‘पाताललोक‘ अमेज़न प्राइम वीडियो पर आयी वेब श्रृंखला है। पिछले वर्ष मई में प्रसारित हुई यह श्रृंखला अपराध की छिपी हुई दुनिया और उसकी हकीकत को जाहिर करती है।
इसके पहले सत्र में कुल नौ प्रकरण हैं। प्रत्येक प्रकरण अलग-अलग सामाजिक-राजनीतिक सच्चाईयों के संदर्भ लिए हुए हैं। यह श्रृंखला तरुण तेजपाल के उपन्यास ‘द स्टोरी ऑफ माय एसैसिन्स’ पर आधारित है।
‘पाताललोक’ में यथार्थ के ढेर सारे संदर्भों को एक पुलिस इंस्पेक्टर के माध्यम से एक जगह पिरोया गया है। पाताललोक अर्थात अंडरवर्ल्ड। लेकिन, यह सिर्फ अपराध का अंडरवर्ल्ड नहीं है, इसमें समाज और राजनीति का भी अंडरवर्ल्ड है।
कहानी के केंद्र में है हाथीराम चौधरी और चार तथाकथित अपराधी- विशाल त्यागी उर्फ हथोड़ा, तोप सिंह उर्फ चाकू, कबीर एम और मैरी लिन्गदोह उर्फ चीनी। इनकी सामाजिक स्थिति को जान लेना जरूरी है।
हाथीराम चौधरी और विशाल सवर्ण किसान परिवारों से हैं। तोप सिंह दलित सिक्ख है। कबीर एम. दलित मुस्लिम है और मैरी लिंगदोह नेपाली-उत्तरपूर्व मूल की है और ट्रांसजेंडर है।
यह सभी अभी सत्ता के निशाने पर हैं या सत्ता के षड्यन्त्र, दुरभिसंधियों या छल के शिकार हैं। और ऐसा जानने के बाद ही समझ में आयेगा कि पाताललोक वेब श्रृंखला में चरित्रों की ऐसी सायास योजना करने के पीछे मूल विचार क्या है!
और यह भी कि समाज की वर्ण-संरचना कैसे सत्ता के लोकतंत्र -विरोधी और मानवद्रोही होने में सहयोग करती है या उसकी असल ताकत है या फासीवादी सत्ता की नाभि का अमृत हुआ करती है और पूंजी कैसे इसकी सहयोगी, बढ़ावा देने वाली होती है!
दिल्ली पुलिस के उपायुक्त भगत के नेतृत्व में एक मुठभेड़ को अंजाम दिया जाता है। मुठभेड़ का मकसद है ‘मास्टर जी’ के लिए हत्याएं करने वाले विशाल त्यागी उर्फ हथोड़ा त्यागी को मार गिराना।
दिल्ली पुलिस मुठभेड़ को अंजाम नहीं दे पाती, क्योंकि वहां पत्रकारों की एक टीम मौजूद रहती है, जिसके बारे में पुलिस अनजान होती है।
अंत में चारों को गिरफ्तार कर लिया जाता है। मीडिया के सामने पुलिस बताती है, कि यह चारों चर्चित पत्रकार संजीव मेहरा को मारने की योजना बना रहे थे।
इसकी जांच हाथीराम चौधरी और उसके सहयोगी इमरान को सौंपी जाती है। हाथीराम चौधरी और इमरान को कोई सूत्र नहीं मिलता, जिसे संजीव मेहरा के मारने के साजिश का कारण पता चले।
फिर वे चारों पकड़े गए अपराधियों की पृष्ठभूमि तलाशते हैं। इसी तलाश में ‘पाताललोक’ श्रृंखला अपनी औपन्यासिक कला स्तर की ऊंचाई की ओर बढ़ती है।
विशाल त्यागी के ताऊ संयुक्त पारिवारिक संपत्ति और जमीन में हिस्सा नहीं देना चाहते। विशाल के परिवार को सामाजिक रूप से गिराने के लिए उसके ताऊ के बेटे मिलकर उसकी बहनों का बलात्कार कहते हैं। संजीव त्यागी हथौड़े से मारकर इन बलात्कारियों की हत्या कर देता है।
यहीं से उसके अपराध की शुरुआत होती है और फिर वह दस्यु सरगना और चित्रकूट के राजनीति और अर्थ जगत पर नियंत्रण करने वाले दुनलिया गुज्जर का विश्वासपात्र हिटमैन बन जाता है।
हिंदूवादी राजनीति जिसे भारतीय संस्कृत कहती है और जिस संस्कृत पर खड़े होकर राष्ट्र निर्माण करना चाहती है, उसका एक सामाजिक आधार विशाल त्यागी की इस कथा में दिखता है।
