समकालीन जनमत
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‘ सनातन संस्था ’ और ‘अरबन नक्सल ’

रविभूषण

इन दिनों ‘अरबन नक्सल’ जितनी सुर्खियों में है, उतनी ‘सनातन संस्था’ नहीं। ‘सनातन संस्था’ एक उग्र दक्षिणपंथी हिन्दू संगठन है जिसकी स्थापना जयन्त बालाजी अठावले ने 24 मार्च 1999 में भक्तराज महाराज के सहयोग से की थी। जयन्त अठावले ‘सम्मोहन चिकित्सक’ थे और उनके द्वारा स्थापित इस संस्था का उद्देश्य अध्यात्म को वैज्ञानिक भाषा में प्रस्तुत करना है। संस्था का प्रयोजन अध्यात्मिकता, धार्मिकता, शैक्षिक और धार्मिक अध्ययन है।

‘राष्ट्र एवं धर्मरक्षा के लिए कार्यरत’ हिन्दू जनजागृति समिति से इसका संबंध है जिसका गठन सनातन संस्था के जिज्ञासुओं ने 13 अक्टूबर 2002 को किया। क्रिस्टोफर जैफप्लोट ने इसे आर एस एस की प्रशाखा कहा है। यह समिति वैश्विक स्तर पर कार्यरत है। इसे हिन्दुओं का सामान्य/सामूहिक प्लेटफार्म कहा गया है। यह एक एनजीओ है, जिसका हेड क्वार्टर गोवा में है। इसके कार्यकारी निदेशक डाॅ आठवले हैं। हिन्दू जनजागृति समिति का संबंध सनातन संस्था से है।

आलोक देशपांडे एवं गौतम मेंगले ने अपने एक लेख ‘आॅल इज फेयर इन द वार फाॅर ए वार हिन्दू राष्ट्र’ (दि हिन्दू, कोलकाता, 2 सितमबर 2018, पृष्ठ 2) में इस संस्था पर विस्तार से विचार किया है। महाराष्ट्र की सनातन संस्था के संस्थापक जयंत बालाजी अठावले को उनके अनुयायी ‘ विष्णु का अवतार ’ मानते हैं। इस संस्था की अपनी वेब साइट और ब्लाॅग है। विज्ञान के रूप में अध्यात्म का अध्ययन संस्था का उद्देश्य है। भारत सहित विदेशों में इस संस्था की अपनी अनेक शाखाएं हैं। अध्यात्म का विज्ञान इसके लिए शरीर और मनोवैज्ञानिक विज्ञान से अधिक उपयोगी है।

मुम्बई हाईकोर्ट में दर्ज एक याचिका में इस संस्था के ‘एरिकसोनियन सम्मोहन’ की बात कही गयी थी जो प्रमाणित नहीं हो सकी। पहले यह सनातन भारतीय संस्कृति संस्था के रूप में स्थापित हुई थी। बाद में यह सनातन संस्था बनी। तीन राज्यों – गोवा, महाराष्ट्र और कर्नाटक में ये प्रमुख है। अगस्त 2018 तक 17 भाषाओं में इसके तीन सौ से अधिक ‘पवित्र टेक्स्ट’ की 73 लाख से अधिक प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। बिना अनुमति के इनके आश्रम में प्रवेश संभव नहीं है। ‘सनातन प्रभात’ इस संस्था का मुखपत्र है जो यह सुनिश्चित करता है कि इसके अनुयायी अपने शत्रुओं को पहचानते हैं।

ये संस्था लगभग सभी राजनीतिक दलों को अपना विरोधी समझती है। इसके अनुसार हिन्दू राष्ट्र के गठन में ईसाई और मुसलमान सबसे बड़ी बाधा हैं। पुलिस भी बची नहीं है। 9 जून 2013 के एक लेख में उसने हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में पुलिस और सेना को भी बाधा माना था। महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक एवं अध्यक्ष नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या (2013) की जांच के बाद यह खुलासा हुआ कि सनातन संस्था का प्रकाशन खुलेआम अपने सदस्यों को यह कहता है कि ‘दुर्जन’ के खिलाफ हिंसा वास्तविक हिंसा नहीं है। संस्था की एक पुस्तक में दुर्जन के खिलाफ कार्रवाई का एक विस्तृत प्रोग्राम भी है। एक शाखा और उससे सम्बद्ध को तोड़ने के बदले पूरे धड़े को तोड़ने से सारी शाखाएं नष्ट हो जाए्रगी। पुस्तक में संस्था के सदस्यों को सैनिक ट्रेनिंग की आवश्यकता पर भी बल दिया गया है।

