समकालीन जनमत
पुस्तक

बाल साहित्य पर संजीदा बातें

लाल्टू

अच्छी बात यह है कि टाटा ट्रस्ट के पराग इनीशिएटिव द्वारा प्रकाशित इस किताब का नाम ‘…ऐन इंडियन स्टोरी ‘ रखा गया है, और ‘…द इंडियन स्टोरी ‘ नहीं। जो बात बड़ों के लिए ज़ाहिर है कि किसी भी साहित्यिक या सांस्कृतिक संदर्भ में पूरे हिन्दुस्तान को एक पटल पर नहीं रखा जा सकता, वह बच्चों के लिए और भी बड़ा सच है। जैसा कि हाल में मुल्क़ के सबसे ताकतवर बंदे ने संसद में अपने विरोधी नेता को ‘ बाल-बुद्धि ‘ कह कर दिखलाया, बच्चों को ही कोई संजीदगी से नहीं लेता तो उन पर लिखे को कितने लोग लेंगे ! ऐसे में यह कोशिश वाक़ई काबिले-तारीफ है कि बच्चों पर लिखी किताबों पर आलिम लोगों ने अपने शोध और तजुरबों के आधार पर परचे लिखे हैं और इनको इकट्ठे कर किताब की शक्ल दी गई है।

संपादकीय टिप्पणी में कहा गया है कि बच्चों की किताबों का सबसे बड़ा बाज़ार हिन्दुस्तानी ज़बानों में है। हालाँकि खरीदने वालों में अंग्रेज़ी वाले बड़ी तादाद में हैं, फिर भी कुल छप रही किताबों का एक तिहाई ही अंग्रेज़ी में छपता है। यह सही है कि आज कॉलेज की पढ़ाई में अंग्रेज़ी का वर्चस्व है, पर बच्चों और किशोरों में आधी आबादी उनकी है जो कभी कॉलेज नहीं पहुँचेंगे और उनके लिए आज भी मादरी ज़बान में पढ़ पाना ही एकमात्र विकल्प है। इसलिए हमारे बच्चों के लिए लिखी गई सामग्री पर अंग्रेज़ी में बात करनी विड़ंबना ही कही जा सकती है, पर यह इस मुल्क़ की हक़ीक़त है। इस किताब में शामिल परचों में वंचितों के प्रति सहानुभूति और संवेदना हर कहीं झलकती है, क्योंकि इसमें शामिल परचों को लिखने वाले ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे संवेदनशील लोग हैं; इसलिए इन परचों को पढ़ा जाना लाज़िम है। फिर भी कहीं-कहीं अभिजात स्वर साफ दिखता है। जैसे मशहूर चितेरी मंजुला पद्मनाभन अपनी लिखत की शुरूआत इस तरह करती हैं – ‘अतीत में, हिन्दुस्तान में बच्चों के लिए मिलती उम्दा किताबों में ज़्यादातर पश्चिम में मुद्रित होती थीं।’

असल में यह बात सही नहीं है। सौ साल पहले बांग्ला जैसी भाषाओं में आज की तरह ही बड़ी तादाद में बच्चों के लिए किताबें लिखी जाती थीं। हिन्दी में बच्चों के लिए सामग्री कम थी, बच्चे लोककथाएँ सुनते-पढ़ते थे, और विदेशों से आई किताबों तक उनकी पहुँच नहीं थी। अपनी अगली ही लाइन में मंजुला भारतीय बच्चों के पक्ष में सही बात रखती हैं कि उन (पश्चिम में मुद्रित) किताबों को गोरी चमड़ी और नीली आँखों वालों के लिए लिखा गया था और ऐसी ही तस्वीरें ही उनके आवरण और बीच के पन्नों पर होती थीं। यानी इसमें कोई शक नहीं कि किताब में शामिल परचे वंचितों या कम ताकतवरों के लिए ज़मीनी संवेदनाओं से भरे हुए हैं, और पश्चिम से आई किताबों पर सवाल उठाते हैं, पर अंग्रेज़ी वालों की दुनिया ही ऐसी है, कि गाहे-बगाहे अंग्रेज़ी से इतर बड़े संसार के बारे में उनमें भरपूर जानकारी की कमी दिखती है।