भूमि और स्त्री, दोनों के लिए वीरभोग्या जैसा विचार इसी संस्कृति की विशेषता है। यह वस्तुतः वर्णवादी संस्कृति है, इसमें पृथ्वीराज चौहान जैसा वीर इसीलिए गौरवान्वित किया जाता है।
ऐसे ढेरों उदाहरण हैं, जहां भूमि पर अवैध, अनाधिकृत कब्जा या बलात कब्जा करना तथा वही व्यवहार स्त्री के लिए भी करना।
इस संस्कृति की महानता जिस सवर्ण समाज के कंधे पर या सर पर शान की तरह सजी रहती है, उसकी एक असलियत इस कथा में दिखती है। इसी महान कही जाने वाली संस्कृति के भीतर से अपराध जन्म लेता है।
इस वर्णवादी सवर्ण सामाजिक संस्कृति की दूसरी कथा तोप सिंह की जिंदगी से जुड़ी है। तोप सिंह एक दलित सिख है और रंग से गोरा है।
ऊंची जाति के सिख उसे जातिसूचक गालियां देते हैं और उसके साथ यौन दुर्व्यवहार करते हैं। विरोध करने पर उसके साथ मारपीट करते हैं। ऊंची जाति के द्वारा उत्पीड़न के खिलाफ दलित युवाओं का एक संगठन सक्रिय होता है, जिसके संपर्क में तोप सिंह आता है।
वह अपने उत्पीड़न और अपमान का प्रतिकार करता है और अपने साथ यौन एवं जातिगत दुर्व्यवहार करने वाले तीन वर्चस्वशाली जाति के युवकों को चाकू से काट देता है। तोप सिंह का चाचा उसे भगा देता है, क्योंकि उसे पता है, कि सवर्ण सिख उसे जिंदा नहीं छोड़ेंगे।
तोप सिंह भाग जाता है, लेकिन उसका बदला उसकी मां से लिया जाता है। तोप सिंह की मां के साथ पति और देवर के सामने सामूहिक बलात्कार किया जाता है।
यहां भी वर्णवाद पर टिकी महान कही जाने वाली भारतीय संस्कृति है और उसके शिकार में फिर से स्त्री शामिल है। भेदभाव और अनैतिक, अमानवीय कृत्यों से पूर्ण सवर्ण समाज यहां विशाल त्यागी की तरह अपने भीतर से नहीं, बल्कि अपने शिकार के बीच से अपराधी को जन्म देता है।
सांप्रदायिक सोच और नफरत वर्णवाद की आधुनिक विशेषता है, जिसका ताल्लुक तीसरे अपराधी कबीर एम से है। कबीर का भाई सांप्रदायिक नफरत का शिकार होता है और मुसलमानों के खिलाफ हुई सुनियोजित हिंसा में मारा जाता है।
वर्णवाद के आधारों पर ही टिकी हिंदूवादी राजनीति की आग में कबीर का परिवार तबाह हो जाता है। कबीर घर चलाने की जद्दोजहद में छोटे-मोटे गाड़ी चुराने जैसे अपराध में लिप्त हो जाता है।
चौथी कथा मैरी लिंगदोह की है। मैरी ट्रांसजेंडर है और इसी वजह से उसके मां-बाप उसको ट्रेन में छोड़ देते हैं। यहां उसे अनाथ राजू का साथ मिलता है। लेकिन, राजू उसे यौन व्यापार का शिकार होने से नहीं बचा पाता। इसी के चलते मैरी उर्फ चीनी का इस्तेमाल तस्करी और अन्य अपराधों के लिए भी सफेदपोश उद्यमी करने लगते हैं।
मैरी के साथ उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के पीछे एक और विचार काम करता है, जो उसके उपनाम ‘चीनी’ से जाहिर होता है।
यह व्यवहार दिल्ली में ही उत्तर-पूर्व या नेपाल से आने वालों के लिए आम है। ‘चीनी’, ‘चिन्की’ कहकर अपमानित और दोयम दर्जे का नागरिक साबित करना अपने आप में इस विचार को पुष्ट करता है कि जो हिन्दूवादी राजनीतिक में राष्ट्र है, वह किसका है और उनका राष्ट्रवाद किसके हितों से संचालित है!
यह भी उसी वर्णवादी भेदभाव की संस्कृति, जिसे हिंदूवादी राजनीति भारतीय संस्कृति कहती है, की विशेषता है। एक और बात ध्यान देने की है, यह श्रृंखला भौगोलिक रूप से अपनी कथा का केंद्र सीलमपुर को बनाती है, जो दिल्ली का सबसे बड़ा स्लम इलाका माना जाता है और पुलिस की फाइल में अपराध का सबसे बड़ा अड्डा।
लेकिन यह दिल्ली अपनी सोच और संस्कृति में उत्तर भारतीय और खासकर हिंदी भाषी क्षेत्र की सवर्ण या वर्णवादी मानसिकता को धारण करती है। उसकी सोच या विचार-सरणि से ही राष्ट्र, नागरिक, अस्मिता, लिंग को देखा-समझा जाता है।
इधर विकसित या उदारीकरण के दूसरे चरण में उत्तर भारत के इस सामाजिक विचार-सरणि से शासक वर्ग की एकता ज्यादा मजबूत हुई और नंगे रूप से सामने आयी।
यह बात जाने बिना ‘पाताललोक’ का कथा सूत्र हाथ नहीं आएगा। तब वह सिर्फ एक अपराध कथा भर समझ में आएगी। जबकि, ‘पाताललोक’ वेब श्रृंखला का अंतिम लक्ष्य सत्ता के भीतर से होने वाले उन षड्यन्त्रों का खुलासा है, जिसमें पुलिस-प्रशासन और मीडिया बराबर की भागीदार होती है और अपने पाप को छुपाती है।
वहां बालकिशन बाजपेई, डीसीपी भगत और संजीव मेहरा अपने निजी स्वार्थों के लिए राज्य की संस्थाओं और कानूनों का बेजा इस्तेमाल करते हैं तथा देश और उसके नागरिकों के जीवन को तमाम जटिलताओं और कष्टों से भर देते हैं।
अपने स्वार्थ के लिए ये किसी भी हद तक जा सकते हैं। इनके बीच सत्ता के भीतर का खेल चलता है, दांवपेच होते हैं, छल-छद्म होता है तथा बाहरी दुनिया या जनता के सामने उसकी पर्दादारी कर उसे पड़ोसी देश से प्रायोजित आतंकी साजिश, जिहाद, देश विरोधी गतिविधि के रूप में पेश किया जाता है।
हाथीराम चौधरी को मोटी बुद्धि का समझ कर डीसीपी भगत जांच सौंपता है और यह मानकर चलता है कि वह मामले को सुलझा नहीं पायेगा। लेकिन, हाथीराम चौधरी इस मामले को गंभीरता से लेता है और इसे अपने प्रमोशन के लिए एक अच्छा मौका मानता है।
वह अपने सहयोगी इमरान के साथ जब जांच को आगे बढ़ाता है, तो उसमें जो भी तथ्य सामने आते जाते हैं, किसी का संबंध एसीपी भगत द्वारा बताये संजीव मेहरा की हत्या की साजिश से नहीं जुड़ता।
जैसे ही डीसीपी भगत को यह लगता है, कि हाथीराम मामले की सच्चाई की तरफ बढ़ रहा है, एक छोटी सी गलती को आधार बनाकर हाथीराम को जांच से हटा दिया जाता है और निलंबित भी कर दिया जाता है।
मामले को सीबीआई को सौंप दिया जाता है। सीबीआई पूरे मामले को देश-विरोधी गतिविधि, आतंकवाद और जिहाद से जोड़ देती है। संजीव मेहरा भी इस कहानी को अपने अनुकूल पाता है और देशप्रेम, विदेशी दुश्मन आदि से जोड़ देता है और ऐसा करके वह अपने मालिक सिंह साहब और मीडिया प्रतिस्पर्धी विक्रम को मात भी दे देता है।
यह संजीव मेहरा का नया रूप है, जो इस बात का भी संकेत लिए हुए है कि प्रगतिशील पत्रकारिता के बल पर पहचान बनाने वाले कैसे और किस गतिशीलता में एक झूठे और जाली पत्रकारिता के प्रतीक बनते हैं।
लेकिन हाथी राम चौधरी अपनी जांच नहीं रोकता और पाता है कि यह पूरा प्लाॅट बाजपेयी और डीसीपी भगत द्वारा तैयार किया गया है।
बाल किशन बाजपेयी बहुत पहले अपने खिलाफ संजीव मेहरा द्वारा की गयी रिपोर्टिंग को याद रखता है। दूसरे जब उसे पता चल जाता है कि दुनलिया जिन्दा नहीं है, तो वह अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के एक मात्र बाधा विशाल त्यागी को मुठभेड़ में मरवाने का सोचता है।
एक तरफ विशाल का टार्गेट संजीव मेहरा को बता कर उससे भी बदला लेने की सोचता है और दूसरी तरफ इसी क्रम में विशाल त्यागी को भी हटाना चाहता है।
विशाल त्यागी के कच्चे, अनगढ़ मन-मस्तिष्क में मास्टर जी की कही एक बात जमी है, कि जो इंसान कुत्तों से प्यार करता है, वह अच्छा इंसान होता है।
है यह एक गलत विश्वास, जिसके अंदर का द्वन्द्व गायब है। मनुष्य का व्यवहार वर्गीय विशिष्टताओं के पार नहीं होता। कुत्तों और गायों को प्यार करने वाले इंसानों की हत्या करने में माहिर भी होते हैं।
लेकिन यह विश्वास दुनलिया का है, जिसे वह विशाल त्यागी को थम्हाता है और यही विश्वास संजीव मेहरा की जान बचा लेता है। साथ ही, यहीं से बाजपेयी और डीसीपी के षड्यन्त्र में पलीता लग जाता है।
हालांकि इससे बाजपेयी और डीसीपी संचालित व्यवस्था में कोई अंतर नहीं पड़ता। नंगे होकर भी वे सत्ता की दौड़ में दौड़ते जाते हैं।
डीसीपी भगत, हाथीराम चौधरी से कहता है, यही सिस्टम है और यह ऐसे ही चलता है। बालकिशन वाजपेयी जैसे राजनीतिक के लिए वह काम नहीं करता तो कोई और करता।
बालकिशन बाजपेयी यहां सत्ता और वर्तमान शासक वर्ग का प्रतीक है।
देश में पिछले दशक की कुछ घटनाओं के ऊपर ध्यान दिया जाए तो जेएनयू, भीमा कोरेगांव, पुलवामा, जामिया, एएमयू आदि अनगिनत ऐसे प्लाॅट सत्ता ने तैयार किये। झूठ का ऐसा महाजाल सत्ता-संस्थानों ने मिलकर तैयार किया, कि सत्य सुनने को कोई तैयार नहीं।
सत्ता के इसी चरित्र को लक्षित किया गया है ‘पाताललोक’ में। अर्थात राजनीतिक सत्ता को अंडरवर्ल्ड की तरह संचालित करना, जिसकी नुमाइन्दगी बालकिशन बाजपेयी और डीसीपी भगत करते हैं।
दस्यु सरगना दुनलिया गुज्जर के भीतर तो कुछ मानवीय गुण बचे हुए हैं लेकिन नये राजनीतिक वर्ग के भीतर तो वह भी नहीं बचा है। यहां कुछ सफेद नहीं, सब स्याह है। यह पूरी तरह से मानवद्रोही है। अपने रचे झूठ को बचाना ही इसकी सबसे बड़ी नैतिकता है, जबकि पकड़े गए चारों अपराधियों में कोई न कोई मानवीय गुण बचा हुआ है।
‘पाताललोक’ में वह बड़ी संवेदना और मार्मिकता के साथ बुना गया है।
किसी भी बड़ी कला की यह विशेषता होती है कि बुरे से बुरे आदमी के भीतर के मानवीय गुणों को बाहर निकाल देना।
लेकिन, सत्ता के भीतर उसके लिए कोई जगह नहीं बची है। बल्कि वह समाज के भीतर की वर्णवादी अमानवीय शक्तियों का ही सामूहिक विराट प्रतिनिधि है।
‘पाताललोक’ में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की वर्गीय जटिलताओं को भी बहुत कुशलतापूर्वक बुना गया है। संजीव मेहरा और डाली व सारा मैथ्यू तथा हाथीराम और रेनु के सम्बन्ध इसके उदाहरण हैं। इसके अलावा अपनी महत्वाकांक्षाओं की अंधी दौड़ में शामिल चंदा मुखर्जी जैसी लड़कियों का हश्र भी इस वेब श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण पक्ष है।
सांस्कृतिक रूप से पूंजी और वर्णवादी गठजोड़ ने जो विकृतियां पैदा की हैं, जो आत्मलीन और कुंठित, एकाकी और गलाकाट प्रतिस्पर्धा का विकास किया है, उसे भी बेहद संजीदगी से कथा का हिस्सा बनाया गया है।
जयदीप अहलावत, गुल पनाग, नीरज काबी, स्वास्तिका मुखर्जी, ईश्वाक सिंह, निहारिका लायरा दत्त, अभिषेक बनर्जी, राजेश शर्मा, बोधिसत्व शर्मा, मेरीबाम रोनाल्डो सिंह, जगजीत संधू, आसिफ खान, विपिन शर्मा ने बेहतरीन अभिनय किया है। खास कर जयदीप अहलावत और अभिषेक बनर्जी ने अपने अभिनय की गहरी छाप छोड़ी है। गुल पनाग एक परिपक्व, संजीदा अभिनेत्री हैं। वे किसी भी चरित्र के साथ पूरा न्याय करती हैं।
एक और संजीदा अभिनेता आसिफ बसरा ने भी ‘पाताललोक’ में अपने अभिनय का सिक्का जमाया है। अफसोस कि अभी कुछ दिन पहले उन्होंने अपना जीवन खत्म कर लिया।
अविनाश अरुण और प्रॅसित राॅय ने बेहतरीन निर्देशन किया है।
अगर ‘पाताललोक’ को सर्वश्रेष्ठ वेब श्रृंखला कहा जाय, तो गलत नहीं होगा।