(प्रदूषण और जाम से घुटती दिल्ली में सस्ते सुलभ सुरक्षित जन-परिवहन की मांग को लेकर एक्टू से सम्बद्ध डीटीसी वर्कर्स यूनिटी सेंटर की तरफ़ से 29 अप्रैल को ग़ालिब अकादमी, दिल्ली में जन-कन्वेंशन किया गया. इस जन-कन्वेंशन में दिल्ली में जन-परिवहन को बढ़ाने के लिए डीटीसी (दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन) को मज़बूत करने, इसमें ठेके पर काम कर रहे हजारों कर्मचारियों को पक्का करने और समान काम का समान वेतन लागू करने की मांग को प्रमुखता से उठाया गया. इस कन्वेंशन में पेश किया गया आधार पत्र यहाँ साझा किया जा रहा है )
दिल्ली में प्रदूषण को लेकर आम मेहनतकशों की परेशानियाँ बढ़ती ही जा रही हैं। आज ये परेशानियाँ केवल सर्दी के कुछ दिनों में सीमित नहीं बल्कि रोज़ाना हमें दिल्ली में जानलेवा प्रदूषण में जीना पड़ रहा है, और इस प्रदूषण के पीछे मुख्य कारण दिल्ली में निजी परिवहन की विशाल तादाद ही है। देश की राजधानी में निजी परिवहन की संख्या देश में सबसे ज़्यादा है और यह रोजाना बढ़ता हुआ आसमान छू रहा है।
दिल्ली के किसी भी मास्टर प्लान में निजी परिवहन की बेतहाशा बढ़ोत्तरी को लेकर कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया, बल्कि दिल्ली के जन परिवहन ख़ासतौर पर सड़क परिवहन का निजीकरण एवं ठेकेदारीकरण करने के लिए ही सरकारें हमेशा तत्पर रहीं। जहाँ केंद्र व दिल्ली सरकार प्रदूषण नापने एवं प्रचारित करने में जितना भारी भरकम तमाशा कर रहे हैं, वहीं उसे रोकने के लिए प्रयास ना के बराबर हैं।
भारी प्रदूषण के दिनों में वे हमें सलाह दे रहे थे कि हम घर से न निकलें, खुले आसमान में कोई भारी काम न करें, मल्टीनेशनल कम्पनी द्वारा बेचा जा रहा मास्क इस्तेमाल करें।
दिल्ली का प्रदूषण न केवल दमा, हार्टअटैक, प्री डिलीवरी जैसी समस्या को तेज़ी से फैला रहा है बल्कि इसका असर आने वाले समय में जीवन के लिए भी ख़तरनाक होगा – यह मानना है प्रदूषण पर काम कर रहे जानकारों का।
आज तक दिल्ली से कुछ उद्योगों को एनसीआर में भेजने के अलावा दिल्ली में प्रदूषण के सबसे बड़े हिस्सेदार वाहन प्रदूषण को रोकने के लिए एवं जन परिवहन को मज़बूत करने के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया। यह आज प्रमाणित है कि मेट्रो रेल का विस्तार निजी वाहनों की संख्या एवं इस्तेमाल को रोक नहीं पाया और खस्ता हाल में चल रहे सड़क परिवहन मुहैया कराने वाला डीटीसी एवं क्लस्टर बस सुविधा (जो आज भी मेट्रो रेल से कम दाम में ज़्यादा सवारी को ढोते हैं) को बर्बाद करने पर तुले हुए है।
यह केवल नाकामी नहीं बल्कि अपराध है. पिछले एक दशक से डीटीसी बेड़े में एक भी नई बस नहीं लाया गया। डीटीसी का मौजूदा बेड़ा 2023 तक का है और आगे सड़क परिवहन मुहैया कराने के लिये सरकारी हस्तक्षेप सुनिश्चित करने का कोई तंत्र मौजूद ही नहीं होगा। और इसीलिए नरेन्द्र मोदी या अरविंद केजरीवाल जब ऐलान करते हैं कि बस या प्लेन चलाना (पढ़िए नागरिक सेवा मुहैया करवाना) सरकार का काम नहीं है तो साफ़ हो जाता है कि प्रदूषण से इन्हें कोई लेना देना नहीं है बल्कि मज़दूर-कर्मचारियों एवं कर दाताओं के ख़ून पसीने से बनी राष्ट्रीय सम्पदा का निजीकरण करना ही इनका लक्ष्य है।
