[शिक्षा व साहित्य के इलाक़ों में जाने-पहचाने अध्येता मनोज कुमार का यह लेख रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता ‘रामदास’ की पुनर्व्याख्या का ज़रूरी कार्यभार सम्पन्न करता है। पढ़ें और प्रतिक्रिया दें: सम्पादक]
आज़ाद भारत के इतिहास में एक दौर ऐसा आया जब जिन्हें कर्ता होना था वे द्रष्टा हो गए। हमारी मुख्य पहचान उत्पादक की नहीं रही, बल्कि उपभोक्ता की बन गई और हमारी नागरिक संवेदना में यह झाँकने लगा। इस दौर में हमारे जीवन में बौद्धिक आह्लाद [Ecstasy] के कुछ क्षण बचे रह गए। हिंसा, दमन, शोषण या अत्याचार की किसी घटना का सही अनुमान लगाने में जब हम कामयाब हो जाते हैं, तब हम आह्लादित हो उठते हैं| “मैंने आपसे पहले ही कहा था” कहते हुए ‘बौद्धिकों’ के चेहरे आह्लादित हो उठते हैं। फ्रेंच भाषा में इसे “a feeling of déjà vu” कहते हैं।
रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ इसी ऐतिहासिक परिघटना को दर्ज करती है।
लेकिन ऐसा लगता है कि अब हम रघुवीर सहाय के ‘रामदास’ वाले दौर से आगे निकल चुके हैं। आज़ाद भारत के इतिहास में फिर एक नया मोड़ आया है। दृश्य-विधान कुछ बदल गया है| ‘रामदास’ कविता में हत्या की घटना के आस-पास इकट्ठा लोग मूलतः दर्शक हैं। वे हत्या में सीधे शामिल लोग नहीं हैं। उनके आह्लाद के पीछे उनका सटीक अनुमान है। हम जिस नए दौर में कदम बढ़ा चुके हैं वहाँ पुराना आह्लाद तो बचा रह गया है, लेकिन लोग महज़ अब दर्शक या दृश्य के उपभोक्ता नहीं हैं। वे दृश्य के उत्पादक भी बन चुके हैं। घेर कर मारे जा रहे व्यक्ति का वीडियो बनाते लोग इमेज के प्रोड्यूसर हैं। वे कर्मरत हैं, सक्रिय हैं, निष्क्रिय नहीं।
बल्कि अब यह कहानी दृश्य के सक्रिय उत्पादन से आगे भी बढ़ चुकी है। दृश्य के उत्पादन से एक कदम आगे बढ़कर अब लोग हत्यारे के साथ चाकू पर ख़ुद भी हाथ आज़मा कर देख लेना चाहते हैं। लोग अपनी निष्क्रियता से ऊब कर हत्या में शामिल हो रहे हैं। रामदास को बचाना असंभव है इसलिए क्यों नहीं रामदास का दानवीकरण कर दिया जाए। अगर सफलतापूर्वक ऐसा कर लिया गया तो ‘दानव’ की हत्या के कर्म को एक वीरोचित उदात्त कर्म में बदला जा सकता है। हत्यारे के साथ हत्या के कर्म में शामिल होकर अर्थहीन निष्क्रिय जीवन को नए अर्थ से आलोकित किया जा सकता है।
यह हमारा दौर है, लेकिन इस दौर की बात करने से पहले एक बार ‘रामदास’ कविता को फिर से पढ़ लेना चाहिए।
रामदास
चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता, यह दिया गया था, उसकी हत्या होगी
धीरे धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे, सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह, उस दिन उसकी हत्या होगी
खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रख कर
सधे कदम रख कर के आए
लोग सिमट कर आँख गड़ाए
लगे देखने उसको, जिसकी तय था हत्या होगी
निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथ तौल कर चाकू मारा
छूटा लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?
