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पंकज मित्र की कहानियाँ: पूंजी और सत्ता की थम्हायी उम्मीद के बियाबान में भटकते लोगों की दास्तान 

1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद भारतीय समाज और संस्कृति में ऐसे परिवर्तन शुरू हुए, जो सतत विकास से अलग उसकी जड़ों के विलगाव से जुड़े थे।

यह नीतियां कहने को आर्थिक थीं, लेकिन इसकी एक स्पष्ट राजनीति और संस्कृति थी। वैसे भी पूंजी कहीं भी जाती है, तो अपनी संस्कृति भी ले जाती है।

पूंजी की यह संस्कृति है लोभ, लाभ और लूट-झूठ की। यह देखने-सुनने और सोचने-समझने के तौर-तरीकों को बदल देता है। यह लोगों को भ्रष्ट बनाता है।

भ्रष्टाचार यहाँ सिर्फ शासन-सत्ता तक सीमित या राजनीतिक-प्रशासनिक ही नहीं होता, बल्कि यह नागरिक जीवन की नैतिकता को भ्रष्ट करता है।

मूल्यहीनता ही इसका मूल्य होता है। इतना ही नहीं, बल्कि यह धीरे-धीरे देश और समाज को उसकी भाषा और संस्कृति से अलग उपभोग परक संस्कृति की तरफ धकेलता है। चमक-दमक के विज्ञापन से बने सपनों की अंधी दौड़ का प्रतिस्पर्धी बनाता है।

यह दौड़ मनुष्य को उसकी जड़ों से काट देता है। रिश्तों का महत्व खत्म हो जाता है। यही जड़ों से कटा और मूल्यहीन समाज भ्रष्ट, अनैतिक और फासिस्ट सत्ता की ताकत बन जाता है।

 भारत में 1991 के बाद सत्ता और समाज का यही स्वरूप क्रमशः बना। इसी से नया यथार्थ भी बना। पंकज मित्र की कहानियाँ  इसी यथार्थ से रूबरू होती हैं।

‘जलेबी बाई डाॅट काम’, ‘मनेकि लबरा नाई की दास्तान’, ‘अधिग्रहण’, ‘काँझड़ बाबा थान’, ‘फेसबुक मेन्स पार्लर’ आदि कहानियाँ इसी यथार्थ के बीच से रची गयी हैं।

इनमें ‘अधिग्रहण’ और ‘काँझड़ बाबा थान’ महत्वपूर्ण कहानियाँ हैं, जो आज के यथार्थ की गति को ज्यादा अभिव्यक्त करती हैं।

भारत एक कृषि प्रधान देश है। कृषि और कृषि-भूमि या जमीन सिर्फ आजीविका का मामला नहीं रहता यहाँ, बल्कि वह अस्तित्व से जुड़ा होता है।

अभी हाल ही में काले कृषि कानूनों के खिलाफ किसान अपना जीवन दाँव पर लगाकर एक साल तक लड़ा और जीता। सात सौ से अधिक  किसानों ने इसमें अपनी आहूति दी। इसी से कोई भी अन्दाजा लगा सकता है, कि खेती या कृषि भारत में क्या महत्व रखता है।

ऐसा नहीं है, कि यह हालिया कोई नीतिगत परिवर्तन के तहत हुआ, कि जमीन को कारपोरेट घरानों के लिए सुलभ बनाने में सरकार कटिबद्ध होकर उतर पड़ी हो।

1991 की स्वीकार की गयी आर्थिक उदारीकरण की नीतियों की डिजाइन में ही यह मौजूद था, जिसे क्रमशः आगे बढ़ाया जाना था।

पूंजी के विकास की ऐतिहासिकता यही है, कि वह कृषि जनसंख्या को अपने मातहत लाती है, उन्हें मजदूर बनाती है, सेवा क्षेत्र में लगाती है और फिर इसमें ऐसा कानून सरकारों के माध्यम से बनाती है, कि इसमें लगे लोग अधिकारविहीन नागरिक में बदल जाते हैं।