दिल्ली में जन परिवहन की ख़स्ता हालत के लिए परिवहन संस्थानों पर निजीकरण का तीखा हमला मुख्यरूप से ज़िम्मेदार है और यह आज के कन्वेन्शन का दूसरा सवाल है। दिल्ली शहर में प्रदूषण से लड़ने एवं यहाँ के मेहनतकशों को परिवहन सेवा प्रदान करने के लिये जन संख्या के अनुपात में जन बस सेवा चाहिए, मेट्रो रेल के भूतपूर्व प्रधान श्रीधरन मानते थे कि दिल्ली के सड़क में बसों का बेड़ा 25000 होना चाहिए था। दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार की कार्यप्रणाली को देखते हुए यह संख्या 11000 तक करने का सुझाव दिया था।
लातिन अमरीकी देशों की उदाहरण पर सड़कों पर अलग बस लेन बनाने का कुछ काम ज़रूर शुरू हुआ था। मेहनतकशों के दबाव एवं कामनवेल्थ गेम्ज़ को संगठित करने की शर्तों के कारण डीटीसी दुनिया की सबसे बड़ी सीएनजी आधारित बस सेवा बनी। एक तरफ़ जब दिल्ली में प्रदूषण से लड़ने के लिए नब्बे के दशक के अंत में हाई कोर्ट एवं दिल्ली सरकार असंगठित उद्योगों को निशाना बनाया था, तब दूसरी ओर दिल्ली सरकार ने टाटा की सहायक कम्पनी को डीटीसी के निजीकरण का ख़ाका बनाने का जिम्मा दे दिया।
निजीकरण के पक्ष में तर्क के बतौर सड़क परिवहन में पारदर्शिता लाना, डीटीसी घाटे का बोझ कम करना एवं स्थायी कर्मचारियों की संख्या में कटौती को लाया गया और प्रदूषण का मुद्दा पीछे चला गया। ब्लूलाइन , रेडलाइन के नाम से जानी जाती निजी बस सेवा द्वारा दिल्ली की सड़कों को असुरक्षित बना देने का बेमिसाल अपराध माफ़ हो गया. उद्योगपतियों, कॉरपोरेट, मीडिया और मध्यमवर्ग का एक हिस्सा ब्लू आइड बॉय मनमोहन सिंह का हाथ पकड़कर ठेकेदारीकरण अन्य सरकारी संस्थानों के साथ साथ डीटीसी में भी दस्तक दे दिया। एक करोड़ 20 लाख आबादी के शहर में 21 वीं सदी के पहले दशक में जब परिवहन निगम रोज़ाना 40 लाख सवारी ढो रहे थे, तब दिल्ली की सड़कों पर यहाँ की सरकारें ब्लू लाइन, रेड लाइन, किलोमीटर स्कीम, क्लस्टर सेवा आदि लाने के हथकंडे अपना रही थीं।
यह हम सब जानते हैं कि दिल्ली में परिवहन की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएं असंगठित तरीक़े से विकसित हुईं और दिल्ली सरकार ने इस पर समय रहते हस्तक्षेप नहीं किया। इस व्यवस्था में बस, मेट्रो रेल, सर्कुलर रेल से लेकर निजी वाहन, टैक्सी सर्विस, ऑटो रिक्शॉ, बैटरी रिक्शॉ, साइकल रिक्शॉ, साइकल और पैदल चलने वालों की एक बड़ी तादाद है। यहाँ तीन मुख्य बातें है-
1. दिल्ली में आज भी मौजूदा परिवहन व्यवस्था का केंद्र बस एवं डीटीसी ही है एवं रोज़ाना जन परिवहन को इस्तेमाल करनेवालों में ज़्यादातर लोग डीटीसी की सेवा लेते है
2. लाखों रुपए की लागत के बावजूद मेट्रो रेल में सफ़र करनेवालों की संख्या 30 लाख के इर्दगिर्द ही पहुँचा है और लगातार किराये में बढ़ोत्तरी से यहाँ के मेहनतकश मेट्रो रेल इस्तेमाल कर नहीं पा रहे हैं। ऊपर से मेट्रो की लास्ट माइल कनेक्टिविटी चरम रूप से असंगठित और अवयवस्थित है।