भीड़ ठेल कर लौट गया वह
मरा पड़ा है रामदास यह
‘देखो-देखो’ बार बार कह
लोग निडर उस जगह खड़े रह
लगे बुलाने उन्हें, जिन्हें संशय था हत्या होगी।
कविता की संरचना
कविता की शुरुआत कुछ यूं होती है कि जैसे कि कोई कहानी सुनाने बैठा हो – जैसे कि कोई आम कहानी सुनाई जाती है। रिवाज के अनुसार पहले स्थान का और समय का ब्योरा आता है –
चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
आरम्भिक परिदृश्य रचने के बाद रिवाज के अनुसार कहानी में एक क्रम भंग आता है। उस देशकाल में जो घटनाएं रोज़ घटती हैं, एक दिन कुछ उससे हटकर होता है। आमतौर पर पात्र जिस तरह बर्ताव करते हैं, उस दिन वे उससे कुछ हटकर करते हैं। इस कविता की अगली पंक्ति में कुछ इस प्रकार का क्रमभंग होता है , लेकिन यह ख़ास नाटकीय क्रमभंग नहीं है। जिस दिन की बात है, वह भी कुछ इतना ख़ास दिन नहीं है- बस रामदास उस दिन ‘उदास’ है।
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उदास तो हम किसी भी कारण से हो सकते हैं, मसलन सुबह-सुबह किसी दोस्त ने ठीक से बात नहीं की हो, दूध वाले ने सुबह-सुबह दूध नहीं दिया हो जिससे चाय नहीं मिली हो, या फिर चाय बनाते हुए दूध फट गया हो, उमस के कारण रात भर नींद नहीं आयी हो – उदासी के ऐसे कई कारण हो सकते हैं | लेकिन रामदास की उदासी का कारण यह है कि उसे बता दिया गया है कि उसकी हत्या होगी। लेकिन हत्या की पक्की खबर से तो भयभीत होना चाहिए , आतंकित होना चाहिए, बुरी तरह घबराया हुआ होना चाहिए, बचने की कोई तरीका खोजते हुए बेचैन होना चाहिए। रामदास न तो बेचैन है और न ही आतंकित, वह तो बस “उदास” है | कवि के इस शब्द-चयन पर हमारा ध्यान अवश्य जाना चाहिए। “उदास” शब्द का प्रयोग “पास” शब्द से सिर्फ तुक मिलाने के लिए नहीं किया गया है|
बहरहाल, रिवाज के अनुसार पारम्परिक कहानी में शुरुआती परिचय, क्रमभंग और समस्या-निरूपण के बाद कोई नायक उस समस्या से जूझता हुआ चरम बिन्दु पर पहुँचता है और या तो जीत जाता है या हार जाता है। क्रमभंग के बाद कहानी घटना-संकुल हो जाती है और चरम बिन्दु पर पहुंच कर फिर ढलने लगती है। कहानी के प्लाट की कुछ ऐसी रूपरेखा लोग खींचते हैं –
पारम्परिक कथा संरचना
“रामदास” में शुरुआती उठान- जो कि पारम्परिक कथा-संरचना से मेल खाता हुआ है – के बाद घटनाक्रम एक ही उठान पर ठहर जाता है। अगर रामदास की कथा-संरचना का आरेख खींचा जाय तो कुछ ऐसा बनेगा –
‘रामदास’ का आख्यान
रामदास के इस प्रसंग की तुलना पंचतंत्र की उस कथा से कर सकते हैं जिसमें जंगल के एक जानवर को रोज़ शेर मांद में जाना पड़ता है ताकि शेर की भूख मिट जाए और जंगल में शान्ति हो। और जैसा कि आगे होता है कि उस दिन नन्हें खरगोश को शेर के पास जाना है और वह रामदास की तरह ही उदास है। नन्हा खरगोश तो अपनी चतुराई से शेर को छका देता है, लेकिन ऐसी चतुराई की गुंजाइश रामदास की कथा में कहाँ है?
इस स्थिति में समाज के बौद्धिक चातुर्य या उसके तकनीकी विवेक की परख सिर्फ इस बात से होनी है कि वह सही अनुमान लगाने में सफल हुआ या नहीं –“कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी”।
चूंकि सब कुछ तयशुदा है इसलिए रामदास ‘धीरे धीरे’ तयशुदा जगह की तरफ बढ़ता है –
“धीरे धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, …”
फिर गौर कीजिए हत्या की खबर सुनकर आप भाग सकते हैं, छुप सकते हैं या किसी की मदद मांग सकते हैं, लेकिन रामदास किसी की मदद लेने की बात एक सोचता भी है तो किसी प्रकार की मदद के लिए नहीं, बल्कि बस यूं ही साथ होने के लिए। आप धीरे-धीरे अकेले चलते हुए रामदास की तुलना ‘अँधेरे में’ के नायक से कीजिए और भारत में बदलते हुए समय का पदचाप सुनिए:
“भागता मैं दम छोड़
घूम गया कई मोड़…”
‘अँधेरे में’ का नायक भागता है, लेकिन रामदास में इतना भी हौसला कहाँ| वह तो बस – “धीरे धीरे चला अकेले/सोचा साथ किसी को ले ले/फिर रह गया, …”
धर्मवीर भारती जब दूसरे विश्वयुध्द की छाया में ‘अंधा-युग’ लिख रहे थे तब भी उनमें इतना हौसला बचा था कि वे लिख सकें – ‘नियति नहीं है पूर्व निर्धारित/ उसे हर क्षण मानव निर्णय बनाता मिटाता है।’ लेकिन यहाँ तो सबकुछ पूर्व निर्धारित है। यहाँ हत्या जैसा मानवीय कर्म प्राकृतिक तथ्य में बदल चुका है जिसके घटने का सही अनुमान लगाया जा सकता है। मरने वाले का एक नाम भी है, लेकिन मारने वाले के लिए मानो हत्या एक पेशा है – “हाथ तौल कर चाकू मारा”। गणना, सही अनुमान और सधी हुई कार्यवाही। विधेयवादी (positivist) विज्ञान का सारा दारोमदार इसी पर तो टिका हुआ है। “तौलकर” शब्द-प्रयोग पर ध्यान दीजिए |
और कुछ बदला हुआ दृश्य-विधान
आख़िर आज़ाद भारत में हम इस मक़ाम पर हम कैसे पहुँच गए? जनतंत्र में जनता को तमाशबीन कैसे बना दिया गया?