सनातन संस्था हथियारबंद या सशस्त्र लड़ाई के पक्ष में है। छत्रपति शिवाजी ने चुनाव लड़कर अपना राज्य स्थापित नहीं किया था, इसलिए हमें भी हिन्दू राष्ट्र का निर्माण लड़ाई के उसी मार्ग पर करना है, यह तर्क है। दाभोलकर की हत्या की जांच सीबीआई कर रही है। उसके अनुसार गिरफ्तार अभियुक्तों में से एक डाॅ वीरेन्द्र तावड़े के कम्प्यूटर से पाये गये एक ईमेल में 15 हजार सैनिक सदस्यों के गठन का जिक्र है। डाॅ वीरेन्द्र तावड़े हिन्दू जन जागृति समिति और सनातन संस्था के सदस्य हैं। डाॅ अठावले को कई वर्षों से जन समूहों में नहीं देखा गया है। महाराष्ट्र विधानसभा के विपक्ष के नता राधाकृष्ण विखे पाटिल ने मांग की है कि अठावले के क्रियाकलाप व सक्रियाताओं की जांच की जाय क्योंकि हथियार के गुप्त भंडार को देखा गया और हथियारों की बरामदगी हुई। जांच की इस मांग को संस्था के प्रवक्ता चेतन राजहंस ने खारिज किया। उनके अनुसार ‘गुरु’ साधना में लीन हैं और उनके शिष्य किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ हैं। डाॅ अठावले के समीपी और सहयोगी डाॅ आशुतोष प्रभु देसााई जो मनश्चिकित्सक भी हैं, एक तीखा नोट देकर यह संस्था छोड़ दी।

महाराष्ट्र के आतंकवाद विरोधी दस्ते (एटीएस) ने 10 अगस्त 2018 की कार्रवाई में हिन्दू रक्षा समिति के सदस्य वैभव राउत और श्री शिव प्रतिष्ठान हिन्दुस्तान से जुड़े सुधन्वा गांधलेकर को क्रमशः नालासोपरा और पुणे से गिरफ्तार किया। सनातन संस्था ने इसका खंडन किया कि गिरफ्तार अभियुक्तों में से कोई भी उनके संगठन का सदस्य है। उसने यह घोषणा की कि ‘हिन्दुत्व’ के बड़े लक्ष्य के लिए वे कार्यरत है और उनके प्रोग्राम में वे भाग लेते हैं। हिन्दू जन जागृति समिति सनातन संस्था की बहन संगठन है और वैभव राउत उसके कई आयोजनों में उपस्थित रहे हैं। कन्हैया कुमार के विरुद्ध 2016 में उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित किया था। सनातन संस्था के कार्यक्रम में भी उनकी उपस्थिति रही है। 9 अगस्त 2018 की रात में उनके आवास से आठ क्रूड बम बरामद किये गये। नालासोपरा से जितने हथियार आदि बरामद किये गये, उसकी लम्बी सूची आलोक देशपाण्डेय और गौतम मेंगले ने अपने लेख में दी है।

नालासोपारा से गिरफ्तार कालसकर ने आतंकवाद विरोधी दस्ते (ए टी एस) से यह स्वीकारा कि नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या में वे सीधे शामिल थे और उन्होंने अपने सह अभियुक्त सचिन अंदुरे का नाम लिया। बाद में एक हिरासत सुनवाई में एटीएस ने कोर्ट को यह बताया कि राउत और उनके सह अभियुक्त पुणे में ‘ सन बर्न ’ उत्सव को निशाना बनाने की योजना बना रहे थे। ‘ सन बर्न ’ भारत में वाणिज्यिक संगीतोत्सव है जो पहले प्रत्येक वर्ष गोवा में आयोजित होता था। बाद में यह पुणे में भी आयोजित होने लगा है। इसे एशिया का सबसे बड़ा संगीत उत्सव माना जाता है।

सनातन संस्था के बारे में लोगों को कम जानकारी है। पत्रकारों, सम्पादकों और टी वी चैनलों का ध्यान इस पर नहीं जाता। इसके ठीक विपरीत ‘अरबन नक्सल’ पर काफी कुछ छापा जाता है और टी वी चैनलों पर पिछले एक सप्ताह से यह ‘प्राइम टाइम’ में छाया रहा है। रिपब्लिक टी वी, जी टी वी, इंडिया न्यूज सब ने ‘अरबन नक्सल’ को प्रमुखता दी। ‘टुकड़े टुकड़े होंगे’ से ‘अरबन नक्सल’ तक का यह प्रचार-प्रसार और ‘सनातन संस्था’ एवं ‘हिन्दू जन जागृति समिति’ से आंख मुंदने का क्या अर्थ है ? हथियार कहां से बरामद हुए ? जिन्हें ‘अरबन नक्सल’ कहा गया है, कहा जा रहा है, उनके यहां से अभी तक एक भी हथियार बरामद नहीं हुआ है। ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ की सच्चाई भी सामने आ चुकी है।

कल तक जिन्हें ‘राष्ट्रविरोधी’ कहा जाता था, आज उन्हें ‘अरबन नक्सल’ कहा जा रहा है। नक्सलवाद पर पचासों किताबें लिखी जा चुकी हैं। इसका इतिहास, विकास और ह्रास उन सबके सामने है जो इस देश के राजनीतिक दलों (प्रतिबंधित संगठनों, दलों सहित) का अध्ययन और उन पर शोध करते हैं। ‘अरबन नक्सल ’ एक राजनीतिक पद है जिसका सामान्य हिन्दी अनुवाद ‘शहरी नक्सल’ है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था और काॅरपोरेट के वर्चस्व के पहले यह पद अस्तित्व में नहीं था।

‘अरबन नक्सल’ को नक्सलियों और माओवादियों से अधिक खतरनाक साबित करने की कोशिशें जारी हैं। यू पी ए ने 2013 में गुरिल्ला आर्मी से भी अधिक खतरनाक इन्हें माना था। मनमोहन सिंह और चिदम्बरम ने माओवाद से देश को सबसे बड़ा खतरा घोषित किया था। जिसे माओवादी दल या संगठन कहा जाता है, वह 2004 में ही जन्मा है। ‘अरबन नक्सल’ के संबंध में यह कहा जाता है कि वे बन्दूक के स्थान पर कलम, माइक और फिल्म से अपने विचार फैलाते हैं। सनातन संस्था के लोग ‘कोड वर्डस’ में बात करते हैं, पर जिन्हें अरबन नक्सल कहा जाता है, उनके यहां कोड वर्डस शायद ही होता हो। एक समय लगभग 200 जिलों में जो नक्सली सक्रिय थे, वे अब कुछ जिलों में सिमट कर रह गये हैं। अरुन्धती राय की पुस्तक ‘वाकिंग विद कामरेड’ से कइयों को यह लगा कि वे ‘अरबन नक्सल’ हैं और उन्हें नक्सलियों से सहानुभूति है। पत्रकारों, कवियों, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का सही जानकारी प्राप्त करने के लिए अनेक स्थानों पर जाना और सही जानकारी प्राप्त करने के लिए सक्रिय होना एक लोकतांत्रिक समाज में किस तर्क से अपराध है ? आदिवासियों, दलितों, स्त्रियों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के पक्ष में खड़ा होना, लिखना-बोलना और जनचेतना को जागृत करना कहां से गलत है ? ‘अरबन नक्सल’ से यह पता नहीं चलता कि ऐसे लोग महानगर, नगर, कस्बे में रहते हैं या किसी एक भौगोलिक क्षेत्र में, चार-पांच महानगरों में ?

