समकालीन जनमत
xr:d:DAGABs0tztg:4,j:7888476988887062409,t:24032006
जनमत

पंचायत-3: नये ग्रामीण यथार्थ के बीच मानवीय संवेदनाओं की जद्दोजहद रचती वेब श्रृंखला

‘पंचायत’ सीजन-3, पिछले दिनों प्राइम वीडियो पर जारी हुई। यह ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जारी होने वाली वेब श्रृंखला है।

यह ओटीटी पर जारी होने वाली हिन्दी वेब श्रृंखला में सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रशंसित है। पंचायत, ग्रामीण शासन की इकाई होती है। यह भारत में भिन्न-भिन्न स्वरूप में मौजूद सबसे प्राचीन संस्था है।

प्राचीन काल में ग्राम स्वशासन के लिए सभा, समिति और विदथ नाम की संस्थाओं का अस्तित्व मिलता है। ग्राम पंचायत इन्हीं का आधुनिक स्वरूप है।

1990 से पहले इसके पास वित्तीय अधिकार नहीं होते थे। पंचायती राज कानून बनने के बाद कुछ वित्तीय अधिकार भी इसे मिल गया। अर्थात ग्राम-विकास से जुड़ी कल्याणकारी योजनाओं को बनाने और उसे पूरा करने के लिए केन्द्रीय शासन से धन का आवंटन पंचायतों को किया जाने लगा।

पंचायतों पर काबिज होने की होड़ भी तभी से क्रमशः हिंसक होने लगी। पहले जहाँ यह सिर्फ  हस्तक्षेपकारी निर्णायक व सम्मान का पद हुआ करता था, अब यह धन और सत्ता  के प्रदर्शन का भी पद हो गया।

‘पंचायत’ श्रृंखला इन्हीं नये परिवर्तनों के बीच बने ग्रामीण यथार्थ को पुराने सामूहिक ग्रामीण जीवन के नास्टेल्जिया के साथ प्रस्तुत करता है।

जाहिर है, कि ग्रामीण जीवन प्रणाली शहरों से भिन्न होती है। ग्रामीण जीवन मुख्य रूप से खेती या कृषि पर निर्भर होता है। इसकी जीवन गतिकी और सामाजिक सम्बन्ध इसी से निर्मित होते हैं। कृषि एक ऐसी आर्थिक इकाई है, जिसमें श्रम का सामूहिक नियोजन होता है।

कृषि समाज में  आधुनिक यन्त्रों के आगमन के बावजूद भी यह सामूहिकता छीजती हुई भी मौजूद है। इसमें नियोजित श्रम की गतिविधियां या काम के घण्टे शहरों में कार्यालयों, कारखानों और उद्योगों में बंधे काम के घण्टे से अलग होता है।

खेती में काम के बीच अवकाश, ठहराव के मौके होते हैं। यह मौका ही सामूहिक जीवन और सामाजिक सम्बन्ध को निर्धारित करने में एक अहम भूमिका निभाता है।

गाँव में सुबह उठते ही नौकरी पर जाने की भागम-भाग नहीं होती। शहरों की तरह का यांत्रिक, एकांगी जीवन भी यहाँ नहीं होता। हालांकि गाँव में भी खेती के आधुनिक पूंजीवादी साधनों के प्रचलन और संचार व मनोरंजन के नये उपकरणों ने यहाँ  के चले आते सामूहिक जीवन और सम्बन्ध को छिन्न-भिन्न कर दिया है।

‘पंचायत’ श्रृंखला इन्हीं बदलावों के बीच मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं को संजोये रखने की जद्दोजहद बुनती-रचती है।

‘पंचायत’ का तीसरा सीजन कुल आठ प्रकरण में क्रमशः ‘रंगबाजी’, ‘गड्ढा’, ‘घर या ईंट-पत्थर’, ‘आत्ममंथन’, ‘शान्ति समझौता’, ‘चिंगारी’, ‘शोला’, ‘हमला’ शीर्षक से विभाजित है।

कथा-भूमि का सूत्र पिछले सीजन से जुड़ कर आगे बढ़ता है। फकौली विधायक और फुलेरा गाँव के बीच का तनाव इस सीजन में और तीखा हुआ है।

पहले प्रकरण में विधायक के हस्तक्षेप से नया पंचायत सचिव फुलेरा में नियुक्त होकर आता है। लेकिन, प्रधान-पति बृज भूषण दूबे, उप प्रधान प्रह्लाद पाण्डेय  और पंचायत सहायक विकास शुक्ल उसे पदभार ग्रहण नहीं करने देते हैं।

इसी बीच विधायक को एक मामले में सजा हो जाती है और पंचायत सचिव अभिषेक त्रिपाठी का स्थानांतरण रुक जाता है। सचिवजी पुनः पद ग्रहण करते हैं लेकिन प्रधान और प्रधान  के विरोधी भूषण शर्मा के बीच पंचायत की रस्साकशी में खुद को फिर से शामिल पाते हैं।

लोभ-लाभ और मानवीय रिश्ता

नया प्रकरण आता है, प्रधानमंत्री आवास योजना के आवंटन को लेकर। यह प्रकरण एक तरफ जहां पंचायत की आपसी प्रतिद्वन्द्विता के सत्य को सामने लाता है, वहीं मानवीय रिश्तों की संवेदना को बहुत ही बारीकी से अभिव्यक्त करता है।

संपत्ति, सुख-सुविधा, धनलिप्सा की प्रवृत्ति तथा इंसानी रिश्तों की अहमियत का कम होते जाना अब गांव के जीवन में भी प्रविष्ट हो चुका है।

जगमोहन को एक आवास मिल चुका है। लेकिन, वह अपनी दादी के नाम से एक और घर आवंटित कराना चाहता है। इस प्रक्रिया में जगमोहन की दादी को अलग होना पड़ता है।

इस प्रकरण को बेहद संजीदगी से रचा गया है। इसमें प्रह्लाद पाण्डेय का संवाद कि ‘कोई सोना देकर ईंट-पत्थर खरीदता है क्या अम्मां!’ गहन संवेदनात्मक और मानीखेज है। सोना अर्थात परिवार के सदस्य, अर्थात घर में रहने वाले मनुष्य। घर की अहमियत  उसमें रहने वाले सदस्यों के आपसी जुड़ाव से होता है। आज पैसे की अहमियत इंसान से ज्यादा हो गयी है। इंसान की कीमत पैसा, सम्पत्ति बनाने में कम होती जा रही है। प्रह्लाद के पास पैसा है, घर है, लेकिन उसमें वह अकेला है। प्रह्लाद मनुष्य की कीमत जानता है। वह अकेले होने के दंश को जानता है। इसलिए वह इस बात को समझता है। यह इस सीजन का सबसे मार्मिक प्रसंग है।

इसके बाद के प्रकरण में  फकौली विधायक और फुलेरा  गांव के बीच की तनातनी को किस्सा दर किस्सा आगे बढ़ाया गया है।

सहज प्रेम की अभिव्यक्ति 

इन्हीं सब के बीच प्रधान की बेटी रिंकी और सचिवजी के बीच एक अनकहा प्यार विकसित होता है। दोनों के बीच एक-दूसरे से मिलने के बहाने ढूंढना, साथ समय बिताने का क्षण खोजना इस प्यार को अभिव्यक्त करता है।

यह प्यार सतत साहचर्य से उत्पन्न होता है। इसमें धीरता है। प्यार का यह रूप बाजारवादी या उत्तर आधुनिक प्यार की अवधारणा से अलग है। इसमें लेन-देन नहीं है। इसमें आदिम प्रेम की एक अंतर्धारा है, जहाँ एक-दूसरे का साहचर्य, एक-दूसरे का आदर, एक-दूसरे की परवाह मुख्य होता है। कोई इसे लाभ-हानि के हिसाब या बाजारवादी प्यार का प्रत्याख्यान भी कह सकता है। रिंकी और सचिवजी के बीच ऐसा ही प्यार है।

रिंकी की दोस्त रवीना और उसका पति गणेश, यानी मेहमानजी इस प्रेम को आगे बढ़ने में सहायक बनते हैं। इन प्रसंगों को बहुत ही स्वाभाविक ढंग से बुना गया है। धीरे-धीरे और अनुकूल अवसरों के बीच रिंकी और सचिवजी के प्रेम को पलते हुए दिखाया गया है। चाय और टंकी का प्रसंग, फकौली बाजार जाने का प्रसंग, घोड़ा खरीदने जाने का प्रसंग और विकास की पत्नी को प्रेगनेंसी जांच के लिए लेकर जाने का प्रसंग ऐसे अवसर हैं।

बदलता ग्राम-जीवन और नास्टेल्जिया 

‘पंचायत’ श्रृंखला में ग्रामीण सामूहिक जीवन का एक महीन नास्टेल्जिया भी रचा गया है। गांवों का सामूहिक जीवन 1990 के बाद के बाजारवादी दबाव में प्रभावित हुआ है।

पैसों के दबाव ने रिश्तों को प्रभावित किया है। लेकिन पंचायत में जगमोहन और दादी का प्रसंग, प्रह्लाद और दादी का प्रसंग, विकास की पत्नी की प्रेग्नेंसी का प्रसंग, मेहमानजी के गाँव आने और उनके साथ गाँव के व्यवहार का प्रसंग ऐसे अवसर हैं, जिसमें पुराने सामाजिक रिश्ते अपनी पूरी संवेदना के साथ उपस्थित हैं। सचिवजी बाहर से आकर भी इन रिश्तों से गुंथ जाते हैं। वे गांव के साथ विधायक के खिलाफ खड़े हो जाते हैं।

गाँव-समाज की यही खासियत थी, जिसमें मानवीय रिश्ते सर्वोपरि होते थे। पंचायत श्रृंखला इस खासियत को उभारती है। यह बातें पूंजीवादी या बाजारवादी स्वार्थ पर टिके यांत्रिक रिश्तों के बीच रह रहे लोगों को जैसे उनके भीतर मौजूद स्वाभाविक मनुष्यता के सामने खड़ा कर देता है।

पंचायत बाकी हिन्दी वेब श्रृंखला से इस मायने में अलग है। उसकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी है!

पंचायत में चरित्रों को जिस सहज ढंग से कथा में प्रस्तुत किया गया है, उसे सारे कलाकार उतनी ही सहजता से अपने अभिनय द्वारा निभाये भी हैं।

दादी जिस ढंग से कहतीं हैं, कि ‘कुछ नहीं बस भीतर से मन अच्छा नहीं लग रहा’, तो दर्शकों को अपने आस-पास की कोई दादी याद आ जाती हैं।

प्रह्लाद चा जैसे हर दर्शक के अपने कोई प्रह्लाद चा हो गये हैं। अर्थात हर कलाकार अपने वेश-भूषा और अभिनय से दर्शकों को अपने साथ ले लेता है। दर्शक खुद को भी कथा में  वहीं कहीं खड़ा, बैठा, चलता हुआ महसूस करता है।

बद्तमीज विधायक और खुरपेंची बनराकस को देखकर बरबस चिढ़ पैदा हो जाती है। आठवें प्रकरण में जब सचिवजी बनराकस को तमाचा जड़ते हैं, दर्शक को बड़ा सुख मिलता है। जैसे कि वह खुद तमाचा मारने को बेताब रहा हो!

नीना गुप्ता और रघुवीर यादव जैसे दिग्गज कलाकारों के बीच जितेन्द्र कुमार, फैजल मलिक, पंकज झा, दुर्गेश कुमार, सान्विका, चंदन राॅय, अशोक पाठक, सुनीता रजवार, आसिफ आदि ने अपने अभिनय से पंचायत को सर्वाधिक पसंद की जाने वाली वेब श्रृंखला बना दिया है!

Fearlessly expressing peoples opinion