वे बेहतरी की उम्मीद में  मशीन में बदलते जाते हैं, लेकिन उनका जीवन और बदतर होता जाता है। बेहतरी की इस उम्मीद का छल पूंजी और सत्ता मिलकर रचती है। मीडिया, विज्ञापन आदि इसके इस छल-निर्माण के साहित्य  होते हैं। यह मिलकर पूंजी की संस्कृति को बनाते हैं।

‘जलेबी बाई डाॅट काम’ इस लिहाज से बहुत ही उम्दा कहानी है। कहानीकार कितना सचेत होकर ऐसा करता है, उसमें न जाकर भी कहानी में आये विवरणों से वह यथार्थ सामने आ जाता है, जिसमें  पूंजी और सत्ता की थम्हायी उम्मीद के बियाबान में भटकते लोगों की दास्तान गुँथी है।

यद्यपि कि यह कहानी इस उद्देश्य से लिखी नहीं गयी है, लेकिन कहानी में वस्तु और घटनाओं की जो गति है, उसमें से यह यथार्थ निकल आता है।

वैसे भी, कोई कला उत्पाद रचे जाने के बाद रचनाकार से सापेक्षतः स्वायत्त हो जाता है। वस्तुतः  पंकज मित्र ऐसे कहानीकार हैं, जो वस्तु और घटनाओं की गति के साथ-साथ चलते हैं। इसमें वे रचनात्मक इमानदारी बरतते हैं, जिसके चलते उनकी कहानी में समय का यथार्थ प्रकट हो जाता है।

जलेबी बाई डाॅट काम कहानी में उद्देश्य है जलेबी के चरित्रगत विशिष्टताओं को उभारना, लेकिन उभरकर आ जाता है  पूंजी के फैले जाल में फँसा सामान्य सत्य।

यह सामान्य सत्य प्रकट होता है, जब जलेबी पुराने सामाजिक सम्बन्धों से निकल कर पूंजीवादी सामाजिक सम्बन्धों में प्रवेश करती है।

यहां सम्बन्ध राग-द्वेष से बिलकुल अलग विशुद्ध रूप से लोभ-लाभ, मुनाफा से संचालित है। इसी से पूंजी और सत्ता की संस्कृति बनती है।

इसमें कोई सोनाली बहू नहीं है, जो जलेबी को अपनी साड़ी दे दे। यहां मानवीय सम्बन्ध पूरी तरह से अनुपस्थित है।

इस संस्कृति में मनुष्यहीनता चरम मूल्य है। कहानी जहाँ जाकर रुकती है, वहाँ बाजार और पूंजी का घोर मनुष्य-विरोधी रूप प्रकट होता है।

जो जलेबी अपनी खुशदिली, जिन्दादिली की मिसाल थी, अब वह हताश, बेदम और निरुपाय सी होकर रह गयी है। यहां आकर कहानी एक दूसरा उद्देश्य ग्रहण कर लेती है। यह उद्देश्य कहानी को बहुत महत्वपूर्ण बना देता है।

कहानी के प्रारम्भ में जलेबी का परिचय इस तरह आता है-

“उसे बातें करने का बड़ा शौक था, बहुत मीठी बातें करती थी वह- ऐसा मोहल्ले के सभी लड़के मानते थे। नाम ही मिष्टी था उसका। मिष्टी मतलब मिठाई…। इतना सजाकर बात करती मिष्टी कि मोहल्ले की सभी  चाचियां-दादियां पूछतीं- ऐ मिष्टी की माँ! आज मिष्टी को नहीं लाई?”

और कहानी के आखिरी हिस्से का एक अंश इस तरह आता है-

“मिष्टी का जी उचट गया था बातों से। दिन भर बक-बक करो, महीने के अंत में कभी सैलरी नहीं आती, कभी कास्ट-कटिंग, कभी लाॅस…विकास तो कई-कई दिनों तक दिखता भी नहीं था। जब मिलता तो पूरी तरह निचुड़ा मिलता- न बातें, न मैसेज। झुंझलाया रहता, ‘भाग-भागकर थक गया हूँ।’

मिष्टी बोली- ‘मैं भी बक-बक करके थक गयी हूँ।’

मिष्टी, जिसे बातें करने का बड़ा शौक था, बक-बक करते थक गयी है। इन दो बातों के बीच कहानी का मुख्य सत्य उभर आता है। पिछले तीस वर्ष में विकास का जो ढिंढोरा पीटा गया, उसका हासिल यही है। ‘जलेबी बाई डाॅट काम’ इसे अभिव्यक्त करती सर्वोत्तम कहानियों में से एक है।

पूंजी और कारपोरेट निर्मित लोभ-लाभ की संस्कृति और मनुष्य-विरोधी मूल्य को अभिव्यक्त करती एक और कहानी है ‘काँझड़ बाबा थान’। इस कहानी की शुरुआत की पंक्ति मानीखेज है-

“काँझड़ बाबा थान हमारे गाँव के उसी सीमान पर था, जिस तरफ से शहर हमारे गाँव में घुसने को व्याकुल हो रहा था, बल्कि कई जगह से छुरी के फल की तरह घुस भी चुका था- रामदयाल नगर, कृष्णापुरी आदि की शक्ल में। लेकिन पूरी तरह गिरफ्त में लेने में कामयाब नहीं हो पाया था और इस नाकामयाबी की बड़ी वजह था काँझड़ बाबा थान।”

यहाँ गाँव में घुसने को व्याकुल शहर लालच और मुनाफे पर टिके सम्बन्धों का प्रतीक है। मानवीय सम्बन्ध इस शहर में मायने नहीं रखते। और यही शहर, गाँव के रामदयाल नगर और कृष्णापुरी में घुस गया है।

नब्बे के दशक में जो पहला कारपोरेट घराना तेजी से उभरा वह रीयल इस्टेट से जुड़ा था। अर्थात जमीन की खरीद-बिक्री का धन्धा। दूसरा था, शेयर बाजार में सट्टा कारोबार। काँझड़ बाबा थान में नैरेटर के पिता और बाबा के बीच इसी नये कारोबार को लेकर तनाव रहता है।

बाबा कृषि आधारित सामाजिक संस्कृति से ताल्लुक रखते हैं। वे खेती करने को प्राथमिक बनाये रखना चाहते हैं, जबकि नैरेटर के पिता नये पूंजीवादी सम्बन्ध से ताल्लुक रखते हैं।

यहां उनका सगा जमीनों का दलाल नरोत्तम है। यहां सम्बन्ध विशुद्ध लोभ-लाभ पर टिके हैं। यहां मानवीय सम्बन्ध और भावों के लिए जगह नहीं है।

यहां कोई सगा नहीं, कोई मित्र नहीं। पूंजीवादी सम्बन्धों की इसी थीम पर एक कहानी ‘अधिग्रहण’ है। यह कहानी ‘कांझड़ बाबा थान’ की पूरक कहानी है। खैर

नैरेटर के बाबा जमीन नहीं बेचना चाहते हैं, जबकि पिता बेचना चाहते हैं। एक दिन नैरेटर का पिता, बाबा की हत्या कर देता है। यह सिर्फ धन, लोभ, लाभ के लिए की गयी हत्या के साथ सगे कहे जाने वाले सम्बन्ध की भी हत्या है।

एक लोकोक्ति इस पूंजीवादी संस्कृति को बखूबी व्यक्त करती है, ‘बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया’। यह संस्कृति कई रूप धरे गाँव में घुसने को व्याकुल है। ‘काँझड़ बाबा थान’ इसकी शिनाख्त करती है।

रचनाकार की सही परख की कसौटी होती है, कि वह संस्थानिक परिवर्तनों को कितना दर्ज करता है। कृषि आधारित सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना टूट रही है और पूंजी आधारित सामाजिक संस्कृति जगह ले रही है। परिवार, समाज, सम्बन्ध बदल रहे हैं।

लेकिन बदलाव की यह प्रकिया क्रूर है। शहर के गाँव में घुसने की व्याकुलता नैरेटर के पिता में प्रवेश करती है। वह पैतृक जमीनों को अपने नाम होने तक का इंतजार नहीं करना चाहता। धैर्य नहीं उसके भीतर और अपने ही पिता की हत्या कर देता है।

कहानी में इसे संकेत से कहा गया है। यह कहानी अपने कथ्य के साथ कलात्मकता में भी बहुत सुगठित है।

‘काँझड़ बाबा थान’ की ही पूरक कहानी ‘अधिग्रहण’ है।

इस कहानी में भी बिल्डर हैं, जमीन है, सपने बेचने का व्यवसाय है और स्वार्थ पर टिके रिश्ते हैं, धोखाधड़ी है, छल और फरेब है, झूठ है। कहने का आशय यह कि पूंजी और सत्ता की, जो संस्कृति पिछले तीस साल में विकसित हुई, वह सब है।

कहानी के सूत्रधार आजा और पोती हैं अर्थात बाबा और उनकी पोती।

जेम्स आदिवासी हक की लड़ाई का नेता है। जल-जंगल-जमीन बचाने के आन्दोलन का अगुआ है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। जेम्स इस आन्दोलन में एक मकसद से आता है। मकसद है सिमलिया की जमीन हथियाना और बेचना। जिसे रीयल इस्टेट धन्धा कहते हैं या प्रॉपर्टी डीलिंग भी कहते हैं।

जेम्स  आन्दोलन के नेता सैमुअल से करीबी बढ़ाता है और सैमुअल की हत्या कर देता है। इस कहानी में भी यह बात सीधे नहीं आती है, लेकिन घटनाओं और प्रसंगों की बुनावट में प्रकट हो जाती है।

जेम्स आन्दोलन का नेता बन जाता है और सैमुअल की पत्नी से प्रेम का स्वांग रचता है और सिमलिया की जमीन के पेपर पा लेता है। वह धीरेन्द्र राय के साथ बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कंपनी खोल लेता है। धीरेन्द्र राय सिमलिया का बड़ा बिल्डर है।

कहानी में एक अंश इसका पता देता है- ‘तब काका, कहाँ?’

‘तुम्हारे ही गाँव।’

‘जमीन-उमीन तो नहीं खोज रहे हैं?’

‘मतलब?’

‘मतलब बड़ीमन आदमी आजकल यहीं जमीन खोजता है। टाउन से नजदीक न है! खासकर के बिल्डर लोग- टनटना के दाम बढ़ा दिया है सब।’

आर्थिक उदारीकरण के शुरुआती बीस सालों में इन बिल्डर्स ने सत्ता में भी अपनी पकड़ बनायी। सरकारों ने भी सीधे नहीं तो टेढ़े जमीनों को इन बिल्डर्स को मुहैया कराया। पिछले तीस साल में जितने भी बड़े दंगे हुए, उनमें बिल्डर्स के हित शामिल पाये गये।

2008 की महामंदी के बाद से इससे और आगे जाकर कारपोरेट फार्मिंग के नाम पर जमीन हथियाने की नीति अपनायी गयी। अर्थात अब सिर्फ शहर से सटे जमीन पर नहीं बल्कि पूरी कृषि भूमि को कारपोरेट घरानों के आधिपत्य में लाने की कवायद शुरू हुई। इसी के अंतर्गत तीन कृषि बिल लाये गये, जिसके खिलाफ किसानों ने साल भर अपना आन्दोलन चलाया। हालांकि, अभी यह साहित्य का विषय नहीं बना है। लेकिन जमीन का मसला पंकज मित्र के यहाँ मौजूद है।

पंकज मित्र की कहानियों का भूगोल बिहार और झारखंड का प्रदेश है। इस भूगोल को आसानी से पहचाना जा सकता है।

इसमें भी पंकज मित्र ने प्रायः गाँव और कस्बों की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक गति और स्थिति को कहानियों का विषय बनाया है।

गाँव की कोई भी कथा बिना जमीन के मसले में जाये यथार्थ की कथा नहीं होती है। भूमि या जमीन गाँव की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवहार का निर्धारण करते हैं।

दूसरा जो यथार्थ गाँव से जुड़ा होता है, वह नास्टेल्जिया का है। यह भाषा, संस्कृति, व्यवहार किसी को लेकर हो सकता है। लेकिन इस नास्टेल्जिया का सम्बंध भी जमीन से है।

जमीन के मालिकाने से जुड़े सामाजिक वर्ग में यह अधिक होता है। इसे ज्यादा व्यापक ढंग से किसान वर्ग भी कहा जा सकता है। किसान अपनी संस्कृति, भाषा, व्यवहार को जल्दी बदलता नहीं।

यह जमीन के रकबे के हिसाब से सामाजिक-राजनीतिक शक्ति का उपभोग करता है। इस शक्ति का अहसास उसके भीतर बना रहता है। इसकी नैतिकता एकरेखीय न होकर बहुस्तरीय होती है।

नब्बे के दशक में पूंजी ने इन सबको तेजी से बदलना प्रारम्भ किया। गाँव से पलायन शुरू हुआ। नकद रूपये का प्रवाह और उससे बना दबाव सब कुछ बदलने लगा। बहुत कुछ तेजी से छूटने-टूटने लगा। जो प्रदेश जितने अधिक पिछड़े थे, वहाँ यह प्रकिया उतनी ही तेज रही।

इन प्रदेशों से आने वाले कथाकारों में यह प्रकिया अपने तमाम संवेदनात्मक पहलुओं के साथ ज्यादा अभिव्यक्त होती है। इनके यहाँ स्मृतियाँ हैं, मोहाशक्तियां हैं और आत्मालोचना भी खूब है। पूर्वदीप्तियां कथा-प्रविधि के रूप में  अधिक मिलेंगी। पंकज मित्र के यहाँ भी यह सब कुछ है।

‘काँझड़ बाबा थान’ कहानी में एक बच्चे से कथा कहलवायी गयी है। कथा-वाचन की यह प्रविधि बहुस्तरीय यथार्थ और कई समयों की बुनावट के लिए अधिक अनुकूल होती है।

पंकज मित्र ने जिस भूगोल और समाज से कहानियों के विषय उठाये हैं, वहाँ जातिगत उत्पीड़न, भेदभाव और सामाजिक व्यवहार के पुराने रूप अभी भी प्रचलित हैं।

जमीन के बाद ग्रामीण यथार्थ जाति से ही अधिक जुड़ा होता है। बड़ा लेखक इससे बचकर निकलता नहीं, बल्कि टकराता है।

इतना ही नहीं, अपने ट्रीटमेंट में वह अपना पक्ष उद्घाटित कर देता है। चरित्रों के निर्माण में वह तटस्थ भी होता है, लेकिन अपना रागात्मक लगाव और सहानुभूति भी प्रदर्शित करता है, किसी चरित्र के प्रति।

यह कहानीकार के सरोकार और कला दोनों से जुड़ा तत्व होता है। हिन्दी कहानी में यह अपने प्रारम्भ से ही मौजूद तत्व रहा है। पंकज मित्र हिन्दी कहानी की इस परम्परा  जुड़ते हैं। खासकर, फणीश्वर नाथ रेणु से।

लेकिन नब्बे के बाद की हिन्दी कहानी में एक धारा ऐसी आयी जो इससे  दूरी बनाती है।ऐसे में कहानी सत्य का एक पक्ष तो दिखाती हैं, लेकिन न तो उनका सरोकार स्पष्ट होता है और न ही मनुष्यता में कोई विश्वास जगा पाती हैं।

किसी चरित्र के प्रति करुणा और सहानुभूति उत्पन्न करने की शक्ति इन कहानियों में नहीं होती।

पंकज मित्र की कहानियों में इस धारा का प्रभाव नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता लेकिन उनकी कहानियों में पूंजी और सत्ता की संस्कृति की आलोचना प्रमुख है, जो उन्हें उस धारा के कहानीकारों से अलग कर देती है।

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