पूजा कुमारी
( यह लेख स्वतंत्र शोधार्थी पूजा कुमारी द्वारा बिहार की जेलों में महिलाओं की स्थिति पर किए गए शोध “ INCARCERATED GENDER : A STUDY OF WOMEN PRISONERS IN BIHAR JAILS (2020-2024)” पर आधारित है )
महिलाओं के मामले में भी जेलों की स्थिति अलग नहीं है परन्तु जेल में उनका जीवन मानसिक रूप से पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक पीड़ादायक होता है। बिहार की जेलों बंद अधिकतर महिला कैदी घरेलू झगड़ों, हिंसा, जमीनी विवाद, शराब बनाने या बेचने के अलावा कुछ अन्य आरोपों में ट्रायल पर हैं।
इस शोध से पता चलता है कि बिहार की जेलों में बंद महिलाएं विभिन्न मानवाधिकार उल्लंघनों का शिकार हैं। हालांकि, अलग-अलग जेलों में मानवाधिकार उल्लंघन अलग-अलग तरीके से होता है। जेलों का रोजमर्रा का संचालन, स्थानीय शक्ति समीकरण, राज्य स्तरीय राजनीतिक शासन, प्रशासनिक अधिकारियों का बर्ताव निर्धारित करती हैं कि किसी खास जेल में किस तरह से मानवाधिकार उल्लंघन प्रकट होगा।
दुनियाभर के और जगहों कि तरह भारत में भी कैदियों के संबंध में चिंता कम ही की जाती है। मान लिया जाता है कि जेल जाने वाला हर व्यक्ति सजायाफ्ता अपराधी ही है और उसे सजा मिलनी ही चाहिए। जेल के कैदियों का बहुत बड़ा हिस्सा उन कैदियों का है जिनकी सजा कोर्ट अभी तक तय नहीं कर पाया है। जेल किसी गंभीर अपराधी को भी सुधार के लिए काम करता है ताकि वहाँ से निकल कर कोई भी अपराधी समाज में दोबारा वापसी कर पाए। इसी क्रम में उनके लिए एक उचित मानवीय व्यवहार, उनका स्वास्थ्य, उनके आचरण में जरुरी बदलावों सहित अन्य मुद्दों पर काम किये जाते हैं।
समाज, प्रशासन और राज्य तीनों यह बात भलीभांति जानते हैं कि जेल जाने वाला हर व्यक्ति अपराधी नहीं होता। इसके बाद भी जेलों में बंद किसी इंसान के लिए उसके परिवार या रिश्तेदारों के अलावा सामाजिक रूप से बहुत कम ही लोग इसे समझते हुए उनके लिए कुछ सोचते हैं।
पिछले कुछ समय से सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार दोनों की बातचीत में इस मुद्दे को शामिल किया जा रहा है जिस पर और अधिक मुखर होकर जमीन पर काम करते रहने की जरूरत है। उदहारण के लिए देश के पूर्व सर्वोच्च न्यायधीश ने अपने एक अभिभाषण में इसका जिक्र करते हुए कहा कि आपराधिक न्याय प्रणाली को प्रभावित करने वाले विचाराधीन कैदियों की उच्च संख्या एक “गंभीर” मुद्दा है| उन्होंने कहा कि देश के 6.10 लाख कैदियों में से करीब 80 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं जो कि आपराधिक न्याय प्रणाली प्रक्रिया में ”एक सजा ” है।
नालसा ( National Legal Services Authority) द्वारा आयोजित अखिल भारतीय जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए) की पहली बैठक में पीएम ने कानूनी सहायता के अभाव में जेल में बंद विचाराधीन कैदियों पर चिंता व्यक्त करते हुए जिला कानूनी सेवा प्राधिकरणों से जिला स्तरीय विचाराधीन समीक्षा समितियों द्वारा विचाराधीन कैदियों की रिहाई में तेजी लाने का आग्रह किया। [1]
सैद्धांतिक रूप से यह शोध एक अंतःविषय मानवाधिकार परिप्रेक्ष्य पर आधारित है और इसमें अनुभवजन्य क्षेत्र कार्य के आधार पर साक्षात्कार और अनौपचारिक बातचीत की गई। इसमें बिहार के आठ जेलों की 60 महिला कैदियों को शामिल किया गया। इसके अलावा समस्या को सामाजिक रूप से समझने के लिए नागरिक समाज, गैर-सरकारी संस्थाओं और जेल अधिकारियों से भी बात की गई।
