समकालीन जनमत
पुस्तक

‘ रोजा लक्जेमबर्ग : द बायोग्राफी ’

2019 में वर्सो से जे पी नेट्ल की किताब ‘ रोजा लक्जेमबर्ग: द बायोग्राफी’ का प्रकाशन हुआ । दो खंडों में लिखी इस जीवनी की प्रस्तावना पीटर हुदिस ने लिखी है । उनका कहना है कि किसी लेखक का नाम तो बहुत लिया जाये लेकिन उसे पढ़ा न जाये तो यह उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। उसी तरह किसी क्रांतिकारी का जाप बहुत हो लेकिन उसका अनुसरण न हो तो उसका भारी दुर्भाग्य है। रोजा के साथ यही हुआ है।

क्रांतिकारी परम्परा की सबसे गम्भीर सिद्धांतकारों में उनका नाम शुमार होता है लेकिन उनके योगदान को अलग अलग क्षेत्रों में खंडित करने से उनकी पूरी तस्वीर नहीं बन पाती । इसका एक कारण उनके लेखन की अनुपलब्धता है। आज भी उनका बहुतेरा लेखन अंग्रेजी में उपलब्ध नहीं है।

मार्क्सवादी परम्परा में वे सर्वाधिक स्वतंत्र चेता क्रांतिकारी थीं । पूंजीवाद के विरोध में सैद्धांतिक, राजनीतिक और निजी लड़ाई लड़ते हुए वे व्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिश लगाने की नीतियों को अपनाने वाले सुधारवादी या क्रांतिकारी साथियों की तीखी आलोचना करने में हिचकी नहीं। उनके उदाहरण से प्रेरणा तो बहुतों को मिली लेकिन लेनिन, त्रात्सकी या चे ग्वेरा की तरह उनके नाम के साथ किसी आंदोलन या पार्टी का जुड़ाव कभी नहीं रहा। उनके आदर्श से श्रद्धा जताते हुए भी व्यावहारिक राजनीति के लिए उसे अनुपयोगी ही समझा जाता रहा है। अब हालात में बदलाव आ रहा है। उनके समग्र लेखन को प्रकाशित करने की कोशिशों में तेजी आयी है । साथ ही उनके लेखन का विश्लेषण करते हुए बहुतेरा लेखन हो रहा है । उनके बारे में सभा और सम्मेलन भी आयोजित हो रहे हैं । कह सकते हैं कि उनका इतना गम्भीर अध्ययन इससे पहले शायद कभी नहीं हुआ था ।

असल में 2008 के वित्तीय संकट के बाद मार्क्सवाद और समाजवाद में लोगों की रुचि काफी बढ़ी है । अमेरिका, यूरोप और समूचे विकसित पश्चिमी जगत में राष्ट्रवाद, नस्लवाद, स्त्रीद्वेष और पर्यावरणिक विनाश में भी बढ़ोत्तरी आयी है । पूंजी जनित तबाही को रोकने में उदारवाद की विफलता ने क्रांतिकारी विकल्प की जरूरत पैदा कर दी है लेकिन अपूर्ण और असफल क्रांतियों की याद के चलते विकल्प की तलाश सीमाबद्ध हो जा रही है।

ऐसे में रोजा के बारे में लगातार आकर्षण बढ़ रहा है क्योंकि उन्होंने दूसरे इंटरनेशनल के सुधारवादियों की आलोचना तो की ही थी, साथ में रूसी क्रांति के बाद सत्ता में आये बोल्शेविकों की भी आलोचना की थी । इस समय पूंजीवाद का ऐसा कारगर विकल्प निर्मित किया जाना जरूरी है जो समाजवादी समाज बनाने की विगत कोशिशों में निहित विफलताओं और दुर्घटनाओं से खुद को बचा सके । इस मामले में रोजा का लेखन रोशनी दिखाने वाला महसूस हो रहा है। इन कारणों के चलते 1966 में पहली बार प्रकाशित इस जीवनी को फिर से छापने का महत्व जाहिर है।

अंग्रेजी में अब तक प्रकाशित रोजा की यह सबसे विस्तृत जीवनी है । लेखक को रोजा के जीवन और लेखन की गहरी जानकारी तो थी ही, वे इस लेखन के ऐतिहासिक संदर्भ से भी अच्छी तरह परिचित थे । यह संदर्भ विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी और दूसरे इंटरनेशनल के व्यक्तियों को जाने बिना रोजा के लेखन को समझने में मुश्किल पेश आती है । उनके लेखन को समझने के लिए साथियों और विरोधियों के राजनीतिक जीवन के उतार चढ़ाव को भी देखना समझना जरूरी है ।

इनमें से लेनिन के साथ उनका रिश्ता खासा जटिल महसूस होता है । एकाधिक मामलों में रोजा ने उनकी आलोचना की है लेकिन उनके साथ घनिष्ठ निजी और राजनीतिक सम्पर्क भी कायम रखा। उन्होंने बहुधा उनकी प्रशंसा भी की है। बाद के दिनों में उनके बीच सम्पूर्ण विरोध या पूर्ण सहमति साबित करने की झूठी कोशिशें हुईं। उनके लेखन को इन संदर्भों से काटकर देखने से भ्रम पैदा होने की सम्भावना बनती है। इन ऐतिहासिक संदर्भों की लेखक की जानकारी के अतिरिक्त जीवनी में उन सभी भाषाओं की मूल सामग्री का इस्तेमाल किया गया है जिनमें रोजा ने लेखन किया।

पोलिश, जर्मन और रूसी भाषा में रोजा के लेखन के साथ यह बात भी जुड़ी है कि इन इलाकों के आंदोलनों के साथ उनका सम्पर्क रहा था । रोजा के बारे में अधिकतर अंग्रेजी लेखन में इस तथ्य की अनदेखी हुई है । पोलिश में लिखे उनके अधिकांश लेखन का तो अंग्रेजी अनुवाद ही नहीं उपलब्ध है। धीरे धीरे इसका अनुवाद जर्मन में होना शुरू हुआ है। दुर्भाग्य से रोजा के जर्मन लेखन पर उनके पोलिश लेखन से अधिक ध्यान दिया गया है जबकि वे खुद पोलिश लेखन में अधिक सहज महसूस करती थीं। इसके चलते संगठन और स्वत:स्फूर्तता, केंद्रीयतावाद और सांस्कृतिक स्वायत्तता जैसे मुद्दों पर उनके वास्तविक विचारों को ग्रहण करने में कठिनाई होती है । हुदिस के मुताबिक रोजा के विचारों के पोलिश संदर्भ को स्पष्ट करना इस जीवनी का सबसे बड़ा योगदान है ।

1969 में इस जीवनी का जब संक्षिप्त संस्करण छपा था तो हाना आरेन्ट ने उसकी भूमिका में इस नुक्ते को अच्छी तरह खोलकर प्रस्तुत किया था । उनका कहना था कि अन्य जीवनियों के विपरीत इस जीवनी में इतिहास केवल पृष्ठभूमि के रूप में नहीं आया है बल्कि खुद ऐतिहासिक समय भी व्यक्ति के जीवन के प्रिज्म से होकर गुजरा है जिसके चलते जीवन और संसार की आवयविक एकता नजर आती है। यह जीवनी न केवल रोजा के जीवन और समय का, बल्कि भविष्य का भी संकेत करती है। इसमें रोजा के जीवन को जिस तरह प्रस्तुत किया गया है उसके कारण हमारी वर्तमान चिंताओं से उनका संबंध बहुविध जुड़ता है।

रोजा ने इस बात पर बार बार जोर दिया था कि पूंजी का तर्क प्राकृतिक और मानवीय सीमाओं को तोड़ देने के लिए उसे प्रेरित करता रहता है । इससे न केवल पूंजीवाद से पहले के ढांचों को तबाह होना होता है बल्कि खुद पूंजीवाद को टिकाये रखने के आधारों का भी विनाश हो जाता है । साम्राज्यवाद के उनके सिद्धांत का आधार उनकी यही मान्यता थी । ‘ समाजवाद या बर्बरता ’ का उनका मशहूर सूत्र भी इसी से उपजा था।

आज के पर्यावरण के विनाश को देखते हुए उनकी मान्यता बेहद उपयोगी प्रतीत होती है । इसी तरह क्रांति संबंधी उनकी मान्यता को देखा जा सकता है । उनके समय में निर्धारणवाद का काफी बोलबाला था । इसके विपरीत उनके लिए क्रांति बहुतेरी सम्भावनाओं से भरा हुआ मानव प्रयास था । स्वत:स्फूर्तता पर उनके जोर को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए । उनके मुताबिक क्रांति किसी पार्टी या कार्यकर्ता समूह की ओर से संपन्न नहीं की जाती बल्कि किसी खास अननुमेय क्रांतिकारी मोड़ पर अपने आप हो जाती है । इसी समझ से उन्होंने अक्टूबर क्रांति के नेताओं की आलोचना की थी।

हुदिस के मुताबिक 1956 की हंगारी क्रांति, उपनिवेशवाद विरोधी अफ़्रीकी क्रांतियों, 68 के विद्रोहों, 89 की पूर्वी यूरोप की क्रांतियों और अरब वसंत जैसी तमाम क्रांतियों में रोजा की समझ पुष्ट हुई है । इससे यह भी साबित होता है कि सभी क्रांतियों से नये समाज का जन्म अनिवार्य नहीं है । इन बातों के साथ ही मार्क्सवादी परम्परा में प्रमुख स्त्री सिद्धांतकार होने के नाते उनके लेखन में स्त्री संघर्षों की गूंज सुनी जा सकती है ।

हुदिस के मुताबिक नेट्ल की इन सभी खूबियों के बावजूद पचास साल पहले लिखी यह जीवनी अनेक मामलों में पुरानी प्रतीत होती है। जब किताब लिखी गयी थी तो शीतयुद्ध का दौर था। उस समय यूरोप में सामाजिक जनवादी पार्टियों का दबदबा था और एक तिहाई दुनिया पर कम्युनिस्टों का शासन था। दोनों को ही वे रोजा की मान्यताओं से दूर पाते हैं। सामाजिक जनवादियों ने तो क्रांतिकारी रूपांतरण की आशा बहुत पहले छोड़ दी थी। जो कम्युनिस्ट शासन थे उनमें लोकतंत्र की कोई जरूरत ही महसूस नहीं की जाती थी। ऐसे में रोजा के विचारों को वे चीन और रूस के संशोधनवाद से जोड़कर देखते हैं।

हुदिस रोजा के समय के संशोधनवाद और रूसी तथा चीनी पार्टियों में चिन्हित संशोधनवाद में समानता नहीं महसूस करते । इसके मुकाबले उनका जोर मार्क्सवाद की किसी आधिकारिक व्याख्या के मुकाबले रोजा द्वारा उसे निरंतर विकासमान समझने पर अधिक है । नेट्ल ने जिस समय किताब लिखी उस समय उदार पूंजीवाद और तत्कालीन रूसी शासन के बीच का ही विकल्प उपलब्ध था । रोजा का परिप्रेक्ष्य इन दोनों के ही मेल में नहीं था । इस संकट के चलते ही नेट्ल को अपने समय के साथ रोजा को जोड़ने में दिक्कत आयी थी । वैसे तो उनके समय में भी ऐसे कम्युनिस्ट थे जो उदार पूंजीवाद और रूसी सत्ता का विरोध करते थे और नेट्ल ने भी इशारे से रोजा के विचारों से प्रेरणा लेने की सलाह उन्हें दी है लेकिन उनके समय में ऐसे लोगों की आवाज नव वाम के शुरुआती उभार के बावजूद सुनाई नहीं पड़ती थी।

आज के दौर के कार्यकर्ताओं की फौज बाजार पूंजीवाद और रूसी मार्के के समाजवाद के विकल्पों के बाहर की सम्भावना तलाश रही है । उनके समय के चलते इस जीवनी में एक और पहलू नहीं उभर सका है । रोजा के निजी और राजनीतिक जीवन के बारे में बात करते हुए नेट्ल ने तत्कालीन स्त्री मुक्ति के नारीवादी आंदोलनों के साथ रोजा के रिश्तों के बारे में कुछ खास बात नहीं की है । सबूत है कि 1906 से 1909 के उनके जीवन को उन्होंने लुप्त वर्ष’ का नाम दिया है जबकि इन्हीं दिनों रोजा ने हड़ताल और ट्रेड यूनियन के बारे में किताब लिखी, पार्टी स्कूल की शिक्षिका रहीं और राजनीतिक अर्थशास्त्र परिचय के अपने ग्रंथ का काम शुरू किया । इसी दौरान उन्होंने अपने पंद्रह साल पुराने प्रेम से नाता तोड़ा । आश्चर्य कि उनके इस पुरुष जीवनी लेखक ने प्रेमी से अलग होने की इस अवधि को ‘लुप्त वर्ष’ माना !

नारीवाद के उभार के साथ रोजा के बारे में नये परिप्रेक्ष्य का उभार हुआ है। अनेक वर्षों तक आम तौर पर माना जाता रहा कि रोजा का अपने समय के नारीवादी आंदोलनों से कोई लेना देना नहीं था। जो लोग मार्क्सवाद को वर्ग संघर्ष तक महदूद रखते हैं उन्होंने इसकी तारीफ़ की और नारीवादियों ने इसे उनकी अप्रासंगिकता का सबूत माना। आरेन्ट ने भी स्त्री मुक्ति आंदोलन के प्रति उनकी अरुचि की बात की थी। अब नारीवाद के साथ रोजा के रिश्तों पर संतुलित राय बनाने का समय आया है। अपने समय के समाजवादी स्त्री आंदोलन के साथ रोजा का बहुत नजदीकी रिश्ता रहा था।

उन्होंने बुर्जुआ नारी आंदोलन के प्रति अरुचि जाहिर करने के साथ अपने ऐसे पुरुष साथियों का विरोध किया जो उन्हें स्त्री प्रश्न तक सीमित रखकर सिद्धांत का क्षेत्र अपने लिए संरक्षित करना चाहते थे। राया दुनायेव्सकाया ने सबसे पहले समाजवादी नारीवादी के रूप में उनकी वकालत की थी। अब इस बात को मंजूर किया जाता है। जिस समय यह किताब छपी थी उस समय रोजा को यूरोपीय चिंतक ही माना जाता था। कम्युनिस्टों के बीच उनकी छवि अच्छी नहीं थी। उपनिवेशवाद विरोधी क्रांतियों के समय भी इसमें कोई अंतर नहीं आया था। शायद इसकी वजह आत्मनिर्णय के अधिकार की मुखालफ़त थी। आखिर इस चीज के प्रति राष्ट्रीय मुक्ति योद्धाओं को अनुराग कैसे पैदा हो सकता था !

राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए चलने वाले आंदोलनों को खारिज करने के बावजूद रोजा ने उपनिवेशवाद द्वारा अश्वेत लोगों पर ढाये जुल्म और उनकी तकलीफ से उदासीनता नहीं बरती। उपनिवेशित समुदायों के जीवन में पूंजीवादी साम्राज्यवादी घुसपैठ का विरोध उनके सैद्धांतिक लेखन के केंद्र में रहा। विकासशील दुनिया में पूंजीवाद से पहले के देसी सामाजिक संबंधों की मुक्ति की सम्भावना को भी उन्होंने खारिज नहीं किया था। अर्थशास्त्र की उनकी दोनों किताबों में एशियाई, अफ़्रीकी और लातिन अमेरिकी समाजों के स्थानीय सामुदायिक सामाजिक संबंधों की जैसी छानबीन दर्ज हुई है वह मार्क्सवादी परम्परा में सर्वाधिक सुसंगत विवेचन है । उनका कहना था कि भारत, दक्षिण अफ़्रीका और एंडीज के लातिन अमेरिका में खेती का सामुदायिक संचालन और स्वामित्व पिछड़ेपन की निशानी नहीं है बल्कि उनमें लचीलापन और स्थायित्व है तथा अनेक मामलों में वे पूंजीवादी सामाजिक संबंधों से आगे हैं । पश्चिमेतर समाजों को उन्हीं की शर्त पर समझने के लिए रोजा ने गहन अध्ययन किया था । दक्षिणी गोलार्ध में उनके लेखन में जागृत रुचि से साबित होता है कि नेट्ल के मुकाबले रोजा को इस समय भिन्न तरीके से देखा समझा जा रहा है ।

रोजा की सारी किताबों में गहन अर्थशास्त्रीय विवेचन है । लेकिन उनका राजनीतिक लेखन ही लोकप्रिय हुआ जो पुस्तिकाओं की शक्ल में है । वे खुद भी अपने अर्थशास्त्रीय लेखन को अधिक गम्भीर सैद्धांतिक लेखन मानती थीं । नेट्ल की इस जीवनी में भी यह समस्या है क्योंकि लेखक की विशेषता का क्षेत्र राजनीति विज्ञान है । इन सीमाओं के बावजूद इस जीवनी में रोजा के जीवन और लेखन को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है । इसमें वे ऐसी समर्पित मार्क्सवादी के रूप में सामने आती हैं जिसने उन मार्क्सवादियों को चुनौती देने में कभी हिचक नहीं दिखाई जिनका विचार सार्वभौमिक मानव मुक्ति से तनिक भी डगमगाया हो ।

जीवन भर उन्होंने जो कुछ भी किया उसका एकमात्र मकसद सर्वहारा क्रांति था । लक्ष्य की इस एकाग्रता के चलते ही वे अन्य मामलों का महत्व बहुधा नहीं समझ पाती थीं । शायद इसी वजह से वे राष्ट्रीयताओं की मुक्ति का उत्साही समर्थन न कर सकीं । समाजवाद के लिए संघर्ष को नैतिक दायित्व मानने की जगह पूंजीवाद के अंतर्निहित अंतर्विरोधों की उपज मानती थीं । मार्क्स और एंगेल्स के इस योगदान को उन्होंने बारम्बार रेखांकित किया कि इन्होंने समाजवाद को मौजूदा समाज व्यवस्था का नैतिक प्रतिकार मानने की जगह उसे वर्तमान आर्थिक संबंधों की उपज बताया था। नैतिक सवाल मानने वाले लोग तो तमाम किस्म के आकर्षक नुस्खे तैयार करते थे जिनमें किसी न किसी रास्ते से सामाजिक विषमता घुसी रहती थी। पूंजीवाद के भीतर ही उसके विनाश के बीज मौजूद रहते हैं, इस बुनियादी मार्क्सवादी मान्यता से रोजा जीवन भर प्रतिबद्ध रहीं।

अपनी राजनीतिक, सैद्धांतिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के चलते रोजा ने मार्क्सवादी परम्परा के भीतर और बाहर के अनेकानेक विचारकों और कार्यकर्ताओं को प्रेरणा प्रदान की । जहां कहीं उन्हें मार्क्स या एंगेल्स के चिंतन में समस्या नजर आयी उसकी आलोचना भी उन्होंने बेहिचक की । इस आलोचना को वे मार्क्स की सोच का विकास समझती थीं । उनका मानना था कि मार्क्सवादी निष्कर्षों का आंख मूंदकर समर्थन करना खुद मार्क्स के आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य से विचलन है ।

हुदिस ने हाना आरेन्ट द्वारा रोजा को तत्कालीन मार्क्सवादियों की पांत से बाहर समझने की बात का खंडन किया है । आरेन्ट के मुताबिक इसका कारण यह था कि रोजा ने जर्मनी और रूस की पार्टियों से एक गणतांत्रिक कार्यक्रम की मांग की थी लेकिन हुदिस के मुताबिक सभी गम्भीर मार्क्सवादियों ने पूंजीवाद से सफल वर्ग संघर्ष छेड़ने के लिए लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की बात उठाई थी । लेनिन ने भी प्रथम विश्वयुद्ध तक यही राय बनाये रखी थी । प्रथम विश्वयुद्ध में युद्धोन्माद का असर मजदूर वर्ग के भीतर देखकर उन्होंने अपनी राय बदली थी । उनकी बात परिस्थितिजन्य थी इसलिए हुदिस के अनुसार लोकतांत्रिक गणराज्य की मांग के चलते रोजा को मार्क्सवादियों की पांत से बाहर समझना आरेन्ट की भूल है।

लोकतंत्र पर रोजा के जोर को बहुतेरे लोग उनका आदर्शवाद समझते हैं । इसका उत्तर देते हुए हुदिस ने कहा है कि जिन्होंने क्रांति के बाद लोकतंत्र को खारिज किया उनको इस रुख का नुकसान भी उठाना पड़ा है। सत्ता पर काबिज रहने के लिए उन्हें क्रांति के लक्ष्य से समझौते करने पड़े । इस मामले में भी रोजा की चिंता को दरकिनार नहीं किया जा सकता । वे ऐसी क्रांति की कल्पना करती हैं जिसके नतीजे में पहले जैसी नौकरशाही या शासक वर्ग का ही उदय न हो जाये।

अपने क्रांतिकारी मानववाद की ताकत के चलते वे मार्क्सवादियों की सीमा के बाहर के वाम लोकतांत्रिक हलकों में भी लोकप्रिय रही हैं । महान कलाकृतियों की तरह मुक्ति के विचार भी कई बार रचयिता से अजाद हो जाते हैं फिर भी उन्हें मार्क्सवाद की परम्परा के भीतर ही गिनना उचित होगा ।

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