इसी तरह मनीषा चौधरी ने एक जगह लिखा है, ‘हिन्दी और अंग्रेज़ी जैसी ज़बानें सौ साल से भी ज़्यादा वक्त के लिए बहुत क़रीब रही हैं, इसलिए इनमें एक दूसरे से लफ़्ज़ों का आना-जाना आम बात है।’ उनकी यह बात ऐतिहासिक रूप से बिल्कुल ग़लत है। आज़ादी के वक्त यानी पचहत्तर साल पहले साक्षरता 12-14% थी। हिन्दी इलाक़ों में यह इससे कहीं ज़्यादा कम रही होगी, क्योंकि उस ज़माने में तालीम के बड़े केंद्र इन इलाक़ों में कम थे। अंग्रेज़ी में साक्षरता और भी कम रही होगी। इसलिए इन ज़बानों को सौ साल से भी ज़्यादा वक्त के लिए बहुत क़रीब मानना सरासर ग़लत है। सरकारी हिन्दी तक हिन्दी इलाक़ों के लिए बेगानी भाषा है, अंग्रेज़ी की तो क्या कहें ! लफ़्ज़ों का लेन-देन मज़बूरी है, क़रीबी का नतीजा नहीं है। तो ऐसी ग़लत टिप्पणी क्यों ? इसलिए कि अंग्रेज़ी वाले मानना ही नहीं चाहते कि यह ज़बान थोपी हुई ज़बान है और इससे जो नुकसान हुआ है उससे उबरने में कई पीढ़ियाँ लग जाएँगी। इसके बावजूद कि हिन्दी इलाक़ों में आम ज़बान में अंग्रेज़ी के लफ़्ज़ों की तादाद तेज़ी से बढ़ रही है, यह बात अपनी जगह सही है।

बांग्ला में साठ साल पहले भी हर साल (दुर्गा) पूजा के दिनों के पहले ‘शारदोत्सव’ के रंगीन माहौल के साथ नई ‘पूजावार्षिकियों’ का भी इंतज़ार रहता था। ताराशंकर बंद्योपाध्याय, आशापूर्णा देवी, महाश्वेता देवी, आदि सभी बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखते थे। आज भी यह परंपरा चलती है। उन दिनों सभी आम पत्रिकाओं के पूजावार्षिकी सिर्फ बच्चों के लिए नहीं होते थे, कुछ प्रकाशक अलग नाम से साल में एक मोटी किताब बच्चों के लिए निकालते थे। बड़ों की पत्रिकाओं में बच्चों के लिए खास सामग्री अलग से होती थी। हर साल उनके अलग नाम होते थे। बच्चों की पत्रिकाएँ जैसे शुकतारा, संदेश आदि के वार्षिक अंक निकलते थे। आज की लोकप्रिय ‘आनंदमेला’ का पहला रंगीन वार्षिक विशेषांक 1971 में आया जिसमें न केवल बड़े रचनाकारों की भरमार थी, तस्वीरें बनानेवाले भी उन दिनों के सबसे बड़े नाम थे। इनमें सत्यजित राय, पूर्णेंदु पत्री, सैयद मुजतबा अली आदि जैसे लोग शामिल थे। सत्यजित राय हर साल बच्चों के लिए एक जासूसी कहानी (फेलू दा की कहानियाँ, जिनमें से कइयों पर उन्होंने फिल्में भी बनाईं) और एक विज्ञान कथा (प्रोफेसर शंकु) लिखते थे और इनके साथ आकर्षक तस्वीरें खुद बनाते थे। हिंदी में ज्यादातर अलग-अलग प्रांतों की लोककथाओं के संकलन जैसी किताबें थीं या नैतिक संदेश वाली कहानियों की किताबें थीं। चंदामामा, पराग – ये दो आम पत्रिकाएँ खूब पढ़ी जाती थीं।

किताब चार भागों में बँटी है। पहला भाग भारत में बच्चों पर लिखे गए साहित्य की धाराओं पर है। इसमें वाचिक परंपरा पर दीपा किरण और दीगर धाराओं पर राधिका मेनन के परचे और साथ में प्रकाशकों की ओर से सायोनी बसु की टिप्पणी शामिल हैं। भारत के हर क्षेत्र में लोककथाओं, लोकगीतों और स्थानीय पहेलियाँ, चुटकुले, बुझव्वल और इनके अलावा भी यूँ ही बतरस की एक समृद्ध परंपरा रही है। दीपा किरण ने आज छप रही सामग्री के साथ इस परंपरा के जुड़ाव और इनमें हो रहे बदलावों पर विस्तार से लिखा है। राधिका मेनन ने आज़ादी के बाद एन बी टी (नैशनल बुक ट्रस्ट) और अमर चित्र कथा शृंखला से लेकर आज प्रथम आदि तरह-तरह के गैर-सरकारी प्रकाशन-संस्थाओं और उनके व्यवसायिक पक्ष पर चर्चा की है, जिसमें हाल के दशकों में बढ़ रहे ऑनलाइन प्रकाशन भी शामिल हैं।

दूसरा भाग कुछ खास किताबों को ध्यान में रखते हुए बाल-साहित्य की व्यापकता और इसमें आ रहे बदलावों पर है। इसमें छ: परचे हैं, जिनके लेखक हैं – व्यापकता पर दीपा बलसवर और साथ में मंजुला पद्मनाभन की टिप्पणी, बच्चों की कल्पनाशील दुनिया से इतर नैतिक शिक्षा और मनोरंजन पर तेजस्वी शिवानंद और साथ में रचनाकार के बतौर सौम्या राजेन्द्रन की टिप्पणी, कथेतर लेखन पर निवेदिता सुब्रमण्यम और बच्चों और किशोरों को जोड़ने वाले लेखन पर देविका रंगचारी।

तीसरे भाग में बाल-साहित्य में उठते मुद्दों पर बात है। इसमें टुलटुल बिश्वास ने विविधता पर, नमिता जेकब और टेरेसा ऐंथनी ने खास ज़रूरतों वाले बच्चों के लिए लेखन पर परचे लिखे हैं और साथ में संपादक बतौर संध्या राव की टिप्पणी है। अनुवाद पर जेरी पिंटो, मनीषा चौधरी और अरुणाभ सिन्हा का लेख है और नवाचार पर वी गीता और दिव्या विजयकुमार ने लिखा है। आखिरी भाग में शामिल बच्चों के लिए लिखत के इस्तेमाल, उनकी प्रतिक्रयाओं और उन तक पुस्तकें पहुँचाने के लिए मुफ़्त पुस्तकालयों पर बात है। इसमें शैलजा मेनन, श्रेया रक्षित और कार्तिक विजयमणि का एक, और सुजाता नोरोना का एक परचा है, जिसके साथ कीर्ति मुकुंदा की टिप्पणी है। आखिर में मृदुला कोशी का साक्षात्कार है, जिस पर उषा मुकुन्दा की टिप्पणी है।

अक्सर लोग चंदा मामा, हाथी-घोड़ा, राजा रानी आदि जैसी बातों तक सोचकर रह जाते हैं। एक ज़माना था जब बच्चे ऐसी कथाएँ और तुकबंदियो की कविताएँ सुनकर खुश होते थे। जिस तरह वक्त के साथ बच्चों के खेल और खिलौने बदले हैं, यह सोचना ज़रूरी है कि उनके विनोद की भाषा और वह जो पढ़ना चाहते हैं, इनमें कैसे बदलाव आए हैं। तक़रीबन दो साल की उम्र तक चंदा सूरज जैसी पुरानी लोरियाँ आज भी बच्चों को भाती हैं। पर दो की उम्र होने तक आज बच्चे टेलीफोन, मोबाइल, कंप्यूटर आदि यंत्रों में रुचि लेने लगते हैं और जहाँ ये हर वक्त उपलब्ध हों, चार की उम्र तक उनका उपयोग भी शुरू कर देते हैं। ऐसी स्थिति में पुराने किस्म की तुकबंदी और राजा-रानी की कहानियाँ बच्चों को संतुष्ट नहीं कर सकतीं। इसलिए विविधता का होना अहम मुद्दा है और टुलटुल मिसालें पेश करती हुई बिल्कुल सही कहती हैं कि पढ़ने की सामग्री में विविधता हमें अपने खुद से मुखातिब होने में मजबूर करती है और इससे हम अपने वर्ग, जाति और जेंडर आदि के पूर्वाग्रहों और समझ की सीमाओं को समझने के क़ाबिल होते हैं।

अधिकतर लोगों के लिए बच्चों को कुछ पढ़ने को कहना हमेशा उन्हें कुछ सिखलाने के लिए होता है। पर कला या साहित्य, कहानी-कविता का महत्व महज उस तरह की शिक्षा का नहीं होता जो वयस्क सोचते हैं। बच्चे बड़ों की बातों को गौर से सुनते हैं और उस अंजान रहस्य भरी दुनिया में घुसपैठ करने का संघर्ष निरंतर करते रहते हैं, जिसमें वयस्क डुबकियाँ लगाते हैं। जो हमें कतई शैक्षणिक नहीं भी लगता, वह सब कुछ भी बच्चों की शिक्षा में जुड़ता है।

दरअसल कल्पनाशीलता की अनंत तहों में बच्चे भी उसी तरह प्रवेश करना चहते हैं, जैसे बड़े करते हैं – बल्कि उनमें ये संभावनाएँ वयस्कों से अधिक ही होती हैं। दस की उम्र तक बच्चों में पारंपरिक पठन-सामग्री के प्रति उदासीनता और अरुचि दिखने लगती है।

एकलव्य संस्था द्वारा अस्सी के दशक से लगातार प्रकाशित हो रही ‘ चकमक ‘ पत्रिका ने हिंदी में बाल-साहित्य के माहौल को काफी बदला है। हाल के दशकों में एकतारा फाउंडेशन की ‘ साइकिल ‘ पत्रिका उल्लेखनीय है। ऐसे प्रयास और भी गिने जा सकते हैं। कवि प्रभात ने स्वयं बच्‍चों के लिए काफी सारा लिखने के अलावा कई लोक कथाओं को सुंदर भाषा में प्रस्‍तुत किया है । उसके कई गीत बच्चों में लोकप्रिय भी हैं। चिल्‍ड्रन बुक ट्रस्‍ट, नेशनल बुक ट्रस्‍ट, आदि की किताबें बहुत कम दाम में और सुंदर किताबें होती हैं, लेकिन लोगों को उनके बारे में जानकारी नहीं होती। तूलिका और कथा जैसे कुछ महंगे प्रकाशन सुंदर किताबें छापते हें, जिनमें भारतीय लोक कथाओं को भी सं‍कलित किया गया है, लेकिन इन किताबों के दाम इतने ज्‍यादा होते हैं कि सामान्‍य व्‍यक्ति की पहुंच में नहीं हेातीं।

रूसी पुस्‍तक प्रदर्शनी और सोवियत रूस के समय में उपलब्‍ध अनुवादों ने जो पुस्‍तक और पढ़ने की संस्‍कृति को बढ़ावा दिया था, उसे भूलना नहीं चाहिए। अब पुस्‍तक मेले तो साल में कई बार लगते हैं, लेकिन वैसा साहित्‍य अब नहीं मिलता।

आज का किशोर ही कल के वयस्क साहित्य का पाठक है। हिंदी में पाठक की उदासीनता पर अक्सर चर्चा होती है, पर इसे बाल साहित्य के संदर्भ में कम ही सोचा गया है। यह ज़रूरी है कि हिंदी का हर लेखक या कवि इस पर गंभीरता से और नए आयामों की तलाश के साथ इस पर सोचे। अच्छे बाल-साहित्य के बिना वयस्कों के लिए अच्छे लेखन का होना संभव तो है, पर वह व्यापक नहीं हो सकता।

तस्वीरों को लेकर पहले एक उदासीनता होती थी। रंगीन तस्वीरों को छापना महँगा पड़ता था और बगैर रंगों के तस्वीर आकर्षक नहीं लगती थी। हालाँकि अपनी पीढ़ी में बचपन में हम सफेद-काली तस्वीरों को ही मज़े से देखते थे, पर यह सही है कि रंगों का अलग असर तो होता है। टेक्नोलोजी के साथ तस्वीरों को छापना आसान और कम महँगा हुआ है, पर ज़्यादा महत्व की बात यह है कि तस्वीरों की अहमियत पर समझ बढ़ी है। पुरानी कहावत है कि एक तस्वीर हज़ार लफ़्ज़ों के बराबर की होती है। मंजुला पद्मनाभन ने अपने लेख की शुरूआत मे ही इस बात पर ज़ोर दिया है कि verbal literacy यानी पाठ को समझने पर हमेशा ज़्यादा ज़ोर दिया जाता था और VISUAL LITERACY यानी देखने की क़ाबिलियत को दरकिनार कर दिया जाता था। तस्वीरों की अहमियत बतलाने के लिए उन्होंने हरफों को बड़ा यानी कैपिटल में लिखा है।

कुल मिलाकर यह किताब वाक़ई एक ज़रूरी संकलन है, जिसे बच्चों पर लिखने वालों और उनके लिखे पर टिप्पणी करने वालों को गंभीरता से लेना होगा।

Children’s Books : An Indian Story, ed. Shailaja and Menon Sandhya Rao, Eklavya Foundation, Bhopal, 2024, pp. 420+4, ₹424  (paperback), ₹1200 (Hardcover)

( लाल्टू कविता, कहानी, पत्रकारिता, अनुवाद, नाटक, बाल साहित्य, नवसाक्षर साहित्य आदि विधाओं में समान गति से सक्रिय हैं. उनके अब तक आठ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनके हिंदी, पंजाबी और अंग्रेज़ी में कई अखबारों और पत्रिकाओं में समसामयिक विषयों और विज्ञान पर सौ से अधिक आलेख और पुस्तक समीक्षाएँ प्रकाशित हुए हैं और शिक्षा आदि विषयों पर कई शोध-आलेख पुस्तकों में शामिल किये गए हैं .रसायन शास्त्र में अध्यापन करने के साथ –साथ वे शिक्षा के मुद्दे पर भी बहुत सक्रिय हैं. संपर्क : laltu10@gmail.com )

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