प्राचीन भारत के इतिहास में अशोक का एक महत्वपूर्ण स्थान है। अशोक का नाम संभवतः इतिहास के पन्नों में गुम ही हो जाता और आने वाली पीढ़ी इतिहास के इस महत्वपूर्ण खंड से शायद अनभिज्ञ ही रह जाती यदि सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने विभिन्न अभिलेखों से प्राप्त ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि को पढ़ने में सफलता न पाई होती। किन्तु उन्होंने अभिलेखों में उल्लेखित ‘देवानांप्रिय पियदासी’ की पहचान सिंहल के राजा तिस्स से कर डाली । कालान्तर में यह ज्ञात हुआ कि सिंहली अनुश्रुतियों- दीपवंश तथा महावंश में यह उपाधि अशोक के लिये प्रयुक्त की गयी है । 1915 ई. में मास्की (रायचूर, कर्नाटक) से प्राप्त अभिलेख में ‘अशोक’ नाम भी पढ़ने में सफलता पा ली गई।
अशोक के अबतक लगभग 40 अभिलेख प्राप्त किए जा चुके हैं। इन अभिलेखों को मुख्यता 3 श्रेणियों में विभाजित किया गया है। 1. शिलालेख (Seal Inscription) 2. स्तम्भलेख (Pillar Edicts) 3. गुहा-लेख (Cave-Inscriptions)।
ये अभिलेख पूरे देश के विभिन्न भागों से एवं मुख्यतः व्यापार मार्गों, बड़े शहरों या व्यवसायिक केंद्रों से जुड़े पाये गए हैं। इन स्थलों में काफी समय तक दिल्ली का नाम नहीं था। दिल्ली क्षेत्र का प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में भी विशेष उल्लेख नहीं मिलता। फ़ाहयान आदि बौद्ध विद्वान भी मथुरा तक तो आए किन्तु उनके तथा अन्य प्रमुख ग्रंथों में भी दिल्ली का उल्लेखनीय उल्लेख नहीं मिलता। इससे यह भी अनुमान लगाया जाता रहा कि तत्कालीन दिल्ली संभवतः बौद्ध प्रभाव से अप्रभावित रही अथवा संभवतः ऐसा इसके किसी मुख्य व्यावसायिक मार्ग पर न रहने के कारण हुआ हो!
इतिहास प्रेमी शासक फिरोज शाह तुगलक ने हरियाणा से दो अशोक स्तंभ लाकर यहाँ उनकी कमी की पूर्ति तो की, परंतु एक महत्वपूर्ण खोज अभी होनी शेष थी। 1966 में भवन सामग्री के लिए यहाँ पत्थरों के उत्खनन की संभावना टटोल रहे एक कौंट्रेक्टर की नजर एक पाषाण खंड पर उत्कीर्णित प्राचीन लिपि पर पड़ी। शुक्र है कि आज के लोगों की तरह उस पर व्यवसायिकता इतनी ज्यादा हावी न थी और उसने इसे नजरअंदाज कर डायनमाइट से उड़ा न दिया, जैसा आज लगभग पूरी दुनिया में हो रहा है। लद्दाख में सड़क निर्माण के कारण बिखरे रौक आर्ट जहाँ-तहाँ दिख ही जाते हैं।
इस लिपिबद्ध पाषाण खंड का ASI द्वारा अध्ययन किया गया और इसकी पहचान अशोक के 14 लघु शिलालेखों में एक के रूप में हुई। चूंकि अशोक के ऐसे शिलालेख या स्तंभ मुख्यतः व्यापार मार्गों, बड़े शहरों या व्यवसायिक केंद्रों से जुड़े पाये गए हैं इसलिए माना गया कि दिल्ली के बाहापुर स्थित यह शिलालेख गंगा के मैदान और उत्तरपश्चिमी भाग को जोड़ने वाले प्राचीन व्यापार मार्ग को ध्यान में रखते हुये स्थापित किया गया होगा।
अशोक के बौद्ध धर्म स्वीकार करने के लगभग ढ़ाई वर्ष पश्चात 273-236 ईपू का यह लघु शिलालेख लगभग 30 इंच लंबे और 30 इंच चौड़े अरावली पहाड़ी की बाहरी चट्टानों में से एक झुकी हुई चट्टान पर अंकित है। इसके लिखित अंश अस्पष्ट हैं किन्तु ASI के अनुसार प्राकृत एवं ब्राह्मी लिपि में इस पर उत्कीर्णित अशोक के उद्धरण का भावार्थ है कि “धम्म के लिए अपने प्रयासों के फलस्वरूप वह जंबुद्वीप के लोगों को देवताओं के निकट लाने में समर्थ हो सका। वह अपनी प्रजा से आकांक्षा रखता है कि, चाहे वे प्रतिष्ठित व्यक्ति हों या निचले दर्जे के हों, प्रयास करते रहें ताकि वे स्वर्ग प्राप्त कर सकें।’
इस स्थल पर शिलालेख स्थापित होने को लेकर एक मत इसका किसी प्रमुख धार्मिक स्थल के निकट होना भी माना जाता है। इस धारणा को निकट ही स्थित प्राचीन कालकाजी मंदिर की उपस्थिति से बल मिलता है जिसे अपनी प्राचीनता के कारण पांडवों द्वारा निर्मित माना जाता है, तो एक अन्य आस्था के अनुसार महाकाली का प्राकट्य स्थल। कुछ बौद्ध मतावलंबी यहाँ किसी प्राचीन बौद्ध मंदिर होने का भी अनुमान प्रकट करते हैं।
सच्चाई जो हो, इतने लंबे समयांतराल के बाद कुछ स्पष्ट होगी, कुछ नहीं होगी। किन्तु जो ज्यादा जरूरी है वो है ऐसे स्थलों के प्रति जागरूकता। दिल्ली की घनी आबादी के मध्य यह एक अल्पचर्चित विरासत है। चूंकि यह क्षेत्र फिलहाल ASI के नियंत्रण में है इसलिए थोड़ा सुरक्षित है। परंतु कब क्या हो कुछ कहा नहीं जा सकता। पूरे देश में ही अपनी विरासत को संभालने को लेकर हमारी उदासीनता ही ज्यादा दिखती है।
ऐसी विरासतों को लेकर सारी जिम्मेदारी सरकार की ही नहीं आम नागरिकों की भी होती है। 2000 साल से प्राचीन यह एक महत्वपूर्ण स्थल है। ऐसे स्थलों की विशेषता, इनके विषय में जानकारी के साथ इसकी सुरक्षा के प्रति भी जागरूकता होनी चाहिए। ऐसे धरोहर हमारी इतिहास की शृंखला की एक अमूल्य कड़ी है। इनमें से एक का भी खोना इतिहास की जानकारी के बड़े स्रोत से हाथ धो लेना है। ऐसे में हमें अपनी विरासतों के प्रति सजग और संवेदनशील होना ही चाहिए।
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