समकालीन जनमत
जनमत

आतंकवाद का अमानवीय चेहरा और युद्ध की चीख-पुकार

जयप्रकाश नारायण 

पहलगाम की बैसरन घाटी में आतंकवादियों के कायराना हमले में 26 पर्यटकों की हत्या की पृष्ठभूमि में भारतीय उपमहाद्वीप में युद्ध के घने बादल मंडराने लगे हैं। युद्ध का कर्कश स्वर भारत से  ही उठ रहा है। आम भारतीय नागरिक की धारणा है कि आतंकी हमला  पाकिस्तान  प्रशिक्षित आतंकवादियों द्वारा किया गया‌‌ है। इसलिए भारत सरकार आतंकी हमले के विरोध में पाकिस्तान के खिलाफ कूटनीतिक और आर्थिक करवाई कर रही है। इसमें पाकिस्तानी नागरिकों को भारत से वापस भेजना, पाकिस्तानी दूतावास  की शक्तियों को कम करना , भूमि मार्ग से पाकिस्तान को जाने वाले सभी रास्तों को बंद करना और सिंधु जल नदी समझौते को निरस्त करने जैसे फैसले हैं।

युद्धोन्माद

पहलगाम में आतंकी हमले के साथ ही भाजपा-आरएसएस के कार्यकर्ताओं, संगठनों और सरकार पोषित मीडिया द्वारा युद्धोन्माद का वातावरण बनाए जाने लगा। चारों तरफ से मारो मारो, पाकिस्तान को मिट्टी में मिला दो, टुकड़े टुकड़े कर दो, बदला लो, एक सर के बदले सौ सर जैसी आवाज आ रही हैं और देश के अंदर इस्लामोफोबिया का बुखार चढ़ने लगा है। जिससे कई प्रदेशों में आम मुसलमानों पर हिंदूत्ववादी संगठनों द्वारा हमले भी हुए हैं।

जब युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद उफान पर हो  तो युद्ध जैसे कार्रवाई के औचित्य पर चर्चा करना थोड़ा कठिन  होता है। फिर भी शांति के लिए बातचीत तथा कूटनीतिक तरीके से समस्या के समाधान की दिशा में प्रयास करना ऐसे  समय में ज्यादा जरूरी हो जाता है।

मोदी सरकार की नीति

आरएसएस-भाजपा का  राजनीतिक-कूटनीतिक शामियाना पाकिस्तान-इस्लाम विरोध पर ही खड़ा है। दूसरी  तरह पाकिस्तान की राष्ट्रीय एकता और कूटनीति की दिशा की बुनियाद भारत विरोध पर  टिकी है। इसलिए दोनों देश में शासकों के लिए टकराव हर समय फायदेमंद रहा है। यही कारण है कि जब दोनों देश में सरकारें संकटग्रस्त होती हैं तो नफरत का बाजार और कारोबार तेजी से बढ़ता है। पहलगाम हमले के बाद भी यही देखने को मिल रहा है।

भारत के प्रधानमंत्री पहलगाम आतंकी हमले के बाद सऊदी अरब की यात्रा छोड़कर तुरंत भारत लौट आए। लेकिन उन्हें पीड़ितों से मिलने की जगह बिहार पहुंचकर चुनावी सभा में गर्जना ज्यादा फायदेमंद लगा। उन्माद चाहे राष्ट्रवादी हो या सांप्रदायिक हर समय सत्ताधारियों को मदद देता रहा है और लोकतांत्रिक संस्थाओं, व्यवहारों, विचारों, प्रक्रियाओं को  कमजोर करता  है। पहलगाम की घटना के बाद जहां सरकार को इन आवाजों को सुनना चाहिए  और उनकी शंका का निवारण करना चाहिए था, वहां देश के अंदर लोकतांत्रिक व्यक्तियों, सवाल पूछने वाले लेखकों, गायकों,  कलाकारों, शिक्षकों, पत्रकारों के खिलाफ  देशद्रोह के मुकदमे दर्ज हो रहे हैं । जबकि सच्चाई यह है कि अभी तक आतंकवादियों की ठोस पहचान तक नहीं की जा सकी है।

