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शासक को बदल देने का अधिकार अत्याचार के विरुद्ध कोई गारंटी नहीं होता : मुख्य न्यायाधीश

30 जून को 17 वें पी० डी० देसाई स्मृति व्याख्यान में बोलते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एन० वी० रमना ने कहा कि चुनाव,  अत्याचार  के विरुद्ध कोई गारंटी नहीं है. भारत के मुख्य न्यायाधीश रमना ने यह भी चेतावनी दी कि सोशल मीडिया पर किया जानेवाला धुवांधार प्रचार न्यायपालिका समेत दूसरी संस्थाओं को भी प्रभावित कर सकता है. कोविड-१९ को “ अभूतपूर्व संकट ” बताते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश रामना ने कहा कि महामारी और उससे अपने नागरिकों को बचाने में सरकारों ने ‘विधि के शासन’ (उनके संबोधन की विषयवस्तु) का प्रयोग जिस तरह से किया है वह उनके कार्यों से प्रतिबिंबित होना चाहिए.

भारत के मुख्य न्यायाधीश रामना ने अपने ‘विधि का शासन’ व्याख्यान में जो कुछ कहा उसे निम्न १० विन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है.

1. चुनाव, अत्याचार  के विरुद्ध कोई गारंटी नहीं है.

“यह सदा सर्वमान्य रहा है कि कुछ नियमित अन्तराल पर शासक को बदल देने का अधिकार अपने आप में अत्याचार  के विरुद्ध कोई गारंटी नहीं होता.”

“यह सोच कि जनता ही सर्वोपरि है, भी मानव के सम्मान एवं स्वायत्तता में निहित होती है. एक सार्वजनिक विमर्श, जो तर्कसंगत और सर्वमान्य दोनों हो, मानव सम्मान के अन्तर्निहित पक्ष के रूप में दिखाई देना चाहिए और इसीलिए वह किसी लोकतंत्र की समुचित कार्यवाही का आवश्यक तत्व होना चाहिए.”

2. शक्तिशाली स्वंतंत्र न्यायपालिका

“न्यायपालिका ही वह प्राथमिक अंग है जिसे यह सुनिश्चित करने का दायित्व सौंपा गया है कि प्रभावी कानून संविधान सम्मत ही हों.”

“न्यायपालिका को पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए ताकि वह सरकार की शक्तियों और कार्यों पर अंकुश लगा सके.”

“न्यायपालिका को विधायिका या कार्यपालिका द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता अन्यथा ‘विधि का शासन’ एक परिकल्पना मात्र रह जाएगा.”

3 . सोशल मीडिया संस्थाओं को कैसे प्रभावित करता है.

“न्यायाधीशों को सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर छाये शोरशराबे से निर्मित जन सामान्य की भावात्मक विचारधारा के प्रवाह में बह नहीं जाना चाहिए. न्यायाधीशों को इस बात के लिए सचेत होना चाहिए कि इस प्रकार मचाया गया शोर आवश्यक रूप से वही नहीं प्रतिबिंबित करता जो सच हो और अधिकांश लोग वैसा ही मानते हों.

“मीडिया के नए उपकरण जिनमे शोर मचाने की अपार क्षमता है, सही और गलत, अच्छे और बुरे और असली और नकली की पहचान करने में अक्षम हैं.”

“इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि समस्त वाह्य सहायता एवं दबावों से आजाद होकर पूरी दृढ़ता से काम किया जाय.”

“जब कार्यपालिका के दबावों को लेकर ढेर सारी बहसें चल रही हैं, तो यह ज़रूरी हो जाता है कि संस्थाओं को प्रभावित करने की सोशल मीडिया की क्षमता को लेकर भी एक विमर्श पैदा किया जाए.”

4 . लोकतंत्र में नागरिक

“समाज के सदस्यों को ऐसे कानूनों को उत्पन्न करने और उनमें सुधार करने का अधिकार है जो उनके व्यवहार को नियंत्रित कर सके. हम एक लोकतंत्र में रहते हैं. लोकतंत्र का मूल तत्व यही है कि लोगों को नियंत्रित करने के लिए बनाये गए कानूनों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनकी एक भूमिका अवश्य है.

5 . सरकार के लिए स्वयं का मूल्याङ्कन करने का समय आ गया है

“अब तक संपन्न हुए 17 आम चुनावों में जनता ने सत्तारूढ़ दल या गठबंधन में आठ बार बदलाव किया है, जो कि कुल संपन्न हुए आम चुनावों का लगभग 50 % ठहरता है.”

“बड़े पैमाने पर असमानता, अशिक्षा, पिछड़ापन, गरीबी और अज्ञानता के बावजूद स्वंतत्र भारत की जनता ने खुद को बुद्धिमान और प्रवीण सिद्ध किया है. लोगों ने अपने कर्तव्यों का पालन तर्कसंगत ढंग से किया है.”

“अब बारी उन लोगों की, जो राज्य के महत्वपूर्ण अंगों का संचालन कर रहे है, यह सिद्ध करने की है कि वे संविधान के अनुसार काम कर रहे हैं.

6. कोविड-19 परीक्षण

“सम्पूर्ण विश्व इस समय कोविड-१९ के रूप में अकल्पनीय संकट का सामना कर रहा है. ऐसे समय में यह जरूरी है कि हम एक पल रुक कर अपने से एक सवाल करें कि अपनी जनता की रक्षा और कल्याण के लिए हमने विधि के शासन का किस सीमा तक उपयोग किया है.”

“ इसका मूल्याङ्कन करने की मेरी मंशा कतई नहीं है. मेरा कार्यालय और मेरी सोच दोनों मुझे ऐसा करने से रोकते हैं. लेकिन मुझे लगने लगा है कि यह महामारी आनेवाले किसी और भी बड़े संकट पर से सिर्फ पर्दा हटा रही है. निश्चित रूप से यही सही समय है जबकि हमें इस बात का सम्यक विश्लेषण कर लेना चाहिए कि हमने ठीक क्या किया और हमसे गलती कहाँ कहाँ हुई है.”

7 . विधि का शासन क्या है?

“मेरी समझ से किसी संप्रभु द्वारा पोषित किसी कानून को न्याय के सुनिश्चित आदर्शों और नीतियों द्वारा संतुलित होना चाहिए. ऐसे कानूनों से शासित राज्य में ही ‘विधि का शासन’ होना कहा जा सकता है.”

“अंग्रेजों ने राजनीतिक दमन के लिए कानून को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया, उसे सभी पार्टियों पर बराबर से लागू किया, जिसमें अंग्रेजों और भारतीयों के लिए अलग अलग कानून थे. यह ‘विधि का शासन’ न होकर ‘विधि द्वारा शासन’ था क्योंकि इसका उद्देश्य भारतीय प्रजा पर नियंत्रण रखना था.”

8. कानून में कुछ भी गोपनीय नहीं होना चाहिए

“ कानून एकदम स्पष्ट और सबकी पहुँच में होना चाहिए.’ यही वह मूल विन्दु है जिसमें उसके पालन किये जाने योग्य होने की उम्मीद बंधी होती है, कि लोगों को कम से कम यह तो पता रहे कि कानून क्या हैं. इसीलिए कानून में कुछ भी गोपनीय नहीं होना चाहिए क्योंकि कानून समाज के लिए होते हैं.”

“ इस सिद्धांत का दूसरा निहितार्थ यह भी है कि उनकी भाषा साधारण और सुस्पष्ट होनी चाहिए.”

9 . लैंगिक समानता और अल्प्संख्यकता

“एक दूसरा पक्ष जिसे मैं उजागर करना चाहता हूँ वह है लैंगिक समानता का मसला. परिवार में पारंपरिक भूमिकाएं और उसके साथ ही परिवार की संरचना भी बदलती जा रही है.”

“महिलाओं का विधिक सशक्तीकरण उन्हें न सिर्फ अपने अधिकारों और समाज में उनकी ज़रूरतों की वकालत करने योग्य बनता है, बल्कि वह विधिक सुधार की प्रक्रिया में उनकी दर्शनीयता में भी वृद्धि करता है और इसमें उनकी भागीदारी का अवसर भी प्रदान करता है.”

“ पक्षपात और पूर्वाग्रह  अनिवार्य रूप से अन्याय की ओर ले जाते हैं, खासतौर पर उस समय जब इसका सम्बन्ध अल्पसंख्यकों से होता है. इसी लिए संवेदनशील वर्गों के मामले में विधि के शासन के प्रयोग के सिद्धांत को उनकी प्रगति में बाधक सामाजिक स्थितियों के प्रति निश्चित रूप से समावेशी होना चाहिए.”

10 . इतिहास से शिक्षा

राजा नन्द कुमार की विधिक हत्या: “ राजा नन्द कुमार ने तात्कालिक गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स पर घूस लेने का आरोप लगाया था. इस घटना के कुछ दिनों बाद ही राजा नन्द कुमार पर धोखाधड़ी का आरोप मढ़ा गया.”

“ 15 जून 1775 को राजा नन्द कुमार को इन दोषों का अपराधी पाया गया और वारेन हेस्टिंग्स के करीबी दोस्त मुख्य न्यायाधीश इम्पी ने उन्हें मौत की सजा सुना दी. बाद में इतिहासकारों ने कहा कि राजा नन्द कुमार को गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स पर आरोप लगाने का मूल्य चुकाना पड़ा.”

“लगभग 150 साल बाद स्वंतत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व के प्रति चेतना में वृद्धि हुई. स्वतंत्रता के लिए सतत एवं संगठित अभियान के तहत भारत के जनसामान्य को अवगत कराया गया कि उपनिवेशवादी कानून कितने अन्यायी. दमनकारी और विभेदकारी थे.”

“ 1922 में महात्मा गाँधी ने अपने मशहूर मुक़दमे के दौरान एक राष्ट्र की परिकल्पना इन शब्दों में की: ‘ वे एकदम नहीं समझ पाते कि ब्रिटिश भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार जनता का शोषण कर रही है…. भारत के न्यायालयों में यूरोपीय लोगों के खिलाफ चल रहे 100 में से 99 मामलों में भारतीयों को न्याय नहीं मिलता.”

“ उन्होंने अंत में कहा कि: ‘ मेरे विचार से इस प्रकार जानबूझकर या अनजाने में शोषक के हित में कानून का संचालन वेश्यावृत्ति की तरह पतित हो जाता है.”

( ‘ इंडिया टुडे वेब डेस्क ’ से साभार। हिन्दी अनुवाद-दिनेश अस्थाना )

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