क्या फिल्म निर्माता विवेक अग्निहोत्री की पुस्तक ‘अरबन नक्सल’: द मेकिंग आॅफ बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम’ (अग्रेजी में 1 जनवरी 2018 और हिन्दी में 28 मई 2018 को प्रकाशित) से ‘अरबन नक्सल’ को समझा जा सकता है ? क्या रोमिला थापर, प्रभात पटनायक, देविका जैन, सतीश पांडे और माजा दारुवाला,  ‘अरबन नक्सल’ के समर्थक हैं ? इन्होंने सुप्रीम कोर्ट में वरवरा राव, वर्नोन गोनसाल्वेस, अरुण फरेरा, सुधा भारद्वाज और गौतम नवलखा की गिरफ्तारी रोकने के लिए याचिका दायर की थी। वर्तमान व्यवस्था से असंतुष्ट भारतीयों की संख्या करोड़ों में हैं। प्रश्न करना, आलोचना करना, विरोध करना किसी भी तर्क से ‘अरबन नक्सल’ होना नहीं है। शहरों में बुद्धिजीवी रहते हैं। शायद ही किसी बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता आदि ने कभी हथियार बन्द क्रान्ति की बात कही हो। भगत सिंह ने क्रान्ति पर बल दिया था। क्रान्ति अहिंसक भी होती है। सरकारें आती जाती हैं और विरोध कभी मंद नहीं होता। पूंजीवादी व्यवस्था से असंतुष्ट दुनिया में अधिकांश बुद्धिजीवी हैं। दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों की संख्या पूरे विश्व में नगण्य है।

प्रगतिशील और मार्क्सवादी होना भी ‘अरबन नक्सलवादी’ होना नहीं है। यह एक गढ़ा हुआ पद है जिसे सत्ता ने अपनी कमजोरी छिपाने के लिए निर्मित किया है। हमें यह सोचना चाहिए कि एक दिन के भीतर ही साठ हजार लोगों ने अपने को ‘मी टू नक्सल’ क्यों कहा? गौतम नवलखा ने इसे ‘कायर सरकार का सियासी हथकंडा’ कहा है। फिलहाल लोकतंत्र पर संकट है। संविधान पर भी संकट है। हत्यारों को केन्द्रीय मंत्री माला पहनाता हैं। जनविरोधी सत्ता अपना विरोध बर्दाश्त नहीं करती। इंसाफ के लिए, लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए, आदिवासियों और दलितों के हकों और आत्मसम्मान के लिए, गरीबों और बेरोजगारों के लिए आवाज उठाने वालों को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता। इतिहास के अनेक उदाहरण यह बताते हैं कि विरोधी स्वरों को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता।

वकीलों को ‘अरबन नक्सल’ में शामिल करना नयी घटना है। गरीबों के हकों की लड़ाई न्यायालय में लड़ी जाती है। सड़कों पर अब पहले की तरह हुजूम नहीं उमड़ता। सरकार अपनी नाकामियों से, वादा खिलाफी से सबको चुप नहीं करा ससकती। जिस प्रकार गांधी को पढ़ना गांधीवादी नहीं होना है, आर एस एस, हेडगेवार, गोलवलकर और दीनदयाल उपाध्याय को पढ़ना संघी और भाजपाई नहीं होना है और कहीं से गलत भी नहीं है, उसी तर्क से भगत सिंह, मार्क्स,  लेनिन, माओ, चेग्वेवारा आदि क्रान्तिकारियों का अध्ययन भी गलत नहीं है। उन पर बोलना और लिखना भी गलत नहीं हैं। जो सत्ता व्यवस्था हमें रोकती है, वह निरंकुश और फसीवादी सत्ता होती है। मंत्री, प्रधानमंत्री, राजनीतिक दलों व संगठनों के खिलाफ खड़ा होना भी गलत नहीं है। ‘सनातन संस्था’ के क्रियाकलाप और जिन्हें गलत ढ़ंग से ‘अरबन नक्सल’ कहा गया है, उनके क्रियाकलाप पर अवश्य विचार करना चाहिए। ‘अरबन नक्सल’ सत्ता व्यवस्था द्वारा अपनी रक्षा-सुरक्षा के लिए गढ़ा गया शब्द है जबकि ‘सनातन संस्था’ वास्तविकता है। वास्तविक को भूलकर अवास्तविक की बातें करना ध्यान बंटाना है।

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