वर्तमान दौर में युद्ध

21वीं सदी के युद्ध मध्य कालीन  युग की लड़ाई नहीं है। न औपनिवेशिक काल का स्वतंत्रता संघर्ष है । वे पूंजीवादी  सभ्यता के प्रारंभिक काल के युद्ध भी नहीं हैं। उनका चरित्र बुनियादी रूप से बदल गया है। इसे इस दौर के दो युद्धों से समझा जा सकता है।

फिलिस्तीन-इजरायली युद्ध

पिछले अनेक वर्षों का अनुभव बता रहा है कि  शुरू होने के बाद युद्ध का कोई अंत नहीं होता। हमास द्वारा इजराइल में घुस कर किये गए आतंकी हमले के बाद इजरायल द्वारा हमास के विरुद्ध शुरू किया गया युद्ध का अंत‌ 2 साल बीत जाने के बाद भी दिखाई नहीं दे रहा। जबकि यह पूर्णतया दो असमान शक्तियों के बीच का युद्ध है। फिलिस्तीनी लुटे-पिटे, उत्पीड़ित, बेघर, बेरोजगार, बिना व्यापार,  कारोबार वाले राष्ट्र-राज्य विहीन समूह हैं, जो विश्व में बिना किसी सरकार के समर्थन के‌ अकेले दम सिर्फ साहस और इंसानी जिजीविषा के बल पर लड़ रहे हैं। जिनके पास न नियमित सेना है, न गोला बारूद की फैक्ट्री। न लड़ाकू विमान न परमाणु बम, मिसाइल कुछ भी नहीं है। वे महाबली अमेरिका द्वारा पालित-पोषित यूरोपीय यूनियन के अधिकांश देशों द्वारा समर्थित आधुनिक हथियारों और  सैन्य-शक्ति, सुरक्षा प्रणाली,  उन्नत तकनीक  व दुनिया की कुख्यात मोसाद जैसी जासूसी संस्था वाले देश  इजरायल  से लड़ रहे हैं। लाखों नागरिकों  की मौत,  अस्पताल, विद्यालय, सड़क, आवासीय भवनों  के मलवे में बदल जाने के बावजूद (प्रत्यक्षतः सरकार विहीन ) सिर्फ मनुष्य की स्वतंत्रता और पहचान बचाए रखने की जिजीविषा के बल पर इजरायल की अजेय कहे जाने वाली सरकार को संकट में डाल दिए हैं। मानव इतिहास के  क्रूरतम जनसंहार (जहां करीब 45 हजार से ज्यादा अबोध बच्चे और महिलाएं मारी जा चुकी हैं और एक लाख से ज्यादा नगरिक या तो घायल हैं या तो मारे गए हैं) के बाद भी इजरायल फिलिस्तीनियों का समर्पण नहीं करा सका और न ही गाजा से बेदखल कर सका है। यही नहीं,  इजरायली अपने बंधकों को  नहीं छुड़ा सके हैं। आज भी युद्ध जारी है। ट्रंप के धौंस-धमकी और गाजा को फिलिस्तीनियों से खाली करा देने के ऐलान के बाद भी फिलिस्तीनी साहस के साथ डटे हैं।  आज का युद्ध  बड़ी से बड़ी संगठित ताकत की इच्छा पर नहीं चलता।

