[author] [author_image timthumb=’on’]http://samkaleenjanmat.in/wp-content/uploads/2018/05/shreya-kapoor.jpg[/author_image] [author_info]श्रेया कपूर [/author_info] [/author]
किसी किताब को हम अगर पढ़ें और वह खोपड़ी पर पड़े हथौड़े की तरह हमें जगा न दे तो हमें उसे क्यों पढ़ना चाहिए ? किताब तो बर्फ़ तोड़ने के हथौड़े की तरह होनी चाहिए जो हमारे भीतर जम गए दरिया को तोड़ सके. ख़ैर, इस कथन को थोड़ा सा हेर-फेर के साथ यूं भी पढ़ा जा सकता है कि कोई लेखक अगर खोपड़ी पर पड़े हथौड़े की तरह हमें जगा न दे तो हम उसे क्यों पढ़ें. यह अलग बात है कि कितने ऐसे होते हैं या हुए कि जिनको इस कसौटी पर लेखक कहा जा सके.
दम लगाकर ढूंढें और कहें तो कह सकते हैं कि एक था – सआदत हसन मंटो।
मंटो उर्दू के सबसे बड़े कहानीकार हुए है। साहित्य में रुचि रखने वाला शायद है कोई ऐसा पाठक होगा जिसने इसने बारे में ना सुना हो। मंटो ने समाज की गंदगी और घिनोनेपन को अनुभव किया और ज़िन्दगी के ज़हर को इस प्रकार चखा की ये ज़हर उनके अंदर तक उतर गया। उनकी कहानियों में ज़िन्दगी का ये ज़हर प्रमुखता से देखने को मिलता है। वो अपने लेखन के ज़रिये लगातार ऐसी सच्चाइयों को सामने लाते रहे जिसका साहस कोई और नहीं कर पाया।
उन्होंने समाज को लगातार आईना दिखाने का काम किया, जो ज़्यादातर लोगों को रास नही आया। उनका लेखन हमेशा समय और काल से परे सटीक और प्रभावशाली बना रहेगा जो उनकी नियति भी थी।
नैतिकता के तथाकथित ठेकेदार हमेशा मंटो के पीछे पड़े रहे। मंटो कहते थे “ओ ऊपरवाले इसे इस दुनिया से उठा लो, ये इस दुनिया के लायक नहीं है। ये तुम्हारी खुशबू को नकार चुका है। जब उजाला सामने होता है तो ये चेहरा फेर कर अँधेरे कोनों की तलाश में चला जाता है। इसे मिठास नहीं कड़वाहट में स्वाद मिलता है। ये गंदगी से सरोबार है। जब हम रोते हैं तो ये खुशियां मनाता है, जब हम खुश होते हैं तो ये मातम करता है। हे ईश्वर ये तुम्हे भुलाकर शैतान की इबादत करता है। ”
सवाल करने और सवाल सुनने की अनिच्छुक दुनिया के लिए मंटो कुछ ज्यादा ही सच्चे थे। उन्हें ये यकीन दिलाने की पूरी कोशिश की गयी, कि आप जो भी कर रहे हैं उसे भूल जाएँ। दुनिया से तालमेल ना बिठा पाने वाले मंटो ने खुद को शराब के नशे में डुबा दिया और केवल 42 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कहा।
सआदत हसन मंटो केवल एक सर्वकालिक महान लेखक ही नहीं बल्कि समाज को चुनौती देने वाले एक क्रांतिकारी भी थे।
कभी कभी सोचती हूं कि अगर आज मंटो ज़िंदा होते तो उनसे अपने मन की बात करती, उनके मन की बात करती जिनकी बातों को हमारे “वज़ीर-ए-आज़म” अक्सर नज़रअंदाज़ करते है।
वही, उस पंद्रह साल के लड़के की मां की मन की बात, जो ईद के कपड़े सिलवाने गया था और वापस आई तो उसकी लाश। पता है कहते हैं कि उसने जिसको अपनी सीट दी उसने ही उसका कत्ल कर दिया। हां तो सही ही तो हुआ, बड़ा टोपी पहने मुसलमान बना फिरता था, पर वो जो गोरखपुर में मारे गए मासूम दम घोंट कर ! उनका धर्म तो शायद इस्लाम नहीं था.. पर गरीब थे ना यही थी उनकी गलती.. प्राइवेट अस्पताल में जाना चाहिए था। उनके बीवी बच्चों का क्या, जो बेचारे गायों की वजह से मारे गए। कभी रात में घर से निकालकर तो कभी रास्ते में घेरकर। हां-हां वही अखलाक और पहलू और उन जैसे कई और। कहा किसने है आखिर इन मुसलमानों को गाय के आस-पास भी जाने के लिए, ढीठ कहीं के।
और उस मज़दूर को जिसे इश्क जिहाद के नाम पर जला डाला और तो और एक चौदह साल के लड़के ने बड़े चाव से विडियो भी बनाया उस कत्ल का और हम देखते रहे। हां तो और कर भी क्या सकते थे ? किसने कहा था अफ़राज़ुल को मुसलमान बनने को ? इश्क जिहाद ? हां ये एक नए क़िस्म का जिहाद है, अभी-अभी हिंदुस्तान में आया है। सही कहा आप ने, अब इश्क के नाम पर भी लोगों को मारा जा रहा है।
ओ अच्छा… पढ़ा है आप लोगो ने उनके बारे में। तो उस समय क्या कहा ? डर गए थे आप भी गौरक्षकों और भक्तों से ? हां डर तो मुझे भी लगता है, अब भी लग रहा है। हां शायद, वज़ीर-ए-आज़म मोदी जी को भी लगता होगा, तभी तो कुछ नहीं कहते इन मसलों पर। वैसे मैंने सुना था कि छप्पन इंच की छाती है वज़ीर-ए-आज़म साहब की, पर शायद सत्तर की होती तो सही रहता। फिर शायद मुसलमानों के लिए ना सही, बिहपुर में मारे गए उस दलित परिवार के लिए ही आवाज़ उठा लेते। पर वक्त कहां है ?
इस इलेक्शन ने जान जो ले रखी है सबकी। ज़म्हुरियत नाम के बंदर का मदारी है ये इलेक्शन। दुनिया भर के कत्ल अपनी जगह, पर इलेक्शन का बुखार अपनी जगह। सही तो लिखा आप ने कि अब हिंदुस्तान में पाकिस्तान नज़र आने लगा है, पर ज़रा क़ब्र से थोड़ा सा गर्दन उठाकर देखकर बताएंगे कि क्या पाकिस्तान में भी स्टूडेंट्स और जर्नलिस्टों को पड़ोसी मुल्क में जाने की नसीहत दी जाती है ? या ये सब सिर्फ हिंदुस्तान में ही होता है? मेरे हिसाब से तो ये ट्रेंड सिर्फ हिंदुस्तान में ही है अभी।
कहते है कि सआदत हसन मर भी जाए तो मंटो ज़िंदा रहेंगे हमेशा। बात तो सही है पर, ये हिंदुस्तान है, यहां ना वज़ीर-ए-आज़म आवाज़ उठाते हैं, ना बोलने वालों को पसंद करते हैं। ‘एंटी-नैशनल’ सुना ही होगा आप सब ने? नया अल्फ़ाज़ इजाद किया गया है आवाज़ उठाने वालों के लिए। भले ही फैज़ चीख-चीख कर बोलें, “बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल कि ज़बान अब तक तेरी है”, हिंदुस्तानी सरहद के इस पार ना तो अब लब आज़ाद हैं और ना ज़बान हमारी है। आखिर किस मुल्क के लोग अपने-अपने फोन की स्क्रीन पर एक इंसान को ज़िंदा जलता देखते और अगले ही दिन रेखता में अफ़राजुल को भूल-भालकर सेल्फ़ी खिंचाते फिरते।
सच कहा गया है, सआदत हसन मर गया। अगर वो ज़िंदा होता, तो आज ये सब देख कर कहता, “ जिस हिंदुस्तान को मैंने मरते दम तक पाकिस्तान की सरज़मीं पर एक बिछड़े माशूक की तरह याद किया, उस पर लानत।”
आज उनके जन्मदिवस पे उनको याद करते हुए उनके लिए कुछ चंद पंक्तियाँ –
मैंने उस को देखा है
उजली उजली सड़कों पर इक गर्द भरी हैरानी में
फैलती भीड़ के औंधे औंधे कटोरों की तुग़्यानी में
जब वो ख़ाली बोतल फेंक के कहता है
दुनिया तेरा हुस्न यही बद-सूरती है
दुनिया उस को घूरती है
शोर-ए-सलासिल बन कर गूँजने लगता है
अँगारों भरी आँखों में ये तुंद सवाल
कौन है ये जिस ने अपनी बहकी बहकी साँसों का जाल
बाम-ए-ज़माँ पर फेंका है
कौन है जो बल ख़ाते ज़मीरों के पुर-पेच धुंधलकों में
रूहों के इफ्रीत-कदों के ज़हर-अंदोज़ महलकों में
ले आया है यूँ बिन पूछे अपने आप
ऐनक के बर्फ़ीले शीशों से छनती नज़रों की चाप
कौन है ये गुस्ताख़
ताख़ तड़ाख
( श्रेया कपूर दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में प्रथम वर्ष ,मास मीडिया एंड मास कॉम्युनिकेशन की छात्रा हैं )