ऐसा लगता है कि पूँजी के प्रवाह में जनतंत्र को थामने वाली संस्थाएँ – जनता की आकांक्षाओं और उसके नैतिक विवेक को दिशा देने वाली संस्थाएँ लाचार होती चली गईं। पूँजी की अपनी स्वायत्त तर्क प्रणाली होती है। आज़ाद भारत में पूँजी का तंत्र जैसे जैसे स्वायत्त होता गया जनतंत्र वैसे वैसे लकवाग्रस्त होता गया। कार्यस्थल पर जनतंत्र बचा नहीं। ट्रेड यूनियन आंदोलन क्षीण होता चला गया। जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई लड़ते लोग अकेले पड़ते चले गए। जब राजनीतिक संस्थाएँ ध्वस्त होती चली गईं तब लोगों ने न्यायिक संस्थाओं से गुहार लगानी शुरू की। नए सामाजिक आंदोलनों के कार्यकर्ताओं ने हर छोटे-बड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट की ओर रुख़ करना शुरू कर दिया। स्थिति ऐसी बनती गई कि सेक्युलर स्पेस में सामूहिक पहलकदमियों की गुंजाइश कम होती चली गई। 1990 के दशक के बाद जब उदारीकरण का दौर आया, तब पूँजी का तंत्र जिस हद तक स्वायत्त, निर्द्वन्द्व और मजबूत होता चला गया, जनता उसी हद तक लाचार और निष्क्रिय होती चली गई।
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में दुनिया भर में जनता अपनी लाचारी से उकता चुकी है और उस उकताहट का राजनीतिक प्रतिफलन चारो और दिख रहा है। दुर्भाग्य से जनता ने सक्रियता का बेहद खतरनाक और विकृत विकल्प चुन लिया है। वह रामदास की हत्या में चाकू पर हाथ आज़मा लेना चाहती है। वह रामदास के दानवीकरण की प्रक्रिया में सक्रिय है। न्यायिक प्रकिया से उसे ऊब होती है। उसे त्वरित कार्यवाही पसंद है। पुलिस एनकाउंटर से उसे आह्लाद होता है। पुलिस एनकाउंटर अगर परिस्थितिजन्य भी हो, तब भी वह उत्सव मनाने का अवसर तो नहीं ही होना चाहिए, लेकिन हर स्थिति में उसका उत्सव मनाया जाने लगा है।
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आख़िरी वर्षों में हम एक नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं – सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि दुनिया भर में। अमेरिका में ट्रम्प के समर्थकों में बड़ी संख्या श्वेत अमेरिकी मजदूर वर्ग की है। अप्रवासी समूहों का दानवीकरण हो चुका है। जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई लड़ने वाले सभी समूहों को आतंकवादी घोषित किया जा चुका है। हत्या और आत्महत्या का एक विराट मंच सजकर तैयार है। अपने-अपने कार्यस्थलों पर बेबस और लाचार हो चुके लोग नायकत्व की तलाश में एक दुर्निवार आकर्षण से इस मंच की ओर खिंचे चले आ रहे हैं।
कुछ साहित्यिक रचनाएँ कई बार आने वाले समय की आहट देती हैं। 1970 से 75 के बीच लिखी गई यह कविता ऐसी ही रचना है। काश, हमने इस आहत को तभी सुन लिया होता। काश, कि आज भी हम रामदास के साथ खड़ा का होने हौसला और जज़्बा अपने बीच पैदा कर सकें।