मार्च 2023 में बिहार राज्य विधान परिषद द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, बिहार की जेलों में कुल 62,108 कैदी हैं, जिनमें 2,730 महिलाएं हैं। हालांकि, 31 मार्च 2023 तक बिहार की 59 जेलों की क्षमता 47,750 थी, जिसमें आठ केंद्रीय जेल भी शामिल हैं। इससे ये बात स्पष्ट होती है कि बिहार की जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों को रखा गया है जो अपने आप में एक प्रकार का मानवाधिकार का उल्लंघन है।
शोध के आंकड़ों से निकलने वाली निष्कर्ष
शोध के दौरान सर्वे किए गए आठ जेलों में कुछ बातें सामने आईं जो अमूमन हर जेल पर लागू होती हैं, जैसे कैदियों का ‘खराब मानसिक स्वास्थ्य’, ‘इलाज के दौरान लापरवाही’ और दूसरा, अधिकांश कैदियों का ‘समाज के वंचित/गरीब वर्ग से होना’, जिनमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाएं अधिकतम थीं।
जेल के भीतर किसी बाहरी को देखकर या तो वो उसे सब बता देना चाहती थी या फिर अजीब प्रकार की ख़ामोशी थी। ये दोनों ही सूरत आपको उनके भीतर चलने वाले द्वंद को समझने के लिए बहुत है।
यहाँ एक बात महत्वपूर्ण है कि महिला कैदियों की वर्तमान दुर्दशा को अलग-अलग तरीके से समझा जा सकता है। एक तरफ आधिकारिक आंकड़े महिलाओं के खराब स्वास्थ्य को उनकी स्थिति का प्रमुख कारण बताते हैं, वहीं जेलों पर काम करने वाले नागरिक समाज के प्रतिनिधि ‘यातना ’, ‘ रिश्वत ’, ‘भ्रष्टाचार’ और ‘ चिकित्सा देखभाल की कमी’ को महिला कैदियों की दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। ये देखना रोचक है कि ये दोनों तर्क अलग-अलग दिशा में संकेत देते हैं।
शोध के दौरान एक सकारात्मक पहलू नजर आया कि पिछले दशकों के मुकाबले महिलाओं पर जेल में होने वाली यातना में कमी आई है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज के कई सदस्यों ने भी यह स्वीकार किया। इसके बावजूद, ‘ यातना विरोधी कानून ’ की आवश्यकता बनी हुई है। यह कानून राज्य की लोकतांत्रिक छवि को सशक्त करेगा। पुलिस एवं जेल अधिकारियों की अवैध गतिविधियों और निरंकुश कार्यशैली पर लगाम लगाएगा और उनकी जिम्मेदारी तय करने में मदद करेगा।
क्षेत्र अध्ययन से निकलते निष्कर्ष
अलग-अलग आयु वर्ग की कुल 60 महिला कैदयों से बातचीत के कुछ पहलू निम्न हैं-
आय वर्ग : साक्षात्कार में शामिल 32 महिलाएं निम्न आय वर्ग से थीं, 11 मध्यम आय वर्ग से, 2 उच्च आय वर्ग से, और 15 महिलाएं इस बारे में कोई जानकारी नहीं दे पाईं।
इससे यह समझना आसान हुआ की इनकी संख्या जेल में अधिक इनके आर्थिक रूप से कमजोर घरो से होने की वजह से था। बहुत सी महिलाएं पैसों की कमी के कारण परिजनों द्वारा बेल नहीं करा पाने की वजह से जेल में थीं।
जाति: 28 महिलाओं ने जाति का उल्लेख नहीं किया। आठ-आठ महिलाएं अत्यंत पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति से, सात महिलाएं सामान्य श्रेणी से, छह अन्य पिछड़ा वर्ग से और तीन अनुसूचित जनजाति से थीं।
धर्म : 37 महिलाएं हिंदू थीं, 10 मुस्लिम जबकि 14 महिलाओं ने धर्म का उल्लेख नहीं किया।
शिक्षा: जेल में बंद अधिकतर महिलाएं निरक्षर थीं। केवल चार महिलाएं प्राइमरी तक पढ़ी थीं। आठ महिलाओं ने 12वीं तक की शिक्षा प्राप्त की थी। सिर्फ दो महिलाएं ग्रेजुएट या पोस्ट-ग्रेजुएट थीं।
शिक्षा के की व्यवस्था की बात जेल प्रशासन करता है परन्तु इन निरक्षर महिलाओं तक शिक्षा अभी भी पहुँच से दूर दिखी। जिन महिलाओं को लिखना- पढना आता था उनके लिए चिट्ठी लिखने की व्यवस्था की कमी देखी गई।
बुनियादी सुविधाओं में कठिनाइयाँ
