‘पंचायत’ अमेजन प्राइम वीडियो पर प्रदर्शित वेब श्रृंखला है। इसका दूसरा सीजन अभी जारी हुआ है। यह ओटीटी प्लेटफॉर्म पर सर्वाधिक पसंद की जाने वाली श्रृंखलाओं में से एक है। इसका पहला सीजन मई 2020 में आया था।
ओटीटी प्लेटफॉर्म पर ज्यादातर क्राइम सीरीज देखी जाती है और उसी की भरमार भी है। मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों पर हिन्दी में अभी कम ही वेब श्रृंखलाएं हैं। जिसे हम सामान्य सत्य से बना यथार्थ कहते हैं, वह अभी इस माध्यम में भी कम जगह पाता है।
सामान्य सत्य जब कहा जाता है, तो उसे तथ्य न समझ लेना चाहिए। तथ्य अनुपस्थित हो, तब भी सत्य मौजूद हो सकता है। ‘पंचायत’ सीरीज को इसी क्रम में देखना चाहिए। इसमें तथ्यों को खोजने की बजाय आज के सत्य को देखना चाहिए।
इस सीरीज को लेकर पंचायत सचिवों के बीच काम करने वाले एक अधिकारी ने बताया कि पंचायत सीरीज आते ही ब्लाॅक(खण्ड विकास परिसर) में धूम मच जाती है। बीडीओ-एडीओ से लेकर पंचायत सचिव और ग्राम प्रधान तक इसमें अपने को उपस्थित पाते से लगते हैं। उन्हें लगता है, कि यह तो उन्हीं का सच दिखाया गया है। तो, यह सच कैसे आमजन का भी सच हो जाता है!
यह जानने के लिए 1991 ई. के बाद भारत में स्वीकार की गयी और तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा डिजाइन आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद के संस्थागत बदलावों पर नजर दौड़ाना होगा। नाम से भले ही यह आर्थिक उदारीकरण था, लेकिन इसकी एक राजनीति और संस्कृति भी थी, जो साथ-साथ चलती है।
इन नीतियों के लागू होने के तुरंत बाद 1993 ई. में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के साथ नया पंचायती राज कानून बना। इस कानून को बनाने का मकसद यह बताया गया, कि इससे सत्ता का विकेन्द्रीकरण और स्थानीय स्वशासन की स्थापना होगी।
इस तरह पंचायत कानून के बाद सत्ता का संचालन दो से बढ़कर तीन शक्ति केन्द्रों में विभाजित हुआ। अर्थात, केन्द्र, राज्य और पंचायत। इसका मिशन एक सशक्त, योग्य और जिम्मेदार संस्था का निर्माण था, जो स्थानीय या पंचायत स्तर पर विकास को सुनिश्चित कर सके।
सामाजिक न्याय और प्रभावी सेवाओं की पहुंच को इस विकास के साथ नत्थी कर दिया गया। यह पंचायत संस्था की स्थापना का तथ्यात्मक पक्ष है। लेकिन क्या पंचायतों का सच भी यही है। तो, जवाब होगा, नहीं। तथ्य और सत्य के इसी अंतर्विरोध के बीच यथार्थ बनता है। ‘पंचायत’ वेब श्रृंखला इसी यथार्थ को उद्घाटित कर जाती है।
आम जन या गांवों, कस्बों, छोटे-मझोले बाजारों से जुड़े या इससे निकले युवा, मेट्रोपोलिटन शहरों तक की आबादी में बड़ी जगह घेरते हैं। इन सभी की स्मृति में गांव, कस्बे, बाजार हैं। हर सरकारी कार्य, परियोजना की पहली जगह पंचायत और विकास खण्ड ही होते हैं। इसलिए ज्यादातर आम जन इसकी कार्य-संस्कृति या कहा जाय कि इसके सच से वाकिफ हैं। यह दूर की चीज नहीं है, बल्कि बिलकुल आस-पास की जीवन-गति और स्थिति है।
उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद पूंजी व सत्ता के लोभ-लालच के तंत्र को नीचे तक ले जाने के लिए इन पंचायतों की भूमिका बदल गयी। लेकिन हकीकत में पंचायतों की क्या गति है, यथार्थ है, यह इस श्रृंखला में अभिव्यक्त होता है।
इस श्रृंखला में एक प्रकरण ‘औकात’ शीर्षक से है, जो इस यथार्थ को बखूबी बयान करता है। कहने को तो पंचायत सत्ता के विकेन्द्रीकरण के लक्ष्य से स्थापित है, लेकिन वास्तविकता में स्थानीय विधायक शक्ति और सत्ता का स्थानीय केन्द्र है। उसके लिए पंचायत, सचिव और प्रधान दो कौड़ी की औकात रखते हैं।
यह प्रकरण न सिर्फ पंचायतों के सन्दर्भ में, बल्कि इस देश के शासन-सत्ता की हकीकत के सन्दर्भ से भी बहुत मानीखेज है। कहने को तो इस देश में एक लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली है, लेकिन उसका व्यवहार राजतंत्रात्मक पूरी तरह से न सही, पर सामन्ती और वर्णवादी है। विधायक, अपने पद से अधिक अपनी जाति पर बार-बार जोर देता है। वह दम्भ से बोलता है, कि अब तू चन्द्र किशोर सिंह को समझाएगा।
अर्थात उसकी ताकत विधायक से अधिक, उसके ठाकुर होने में है। दूसरे, लोकतंत्र में समता, समानता एक बड़ा मूल्य है। यह सिर्फ कानून के सापेक्ष नहीं है, बल्कि व्यवहार और आपसी शिष्टाचार में इसका आशय है, सोपानों और स्तरों का खात्मा। प्रधान, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री एक-दूसरे से ऊंच-नीच या सोपानगत व्यवहार नहीं करेंगे, बल्कि बराबरी का व्यवहार करेंगे। इसी तरह का व्यवहार जिलाधिकारी और पंचायत सचिव तक के बीच भी होना चाहिए।
आजादी के समय यही लक्ष्य लिया गया था। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के द्वारा यह घोषित किया गया था। लेकिन हकीकत में हुआ यह कि विधायक मनसबदार बन गये और जिलाधिकारी नव सामंत या जमींदार हो गये।
गाँव-गिरांव के लोग तो दूर इनके एक सोपान नीचे के अधिकारी भी इनसे भय खाते हैं। इस तरह पंचायती राज के अंतर्गत लक्षित सत्ता का विकेन्द्रीकरण एक खोखला लोकतांत्रिक आदर्श ही साबित हुआ।
प्रधान, विधायक-सांसद के लिए वोट इकट्ठा करने की एक निचली मशीनरी में बदल गया। ‘पंचायत’ सीरीज में विधायक चन्द किशोर सिंह, प्रधान-पति बृज भूषण दूबे का जिस तरह इश्तेमाल करता है, वह इसी बात को दिखाता है।
इस माध्यम से विधायक के राजनीति चमकाने में अनजाने में पंचायत सचिव आ जाता है और विधायक बौखला जाता है। वह सचिव जी को अनाप-शनाप बकता है, गाली देता है।
विधायक जब पंचायत सचिव को गाली देता है, तो वह जैसे सत्ता में बैठे शक्तिशाली लोगों द्वारा आम जन को दी गयी गाली लगती है। दर्शक खुद को अपमानित महसूस करने लगते हैं।
विधायक का व्यवहार सिर्फ सचिव को चोट नहीं पहुंचाता, दर्शकों को भी पहुंचाता है। इसे आखिरी प्रकरण में भी देखा जा सकता है, जब ग्राम-पंचायत की औरतें, पंचायत की प्रधान मंजू देवी और रिंकी, विधायक को गांव में घुसने नहीं देते, तो दर्शक एक सूकून और सुख का अनुभव करता है।
सत्ता और आम जन के बीच इतनी दूरी, इतनी फांक भारत में स्वीकार किये गये लोकतंत्र की कमी, खोखलेपन को जाहिर कर देता है।
इस प्रकरण से ‘पंचायत’ श्रृंखला का मूल मर्म भी सामने आता है। यही वह मर्म है, जो इसे सर्वाधिक पसंदीदा वेब सीरीज बनाता है। वह है, पूंजी और सत्ता के मद, दंभ, झूठ, पाखण्ड, शक्ति और विषमता तथा मनुष्य-विरोधी आचरण के बरक्स सरलता, साधारणता, इमानदारी, सादगी, सच्चापन, करुणा, प्रेम जैसे भावों, सद्गुणों और अपार मनुष्यता का व्यवहार।
याद रखना चाहिए कि यह पूंजी ही है, जिसने 1990 के बाद सत्ता और शासन में बैठे लोगों को बेलगाम ताकत दी है। मनुष्यहीनता को पूंजी ने ही सत्ता का एक मूल्य बना दिया है। विधायक चन्द्र किशोर सिंह इन मूल्यों का प्रतिनिधि है।
इसके विपरीत मानवीय मूल्यों को धारण करता है, पंचायत सचिव अभिषेक त्रिपाठी। वह सर्वाधिक तनाव, खीज के बीच भी इसे छोड़ता नहीं। डांसर लड़की का प्रकरण हो, शराब पिये ड्राइवर का प्रकरण हो, बकरी वाला प्रकरण हो, शौचालय लगवाने वाला प्रकरण हो या विधायक को अखण्ड रामायण-पाठ में न्यौता देने वाला प्रकरण हो, सभी में सचिव जी की आदमियत का ऐसा रूप प्रदर्शित होता है कि दर्शक उस चरित्र से बरबस प्यार और लगाव बना बैठता है।
पंचायत सचिव का चरित्र, मनुष्यता में विश्वास को ऊंचा उठाता है। इस चरित्र को निर्देशक ने जिस तरह गढ़ा है और अभिनेता जितेन्द्र कुमार ने जो जिया है, वह तमाम विपरीत समय व परिस्थितियों के बीच मानवीय भावों और सद्गुणों में मनुष्य की आस्था को मजबूत करता है।
किसी भी कला, साहित्य का यही तो सबसे ऊंचा आदर्श है। पंचायत श्रृंखला ऐसा ही कला-उत्पाद है। कोई उसे बेहतरीन साहित्य कहना चाहे, तो कह सकता है।
पूंजी का अदृश्य जाल और उलझा युवा
पंचायत श्रृंखला में एक अन्य अंतर्कथा चलती है, जो पूंजी के रचे भ्रम-जाल और उसमें उलझे युवाओं से जुड़ी है।
आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद 1995 ई. में एक फिल्म आयी ‘हम आपके हैं कौन’। इसमें नायक सलमान खान कहता है कि वह एमबीए की पढ़ाई कर रहा है। वह व्यावसायिक वर्ग से आता है, जिसके अनुकूल है एमबीए की शिक्षा। लेकिन उस फिल्म में एमबीए की पढ़ाई को ऐसी शिक्षा के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिससे सुख-सुविधा पूर्ण, लक्जरी का जीवन जीने का अवसर मिलेगा।
जबकि ठीक 1990 से पहले आयी राजश्री की ही फ़िल्म ‘मैंने प्यार किया’ में नायक बना सलमान खान मजदूर बनता है, जबकि वहां भी वह व्यवसायी परिवार से ही आता है।
लेकिन तब तक पूंजी की निर्णायक भूमिका भारत के समाज में नहीं बनी थी। पूंजी समाज और जीवन का निर्धारण करने की स्थिति में नहीं थी। तब तक जीवन का लक्ष्य श्रम और सम्मान था, सुख-सुविधा या लक्जरी नहीं।
इसलिए सलमान खान वहाँ मजदूर बनता है। इसमें एक पिछड़े हुए समाज का आदर्श भी है कि पुरुष ही कमाएगा। खैर, यह एक दूसरी बहस है। लेकिन इन दोनों फिल्म को उदारीकरण की नीतियों के सन्दर्भ में देखने की जरूरत यहाँ इसलिए पड़ी की पंचायत श्रृंखला का एक सम्बन्ध उससे है।
1995 तक आते-आते इंजीनियरिंग की जगह एमबीए का सपना लिए युवाओं की पीढ़ी ने दस्तक देना शुरू किया। अभिषेक त्रिपाठी भी बी.टेक करने के बाद एमबीए की तैयारी करता है।
नौकरी पेशा मध्यवर्ग और खेती से जुड़े निम्न मध्यवर्ग के बीच एमबीए का सपना मुख्य होने लगा। पूंजी ने ऐसा भव्य आकर्षण रचा कि युवा, फतिंगे की भांति इसकी चमक की तरफ दौड़ पड़े।
लेकिन 2012 तक आते-आते यह चमक फीकी हो गयी। करोड़ों का पैकेज निम्न मध्यवर्ग के युवाओं के लिए एक भ्रम साबित हुआ। बी.टेक और एमबीए किये युवाओं की बड़ी संख्या काल सेंटरों से लेकर सफाई कर्मचारी तक के लिए आवेदन करने लगी।
पंचायत का नायक अभिषेक त्रिपाठी बी.टेक करने के बाद पंचायत सचिव बनता है और बीस हजार वेतन पाता है, जिस पर बलिया शहर से आया शराब पिया हुआ ड्राइवर तंज करता है कि जब शादी होगी और बीस हजार में घर का खर्च चलाना होगा तो आप भी शराबी हो जाएंगे।
अभिषेक त्रिपाठी का क्लासमेट सिद्धार्थ गुप्ता अमरीका से वापस आकर गुड़गांव में सवा करोड़ के वार्षिक पैकेज पर नौकरी करता है। वह गुप्ता है। अर्थात व्यवसाय से जुड़ी जाति, जबकि अभिषेक त्रिपाठी ब्राह्मण जाति से आता है, जो सरकारी नौकरियों से जुड़ी जाति है।
अभिषेक त्रिपाठी के भीतर वह निश्चिंतता और सुरक्षा बोध नहीं है, जो उसके मित्र में है। आर्थिक उदारीकरण ने सरकारी नौकरियों को खत्म कर दिया। अभिषेक त्रिपाठी को ऊंचा पैकेज नहीं मिला तो लौटकर अपने किसी पैतृक व्यवसाय में लग जाने का विकल्प उसके पास नहीं है।
यह असुरक्षा बोध अभिषेक के साथ लगा रहता है लगातार। और यह असुरक्षा बोध पूंजी द्वारा रचित है। पूंजी रचित समाज में मुट्ठी भर लोगों के पास सब कुछ होता है और शेष आबादी को उसे पा लेने के भ्रम-जाल में रखा जाता है। झूठे सपने का जाल।
पंचायत श्रृंखला की कथा में यह जाल, तनाव सृजित करता रहता है। यह यथार्थ है। मध्यवर्गीय जीवन तो इस तनाव से भरा हुआ है। सचिव जी यानी अभिषेक त्रिपाठी ऐसे ही तनाव ग्रस्त युवा का भी प्रतीक है।
थामस एडोर्नो अपनी पुस्तक ‘संस्कृति उद्योग’ में लिखता है, कि पूंजी की संस्कृति अदृश्य होती है पर वह आपके पूरे दिमाग को बदल रही होती है। यह पूछे जाने पर कि कैसे, तो एडोर्नो जवाब देता है, कि विज्ञापन से। वह कहता है, कि विज्ञापन, सिर्फ विज्ञापन नहीं है, बल्कि वह पूंजीवादी कला उत्पाद है। वह पूंजी की संस्कृति का निर्माण करता है। और पूंजी की यह संस्कृति है, झूठ, लोभ-लाभ, लालच और अंधी प्रतिस्पर्धा से बना भ्रम-लोक।
प्रेम और रोमान
सचिव जी यानी अभिषेक त्रिपाठी और रिंकी के बीच के रिश्ते पर कानाफूसी से पंचायत की पहली कड़ी प्रारम्भ होती है। कार्यालय सहायक विकास और उप प्रधान प्रह्लाद पाण्डेय के बीच इसे लेकर बातचीत से दर्शकों के भीतर भी एक जिज्ञासा जन्म लेती है।
यह जिज्ञासा पंचायत के पहले अंक की आखिरी कड़ी के अंतिम दृश्य में ही जन्म ले ली थी, जब सचिव जी और रिंकी का पहली बार आमना-सामना होता है। पंचायत का दूसरा अंक वहीं से शुरू होता है।
इसके बाद दोनों जब भी एक-दूसरे के आमने-सामने होते हैं तो शर्म, संकोच, लिहाज दोनों में उत्पन्न होता है। यह क्रमशः विकसित होता हुए एक-दूसरे को लेकर प्रकट होने वाली चिन्ता-परवाह तक पहुंचता है। यह प्रेम के ही अंतर्गत आता है या प्रेम की ही एक अवस्था मानी जाती है।
इस अवस्था को निर्देशक दीपक कुमार मिश्र ने बहुत कुशलता से बुना है। प्रेम की शास्त्रीय अवधारणा में देखने और स्पर्श को सबसे सघन अनुभूतिपरक माना गया है। साहित्य और कला में इन दो क्रियाओं से जुड़ी अनुभूति को अधिक महत्व दिया गया है।
राधा और कृष्ण की प्रेम-गाथा की लोकप्रियता का यह एक महत्वपूर्ण तत्व है। इसे अकथनीय भी कहा जाता है। सचिव जी और रिंकी के बीच यही अकथनीय प्रेम है। इन दोनों के बीच के रिश्ते को देखा और महसूस तो किया जा सकता है, कि इनके बीच एक-दूसरे को लेकर कोई कोमल कोना है, लेकिन उसे कहा नहीं जा सकता कि यह क्या है!
इसे इतनी खूबसूरती से पिरोया गया है कि दर्शक भी अपने भीतर एक अबोली सी गुदगुदी महसूस करता है।
पंचायत-2 में कुछ बातें नाॅस्टेल्जिक भी हैं। जैसे प्रधान जी के घर पर इनवर्टर अभी नहीं पहुंचा है। बिजली जाने पर लालटेन जलायी जाती है। सचिव जी पंचायत कार्यालय में मोमबत्ती जलाते हैं।
दरअसल, कुछ चीजें हमारी स्मृतियों में इस तरह से मौजूद होती हैं, कि वह विकास की अवस्था में पीछे छूट जाने के बाद भी बनी रहती हैं। लालटेन उसी में से एक है। लालटेन प्रकाश का स्रोत है। प्रकाश से जुड़ी कोई भी चीज मनुष्य की आदिम स्मृति का हिस्सा है। उसके मस्तिष्क में अभी भी वह है।
अभी भी शाम को उत्तर प्रदेश में कई जगहों पर शाम को छोटी सी दियाली में तेल-बाती जलाकर घरों के बाहर रखा जाता है। बिजली का प्रकाश होने के बावजूद।
यह भले ही धार्मिक विश्वास में बदल गया हो पर है वह प्रकाश को लेकर मनुष्य की आदिम स्मृति का हिस्सा। लालटेन तो अभी बहुत हाल की स्मृति है। दूसरे, गायब होती हुई ढेर सारी चीजों को लेकर एक नास्टेल्जिया होता है।
और ऐसी गायब हुईं चीजें कला और साहित्य में ही तो जगह पाती हैं। यह मनुष्य की रचना और सर्जना की जगह है, जहाँ इन चीजों की दखल बनी रहेगी।
‘पंचायत’-2 में भी कुल आठ कड़ियां या प्रकरण हैं। जो, नाच, बोलचाल बंद, क्रांति, टेंशन, जैसे को तैसा, औकात, दोस्त-यार तथा परिवार जैसे शीर्षकों से हैं। पटकथा चन्दन कुमार ने लिखी है।
अभिनय में जितेन्द्र कुमार ने नीना गुप्ता और रघुवीर यादव जैसे दिग्गज अभिनेताओं के बीच अपने शांत लेकिन तीक्ष्ण चेहरे के भावाभिव्यक्ति या भाव-प्रदर्शन से अपना सिक्का जमाया है। चंदन राॅय और फैजल मलिक के क्या ही कहने। सान्विका ने कम बोल कर भी अपनी गहरी छाप छोड़ी है।
फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार