समकालीन जनमत
संस्मरण

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा “यादों की बारात” से पंडित जवाहर लाल नेहरू

ह अंश उर्दू शायर जोश मलीहाबादी की आत्मकथा “यादों की बरात” से लिया गया है। जोश मलीहाबादी का जन्म 5 दिसंबर 1898 में लखनऊ के नज़दीक मलीहाबाद क़स्बे में हुआ था। वे ‘शायर-ए-इन्क़लाब’ और ‘शायर-ए-शबाब’ के नाम से भी जाने जाते हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू से उनके घनिष्ट संबंध थे। लेकिन पंडित जी के इसरार के बावजूद वे 1956 में पाकिस्तान चले गए। उनका देहांत 22 फ़रवरी 1982 में हुआ।

“यादों की बरात”1974 में मुकम्मल हुई। इस का यह अंश जवाहराल लाल नेहरू से संबंधित जोश की यादों पर आधारित है। एक ऐसे समय में जब जवाहर लाल नेहरू के बारे में सच्ची झूठी बातों का बाज़ार गरम है, यह अनुवाद हिन्दी पाठकों के लिए समकालीन स्रोतों में एक छोटा सा इज़ाफ़ा है। यहाँ इस बात का ज़िक्र ज़रूरी है कि जोश ने यह आत्मकथा उस उम्र में मुकम्मल की जब उनकी यादें धूमिल पड़ने लगी थीं। उन्होंने अपनी याददाश्त की कमज़ोरी को  आत्मकथा के शुरू में स्वीकार किया है। दूसरी अहम बात यह है कि जोश एक ख़ुश-बयान शायर थे। अतिरंजना और शायराना अंदाज़-ए-बयान, गद्य और पद्य दोनों में, उनकी शैली की विशेषता है। इसलिए जवाहर लाल नेहरू के बारे में जोश की इन यादों को एक ऐतिहासिक साक्ष्य की हैसियत से एहतियात से पढ़ने की ज़रूरत है। अलबत्ता इसकी अदबी छटा में जवाहर लाल नेहरू की मनमोहनी तस्वीर और आकर्षक व्यक्तित्व देखने लायक़ है।  (अनुवादक)


जोश मलीहाबादी की आत्मकथा “यादों की बारात” से

पंडित जवाहर लाल नेहरू

वे अपनी मोहनी सूरत के आकर्षण, अपने रंग की छटा, अपनी आँखों की मुरौवत (उदारता), अपने लहजे की मिठास, अपनी बातचीत की मधुरता, अपनी मुस्कान की मिठास, अपने परिवार की प्रतिष्ठा, अपने हृदय के ब्रह्मांड-आच्छादक विस्तार, अपने मिज़ाज की अद्वितीय सज्जनता और अपने चरित्र की अतुलनीय कुलीनता के लिहाज़ से एक ऐसे इन्सान थे जो इस धरती पर सदियों के बाद पैदा होते हैं, और जो यह आवाज़ बुलंद कर सकते हैं कि

मत सहल हमें जानो, फिरता है फ़लक बरसों

तब ख़ाक के परदे से, इन्सान निकलते हैं

उनका वजूद, हिंदुस्तान का गौरव, एशिया की गरिमा और सम्पूर्ण मानव जाति का मान था। और वे इस मृत्युलोक के ऐसे जीवित ताजमहल थे, जिसको शाम-ए-अवध के लावण्य और सुबह-ए-बनारस की शुभ्रता ने इलाहाबाद के सारगर्भित संगम पर, गंगाजामुनी छेनी से तराश कर, तामीर किया था।

इससे पहले दो-तीन मौक़ों पर उनका ज़िक्र कर चुका हूँ, इसलिए उनसे संबंधित जो बातें बयान करने से रह गई हैं, वही बिंदु बयान करूँगा।

एक बार यह सुनकर कि वे (जवाहर लाल) “कुम्भ” के मेले में शरीक होने को इलाहाबाद गए थे, मेरे तन बदन में आग लग गई। मैं, ग़ुस्से में भरा, उनके पास गया, और कहा ‘एट टू ब्रूटस[1]?’ उन्होंने ने बड़ी हैरत से पूछा, ‘मैंने वह कौन ऐसी अनपेक्षित बात की है कि आप मुझे ‘एट टू ब्रूटस’ कह रहे हैं।’ मैंने कहा, पंडितजी, आप तो बहुत बढ़-चढ़कर यह दावा किया करते थे कि दुनिया के किसी मज़हब से भी आपका कोई ताल्लुक़ नहीं है। और इसके बावजूद सुनता हूँ आप कुम्भ के मेले में, अंधआस्था की अग्नि को हवा देने हेतु इलाहाबाद तशरीफ़ ले गए थे। उन्होंने कहा, ‘अगर मैं वहाँ पुजारी की हैसियत से जाता तो आपको हक़ था कि मुझपर ऐतराज़ करते। लेकिन मैं तो वहाँ पब्लिक माइंड (जनमानस) के अध्ययन के लिए गया था।’ मैंने कहा, जी नहीं, आप वहाँ गए थे अपने वोटों के लिए। जनमानस को प्रभावित करने के लिए। अभी वे जवाब देने के लिए अपने लबों को जुंबिश दे ही रहे थे कि डॉक्टर काटजू आ गए। पंडित जी ने उनसे कहा, ‘मिस्टर काटजू, जोश साहब मुझपर ऐतराज़ कर रहे हैं कि मैं कुम्भ के मेले क्यों गया था।’ काटजू ने कहा, यह तो ख़ैर मेले की बात है, एक दिन मुझे पूजा करते देखकर जोश साहब ने मुझसे यहाँ तक कहा था कि ‘काटजू साहब आप बालिग़ होने के बावजूद पूजा करते हैं?’ और जब मैंने इनसे पूछा था कि पूजा करना कोई बुरी बात है? तो इन्होंने कहा था, ‘यह ऐसी बुरी बात है कि इसे देखकर, कभी यह भी हो सकता है कि एक विचारशील आदमी के दिल पर ऐसी घातक चोट लग जाए कि वह फ़ौरन तड़प कर मर जाए।’ यह सुनकर पंडित जी ने ठहाका मारकर कहा था, ‘जहाँ तक पूजा का ताल्लुक़ है, मैं भी जोश साहब का हम-ख़याल हूँ’ और इसपर काटजू का मुँह लटककर रह गया था।

भारत विभाजन के फ़ौरन बाद, सरदार पटेल ने, उस वक़्त के दिल्ली के मुसलमान चीफ़ कमिश्नर को, जो अलीगढ़ के साहबज़ादा आफ़ताब अहमद ख़ाँ के सुपुत्र थे, निलंबित तो नहीं किया था, मगर ज़बानी आदेश के ज़रिए उनके सारे अधिकार छीनकर, उस वक़्त के डिप्टी कमिश्नर मिस्टर रंधावा के सिपुर्द कर दिए थे, और बड़ी धूमधाम के साथ, मुसलमान लूटे और क़त्ल किये जा रहे थे। उस भयानक दौर में अगर जवाहर लाल खुलकर मैदान में न आ जाते, और खौफ़नाक गलियों में घुस घुसकर, और हिंदुओं के मुँह पर थप्पड़ मार-मारकर, वे उस आग को न बुझा देते तो दिल्ली में एक मुसलमान भी ज़िंदा न रहता।

उसी ज़माने का यह भी एक वाक़िया है कि दिल्ली के मुहल्ला “सूई वालान” में, हिन्दू जब एक मस्जिद के दरवाज़े से बाजा बजाते गुज़र रहे थे और मुसलमानों ने उनको मार भागा दिया था, तो शहर के हिन्दू कोतवाल ने, चौराहे पर खड़े होकर, मुसलमानों को माँ बहन की गालियाँ दी थीं, और जब मुझे इस बात की ख़बर दी गई थी, मैंने एक अर्ज़ी पर लोगों के दस्तख़त ले लिए, और उनसे जाकर कहा था कि पंडित जी, इस जुर्म पर कि मुसलमानों ने क़ानून तोड़ा था, उनपर मुक़दमा तो चलाया जा सकता था, और उनकी गिरफ़्तारियाँ भी की जा सकती थीं,  मगर शहर के कोतवाल को इस बात का कोई हक़ नहीं था कि वह सारे मुसलमानों को, चौराहे पर खड़े होकर, माँ बहन की गालियाँ देता।

उन्होंने कहा, आपके पास इसका क्या सुबूत है? मैंने कहा, मैं अभी वहीं से आ रहा हूँ। आप इस अर्ज़ी को देखें, जिसपर हिंदुओं के भी दस्तख़त हैं।

अर्ज़ी पढ़कर वे ग़ुस्से में काँपने लगे, और इंस्पेक्टर जनरल पुलिस को उसी वक़्त फ़ोन पर हिदायत की कोतवाल को फ़ौरन मुअत्तल (निलंबित) करके, उसकी तहक़ीक़ात करो, और मुझे इत्तिला दो।

उनको उर्दू ज़बान से भी बड़ी मुहब्बत थी। उन्होंने मुझसे एक दिन कहा था, कि उर्दू के बारे में मेरी निजी राय और है, और मेरी गवर्नमेंट की राय और है। लेकिन मैं गवर्नमेंट पर अपनी राय “थ्रस्ट” करना (ठूँसना) नहीं चाहता। इसलिए कि यह डिमाक्रसी (जम्हूरियत) के ख़िलाफ़ है।

एक रोज़ लखनऊ स्टेशन पर उन्होंने रेलवे अधिकारियों को बुलाकर, बहुत बुरी तरह फटकार कर कहा था कि आप लोगों ने मुझको निरा जाहिल बनाकर रख दिया है। हर तरफ़ हिन्दी के बोर्ड लगे हुए हैं। कुछ पता नहीं चलता कि यह खाने का कमरा है, या लैवेटरी है।

एक बार पाकिस्तान से छुट्टी लेकर, मैं जब दिल्ली में उनसे मिला, तो उन्होंने बड़े तंज़ के साथ मुझसे कहा था कि ‘जोश साहब, पाकिस्तान को इस्लाम, इस्लामी कल्चर, और इस्लामी ज़बान (भाषा), यानी उर्दू की हिफ़ाज़त के लिए बनाया गया था। लेकिन अभी कुछ दिन हुए कि मैं पाकिस्तान गया और वहाँ यह देखा कि मैं तो शेरवानी और पाजामा पहने हुए हूँ, लेकिन वहाँ की गवर्नमेंट के सारे अफ़सर, सौ फ़ीसद, अंग्रेज़ों का लिबास पहने हुए हैं। मुझसे अंग्रेज़ी बोली जा रही है। और हद यह है कि मुझे अंग्रेज़ी में ऐड्रेस भी दिया जा रहा है। मुझे इस सूरत-ए-हाल से बेहद सदमा हुआ, और मैं समझ गया कि उर्दू, उर्दू, उर्दू के जो नारे हिंदुस्तान में लगाए गए थे, वे सारे ऊपरी दिल से, और खोखले थे। और ऐड्रेस के बाद, जब मैं खड़ा हुआ, तो मैंने उनका उर्दू में जवाब देकर, सबको हैरान और शर्मिंदा कर दिया और यह बात साबित कर दी कि मुझको उर्दू से उनके मुक़ाबले में, कहीं ज़्यादा मुहब्बत है। और जोश साहब, माफ़ कीजिए, आपने जिस उर्दू के वास्ते अपने वतन को तज दिया है, उस उर्दू को पाकिस्तान में कोई मुँह नहीं लगाता। और जाइए पाकिस्तान!’ मैंने शर्म से आँखें नीची कर लीं। उनसे तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनकी बातें सुनकर मुझे यह वाक़िया याद आ गया: मैंने पाकिस्तान के एक बड़े शानदार मिनिस्टर साहब को जब उर्दू में ख़त लिखा, और उन साहब बहादुर ने अंग्रेज़ी में मुझे जवाब से नवाज़ा, तो मैंने जवाब के जवाब में यह लिखा था कि जनाब-ए-वाला, मैंने आपको अपनी मादरी ज़बान (मातृभाषा) में ख़त लिक्खा, लेकिन आपने उसका जवाब अपनी पिदरी ज़बान (पितृभाषा) में लिखा है।

चू कुफ़्र अज़ काबा बरखेज़द, कुजा मानद मुसलमानी

(जब कुफ़्र (अधर्मिता) काबा से उठने लगे तो, मुस्लिम अस्मिता कहाँ बाक़ी रह सकती है)

अब कुछ वाक़ियात उनकी क़द्रदानी, उनकी ग़ैरमामूली शराफ़त, और उनकी बेमिसाल नाज़-बरदारी (नख़रे-चोंचले सहने) के भी सुन लीजिए। जब सेंट्रल हुकूमत के सूचना एवं जन संपर्क विभाग में मेरी नियुक्ति, सरकारी पत्रिका “आजकल” में हो गई, तो मैंने उनको ख़त लिखा कि मेरे पर्चे के वास्ते अपना संदेश जल्द भेज दीजिए, अगर आप काहिली से काम लेंगे तो मेरी आपकी ज़बरदस्त जंग हो जाएगी। एक हफ़्ते के अंदर उनका संदेश आ गया (जिसको “आजकल” फ़ाइल में देखा जा सकता है)। अपने संदेश के आख़िर में उन्होंने यह भी लिक्खा था कि मैं जल्दी में संदेश इसलिए भेज रहा हूँ कि जोश साहब ने मुझको धमकी दी है कि अगर देर हो गई तो वे मुझसे लड़ पड़ेंगे। और जब मैंने उनके संदेश के शुक्रिये में उनको ख़त लिक्खा, तो दबी ज़बान से यह शिकायत भी कर दी कि आपने मेरे ख़त का जवाब ख़ुद अपने हाथ से लिखने के बजाय, सेक्रेट्री से लिखवाया है, मेरे साथ आपको यह बर्ताव न करना चाहिए था। और उनकी शराफ़त देखिए, कि मेरी इस शिकायत पर, उन्होंने ख़ुद अपने हाथ से मुझको यह लिखा कि कामों के हुजूम की वजह से मैं सेक्रेट्री से ख़त लिखाने पर मजबूर हो गया था। आप मेरी इस ग़लती को माफ़ करें।

एक बार मैं उनके वहाँ पहुँचा तो देखा कि वे दरवाज़े पर खड़े, क़िदवई साहब से बातें कर रहे हैं, और जैसे ही मैंने बरामदे में क़दम रखा और उनसे आँखें चार हुईं, तो वे एक सेकेंड के अंदर ग़ायब हो गए।

मैंने क़िदवई साहब से कहा, मैं तो अब यहाँ नहीं ठहरूँगा, आप पंडित जी से कह दीजिएगा कि लीडरी और प्राइम मिनिस्टरी को लीडरी और प्राइम मिनिस्टरी तक महदूद रखें और उसको इस क़दर न बढ़ायें कि वह बादशाही से टक्कर लेने लगे। क़िदवई साहब ने मुस्कुराकर पूछा, किस बात पर आप इस क़दर बिगड़ गए हैं? मैंने कहा, अरे, आप अभी तो ख़ुद देख चुके हैं कि मेरे आते ही वे ग़ायब हो गए हैं। मिज़ाज पुरसी तो बड़ी चीज़ है, उन्होंने मुझसे सलाम दुआ तक नहीं की। इतने में जवाहर लाल आ गए। मैं मुँह मोड़कर खड़ा हो गया। उन्होंने कहा जोश साहब मामला क्या है? क़िदवई साहब ने सारा माजरा बयान कर दिया। वे मेरे क़रीब आए, और मेरे कान में कहा कि ‘मुझे इतनी ज़ोर से पेशाब आ गया था कि अगर एक मिनट की भी देर हो जाती, तो पाजामे ही में निकल जाता,’ और यह वजह सुनकर मैंने उन्हें गले लगा लिया।

एक बार कुँअर महेंद्र सिंह बेदी ने मुझसे कहा, मेरे मंत्री श्री सच्चर ने दिल्ली से मेरा तबादला कर दिया है। मैंने कहा ये श्री सच्चर हैं या मिस्टर ख़च्चर । वे हँसने लगे। कहा, ‘क्या खूब क़ाफ़िया मिलाया है। हाँ, तो मैं आपसे यह कहने आया हूँ कि आप और बेगम पटौदी, दोनों मिलकर, पंडित जी के पास जाएँ और मेरा तबादला रुकवा दें।’

दूसरे ही दिन हम दोनों, प्राइम मिनिस्टर्ज़ हाउस पहुँचे, अपने आने की इत्तिला दी। बेगम पटौदी को फ़ौरन बुला लिया गया, और मैं मुँह देखता रह गया। जवाहर लाल की इस अशिष्टता पर मुझे ताव आ गया, और यह सोचकर कि मैं वहाँ से उसी वक़्त चला जाऊँ, कि उनसे फिर कभी न मिलूँ, मैं उठा ही था, कि उनके सेक्रेट्री, ग़ालिबन प्यारे लाल साहब आ गए। उन्होंने मेरी तरफ़ निगाह उठाकर कहा, क्या बात है जोश साहब, इस क़दर ज़ोर से पानी बरस रहा है, और आप आग बगूला बने खड़े हैं।, मैंने उनसे सारा माजरा बयान करके कहा, अब मैं यहाँ नहीं ठहरने का। प्यारे लाल साहब ने कहा, ‘आप सिर्फ़ दो मिनट, मेरी ख़ातिर से, ठहर जाएँ।’ मैं ठहर गया। वे सीधे उनके कमरे में दाख़िल हो गए, और दो मिनट के अंदर-अंदर, मैंने देखा, कि वे (जवाहर लाल) मुस्कराते चले आ रहे हैं। मेरे क़रीब आते ही उन्होंने कहा, ‘जोश साहब, आपके तशरीफ़ लाने की मुझे किसी ने इत्तिला नहीं दी। आपने किससे इत्तिला देने को कहा था?’ मैंने कहा, बिमला कुमारी जी को। उन्होंने बिमला कुमारी को बुलाकर पूछा, ‘तुमने जोश साहब के आने की मुझको इत्तिला क्यों नहीं दी?’ बिमला कुमारी ने कहा, ‘मैंने “लेडीज़ फ़र्स्ट” (पहले महिलायें) के ख़याल से जोश साहब का नाम नहीं लिया।’ पंडित जी ने डाँटकर कहा, ‘नॉन सेंस!’ और मेरा हाथ पकड़कर अंदर ले गए, और कहा, ‘आप भी कुँअर महेंद्र सिंह का तबादला रुकवाना चाहते हैं?’ मैंने कहा, ‘जी हाँ।’ उन्होंने जवाब दिया कि ‘यह डेमोक्रैटिक उसूल के ख़िलाफ़ है कि मैं इस मामले में दख़ल दूँ।’ मैंने कहा, ‘पंडित जी, मैं जानता हूँ कि आपका दिमाग़ “मेड इन इंग्लैंड”  (इंग्लिस्तान निर्मित) है, लेकिन कुछ हालात में कुछ एक्सेप्शन्ज़ (अपवाद) भी बेहद ज़रूरी होते हैं। मैं जानता हूँ कि प्राइम मिनिस्टर से किसी के तबादले के मंसूख़ (रद्द) करने का मुतालबा ऐसा है जैसे हम किसी हाथी से कहें कि मेज़ से ज़रा हमारी दिया सलाई उठा ला। लेकिन आज तो मैं हाथी से दिया सलाई उठवाकर दम लूँगा।’ वे हँसने लगे और तबादला मंसूख़ कर दिया।

उसके बाद उनके मुहिकमे के वज़ीर, ख़च्चर के हम-क़ाफ़िया सच्चर ने बहुत ज़ोर मारा, लेकिन पंडित जी अपनी ज़िद पर क़ायम रहे।

एक मर्तबा मैं गर्मी की छुट्टी मनाने शिमला गया हुआ था। तीन-चार रोज़ के बाद मालूम हुआ कि पंडित जवाहर लाल भी आ गए हैं। मैंने उनके निवास स्थान पर फ़ोन किया। बदक़िस्मती से रिसीवर उठाया उनके एक ऐसे नवागंतुक सेक्रेट्री ने जो लहजे से मद्रासी मालूम हो रहा था। मैंने उससे अपना नाम बताकर कहा मैं पंडित जी से मिलना चाहता हूँ, और आप उनसे वक़्त मुक़र्रर करके मुझे सूचित करें । उस गँवार ने कभी मेरा नाम सुना ही नहीं था। उसने बार-बार मेरा नाम पूछा। मैंने कहा जोश मलीहाबादी। लेकिन उसकी समझ में नहीं आया। आख़िरकार मैंने झल्लाकर कहा, ‘जे. ओ. एस. एच’ उसने कहा, ‘मिस्टर जॉश, आपके पर्टीकुलर्ज़ (विशेषतायें) क्या हैं?’ मैंने कहा, ‘जो शख़्स मेरे पर्टीकुलर्ज़ नहीं जानता, उसको यह हक़ नहीं कि वह हिंदुस्तान में रहे।’ यह सुनकर उसने कहा, ‘ओह, ऐसे बोलेगा?’ मैंने कहा, ‘इससे ज़्यादा बोलेगा।’ उसने कहा, ‘आप होल्ड किये रहें, हम पंडित जी से पूछके बताएगा।’ और दो मिनट के बाद उसने कहा, ‘पंडित जी ऐसा बोलता है कि “हम यहाँ मजे (मज़े) करने आया है, आप डिल्ली में मिलो।”’

यह जवाब सुनकर मेरे तन बदन में आग लग गई। मैंने उम्मुश-शोअरा (बेगम) से कहा, वज़ीर-ए-आज़म (प्रधानमंत्री) बन जाने के बाद पंडित जी का दिमाग़ ख़राब हो गया है। मैं अभी उनको ऐसा ख़त लिखूँगा कि वे तिगनी का नाच नाचने लगेंगे। बीवी ने कहा, ‘हमारे सर की क़सम, अभी ख़त न लिखो। इस वक़्त ग़ुस्से में भरे हुए हो, न जाने क्या-क्या लिख मारोगे। पानी पीकर थोड़ी देर लेट जाओ।’ मरता क्या न करता। पानी पीकर लेट तो गया, मगर दिल की आग भड़कती रही। आध घंटे से ज़्यादा लेट नहीं सका। बिस्तर पर अंगारे दहकने लगे। मैं उठ बैठा, और ऐसा ख़त लिखा कि अगर उस क़िस्म का ख़त किसी थानेदार तक को लिख भेजता, तो वह भी सारी उम्र मुझे माफ़ न करता।

ख़त भेज देने के दूसरे दिन इंदिरा गाँधी का फ़ोन आया कि आज तीन बजे सह-पहर को मेरे साथ चाय पीजिए। मैंने कहा, ‘बेटी, वहाँ तुम्हारे बाप मौजूद होंगे, मैं उनसे मिलना नहीं चाहता।’ उन्होंने कहा, ‘मैं पिता जी को अपने कमरे में बुलाऊँगी ही नहीं।’ मैं तैयार हो गया।

शाम को जब बरामदे में पहुँचा, एक चपरासी ने इंदिरा के कमरे की तरफ़ इशारा कर दिया, और जब मैं उनके कमरे की तरफ़ बढ़ा तो पीछे से आकर पंडित जी ने मेरा हाथ पकड़कर कहा, ‘आइए मेरे कमरे में।’ मैं ठिठक कर खड़ा हो गया। उन्होंने मेरा हाथ खींचा, और मुरौवत के दबाव में आकर मैं उनके साथ हो गया।

उनके कमरे में पहुँचा तो देखा कि मेरे बुज़ुर्गों के मिलने वाले सर महाराज सिंह बैठे हुए हैं। पंडित जी ने कहा, ‘महाराज सिंह, यह वही जोश साहब हैं, जिन्होंने मुझको ऐसा गरम ख़त लिखा कि शिमले की ठंडक में पसीना आ गया।’ महाराज सिंह ने कहा, ‘ग़नीमत समझिए कि यहीं तक नौबत आई। इनके बुज़ुर्गों से आप वाक़िफ़ नहीं। वे जिस पर गरम हो जाते थे, उसे ठंडा कर दिया करते थे।’ पंडित जी हँसने लगे। घंटी बजाई। उस मद्रासी सेक्रेट्री को बुलाया, और जैसे ही उसने कमरे में क़दम रक्खा, वे उसपर बरस पड़े कि ‘तुमने मुझसे पूछे बग़ैर जोश साहब को ऐसा बेहूदा जवाब क्यों दिया? मैं अभी तुम्हारा ट्रांसफर किये दे रहा हूँ। कल तुम मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉमर्स में चले जाना।’

उनका यह बर्ताव देखकर मैं पानी पानी हो गया। और उनकी बेमिसाल रवादारी और शराफ़त को देखकर, मैं उनको गले लगाकर रोने लगा।

अब उनकी आख़िरी शराफ़त और क़द्रदानी का एक और वाक़िया सुन लीजिए।

उनके इंतक़ाल से चंद महीने पहले, मैं हिंदुस्तान गया। और उनसे दरख़्वास्त की थी कि आप किसी दिन मेरे निवास स्थान पर आकर, मेरे साथ खाना खाएँ। हालाँकि मैं उनका दिल तोड़कर पाकिस्तान आ गया था, लेकिन इसके बावजूद, मेरी दावत क़ुबूल करके वे मेरे निवास स्थान पर आए, खाना खाया और दो घंटे से ज़्यादा बैठे रहे। इस दावत में उनकी आवाज़ की कमज़ोरी और उनकी मुस्कान के फीकेपन से यह अंदाज़ा करके मेरा दिल बैठने लगा कि अब वे अपनी ज़िंदगी के दिन पूरे कर चुके हैं। चुनांचे वही हुआ, और मेरे पाकिस्तान आ जाने के दो-तीन महीने बाद शराफ़त के आसमान का वह सूरज डूब गया, और हिंदुस्तान ही में नहीं, सारे एशिया में अंधेरा फैल गया।

आसमाँ रा हक़ बुअद, गर ख़ूँ बेबारद, बर ज़मीं

(आसमान को हक़ है, अगर वह ख़ून बरसाए ज़मीन पर)

इंगलिस्तान के शाह-ए-शतरंज को छोड़कर, इस वक़्त धरती पर जितने भी मिनिस्टर, प्रेसिडेंट, डिक्टेटर, और बादशाह सलामत हैं, वे अपने-अपने मुल्कों में इस क़दर कुत्सित व घृणित हैं कि आम जनता के रूबरू, जब उनका नाम लिया जाता है, तो वे इस ख़ौफ़ से इधर-उधर देखकर कि कहीं हुकूमत का कोई पिट्ठू तो आस-पास में नहीं है, उसके नाम पर बेतहाशा लानत-मलामत करने लगते हैं। और ये सत्ताधारी लोग जब अपने मुल्क से बाहर जाते हैं, या बाहर से अपने मुल्क आते हैं, तो छोटे-छोटे, चाटुकार लीडरों की धमकियों और बेज़मीर पुलिस के डंडों के प्रहारों से लोगों को लारियों में, ज़बरदस्ती, भर-भरकर रेलवे स्टेशनों के प्लेटफ़ॉर्मों और हवाई जहाज़ों के मैदानों में इस लिए जमा कर दिया जाता है, कि वे इन सत्ताधारियों पर, अंगारे बरसाने के इच्छुक हाथों से झूठे फूल बरसाने, और परदे के पीछे उन्हें कोसने वाली ज़बानों से, उनके पक्ष में “ज़िन्दाबाद” के खोखले नारे लगाने लगें। और मिठाई के वादे से एक फुसला हुआ बच्चा उनकी गर्दन में हार डाल दे, और बिके हुए अख़बारों में उस शानदार स्वागत की, बड़ी-बड़ी तस्वीरें प्रकाशित कर दी जाएँ।

और उनमें से जब कोई सत्ताहीन हो जाता या मर जाता है, तो लोग उसकी सत्ताहीनता और मौत पर मिठाई बाँटते, और खुदा का शुक्र अदा करते हैं । और फिर दो रोज़ के बाद, उसको इस तरह विस्मृत कर देते हैं, मानो, उसकी माँ ने, उसे कभी जना ही नहीं था। लेकिन जवाहर लाल का मामला उससे बिल्कुल बरक्स था। चंद जनसंघी अंधे लीडरों को छोड़कर, हिंदुस्तान का बच्चा-बच्चा उनकी मुहब्बत का दम भरता था, और उनके इंतक़ाल के बाद भी दिलों पर उनकी जनप्रियता का इस क़दर सिक्का बैठा हुआ था कि जिस जगह वे जलाए गए थे, वहाँ मैंने ख़ुद इन आँखों से देखा था कि सुबह, दोपहर, और शाम के वक़्त हर उम्र और हर तबक़े के दर्शनार्थियों का इस क़दर हुजूम रहता था कि सड़क रुक जाया करती थी। और लोगों के क्रंदन व विलाप से फ़ज़ा काँपती रहती थी। इसे कहते हैं असली जनप्रियता, और इसे कहते हैं सच्ची लीडरी। नेहरू में निरंकुशता और दुष्टता नहीं थी। वे बुरे आदमी बन ही नहीं सकते थे, और इसी ख़ता पर कहा जाता है कि वे अच्छे सियासत दान नहीं थे।

बात यह है कि दरअसल सियासत, पैग़ंबरी का एक दूसरा नाम है, और हक़ीक़ी सियासत वह होती है जो मानव जाति को फूलों की सेज पर लिटाने के लिए ख़ुद पाषाण-भेदक काँटों पर चलती, और अल्लाह के बंदों का पेट भरने के वास्ते ख़ुद अपने पेट पर पत्थर बाँधकर, काम करती है। लेकिन आज की सियासत, इस क़दर विकृत हो चुकी है, कि मानव जाति को काँटों पर चलाकर, ख़ुद फूलों की सेज पर लेटती, और अल्लाह के करोड़ों बंदों के पेटों पर पत्थर बँधवाकर, सिर्फ़ अपना और अपने चहेतों का पेट भरती है। और नेहरू की सियासत चूँकि मौजूदा सियासत के बिल्कुल बरक्स थी, इसलिए जब यह कहा जाता है कि वे अच्छे सियासत दान नहीं थे, मैं इसका समर्थन करता हूँ। इसलिए कि आज के “अच्छे” सियासत दान के लिए यह एक अवश्यंभावी शर्त है कि मानवता की सेवा के सिद्धांत के लिहाज़ से वह नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त हद तक बुरा आदमी हो। (ऐ अमर जवाहर लाल, इंसानियत की रूह का सजदा क़ुबूल कर!!)

अनुवादक: डॉक्टर आफ़ताब अहमद, वरिष्ठ लेक्चरर, हिन्दी-उर्दू, कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क

[1] शेक्सपियर ने अपने ड्रामे “जूलियस सीज़र” में लिखा है कि सीज़र ने जब यह देखा कि उसका सबसे बड़ा वफ़ादार दार्शनिक दोस्त, ब्रूटस भी, उसपर क़ातिलाना हमला करने वालों की पंक्ति में खड़ा हुआ है, तो ज़मीन उसके पाँव के नीचे से निकल गई। और बेहद आश्चर्य से, उसने एट टू ब्रूटस (तुम भी ऐ ब्रूटस!) का नारा लगाकर, अपनी तलवार फेंक दी। और यह सोचकर कि जब मेरा ऐसा जिगरी दोस्त और इस क़दर चिंतनशील इन्सान भी मेरे ख़िलाफ़ हो गया है, तो इसके सिवाय और कोई मतलब हो ही नहीं सकता कि मुझमें कोई न कोई ऐसा ज़बरदस्त ऐब ज़रूर मौजूद है, जिससे मेरी क़ौम और मेरे मुल्क को नुक़सान पहुँच सकता है, अपनी गर्दन झुका ली, और अपने को क़त्ल हो जाने के लिए पेश कर दिया।

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