रूस-यूक्रेन युद्ध

जब पुतिन शासित रसिया ने यूक्रेन पर हमला किया था तो विश्लेषकों की राय थी कि तीन दिन में रसिया यूक्रेन को फतेह कर लेगा। और युक्रेनी घुटने टेक देंगे। कुछ विश्लेषक ज्यादा से ज्यादा रूस की विजय के लिए एक हफ्ते का समय दे रहे थे । लेकिन  3 साल होने जा रहा है और यूक्रेन को रुस हरा नहीं सका। परमाणु हथियारों का जखीरा लिए महाबली रसिया‌ में तानाशाह पुतिन के नेतृत्व के बावजूद रूस यूक्रेनी जनता के एकजुट प्रतिरोध और यूक्रेनी राष्ट्रवाद के समक्ष लहूलुहान हो छटपटा रहा है। आज  पुतिन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के सहयोग से सम्मान जनक समझौता के लिए जुगत भिड़ा रहे हैं। पुतिन के मित्र ट्रंप  के बार-बार दबाव देने के बावजूद यूक्रेन तन कर खड़ा है। ट्रंप की धमकी कि ‘अगर हम समर्थन खींच लेंगे तो आप एक दिन भी नहीं टिक पाएंगे’ के बाद भी राष्ट्रपति जेलिंस्की  ने अपमानजनक शर्तें स्वीकार नहीं की। युद्ध के शुरुआत में कहा जा रहा था कि जेलिंस्की अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की कठपुतली हैं। वह उनके इशारे पर नाचने के लिए बाध्य हैं। लेकिन यूक्रेन का अपने देश को बचाने के लिए डटे रहना इस यथार्थ  को दर्शाता है कि कमजोर से कमजोर देश को भी आज के दौर में न झुकाया जा सकता है,  न समर्पण कराया जा सकता है।

हाल में ही अमेरिका को ‌अफगानिस्तान, इराक जैसे देशों में दशकों तक युद्ध  चलाने बाद पीछे हटना पड़ा है।  जब कि‌ ये दोनों देश पिछड़े और अविकसित देशों की श्रेणी में आते हैं।

वर्तमान वैश्विक स्थिति

अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद विश्व में उथल-पुथल मची  है। ट्रंप के टैरिफ वार ने डॉलर कंट्रोल्ड दुनिया  में आर्थिक  हाहाकार मचा रखा है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। ट्रंप ने मोदी के सामने ही  जिस तरह  से भारत की लानत-मलानत की वह अपने में ही एक खराब अनुभव है। भारत द्वारा बार-बार अमेरिकी मालों पर टैरिफ घटाए जाने के बावजूद अमेरिका भारत पर दबाव बढ़ा  रहा है और भारत को अमेरिका के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट पर वार्ता  करनी पड़ रही है। वार्ता अभी भी जारी है। जिस तरह से भारत अमेरिका के दबाव के सामने झुका है, उससे भारत की साख को धक्का लगा है।

वहीं चीन सहित यूरोपीय यूनियन और कनाडा तक ने अमेरिका के सामने किसी भी तरह से झुकने  से इनकार कर दिया है। यही नहीं जवाबी कार्रवाई करके चीन ने अमेरिका की हेकड़ी निकाल दी है । इस ट्रेड वॉर में चीन एक महाशक्ति के रूप में उभरा है और उसने अपनी छिपी तकनीकी सामरिक आर्थिक ताकत का एहसास विश्व को करा दिया है। जिस कारण अमेरिका और अमेरिकी डॉलर की बादशाहत खतरे में पड़ गई है।

बदलते वैश्विक समीकरण

इस समय दुनिया में आर्थिक युद्ध चल रहा है। जो देश परंपरागत सामरिक रणनीति पर अमल करने की अभी भी कोशिश कर रहे हैं, वे वस्तुतः दुनिया के सामरिक और आर्थिक विकास की गति और विश्व में हुए तकनीकी विकास( जैसे सेटेलाइट  आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस डाटा और सूचना की ताकत) को नहीं समझ रहे हैं। अब युद्ध जमीन पर जितना लड़ा जाएगा, उससे ज्यादा एआई, सैटेलाइट, कंप्यूटर चिप के साथ डॉलर, युवान, येन, यूरो‌ जैसी मुद्राओं द्वारा भी लड़ा जाना है। पिछले 25-30 वर्षों में दुनिया में हुए तकनीकी और आर्थिक विकास ने सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका के नेतृत्व में बने एकध्रुवीय दुनिया के शक्ति संतुलन को बदल दिया है। इस समय रुस और यूरोपीय यूनियन निर्णायक वैश्विक शक्ति नहीं रहे। पुतिन द्वारा खड़ा किया गया महाशक्ति का आडंबर यूक्रेन से युद्ध में फंस कर  ध्वस्त हो चुका है। साथ ही यूरोपीय यूनियन भी बड़ी आर्थिक ताकत नहीं रही।