3. सड़कों का ज़्यादातर हिस्सा निजी वाहनों के क़ब्ज़े में है यानी आर्थिक रूप से मज़बूत तबके नेे सड़कों को हड़प लिया है और पैदल या साइकल से चलनेवालों के लिए सड़क का कोई हिस्सा बचा ही नहीं।
2021 के मास्टर प्लान को माना जाए तो 2001 से 2010 के बीच दिल्ली की सड़कों में जन परिवहन का हिस्सा 64 से 54 प्रतिशत पर पहुँच गया, उसी वक़्त निजी वाहनों का प्रतिशत 40 से बढ़कर 46 तक पहुँच गया।
दिल्ली में परिवहन के अधिकार को आम जनता के लिए सुनिश्चित करने व जानलेवा प्रदूषण को कम करने के लिए जब प्रगतिशील योजना के बतौर बस सेवा एवं डीटीसी को आगे लाना चाहिए था तब सरकारें परिवहन से सम्बंधित योजनाओं से डीटीसी को अलग थलग करके उसे बंदी की तरफ़ धकेल रही हैं।
मौजूदा समय में डीटीसी के बेड़े में 3789 एवं क्लस्टर सेवा के तहत 1693 बसें है यानी कुल 5482 बसें 1 करोड़ 70 लाख लोगों को सेवा देने के लिए हैं। जो ज़रूरत के हिसाब से नाकाफी है। डीटीसी आज भी प्रति बस रोज़ाना 927 यात्री ढोती है जो कि बेंगलूरू एवं मुंबई से ज़्यादा है। डीटीसी के मौजूदा बेड़े में ज़्यादातर बसें 7 साल पूरा कर चुकी हैं और 2023 तक डीटीसी के बेड़े में सिर्फ़ 33 बसें रह जाएँगी।
डीटीसी में 2011 में अंतिम बार बसें ख़रीदी गईं थीं. (यहा इस कन्वेंशन में यह बात रखना भी ज़रूरी है कि निजी ट्रांसपोर्टर के लिए कभी भी महँगी एवं नई टेक्नोलॉजी की बसें खरीदना मुमकिन या फायदेमंद नहीं था| इसी लिए सरकार ने कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान महँगी लो फ्लोर बसें खरीदी और अभी भी बहुत महँगी इलेक्ट्रिक बसों की खरीद की चर्चा ही जोरों पर है| क्लस्टर बस मालिकों को लाभ पहुंचाने के लिए उन्हे सस्ती रेगुलर बसें लेन की इज़ाज़त दे दी जबकि दिल्ली में सिर्फ लो फ्लोर बसें लाने का ही कोर्ट ने आदेश दिए थे.
मौजूदा केजरीवाल सरकार ने तमाम दवाबों के बावजूद भी पिछले साढ़े तीन साल में एक भी बस नहीं ख़रीदा। बल्कि कहा कि मौजूदा सरकार के लिए डीटीसी घाटे का सौदा है। डीटीसी के घाटे के लिए सबसे प्रमुख कारण ऋण और ब्याज दर है। केंद्र एवं दिल्ली सरकार द्वारा दिए गए अनुदान डीटीसी के लिए हमेशा ऋण रहा और वह भी 10 से 14 प्रतिशत की ब्याज दर से। वर्ष 2012 में दिल्ली सरकार ने ऋण की जगह डीटीसी के लिए डायरेक्ट ट्रान्स्फ़र की बात की थी लेकिन वह लागू नहीं किया। नतीजतन डीटीसी को ब्याज को वापस करने के लिए और ऋण लेना पड़ रहा है।
यहाँ प्रमुख सवाल यह है कि नागरिक सुविधा यानी परिवहन सेवा मुहैया करवाने वाली सरकारी संस्था डीटीसी को क्या मुनाफ़े कमाने वाली संस्था के बतौर देखा जाएगा। मतलब ज़्यादा दौड़ो, ज़्यादा कमाओ। जबकि दिल्ली की जनता को एक सुनिश्चित, सुरक्षित, सस्ती, साफ़ और सुगम परिवहन सेवा मुहैया करवाने व सड़कों में जनता का हिस्सा सुरक्षित रखने के लिए डीटीसी को मॉडल संस्था के बतौर विकसित किया जाना चाहिए।
इससे जुड़ा है कन्वेन्शन का अगला सवाल यातायात सेवा प्रदान करने वाले ज़िम्मेदार पब्लिक सेक्टर में कार्यरत कर्मचारियों की सुरक्षा एवं अधिकारों से है।
डीटीसी में कार्यरत लगभग 25000 स्थाई और 12000 अस्थाई कर्मचारी प्रतिकूल परिस्थिति में तमाम ज़िम्मेदारी निभाने के वावजूद सरकार के निशाने पर हैं। डीटीसी के ज़्यादातर स्थाई कर्मचारी 2025 तक रिटायर हो जाएंगे. उनकी सेवानिवृति सुरक्षा जैसे पेन्शन, मेडिकल कुछ भी सुनिश्चित नहीं है।
12000 कॉंट्रैक्ट कर्मचारियों की स्थिति तो बंधुआँ मज़दूरों से भी बदतर है। इन 12000 में से ज़्यादातर 10 से 15 साल से डीटीसी में कार्यरत है। इनमे ठेके कंडक्टर, कर्मचारियों को बिना साप्ताहिक अवकाश सिर्फ़ दिल्ली के न्यूनतम मज़दूरी मिलती है। चालकों के लिए बिना अवकाश व महंगाई भत्ता किलोमीटर दर से मज़दूरी। रोज़ाना ड्यूटी मिलने की कोई गारंटी नहीं है। ऊपर से ड्यूटी मिलने पर भी ओके ड्यूटी का दवाब। ओके ड्यूटी कभी पूरा नहीं होता और ड्यूटी पूरा न होने पर मिलने वाला इन्सेंटिव भी नदारद।
जबसे डीटीसी में ठेकेदारी प्रथा के तहत चालकों एवं संवाहकों की भर्ती हुई इन पर शोषण रोज़ाना बढ़ता गया। डीटीसी वर्कर्स यूनिटी सेंटर पहला संगठन है जिसने डीटीसी में ठेके कर्मचारियों को संगठित किया। ठेकेदारों को डीटीसी से भगाया गया और इन कर्मचारियों को सीधा डीटीसी के पेरोल में लाया गया लेकिन पक्का होने का सवाल, समान काम का समान मेहनताना का सवाल और नागरिक सेवा की हर ज़िम्मेदारी निभाने, सड़कों पर रोज़ाना हर ख़तरे को उठाने के वाबजूद इन्हें कोई भी सुरक्षा या सम्मान नहीं दिया गया। सरकार या डीटीसी के लिए वे दोयम दर्जे के मज़दूर बनकर रह गए हैं।
किसी भी देश, राज्य या शहर में नागरिकों को सुरक्षित, सुगम, सस्ती जन परिवहन मुहैया करवाने की पहली दो शर्त है-सड़कों में पर्याप्त मुख्य परिवहन सेवा – दिल्ली के लिए जो डीटीसी बस है एवं यहाँ के कर्मचारियों को सभी बुनियादी अधिकार मुहैया करवाना लेकिन दिल्ली सरकार इन दोनों शर्तों को दरकिनार करके एवं परिवहन व्यवस्था का पूर्ण निजीकरण, ठेकेदारीकरण के बाद सिर्फ़ एक फैसिलिटेटर की भूमिका में सिमट गया।
मेट्रो रेल अकेले दिल्ली की जीवनरेखा नहीं बन सकती है। साथ ही में बेरोज़गार और न्यूनतम रोज़गारों से दिन गुज़ारने वाले मेहनतकशों के लिए मेट्रो रेल का किराया देना नामुमकिन है। सरकार दिल्ली शहर में रोज़गार आधारित अलग-अलग दर्जे के नागरिक बनाना चाहती है, इनके लिए अलग नागरिक सुविधा होगी। इनकी वोटिंग पैटर्न अलग होगी। और इसके सबसे निचले पायदान में होंगे दिल्ली के अधिसंख्यक आबादी यहाँ के मेहनतकश।
इस कन्वेन्शन ने दिल्ली के प्रदूषण, परिवहन व्यवथ्या के निजीकरण एवं ठेकेदारीकरण और परिवहन क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारियों के अधिकारों के लिए एक निर्णायक अभियान शुरू करने की घोषणा की और इसके लिए जन भागीदारी, सुझाव, सहायता और समर्थन की अपील की.
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