60 में से 23 महिलाओं ने बताया कि उन्हें बुनियादी सुविधाओं जैसे नींद, स्वच्छता, कपड़े, चिकित्सा सहायता, मनोरंजन का अभाव है और परिवार से संपर्क करने में समस्या होती है। 24 ने कहा है कि उनको इसमें समस्या नहीं है और 13 ने इस पर कुछ नहीं कहा।
स्वास्थ्य सेवाएँ
जेल में 44 महिलाओं ने कहा कि डॉक्टर उपस्थित थे, लेकिन 4 ने कहा कि उन्हें स्वास्थ्य सेवा के लिए चिकित्सक नहीं मिले। 12 महिला कैदियों ने इस बारे में कोई उत्तर नहीं दिया।
जेलों में अधिकांश मेडिकल सुविधाएं पुरुषों के वार्ड के पास थीं, जिनको प्राप्त करना महिलाओं के लिए असुविधाजनक था। यहां तक कि उनका इलाज भी भारी भीड़ में होता था। दूसरी ओर कैदियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य एक बड़ी समस्या है, कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर पटना हाईकोर्ट द्वारा दिए गए सुझावों को पूरी तरह लागू करना जेल प्रशासन के लिए मुश्किल हो रहा है। इसकी वजह बिहार में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी है। जिसे वे एनजीओ के सहयोग से ‘मिशन विहान’ के तहत स्वास्थ्य शिविर लगाकर पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। 60 में से 22 महिलाओं ने कहा कि जेल में कोई मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिक नहीं है, जबकि 12 ने कहा कि ये सेवाएं तिमाही आधार पर उपलब्ध थीं।
परिवार से मिलने की अनुमति:
60 में से 30 महिलाएं कहती हैं कि वे अपने परिवार से नहीं मिलीं, जबकि नौ ने कहा कि वे दो महीने के अंतराल में अपने परिवार से मिलीं। कोविड-19 के शुरूआती दिनों में बिहार राज्य ने जेलों में बाहरी संपर्कों पर प्रतिबंध लगाया था, जिसने पुरुषों की तुलना में महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित किया।
हालांकि जेल अधिकारी और कैदी इस फैसले को सही नहीं मानते। इंटरव्यू के दौरान एक जेल अधिकारी ने बताया कि इस दौरान कैदियों में अपने भविष्य को लेकर अधिक चिंताएं उभरी और उनके परिवारों के खोज- खबर न मिल पाने कि वजह से वो मानसिक रूप से अधिक परेशान हुए।
केस स्टडी 1: आरा जेल में सूफिया (बदला हुआ नाम) और उनकी माँ अपने पति की हत्या के आरोप में जेल में थीं। उनके अनुसार, वह अपने मायके आई हुई थीं और कुछ दिनों बाद उन्हें खबर मिली कि उनके पति बीमार हैं और अपने ससुराल में हैं। वहाँ परिवार में मतभेद के कारण, सूफिया ने अपने पति को अपने माता-पिता के घर आने के लिए कहा ताकि वह और उनकी माँ उनका ख्याल रख सकें और उन्हें अस्पताल पहुँचा सकें। इलाज के दौरान दो दिन बाद उनके पति की मौत हो गई और उनके ससुराल वालों ने माँ और बेटी दोनों पर हत्या का आरोप लगाते हुए केस दर्ज करा दिया। तब से दोनों जेल में थीं। उन्हें नहीं पता था कि बाहर क्या हो रहा है, इस बीच महामारी ने भी सारे संपर्क तोड़ दिए। बाहर उनके लिए वकील करने वाला कोई नहीं था और वो दोनों अपनी यह लड़ाई खुद ही लड़ रही थी। उनके लिए चिट्ठी लिखने तक को काग़ज और कलम नहीं दिए गये थे जबकि गया जेल में उन्हें ये सब उपलब्ध था। इतना ही नहीं, वहाँ उनके वार्ड में पढ़ाई और मनोरंजन की भी व्यवस्था की गई थी।
केस स्टडी 2: गया सेंट्रल जेल में, निशा (बदला हुआ नाम) नाम की एक लड़की प्रशासन द्वारा अलग से बनाए गए कमरे में पढ़ाई कर रही थी। यह देखकर थोड़ा अच्छा लगा क्योंकि अब तक ज़्यादातर जेलों में महिलाएँ ज़्यादा परेशान नज़र आती थीं। वह कानून की पढ़ाई कर रही थी और पूछने पर पता चला कि उस पर हत्या का आरोप है। उसने बताया कि एक दिन अख़बार में खबर छपी थी कि उसने किसी की हत्या कर दी है और पुलिस उसे घर से उठा लाई है। उसका केस चल रहा था और वह न्याय की उम्मीद में अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे रही थी। जेल ने महिलाओं के लिए अलग से खाना बनाने की व्यवस्था की थी जिसमें उसने अपने भाई के जन्मदिन पर उसे याद करने के लिए हलवा बनाया था।
केस स्टडी 3: एक बच्ची की बेल होने बाद भी जमानतदार नहीं होने की वजह से उसे वीकेंड आने पर बेऊर सेंट्रल में दो या तीन दिन और रहना पड़ा। वो उसके पति के साथ शराब पीकर पुलिस वालों को गांव में रास्ते पर पड़ी मिली थी। उसके पति की बेल उसके एक महीने पहले ही हो गई थी पर उस लड़की के बेल के लिए घर से कोई नहीं आ रहा था। उसकी उमर बहुत अधिक नहीं होगी क्योंकि मुझे वो सिर्फ 15-17 साल के बीच ही लगी, पर पता नहीं कैसे शादी होने की वजह से आधार कार्ड पर उसकी उम्र 18+ दर्ज है ।
सरकार द्वारा जेलों के लिए आवंटित राशि पर नजर डाली जाए तो ये छवि सामने आती है।
बिहार में वित्तीय वर्ष 2020-21 (587.2 करोड़), 2021-22 (797.3 करोड़) और 2022-23 (889.0 करोड़ ) स्वीकृत बजट के मुकाबले वास्तविक खर्च 2020-21 (490.8 करोड़), 2021-22 (590.4 करोड़) और 2022-23 (635.1 करोड़ ) रहा। ( स्रोत- Prison Statistics India–2022)
वास्तविक व्यय में काफी कमी देखने को मिली है। वर्ष 2020-21 में 96.4 करोड़ रुपये का बजट खर्च नहीं किया गया। वर्ष 2022-23 में भी 253.9 करोड़ रुपये का उपयोग नहीं हुआ।
खर्च की गई राशि का आंतरिक विभाजन: बिहार में वित्तीय वर्ष 2022-2023 के दौरान कैदियों पर खर्च का ब्यौरा (करोड़ रुपये में) भोजन (184.40 करोड़), कपड़े (5.49 करोड़) , मेडिकल (5.51 करोड़), व्यावसायिक/शैक्षणिक (0.00), कल्याणकारी गतिविधियाँ (0.00), अन्य (26.58)। इस प्रकार कुल व्यय राशि 221.99 करोड़ रही। ( स्रोत- Prison Statistics India–2022)
ये आंकड़े दर्शाते हैं कि कोविड-19 के बाद की अवधि में व्यावसायिक और शैक्षिक गतिविधियों पर कोई खर्च नहीं किया गया, जबकि अन्य श्रेणियों पर अधिक राशि खर्च की गई। इससे यह भी रेखांकित होता है कि सरकार और जेल प्रशासन की प्राथमिकता क्या है ?
निष्कर्ष
कुल मिलाकर, बिहार की जेलों में महिलाओं की स्थिति निराशाजनक है। हालांकि कुछ सुधार हुए हैं, जैसे कि जेलों में स्वच्छता और चिकित्सा सुविधाओं में बढ़ोतरी, फिर भी बहुत काम किया जाना बाकी है। महिलाओं की स्थिति की बेहतरी के लिए जेलों में व्यावसायिक, शैक्षिक और कल्याणकारी गतिविधियाँ शुरू की गई हैं, लेकिन इन पहलुओं में अभी काफी सुधार की आवश्यकता है।
महिलाओं के लिए जेलों में बेहतर क़ानूनी सुविधाओं की जरूरत को देखते हुए आगे उनकी मदद को प्रशासनिक सुविधाओं में वृद्धि करने की आवश्यकता है| खास कर जिनकी आर्थिक हालत अधिक खराब है।
जिन जेलों में महिलाओ के साथ अच्छे और सुधारात्मक कार्य हो रहे हैं, उनको बाकी जेल अधिकारियों के बीच ले जाने की जरूरत है| यह अन्य जेलों में भी सकारात्मक कार्य को बढ़ावा देने में सहयोग देगा।
जेल कर्मचारियों के व्यवहार में मानवीय व्यवहार पाए गये जिसे सबके लिए एक समान बढ़ावा देने के उनकी विशेष ट्रेंनिग पर भी ध्यान देने की जरूरत है|
कैदियों को सामाजिक जागरूकता की जरूरत है ताकि जेलों में बंद अधिकतर बेगुनाह लोगों में अपने क़ानूनी और मानवीय अधिकारों के प्रति सामाजिक भावना जाग सके।
( लेखिका स्वतंत्र शोधार्थी हैं। वे पॉलिसी पर्सपेक्टिव फाउंडेशन, दिल्ली की चीफ कोऑर्डिनेटर रह चुकी हैं। संपर्क- poojarandhirabhimanyu@gmail.com )