गोरख स्मृति आयोजन के पहले दिन बलभद्र के कविता संग्रह ‘समय की ठनक’ पर परिचर्चा आयोजित हुई
पटना। 5वें गोरख स्मृति आयोजन के पहले दिन आज स्थानीय छज्जूबाग में कवि-आलोचक बलभद्र के कविता-संग्रह ‘समय की ठनक’ पर परिचर्चा आयोजित की गई।
कार्यक्रम की शुरुआत हिरावल के कलाकारों द्वारा गोरख पांडेय के गीत ‘समय का पहिया चले’ के गायन से हुआ।
परिचर्चा के आरंभ में बलभद्र ने अपना आत्म वक्तव्य दिया और अपनी कविताओं का पाठ किया। उन्होंने कहा कि उन्होंने भोजपुर के किसान आंदोलन में संघर्ष करते हुए, लाठियां खाते हुए तथा रमताजी, गोरख पांडेय, विजेंद्र अनिल और दुर्गेंद्र अकारी के गीतों गाते हुए कविता की तमीज सीखी। उन्होंने ‘रामजतन के जेवर अपने’, ‘रोपनहारिने’, ‘ओ पंडुक’, ‘हद बाड़ी स’, ‘भलहीं जे रहबो कुजतिया’ और ‘अन्न हैं, कलपेंगे’ शीर्षक अपनी कविताएं सुनाईं।
परिचर्चा के आरंभ में बलभद्र ने अपना आत्म वक्तव्य दिया और अपनी कविताओं का पाठ किया। उन्होंने कहा कि उन्होंने भोजपुर के किसान आंदोलन में संघर्ष करते हुए, लाठियां खाते हुए तथा रमताजी, गोरख पांडेय, विजेंद्र अनिल और दुर्गेंद्र अकारी के गीतों गाते हुए कविता की तमीज सीखी। उन्होंने ‘रामजतन के जेवर अपने’, ‘रोपनहारिने’, ‘ओ पंडुक’, ‘हद बाड़ी स’, ‘भलहीं जे रहबो कुजतिया’ और ‘अन्न हैं, कलपेंगे’ शीर्षक अपनी कविताएं सुनाईं।
‘समय की ठनक’ पर बोलते हुए युवा आलोचक कृष्ण समिद्ध ने कहा कि कवि बलभद्र किस्सागो कवि हैं। इन्होंने अपनी कई कविताएं किस्सागो शैली में निजी डायरी की तरह लिखी है। इनकी कविताएं जीवन के द्वैत को सफल तरीके से व्यक्त करती हैं। इन्होंने बौद्धिक कविताएं कम लिखी हैं। इनकी कविताएं ज्यादातर साधारण जीवन की सामान्य घटनाओं से संबंधित हैं और कुछ विशिष्ट घटनाओं से।
कवि-आलोचकसुनील श्रीवास्तव ने कहा कि बलभद्र की कविताओं में श्रम करने वालों के प्रति स्पष्ट संवेदना महसूस की जा सकती हैं। ये श्रमिकों और कृषकों के जीवन के प्रति आत्मीय लगाव की कविताएं हैं। इस दुनिया को साजिशन जटिल बनाया गया है। बलभद्र की कविताएं असली और नकली तथा जरूरी और गैरजरूरी के भेद की पहचान कराती हैं। बलभद्र की कविताओं में रमा जा सकता है उस पर बहुत बात नहीं की जा सकती। इनकी कविताओं में यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वे क्या बचाना चाहते हैं और क्या बचाना चाहते हैं।
मुख्य वक्ता आलोचक सुधीर सुमन ने कहा कि कवि बलभद्र की कविताओं में भोजपुर किसान आंदोलन के विभिन्न प्रसंग तो हैं ही, परंतु इनमें भारतीय कृषक जीवन और ग्रामीण प्रकृति के व्यापक जीवन संदर्भ मौजूद हैं। वे किसान की आंखों से दुनिया को देखते हैं। जीवन, समाज और प्रकृति से कहीं भी पलायन नहीं है, बल्कि उसके हर रंग-रूप-रस-गंध की प्रामाणिक अनुभूतियां इनकी कविताओं में हैं। बलभद्र की कविताओं की खासियत यह है कि इनमें सर्जक और रचना के बीच कोई फाँक नहीं है। जो निजी पारिवारिक जीवन की कविताएं भी हैं, वे भी पाठकों और श्रोताओं के भीतर प्रायः अपने अहसास की तरह दाखिल होती हैं। वृद्धों, स्त्रियों, श्रमिकों और किसानों के प्रति ऐसी सहानुभूति इधर की कविताओं में अपेक्षाकृत कम दिखाई पड़ती है। अंधराष्ट्रवाद किसानों और उनकी संततियों के लिए खतरनाक है, इसे भी इनकी कविताएं बेलाग-लपेट तरीके से दिखाती हैं। आज भारत में जब सत्ता और मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा अन्नदाता किसानों और उनके आंदोलन के प्रति संवेदनहीन बना हुआ है, तब किसानों के प्रति ऐसी गहरी सहानुभूति अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसी कविताओं को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचना चाहिए।
मंच पर कवि कुमार मुकुल भी मौजूद थे। संचालन कवि राजेश कमल ने किया।
इस मौके पर राजनीतिक कार्यकर्ता पवन शर्मा, आलोचक संतोष सहर, कवि शहनवाज, फिल्मकार विस्मय चिंतन, कवि प्रशांत विप्लवी, संस्कृतिकर्मी अनिल अंशुमन, रंगकर्मी संतोष झा, राम कुमार, राजन कुमार, प्रकाश, सुनील सिंह, राजदीप कुमार, राजभूमि, सम्राट, रवि, अंकित, मासूम, मंजरी, सुप्रिया, शांति, सृष्टि, कृष्णा, विकास, सौरभ, शुभम, मृत्युंजय, भारत, आदर्श आदि मौजूद थे।