एलपीजी( निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण) के बाद विश्व में हुए बदलाव- अत्यधिक मुनाफे की चाह लिए सस्ते श्रम की तलाश में वित्तीय पूंजी ने  चीन सहित अन्य एशियाई  अफ्रीकी देशों की तरफ दौड़ लगाई। जिस कारण चीन वियतनाम बांग्लादेश आदि में भारी विदेशी पूंजी  निवेश हुआ। उस समय विश्व के राजनीतिक कूटनीतिक हल्के में यह बहस थी कि चीन ने विश्व पूंजीवाद के सामने आत्मसमर्पण कर दिया‌ है। लेकिन चीन ने दृढ़ इच्छा शक्ति और राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखते हुए श्रम शक्ति के सही नियोजन और संसाधनों के उचित प्रयोग के द्वारा एक बड़ी आर्थिक क्रांति कर डाली । यह इस बात को दिखाता है कि जन सरोकार वाली सरकार देश की डेमोग्राफिक डिविडेंड का सही दिशा में इस्तेमाल करते हुए एक आर्थिक महाशक्ति बन सकती है। आज चीन  दुनिया के आर्थिक और सामरिक शक्ति संतुलन को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

ऐसा लगता है कि यूरोप के विकास की गति (सामाजिक सूचकांक को छोड़कर)आर्थिक और सामरिक क्षेत्र में सेचुरेशन तक पहुंच चुकी है। इसलिए  चीन का  एक बड़े आर्थिक सामरिक और तकनीकी रूप से उन्नत देश के रूप में तेज गति से उभरना वैश्विक युग परिवर्तन  का संकेत दे रहा है। जिस तरह से 18 वीं और 19वीं सदी ब्रिटेन और यूरोप के नाम थी और 20 वीं सदी में अमेरिका का एक छत्र वर्चस्व रहा है। लगता है 21वीं सदी चीन के नेतृत्व में एशिया और अफ्रीका की सदी बनने जा रही है। साथ ही दक्षिण पूर्वी एशिया  में वियतनाम, लाओस, कंबोडिया से लेकर बांग्लादेश तक नया आर्थिक जोन  उभर रहा है। इसलिए विदेशी  पूंजी इस  नए उभरते इकनॉमिक जोन की ओर भाग रही है। कहने का अर्थ यह है कि दुनिया में वर्चस्व की जंग पुराने तरह के हथियारों की जंग की बजाय माल, उत्पादन, व्यापार और तकनीकी क्रांति के द्वारा लड़ी जा रही है। इसलिए ऐसा लगता है कि वर्चस्व की लड़ाई अब युद्ध के मैदान की जगह व्यापार के क्षेत्र में लड़ी जाएंगी। इस यथार्थ को समय रहते सभी देशों को समझना होगा।

भारतीय उपमहाद्वीप

ऐसा लगता है कि साम्राज्यवादी ताकतें यूरेशिया ( यानी यूक्रेन और रसिया) और स्वेज नहर गोलन हाईट‌ की पहाड़ियों (पवित्र यूरोसलम) के साथ-साथ सिंधु घाटी के क्षेत्र में नया जंग का मोर्चा खोलना चाहतीं हैं। बलूच व पश्तो इलाके  से लेकर कश्मीर तक किसी न किसी कारण  पाक और भारत में अशांत क्षेत्र बने हुए  है। पाकिस्तान की आर्थिक राजधानी कराची सहित लाहौर, पेशावर, रावलपिंडी, क्वेटा तक में आतंकवादी घटनाएं आए दिन होती रहती हैं। जिसमें बड़ी संख्या में पाकिस्तानी नागरिक मारे जाते हैं। इसलिए कई विश्लेषक पाकिस्तान को अस्थिर राष्ट्र की श्रेणी में रखते हैं। पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें  बहुत कमजोर हैं और सत्ता पर सैन्य जुंटा की‌ मजबूत पकड़ है। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की‌ आईएसआई और सेना पर अमेरिकी सीआईए और औद्योगिक सैन्य काम्प्लेक्स का कब्जा है। इसलिए पाकिस्तान में किसी भी तरह का भू राजनीतिक बदलाव अमेरिका की रणनीतिक योजना के बिना संभव नहीं है।

पाकिस्तान के बदलते रिश्ते

दूसरी तरफ चीन ने पाकिस्तान पर मजबूत पकड़ बना ली है। सिल्क एंड  बेल्ट रोड की परियोजना के तहत पश्चिम एशिया में प्रवेश के लिए पाकिस्तान चीन का प्रवेश द्वार है। पीओके से होकर गुजरने वाली  महत्वाकांक्षी चीनी योजना चीनी व्यापार के विस्तार की पहली कड़ी है। क्वेटा से कराची तक पाकिस्तान में चीनी मजदूर इंजीनियर और रणनीतिकार भरे हुए हैं। पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान यूरोप और अमेरिका की जगह सेना के आधुनिकरण और साजो समान की जरूरत के लिए चीन की तरफ झुकता चला गया है। इसलिए पाक के खिलाफ किसी भी कार्रवाई के लिए हमें इस बदलाव को ध्यान में रखना होगा।

चीन विरोधी माहौल

भारत में इस समय चीन विरोधी माहौल  है । गलवान की घटना के बाद मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियां और  मीडिया चीन को शत्रु राष्ट्र के बतौर  संबोधित करते हैं। हालांकि  मोदी सरकार ने गलवान‌ की घटना के बाद संयम से काम लिया । (इसका कारण विदेश मंत्री एस जयशंकर ने  चीन को बड़ी आर्थिक सैनिक ताकत होना बताया था)।जिसके लिए मोदी सरकार की लानत-मलानत होती रहती है।

वैसे चीन की अभी तक नीति रही है कि वह  किसी भी इलाके में  चलने वाले युद्ध में प्रत्यक्ष तौर पर हस्तक्षेप नहीं करना है। लेकिन वर्तमान तनाव को देखते हुए चीनी राष्ट्रपति द्वारा पाकिस्तान की संप्रभुता के पक्ष में प्रतिबद्धता दिखाना भारत के लिये एक संदेश है।

भारत के पड़ोसी मुल्क

अगर हम कुछ समय के लिए पाकिस्तान और चीन की बात छोड़ भी दें तो वर्षों से भारत के अभिन्न सहयोगी रहे बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान और मालदीव में भारत विरोधी वातावरण बन गया है। दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी मोदी सरकार के कारण इन देशों में भारत को लेकर शंकाएं जन्म ली हैं। इस समय पड़ोसी देशों के साथ हमारे संबंधों में वह गर्मी नहीं है जो इसके पहले देखी जाती थी। बांग्लादेश के साथ हमारे संबंध बांग्लादेश के जन्म काल के बाद से सबसे खराब स्थिति में है। श्रीलंका पर दबाव डालकर मोदी सरकार ने जिस तरह से अडानी के लिए व्यापारिक सुविधाएं हासिल की । इसने श्रीलंकाई राष्ट्रवाद को भारत विरोधी आयाम दे दिया । हालांकि समझदारी दिखाते हुए श्रीलंका के वामपंथी राष्ट्रपति अनुरा दिशानायके ने संबंधों को थोड़ा सामान्य बनाने की कोशिश की है।

वहीं दूसरी तरफ भारत का स्वाभाविक पड़ोसी नेपाल में दक्षिणपंथी राजशाही के पक्ष में चल रहे आंदोलन में उस समय नया मोड़ आ गया, जब प्रदर्शनकारियों ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की तस्वीर लहराई। जिसे नेपाल के आंतरिक मामलों में भारत के हस्तक्षेप के बतौर  देखा गया । जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप नेपाल  चीन के और ज्यादा करीब चला गया है। मालदीव  के साथ मोदी सरकार ने जो नीति अख्तियार की उसने मालदीव को चीन के पाले में जाने में मदद पहुंचाई।

भाजपा की पड़ोसी देशों के साथ नीति

मोदी चाहे बड़े पड़ोसी फर्स्ट की बात करें लेकिन संघ मार्का हिंदुत्व  की अखंड भारत की लफ्फाजी ने नेपाल सहित सभी पड़ोसी देशों को भारत के खिलाफ खड़ा कर दिया है। जिससे चीन को इन देशों में  पकड़ बनाने में मदद मिली है। चीन ने  व्यापार द्वारा अपने संबंधों के विस्तार की जो दिशा ली है, वह हमारे देश के लिए एक नई चुनौती है।

भारत चीन व्यापार

सीमा पर आपसी तनाव के बावजूद  भारत और चीन के बीच में पिछले  दशक में व्यापार बढ़ता  गया है। जो लगभग 1 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर के करीब है। जिसमें भारत का व्यापार घाटा 90 बिलियन डॉलर के ऊपर है।( 2024 -25 में 113. 01 डालर के सामान का भारत ने आयात किया और 13.5 डालर के आसपास से चीन को निर्यात किया)।

कश्मीर में इनसरजेंसी

एक बात ध्यान देने की है कि कश्मीर में अशांति पिछले 35 वर्षों से जारी है। इसकी शुरुआत बीपी सिंह सरकार के समय  हुई। जब भाजपा नेता जगमोहन कश्मीर के राज्यपाल थे। उस समय कश्मीर घाटी में आतंकवादी घटनाओं की बाढ़ सी आ गई । जगमोहन द्वारा कश्मीर में ली गई आबादी के सेपरेशन की नीति के खतरनाक‌ परिणाम निकले। जिससे कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ।

यही वह दौर है जब भारत में दक्षिणपंथी हिंदुत्व तूफान की तरह  आगे बढ़ रहा था । उस समय सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया दक्षिण पंथ की तरफ मुड़ गई थी।  इसी समय भारत के अन्य इलाकों में भी आतंकवादी गतिविधियों  होने लगीं। जिसमें मुंबई दंगे और बाद में हुए के बम ब्लास्ट में भारी जान माल का नुकसान हुआ । इन सब घटनाओं ने  शेष भारत सहित कश्मीर में भी एक तबके में अलगाव को जन्म दिया । (आतंकवाद शून्य में नहीं पैदा होता। समाज में बढ़ रहे अलगाव  तनाव और असुरक्षा बोध में ही इसके जन्म की परिस्थितियों तैयार होती हैं।)

हिंदुत्व का  राज्य के बतौर संगठित होना

आग,  खून, हिंसा, बारूद, बम और नफ़रत के बीच से हिंदुत्व भारत में शासक वर्ग के रूप में संगठित हुआ है और सत्ता पर पहुंचने में कामयाब  हुआ। 2014 के बाद मोदी के नेतृत्व में स्थायित्व  ग्रहण कर लिया और पिछले 11 वर्षों से केंद्रीय सत्ता के साथ-साथ अधिकांश राज्यों में सरकारें चला रहा है। आज कॉरपोरेट-हिंदुत्व गडजोड़ भारत की वास्तविकता है और इसके परिणाम आने लगे हैं।

कश्मीर और  संघ नीत सरकार

मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी सहित जम्मू और कश्मीर इलाका शुरू से ही हिंदुत्व की नफरत की राजनीति का  हाट केक रहा है। 1950 के बाद से ही संघ कश्मीर के सभी संकट और त्रासदी के लिए धारा 370 को जिम्मेदार मानता रहा है। धारा 370 और 35 ए हटे हुए लगभग 6 साल होने वाले हैं। इस बीच कश्मीर में कई तरह के परिवर्तन और उतार-चढ़ाव देखे गए । 370 हटाने और कश्मीर के राज्य का दर्जा छीन लेने के बाद भाजपा कश्मीर में आतंकवाद के खात्मे का ऐलान करने लगी और शांति का श्रेय  मोदी की नीतियों को देने लगी थी । इस अप्रैल के शुरुआत में  गृहमंत्री अमित शाह   श्रीनगर गये थे और वहां जाकर आतंकवाद का कमर तोड़ देने का दावा कर आए थे।

अचानक पासा पलट गया

सरकारी और भाजपाई दावे प्रति दावे के बाद 22 अप्रैल को अचानक परिस्थितियों बदल गई जब कथित पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों ने भारत की सीमा में ढाई सौ किलोमीटर अंदर घुसकर हाइली मिलिट्री सेनीटाइज एरिया पहलगाम  के बैसरन में 26 पर्यटकों की हत्या कर दी। इस कायराना हमले से हर भारतीय नागरिक  दुखित, चिंतित और आक्रोषित है। पूरे देश ने एक स्वर से आतंकवाद के खात्मे के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई है। देश चाहता है कि कश्मीर घाटी से आतंकवादी और अलगाववादी प्रभाव को धो पोंछकर साफ कर दिया जाये।

हिंदुत्ववादियों के लिए आपदा में अवसर

पर्यटकों की शहादत की खबर आते ही संघ-भाजपा के साथ कारपोरेट मीडिया एक स्वर से नफरत और उन्माद पैदा करने लगा। कुकुरमुत्ते की तरह उग आई नफरती  और उन्मादी सेनाऐं और स्वयंभू राष्ट्र भक्तों ने  मुस्लिम विरोधी माहौल बनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया।

“धर्म पूछा जाति नहीं”के नारे के साथ बीजेपी आगे आ खड़ी हुई। जिस कारण से कई जगहों पर मुस्लिमों पर हमले हुए। एक सिर के बदले 100 सिर मांगा जाने लगा। ऐसा माहौल बनाए जाने लगा कि तत्काल पाकिस्तान पर हमला कर देना चाहिए ,पाकिस्तान का वजूद मिटा देना चाहिए ,पाकिस्तान के टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहिए जैसी हुंकार मीडिया से लेकर हिंदूत्ववादी संगठनों के मंचों से सुनाई देने लगी। इस उन्माद के दौर में कश्मीर से सुकून भरी खबरें आने लगी।

कश्मीरी अवाम ने दिया एकजूटता का महा संदेश- कश्मीरियों ने पर्यटकों को बचाने में जिंदगी  देने  के अलावा उनके साथ मजबूती से खड़े हो गए। पर्यटकों को आश्रय, भोजन, वस्त्र और घायलों को खून देकर  सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया । घबराए और तनाव ग्रस्त पर्यटकों के लिए अपने घर, दरवाजे, पॉकेट  खोल कर शेष भारत के अपने भाईयों  को महान संदेश दिया  तथा हिंदुत्ववादियों  और नफरती  चिंटुओ के  मुंह पर तमाचा जड़ दिया। कश्मीर के लाल चौक से आ रही खबरों ने उन्मादियों और दंगाइयों के मन्सूबों को नाकाम कर दिया है। जो पर्यटकों की हत्या कर भारत में नफरत और दंगे का माहौल करना चाहते थे।

कश्मीर की मस्जिद के लाउडस्पीकर आतंकवादियों के खिलाफ गरजने लगे। एक-एक कश्मीरी काला झंडा काली पट्टी बांधकर कश्मीर में हत्याकांड क्या विरोध करने के लिए संपूर्ण बंदी के लिए सड़क पर उतर आया। कश्मीरी इमाम के इस कारवाई ने   भारत की एकता  सामूहिकता और आपसी भाईचारे तथा लोकतंत्र को बचा लिया है। इसके साथ कश्मीरी अवाम ने पाकिस्तान और आतंकवादियों के साथ देश में नफरत फैलाने वाले को यह संदेश दे दिया है कि  कश्मीर की वादियों  में अब उनके लिए कोई जगह नहीं बची है।

फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार 

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