यूनुस खान
कल्पना लाजमी का जाना हिंदी फिल्म जगत का एक बड़ा नुकसान है। बहुत बरस पहले एक सीरियल आया था ‘लोहित किनारे’। ये दूरदर्शन का ज़माना था। मुमकिन है आपको ये सीरियल याद भी हो। इसका शीर्षक गीत शायद भूपेन हजारिका ने गाया था। असम की कहानियों पर केंद्रित ये धारावाहिक बनाया था कल्पना लाजमी ने, और ये कल्पना लाजमी से हमारा पहला परिचय था।
कल्पना लाजमी को मुख्यत: ‘रूदाली’ के लिए याद किया जाता है। असल में ‘रूदाली’ ज्ञानपीठ से सम्मानित बंगाल की प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी की एक कहानी पर आधारित फिल्म थी और इसे गुलज़ार ने लिखा था। रूदाली डिंपल, राखी, अमजद खान और राज बब्बर के अभिनय से सजी एक सघन फिल्म थी। और इसकी सघनता को बढ़ाते थे इसके गीत—जिन्हें गुलज़ार ने लिखा था। इसमें एक तरफ ‘दिल हूम हूम करे’ जैसे गीत के लता और भूपेन दा वाले वर्जन हैं तो दूसरी तरफ ‘समय ओ धीरे चलो’ जैसा कलेजा चीरने वाला गीत है। फिल्म का जो सबसे अद्भुत गीत है- वो है ‘झूठी मूठी मितवा आवन बोले’। ‘रूदाली’ के गीत सचमुच उदास करते हैं। आपके ज़ेहन में सुरमई अहसास भर देते हैं। ये हिंदी सिनेमा की सबसे सघन गीतों वाली फिल्म कही जानी चाहिए।
डिंपल ने इस फिल्म में कमाल का काम किया था। फिल्म के अंत में भिखनी यानी राखी की मौत की ख़बर जब शनीचरी को मिलती है तो उसका जिस तरह का बिलखना दिखाया गया है—वो कलेजा चीर देता है। असल में शनीचरी को पता चलता है कि भिखनी असल में उसकी मां पिवली थी। ये दृश्य फिल्म को एक नई ऊँचाई पर ले जाकर खड़ा कर देता है। इसे केवल देखकर समझा जा सकता है। दिलचस्प है कि ‘रूदाली’ में सनीचरी का किरदार निभाने वाली डिंपल को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इसके बाद फिल्म ‘दमन’ में अभिनय के लिए रवीना टंडन को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
कल्पना लाजमी किसी ज़माने में श्याम बेनेगल की सहायक निर्देशक रहीं, और आगे चलकर उन्होंने सन 1977 में फिल्म ‘भूमिका’ के लिए असिस्टेन्ट कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर के तौर पर काम भी किया।
कल्पना डॉक्यूमेन्ट्री की दुनिया से फिल्मों की दुनिया में आई थीं। चाय के बागानों और ब्रह्मपुत्र पर उन्होंने महत्वपूर्ण वृत्त-चित्र बनाए।
फिल्मों में उनका पहला क़दम था ‘एक पल’ के ज़रिए। इस फिल्म में शबाना आज़मी और नसीर ने काम किया था। ‘एक पल’ के गीत गुलज़ार ने लिखे थे। संगीत डॉक्टर भूपेन हजारिका का था। फिल्म में एक बड़ा ही मार्मिक गीत था। ‘ज़रा धीमे, ज़रा धीरे लेकर जैहो डोली/ बड़ी नाज़ुक मेरी जाई मेरी बहना भोली’। इसे गाया था भूपिंदर सिंह, भूपेन हजारिका, उषा मंगेशकर और हेमंती शुक्ला ने। हिंदी के बहुत भीगे हुए विदाई गीतों में इसकी गिनती होती है।
पुरूष निर्देशकों की भीड़ में भारतीय सिनेमा को जिन महिला फिल्मकारों ने समृद्ध किया है उनमें अर्पणा सेन, सई परांजपे, मीरा नायर के साथ कल्पना लाजमी का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है।
कल्पना लाजमी ने अपनी मेहनत से अपनी जगह बनायी थी। उनकी बेबाकी उनकी खासियत थी और ये उनके जीवन और उनकी फिल्मों में भी नज़र आती है। सन 1997 में आई उनकी फिल्म ‘दरमियां’ जैसी फिल्म जो ‘किन्नर’ जीवन की उलझनों को दिखाती है—अपने समय से बहुत आगे की फिल्म थी।
ठीक इस युग में यह फिल्म दोबारा देखे जाने की मांग करती है। इस फिल्म में आरिफ ज़करिया ने ज़बर्दस्त काम किया था। डॉ भूपेन हजारिका और उनका साथ एक मिसाल रहा है। एक बहुत ही अनोखा रिश्ता- जिसे कोई नाम देना इसे छोटा करना होगा।
कल्पना लाजमी का सिनेमा एक स्वतंत्र नारी का सिनेमा है। चाहे ‘एक पल’ हो, ‘रूदाली’ ‘दरमियां’ या ‘दमन’ उनकी फिल्मों की नायिकाएं समाज के भयानक मकड़जाल के बीच अपने हालात से जूझती हैं और अपने फैसले खुद करती हैं। उन्होंने सतर्कता के साथ ऐसे विषय चुने, जिनमें सशक्त स्त्री की छबि उभरकर सामने आए।
(यूनुस खान मध्यप्रदेश, दमोह के हैं । पढ़ाई के दिनों से ही रेडियो और कविता से लगाव। मीडिया, सिनेमा और संगीत पर लगातार लेखन। सभी प्रमुख पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित। कविताएँ भी लिखते हैं। दैनिक भास्कर में दस वर्षों तक कॉलम ‘स्वर पंचमी’। लेखन के अलावा सक्रिय ब्लॉगिंग और पॉडकास्ट। कहानियों के वाचन का ब्लॉग ‘कॉफी हाउस’ बहुत लोकप्रिय रहा है। यूनुस खान का यह स्मृति लेख ‘दस्तक स्मूह’ से साभार लिया गया है )