सतीश छिम्पा
शहीदों की चिंताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले……
मुझे खंजर से मारो
या सूली पर लटका दो
मैं मरकर भी
चारों तरफ बिखर जाऊंगा
और हर एक आदमी में तुम्हे
मेरा ही अक्स नज़र आएगा
(कॉमरेड दर्शन दुसांझ)
भारत मे जुझारु खेत मजदूर या कहें किसान आंदोलनों का एक समृद्ध क्रांतिकारी इतिहास रहा है। जिनमें जाने कितने कम्युनिस्ट युवाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी है। यहां ऐसा नहीं है क्योंकि भारत के लोक युद्धों या कहें मुक्ति संघर्षों में जिस वर्ग ने मुक्ति के लिए संघर्ष का नारा बुलंद किया और क्रांतिकारी किसान उभार के मार्फ़त जालिम सत्ता को चेताया कि उसका शोषण तंत्र कभी भी उखाड़कर फेंका जा सकता है। वो खेत मज़दूर जो सदियों से शोषित है— जिसने महान मुक्ति समर में आधार स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, और मुख्य हथियार भी बने इनमें आदिवासियों, जनजातियों और अर्द्धसर्वहाराओं का भी अहम योगदान रहा है।
सन 1947 में जब सब कुछ सोच के बिल्कुल उलट हुआ और भारतीय मेहनतकश आवाम को विदेशी पूंजीवादी साम्राज्यवादी शोषकों से स्वतंत्रता की उम्मीद जो एक सामाजिक जनवादी (सोशल डेमोक्रेटिक उथल पुथल) रूप में आने की थी और वो कभी आई ही नही- बल्कि उसका स्वरूप यह बना कि अब बड़े पूंजीवादी धड़ों ने लोकल नवजात भारतीय पूंजीवाद को सत्ता का हस्तांतरण कर दिया था। इससे बहुत कुछ प्रभावित होकर संक्रमित हो गया था। खतरनाक था यह सब कुछ। और इसी सिस्टम से पहले जो भूमिका बनी वह इसी की हामी होने वाली थी जिसकी झलक महात्मा गांधी के नेतृत्व में किसानों समेत तमाम आंदोलनों में दिखती है। वे किस प्रभाव के कारण अनुर्वर रहे ? इनसे किसी भाँति का ठोस फायदा नही हुआ, नुकसान अलबत्ता हुआ और इस नुकसान और समय और स्थितियों का द्वंद्ववादी मूल्यांकन करें तो इससे तात्कालिक क्षद्म सफलता या लाभ तो नही मिला मगर इसके दूरगामी प्रभाव पेप्सू और तेभागा, तेलंगाना की नींव तैयार कर चुके थे।
वे मेहनतकशों और मुक्तिकामी कतारों के अपने अलग, अतिमानवीय साहसों भरे इंकलाबी हिरावल जो एक सुंदर और न्याययुक्त समाज और दुनिया बनाने के सपने देखने और उन्हें पूरा करने की चाह में शहीद हो गए।
वे जो भिड़े अन्याय और जुल्म से, हमारे हैं वे पुरोधा… मुक्तिकामी……. पश्चिम बंगाल और आंध्रप्रदेश की धरती क्रांतिचेताओं के लिए उर्वर भूमि है। इंकलाबियों की इस परम्परा से पँजाब कैसे अछूता रह सकता था- और बहुत तैयारी के साथ पंजाब भी शामिल है इस धरती के लिए अमर शहीदों की एक महान विरासत के साथ।
आंध्रप्रदेश या कहें तेलंगाना की धरती पर जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में भारतीय इतिहास का पहला सबसे बड़ा लोकयुद्ध चल रहा था तब उसी समय मे पंजाब में मुजारा आन्दोलन के गरिमामय गीत गाए जा रहे थे । यही नहीं बल्कि उस महान विद्रोह के बारे में या तो लोग बिल्कुल ही नही जानते हैं या जनता को खबर ही नही रही होगी। एक बात जो खासकर महत्वपूर्ण तथ्यों में रखने वाली है वो यह कि पंजाब का यह मुजारा आंदोलन, तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष के समय ही उभरा था। दरअसल तत्कालीन और पहले के तमाम लाल उभारो में से तेलंगाना किसान संघर्ष का वैचारिक आधार अद्भुत था। वे अपने से पहले और समकालीन और आगे निकट भविष्य और समकाल के तमाम महान आंदोलनों में से ज्यादा प्रतिबद्धता के साथ वैचारिक रूप से समृद्ध और ठोस था जो तेभागा और पंजाब के लाल कम्युनिस्ट पार्टी और नेतृत्व तेजा सिंह स्वतंत्र से ज्यादा विस्तृत और महान फैलाव लिए हुए था। जुलाई 1946 से अक्टूबर 1951 के बीच तेलंगाना में आधुनिक भारतीय इतिहास का यह सबसे बड़ा गुरिल्ला छापामार संघर्ष हुआ। अपने चरम पर, इस सशस्त्र किसान संघर्ष ने कुल 3,000 गाँवों के 16,000 वर्गमील क्षेत्र को मुक्त करा लिया था जिसकी आबादी करीब 30 लाख थी। लगभग डेढ़ वर्षों तक इस क्षेत्र की सारी शासन व्यवस्था किसानों की गाँव कमेटियों के हाथों में थी। हैदराबाद निजाम की बर्बर रियासत के अन्तर्गत तेलंगाना के मेहनतकश और अछूत समझे जाने वाले समुदायों के युवाओं ने जो कुलुकों और जागीरदारों के बर्बर शोषण-उत्पीड़न के शिकार थे, ने सफाया शुरू कर दिया। जुलाई 1947 से 1949 ई. के बीच का समय संघर्ष के चरमोत्कर्ष का काल था। यह प्रतिबद्धता के साथ वैचारिक रूप से समृद्ध और ठोस था जो तेभागा और पंजाब के लाल कम्युनिष्ट पार्टी और नेतृत्व तेजा सिंह स्वतंत्र से ज्यादा विस्तृत और महान फैलाव लिए हुए था। जिसको जनता ने मुक्ति का दल कहते हुए अपने आप का आधार बना लिया था। इसके निर्मम दमन ने भविष्य के नक्सलबाड़ी के बीज बो दिए थे।
भारत का महान नक्सलबाड़ी कम्युनिस्ट उभार मार्क्सवाद की एक अलग और नई क्रांतिकारी शुरुआत थी जो तेलंगाना से नाभिनालबद्ध था। इस महान इंकलाबी राह की शुरुआत और चुनावी संसदीय मध्यमार्गी वाम से अलग या कहें संशोधनवाद से अलग सटीक मार्क्सवादी समझ और राजनीतिक लाइन का उभार था, जो नवजात भारतीय पूंजीवादी सत्ता के दमन का शिकार हुआ मगर जल्द ही छात्र प्रचंड आक्रोश के रूप में यह दवानल पहले से ज्यादा विस्फोटक उभार लेकर उठ खड़ा हुआ । इंकलाबी युवाओं के बारे में मध्यमार्गी, या संसदीय वाम के उद्देश्यों और चालों और नेतृत्व के मनोभावों को समझना मुश्किल नही था। यह वर्ग जो नवजात भारतीय पूंजीवाद और अहिंसा के बर्बरना सड़ चुके अस्तित्व पर पंचशील सिद्धांतों के रूप में लगे घिनोने मुखौटे तले छिपे जीवन को अपमानित करते कुलुक जागीरी सोच के मानवद्रोही संक्रामक राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अवमूल्यों के स्रोत रूप में वर्ग शत्रुओं की पंगत के शुरुआत में आता है। पूंजीवाद- फासिस्ट ताकते तो स्पष्तः प्रत्यक्ष ही है। इस उभार में एकसाथ कई जन-विरोधी मानवद्रोही चरित्र को उजागर कर दिया था।
“शहीदों को भला कौन मार सकता है। हम आम लोग जीते हैं, फिर मर जाते हैं, वे मरकर भी जिंदा रहते हैं”
दर्शन दुसांझ ( इस जुझारू जो जिंदा शहीद के नाम से प्रसिद्ध हुआ के बारे में पूरी जानकारी जसवीर मंगुवाल से मिली जो उनकी दत्तक पुत्री है।) भारत की मज़दूर किसानों की इस महान इंकलाबी लहर का एक ऐसा योद्धा था जिसने अपना सब कुछ लहर के लेखे लगा दिया। जिसने घर जमीन और संपत्ति नही जोड़ी बल्कि खुद तक को लहर पर वार दिया था। पश्चिम बंगाल की धरती पर जन्मा यह जांबाज योद्धा अपनी जन्मभूमि और जन्मदात्री माँ और परिवार से ऐसा बिछड़ा कि पूरी उम्र डार से बिछड़े पांखी की तरह भटकता रहा। वो अक्सर ही बात करते हुए भावुक हो जाता कि काश वो अपनी माँ को खोज पाता। काश उसका कोई भाई होता। भले माता हरनाम कौर और पिता हजारा सिंह ने उसे प्यार से पाला था मगर जब भी कभी वो बंगाल जाता तो उस मिट्टी के प्रति उसका मोह जाग जाता था। उसको लगता कि यहीं कहीं उसका कुछ खो गया है।
मेरा नाम क्या पूछते हो
मैं एक भटकन हूँ
और मुझे तलाश है
उस कोख की
जो धूप को जन्म दे (दर्शन दुसांझ)
आत्मजीत की पत्नी महेंद्र कौर उसको ‘असली इंसान की कहानी’ उपन्यास के मार्फ़त सिदक दिली और बहादुरी के साथ जीने की जाच सिखाती रही। जीवन के रंग मोड़कर महेंद्र कोर का परिवार दर्शन के लिए प्यार सत्कार का आसरा बना। दर्शन ने भी आत्मजीत की मौत के बाद अपने भांजे भांजियों को पढ़ाया- लिखाया और अपने हाथों से उनके ब्याह भी किए। वह करनी और कथनी में फर्क वाला आदमी नहीं था, उसने सभी बच्चों की शादियां अंतरजातीय की थी। वह जात- गोत और पंथ और धर्मो के बंधनों में बंधने वाला नही था बल्कि पूर्णरूपेण मनुष्य था। वो बराबरी का समाज बनाना चाहता था। इसके लिए जरूरी था इंकलाब। चाहे केरल की बहादुर लड़की अजीता नारायण हो जिससे प्रभावित होकर वह नक्सलवाड़ी लहर से जुड़ा था या बाबा बूझासिंह हो जो अस्सी से ज्यादा की उम्र में भी सक्रिय थे। वो अक्सर ही बाबा जी के इस उम्र में साइकिल चलाने और मार्क्सवाद की सरल विधि समझाने की विधि की चर्चा करता रहता था। वो कहता था कि जो भी एक बार बाबा बूझासिंह की क्लास लगा ले वो जीवन भर पीछे मुड़कर नही देखेगा। अमर शहीद बाबा बूझासिंह गदर लहर की जमीन पर उगे महान कम्युनिष्ट क्रांतिकारी थे।
प्रताप सिंह कैरों की सरकार की तरफ से जब खुशहैसियत टैक्स लगाया गया तो उन्होंने उसके विरुद्ध एक चर्चित नाटक खेला था। उस नाटक खेलने के कारण पुलिस उसको पकड़कर ले गई मगर बाद में लोगों के दबाव में उसको छोड़ दिया गया था। रंगमंच के साथ साथ उसमे सियासी सूझ भी पैदा होने लगी। वो पुराने कॉमरेड्स, गदरी बाबाओं और कीरति कम्युनिस्टों के साथ रहकर जान गया था कि पीड़ित वर्ग की मुक्ति के लिए एक ही राह है और वो है संपूर्ण क्रांति….. और इसके लिए एक ही राह है और वो है मार्क्सवाद। मार्क्सवाद ही मेहनतकशों की मुक्ति का मुक्तिदाता विचार है। यह एकमात्र वैज्ञानिक विचारधारा है जो आदमी की हर तरह की गुलामी के विरुद्ध है।
वो पहले नरेंद्र दुसांझ, जोगिंदर बाहरला और अमृतसर में आत्मजीत की निर्देशना में नाटक खेलता और लगातार नाटक स्क्वेड में काम करने लगा। वहां उसका रिश्ता दोआबिया (जालंधर बेल्ट को दोआबा कहा जाता है।) होने के कारण महेन्द्र कौर जो कि आत्मजीत की पत्नी थी के साथ ऐसा जुड़ा कि उम्र भर इस रिश्ते ने उसको मोह की बरसात से भिगोए रखा।
सन 1967 में उठी नक्सलवाड़ी लहर भारतीय भारतीय लोगों के मुक्ति संघर्ष में एक ऐतिहासिक मोड़ थी। पंजाब में शहीद बाबा बूझासिंह, शहीद दया सिंह, शहीद हरिसिंह, कॉमरेड हाकम समाऊ, कॉमरेड दर्शन खटकड़ आदि अनेक क्रांतिकारी युवाओं ने लहर को जत्थेबंद करके और सी.पी.आई. एम.एल. की स्थापना करके कम्युनिस्ट विचारधारा को एक नया मोड़ दिया था।
दर्शन दुसांझ ने नक्सलवाड़ी लहर के सिद्धांत के अनुसार क्रांतिकारी ठोस रूप परिवर्तन के लिए गुरिल्ला युद्ध को मुख्य वैचारिक साधन बना लिया- जिसके चलते 10 सितंबर सन 1970 को उन्हें पुलिस ने फिल्लौर के पास जोगिंदर सिंह के कुए से गिरफ़्तार कर लिया। बहुत अमानवीय जुल्म करके उसको जेल भेज दिया गया। 14 सितंबर 1972 ई को रिहा होकर फिर सक्रिय हो गए। 22 सितंबर 1974 को पुलिस ने धोखे से सुरानसी के पास उन पर हमला कर दिया था। एक कॉमरेड जोगिंदर जिंदा को शहीद करके उन्हें गोलियों से बींध दिया था। जेल में एक लात रैंगरीन के कारण काटनी पड़ी। आपातकाल के बाद रिहा होकर फिर लहर को जत्थेबंद करके नेतृत्व की भूमिका निभाने लगे।
उसके पैर तक तोड़ दिए गए। पंजाब की अंग अंग कटवाने की परंपरा को बढ़ाने वाले इस जांबाज के शरीर के हर एक हिस्से पर पुलिसिया जबर के निशान साफ़ दिखाई देते थे। बंगा कचहरी में जब पुलिस दर्शन को पेशी के लिए लेकर जाती तो भले टूटे पैरों के कारण उससे चला नहीं जाता हो मगर इलाके के कॉलेज- स्कूल के युवतर और युवा लड़के सड़कों पर निकल आते और कचहरी के आसपास जमा हो जाते ताकि नक्सलबाड़ी के इस अदम्य कम्युनिस्ट क्रांतिकारी को देख सके। उसके चाहने वालों के हुजूम के हुजूम दौड़े आते थे।
मैं ज़िंदगी को वो अर्थ दूंगा
कि मौत के बाद भी अगर जिक्र छिड़े मेरा
तो तुम्हे शर्मशार नही होना पड़ेगा
(दर्शन दुसांझ)
नक्सलबाड़ी लहर ने राजनीतिक क्षेत्र के साथ ही साहित्यिक क्षेत्र में एक अहम मोड़ लाया था। जुझारवादी साहित्य धारा इसी लहर का उभार थी। दर्शन दुसांझ ने भी दूसरे लेखकों की तरह ही साहित्य के केंद्रीय आदर्श के रूप में मेहनतकशों पर हो रहे जुल्म के विरुद्ध हथियारबंद संघर्ष करने को लेकर रखी थी। उन्होंने ‘लूणी धरती’ और ‘अमिट पैड़ां’ (पैड़ां मतलब पदचिन्ह) जो कि संस्मरणात्मक किताब है- लिखी थी।
कॉमरेड दर्शन दुसांझ भी इस लहर के पहले चरण जो कि अविश्वसनीय और अभूतपूर्व तरीके से मुक्ति के मुक्तिकामी दवानल की तरह उठा था के पेशेवर क्रांतिकारी थे। वे पूरे समय या कहें whole timer के रूप में सामने आए। वे सी.टी.सी.पी.आई. (एम.एल.) की केंद्रीय कमेटी के सदस्य थे और साथ ही पंजाब राज्य कमेटी के प्रदेश सचिव भी थे। बे मासिक पत्रिका ‘शहीद’ के संपादक थे। उन्होंने चौरासी बरस की अपनी उम्र में लगभग पचहत्तर साल लहर को दिए थे। अपने एक साक्षात्कार के दौरान जब पंजाबी के शिर्ष कथाकार अजमेर सिद्धू ने उनसे नक्सलवाड़ी लहर के साथ जुड़ने का कारण पूछा तो दर्शन दुसांझ का जवाब था कि, – “हमारी लहर इस पूंजीवादी जागिरदाराना निजाम के प्रति असंतुष्टता से उभरकर आई है। मेरी सामाजिक आर्थिक नाबराबरी और वर्ण व्यवस्था वाली इस कुरूप चेहरे वाली मोजूदा राजसत्ता से अथाह नफरत है। हमारी एक बेटी को घास की एक गठड़ी या साग के लिए अपनी इज्जत लुटानी पड़ जाती है। किसान की अपने बच्चों से भी प्यारी फसल मंडियों में बेभाव रूळती है। बात क्या, जो भूखा मरेगा, वो लड़ेगा। जब भी लड़ने की बात आएगी वो लहर से जुड़ जाएगा।” जब उनसे आगे पूछा गया कि अब समय बदल गया है। अब तो इंकलाब आ ही नही सकता है तो उनका जवाब था- , “बेटा, इंकलाब तो आएगा ही आएगा। कोई माई का लाल नही रोक सकता। मेहनतकशों ने ही इंकलाब करना है। जिस दिन मज़दूर जमात जाग गई, इस जमात से क्रांतिकारी आगे आ गए, समझो कि इंकलाब हो गया। भारतीय क्रांति लोगों के विशाल जनसमूह को उभारकर, एकजुट करके क्रियाशील लोकयुद्ध से ही संभव है। इस महान काम को इंकलाबी पार्टी ही कर सकती है। इसी क्रम में जब भाई अजमेर ने उनकी जेल में नाकाम कर दी गई लात के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि – “एक इंकलाबी के सामने कोई भी मुश्किल रुकावट नही बन सकती है। यह तो आप पर निर्भर है कि आप लहर के लिए कितने प्रतिबद्ध हो। प्रतिबद्धता तो पर्वत भी उखड़वा सकती है।”
मेरे पास तो बस
सड़कों पर जीते
सड़कों पर मरते
समय का शाप भोगते
मनुष्य के लिए पीड़ाएं ही है
(दर्शन दुुुसांझ )
नक्सलवाड़ी के इंकलाबी उभार ने मानव जीवन से जुड़ी तमाम चीजों को प्रभावित किया था। राजनीति के साथ ही साहित्य को भी। कविताओं में तो अमूल चूल परिवर्तन था जो मार्क्सवादी धड़ो के साथ ही मध्यम मार्गी कवियों में भी देखने को मिलता है। यह समय इंकलाबी कवियों के उभार का था। इंकलाबी कवि होना- सिर्फ कवि होने जितना आम नही है बल्कि अपने आप मे मुक्ति के एक महान विचार जो अपनी उज्ज्वल स्वाभाविक तासीर के साथ बहुत सुंदरता के साथ लोक में, या कहें जन में- जनता के प्रतिबद्ध प्रतिरोधी कवि की जाग्रत चेतना के साथ व्यवहारिक गति और मौलिक, जीवंतता के साथ सदियों सोई रही मेहनतकश आवाम को ना केवल जगाने का ही बल्कि उनके भीतर जीवन की असीम सुंदरता और उसके प्रति प्यार की प्रेमिल भावनाओ का आवेग सा कुछ जो जुल्म, जबर और अन्याय के विरुद्ध फौलादी हौसलों के साथ उठ खड़े हों- को जगाने वाले उत्प्रेरक का काम भी करते हैं। बिल्कुल यही प्राथमिकता है — जो जन चेतना को बहुत गहरा, सघन और स्थाई आधार दे कर मुक्ति के स्वर को विजय पताका के साथ आह्वान का नाद करते हुए सत्ता का विध्वंस करने को ललकारता है मज़दूरों और क्रांतिकारियों को ।
कोई भी महान क्रांतिकारी उभार जो इंसाफ पसंद युवाओं के लहू की गर्मी से दहक रहा हो वो हर व्यक्ति को प्रभावित करता ही करता है जो जीवित हो। इसमे इंकलाबी जमात के महान और अतिमानवीय साहस से भरे नोजवानो के साथ ही ऐसे मध्यमार्गी उदार लोग भी सहानुभूति के साथ जुड़ जाते हैं जिनके भीतर कहीं न कहीं एक चिंगारी बची हुई होती है। अक्सर जब लोकभाषाओं के इंकलाबी स्वर की बात जब करते है तो मनुज देपावत जो कि तेलंगाना की मुक्ति लहर के प्रभाव से अस्तित्व में आए थे और विश्व की महान इंकलाबी मार्क्सवादी घटनाओं और स्वाध्याय से मार्क्सवादी बने गणेशीलाल व्यास उस्ताद की जब बात करते हैं तो मध्यमार्गी या समाजवादी सोच के रेवंतदान चारण, हरीश भादानी का जिक्र करते हुए इन्हें भी साथ रखने का कारण यही जीवित संवेदना रही थी। रेवंतदान चारण की कविता- गीत नक्सलबाड़ी के प्रभाव के चलते ही ‘इंकलाब री आंधी’ में बदलते हैं। इन्हें इंकलाब का महाविध्वंसव कारी कवि कहने में कोई अतिश्योक्ति नही होगी। यही प्रभाव जब हम द्वंद्वात्मक रूप से मूल्यांकनों में लेते हैं जो मानवद्रोही कलावादी ताकतें बिलबिलाने लगती है।
नक्सलबाड़ी ने हमें एक सूझ, एक दृष्टि दी है जिससे हम लोकपक्षधर और जीवन का अपमान करने वाले धड़ों को पहचान कर बेनकाब कर सकते हैं। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना ही होगा कि ये शत्रु धड़े है कौन ? इनकी पहचान क्या है ? अब ये हिटलर के समय वाले तरीके नही अपनाते हैं बल्कि इस घनघोर मानवद्रोही समकाल में ये इतने शातिर होकर उभरे हैं- वो भी लाल झंडा उठाकर चलने वाली कतारों के बिल्कुल बीच- युवाओं और वरिष्ठों की एक पूरी की पूरी द्रोही जमात तैयार हो चुकी है। भीमाकोरेगांव हिंसा में जेल में बंद वरवर राव के बाहर आने के लिए राजनीतिक मुहीम के साथ ही चली साहित्यिक मुहीम ने हमारे बीच शामिल हुए इन अवसरवादियों को बेनकाब करके हमारे सामने खड़ा कर दिया है। ऐसे में दर्शन दुसांझ जैसे क्रांतिकारी जो जिंदा शहीद के नाम से प्रसिद्ध हैं की विरासत को बचाया जाना बहुत जरूरी है। दर्शन दुसांझ के साथ ही बाबा बूझासिंह, अवतार पाश, जयमल पढा, लाल सिंह दिल, संतराम उदासी आदि तमाम इंकलाबी शहीद साथियो की विरासत को बचाया जाना जरूरी है।
(लेखक सतीश छिम्पा
जन्म- 14 नवंबर 1988 ई. (मम्मड़ खेड़ा, जिला सिरसा, हरियाणा)
कविता संग्रह – डंडी स्यूं अणजाण, एंजेलिना जोली अर समेसता
(राजस्थानी कविता संग्रह)
लिखूंगा तुम्हारी कथा, लहू उबलता रहेगा (फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष के हक में),
आधी रात की प्रार्थना (हिंदी कविता संग्रह)
, वान्या अर दूजी कहाणियां (राजस्थानी कहानी संग्रह)
विदर्भ डायरी (कथेतर गद्य)
संपादन :- किरसा (अनियतकालीन पत्रिका)
कथाहस्ताक्षर (संपादित कहानी संग्रह)
मोबाइल 7378338065
Email :- Kumarsatish88sck@gmail.com)