता फादर स्टेन स्वामी को बिना किसी  मुकदमे का सामना किए जेल में शहीद होते हुए देखा है।  हमने 90% विकलांगता का सामना करते हुए प्रोफेसर साई बाबा को आठ साल जेल में गुजारने के बाद आरोपमुक्त होते देखा है।  ऐसे कई मामले हैं।
यूएपीए के तहत आरोपसिद्धि की दर महज़ दो प्रतिशत है। इस आंकड़े से इस कानून का राजनीतिक मकसद जाहिर हो जाता है।
पिछले सालों में इस कानून के जरिए प्रताड़ित किए जाने वाले लेखक और मानवाधिकार कर्मकर्ताओं की सूची बहुत लंबी है। इनमें कोबाड गांधी, बिनायक सेन, कामरान युसूफ और अखिल गोगोई जैसे लोग शामिल हैं, जो लंबी सजा भुगतने के बाद आरोपमुक्त घोषित किए जा चुके हैं। इनमें सुधीर धवले, महेश राउत, रोना विलसन, शरजील इमाम और उमर खालिद जैसे लोग भी हैं, जो सालों से जेलों में बंद हैं। इनमें सुधा भारद्वाज, शोमा सेन, वरवर राव और आनंद तेलतुंबडे जैसे लोग भी हैं, जिन्हें लंबे कारावास के बाद बड़ी मुश्किल से सशर्त जमानत दी गई है। इन सभी उदाहरणों से यह साफ हो जाता है कि यूएपीए का इस्तेमाल प्रायः राजनीतिक असहमति को कुचलने के लिए किया जा रहा है।
इसके अलावा आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यक समुदायों की न्याय की मांग का दमन करने के लिए ठीक उसी तरह यूएपीए कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है जैसे कुछ समय पहले पोटा कानून का किया जा रहा था।
जनता के दबाव में एक लंबी राष्ट्रीय बहस के बाद पोटा कानून को निरस्त करना पड़ा था, लेकिन शासक वर्ग ने यूएपीए के रूप में पोटा का अधिक खूंखार संस्करण ढूंढ निकाला है। बेहद चिंता की बात यह है कि यूएपीए के कई आपत्तिजनक प्रावधानों को नई भारतीय न्याय संहिता में भी शामिल कर लिया गया है।
7. ऐसे में केंद्र सरकार के कारकुन उपराज्यपाल का यह फैसला हमारे लिए अनपेक्षित नहीं है।
8. भारत के लेखक, कलाकार और पत्रकार शुरुआत से ही बहुसंख्यकवादी हिंदू राष्ट्र की घोषित–अघोषित परियोजना में निहित फासीवादी स्वप्न को पहचानते और उजागर करते रहे हैं। वे बार-बार दिखाते रहे हैं कि बहुसंख्यकवादी हिंदू राष्ट्र की अवधारणा  स्वाधीनता संग्राम के दौरान विकसित हुए भारतीय राष्ट्रवाद के समावेशी चरित्र के विरुद्ध युद्धरत है। इस युद्ध के प्रमुख मोर्चे  हैं: लोकतंत्र को हिंदू बहुसंख्यकवाद में विघटित कर देना; स्त्रियों, आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों तथा हाशिए के दीगर समूहों और राष्ट्रीयताओं के न्याय- आंदोलनों को कुचल देना और लुटेरे अवैध (क्रोनी) पूंजीवाद को असीमित छूट मुहैया करना।
9. इस परियोजना के विरुद्ध भारत के लेखक कलाकारों का निरंतर प्रतिरोध अनेक रूप में दिखाई सामने आता रहा है। अवार्ड वापसी का ऐतिहासिक प्रतिरोध; सीएए विरोधी आंदोलन और किसान आंदोलन का सक्रिय समर्थन; वैकल्पिक मीडिया का निर्माण; शिक्षा संस्थानों में लोकतांत्रिक परिवेश को बचाने का संघर्ष; पाठ्य पुस्तकों के भ्रष्टीकरण और शिक्षा के बाजारूकरण का प्रतिरोध इसके कुछ उदाहरण हैं। आने वाली पीढ़ियां गर्व से याद करेगी कि भारत के लेखकों कलाकारों की विशाल बहुसंख्या ने भारत में  फासीवाद के साथ कोई समझौता या सहअस्तित्व कायम नहीं किया। जनसाधारण के एक बड़े हिस्से में कथित हिंदू राष्ट्र  की लोकप्रियता के बावजूद भारत के लेखक कलाकार लोकतंत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के साथ अडिग बने रहे। भारत में  फासीवाद का प्रतिपक्ष निर्मित करने में लेखकों- कलाकारों की निर्णायक  भूमिका बनी रही है और आगे भी बनी रहेगी।
10. भारत सरकार से हमारी निम्नलिखित मांगें हैं:
1. अरुंधति रॉय और शेख शौकत हुसैन पर यूएपीए लगाने की इजाजत वापस ली जाए। 
2. भीमा कोरेगांव मामले, दिल्ली दंगे मामले और दीगर मामलों में दमनकारी कानूनों के तहत गिरफ्तार किए गए सभी लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों और कर्मकर्ताओं को रिहा करते हुए उनके मामलों की सुनवाई सामान्य कानूनों के दायरे में की जाए। 
3. विश्वविद्यालयों और शिक्षा- संस्थानों में लोकतांत्रिक परिवेश बहाल किया जाए। 
इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए हम भारत और बाकी दुनिया के सभी लोकतंत्रप्रेमी लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों से संगठित होकर अपनी आवाज बुलंद करने की अपील करते हैं।
अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच : हेमलता महिश्वर 
इप्टा : राकेश 
जन नाट्य मंच: सानिया हाश्मी 
जनवादी लेखक संघ : संजीव कुमार
जन संस्कृति मंच  : मनोज कुमार सिंह 
दलित लेखक संघ : हीरालाल राजस्थानी
प्रगतिशील लेखक संघ : अर्जुमंद आरा
प्रतिरोध का सिनेमा : संजय जोशी
न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव: सुभाष गाताडे
 ( अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान : हम देखेंगे )

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion