समकालीन जनमत
कहानी

जाति-वर्ण का प्रश्न और चतुरी चमार 

बतौर नैरेटर/नायक निराला अपनी कहानियों में सकर्मक भूमिका में रहते हैं। सामाजिक परिवर्तन का विचार उनकी कहानियों में स्वाधीनता संघर्ष के विचार के साथ मिलकर चलता है। लेकिन, निराला के लिए यह कोई जागरण का मामला नहीं और ना ही समाज सुधार का है, बल्कि निराला यहां स्वयं एक मनुष्य के बतौर एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया के भू-क्षेत्र में नागरिक बनने के लिए बेकल हैं। स्वाधीनता, आधुनिकता, समता, समानता जैसे नये मूल्य उनके लिए धारण करने की वस्तु विचारणा नहीं, अपितु उनके अपने जीवन की गतिकी में शामिल तत्व हैं। इस तत्व के धक्के से वह आगे बढ़ते हैं। उनके संपर्क में जो आता है, वह भी उसी गति के प्रभाव में आगे बढ़ जाता है। निराला का ‘स्व’ अन्य से अलगाव/विलगाव में नहीं। उनकी कहानी-‘चतुरी चमार’ इस लिहाज से हिंदी की ही नहीं, बल्कि भारतीय भाषा की एक क्लासिक कहानी है, जिसमें स्वाधीनता संघर्ष के साथ सामाजिक परिवर्तन की गति एक साथ मिलकर चलती है। इतना ही नहीं स्वाधीनता संघर्ष के भीतर जितने स्तर हैं बॉक्स वाइज, अर्थात किसान, नागरिक, जेंडर, दलित, छात्र आदि, निराला उन सभी से गुजरते हैं। उनके काव्य में भी है यह, लेकिन जब निराला के गद्य और उनकी कहानी से कोई जाए, तो यह ज्यादा खुलता है, स्पष्ट होता है। निराला के यहां जो व्यक्ति की स्वतंत्रता है या वैयक्तिकता है या जो आत्म पहचान है और उसका एसर्शन है, वह सामाजिक है, यानी कि, निराला का जो ‘स्व’ है वह सामाजिकता के एक-एक रेशे से बनता है। कम्युनिटी, सोसाइटी, जेंडर के भीतर के विभाजन जितने रूपों में है, निराला का ‘स्व’ सब में जाता-आता है। और, खुद को बदलता है, खुद का निर्माण करता है। निराला के भीतर का संघर्ष इसीलिए इतना भीषण है, गहन है कि बहुतों के लिए वह कई बार निराला को अबूझ, असामान्य बना देता है। निराला की रचना प्रक्रिया को उनके ‘स्व’- निर्माण की प्रक्रिया से अलग करके देखने वाले के साथ ऐसी समस्या आती रहेगी।

निराला का काव्य इतना बहुविध, बहु-रूप, बहु-स्तरीय क्यों है और निराला की कहानियों में इतने डिटेल्स क्यों है- यह तभी समझा जा सकता है।

निराला के यहां महाकाव्यात्मकता ढूंढ़ने वाले इसीलिए निराश होते हैं, क्योंकि वे निराला के ‘स्व’-निर्माण की प्रक्रिया से ही परिचित नहीं। किसी भी गुलाम और पिछड़े हुए देश-काल, समाज में आधुनिक मनुष्य के निर्माण की प्रक्रिया और उसका प्रकटन महाकाव्यात्मक नहीं होता है, वह बिखरा हुआ सा लगने वाला और बेहद ट्रैजिक होता है। खैर

निराला का व्यक्ति या इंडिविजुअल आत्मकेन्द्रित नहीं है। वह सिर्फ अपनी स्वाधीनता की आकांक्षा या लक्ष्य से परिचालित और संतुष्ट नहीं। बल्कि, वह एक ज्यादा बड़े, व्यापक जनतांत्रिक स्फीयर में अन्यों की जनतांत्रिकता के साथ होकर रहना चाहता है। यह एक रचनाकार का सिर्फ आत्मविस्तार नहीं है, बल्कि एक व्यक्ति के, एक साथ आजाद व आधुनिक नागरिक बनने का आत्म-संघर्ष है। उनकी रचनाओं में इसी सब की अभिव्यक्ति है। निराला की कहानियों में यह ज्यादा साफ, स्पष्ट है। वे अपनी आजादी, अपने आधुनिक नागरिकपन को जीते हैं, लेकिन वे उतने तक रुकते नहीं, बल्कि श्यामा, चतुरी चमार, लिली, जान की आदि की भी आजादी और नागरिक बनने की आकांक्षा/सपने, आधुनिक नैतिकता आदि को टटोलते हैं। नहीं है, तो जगाते हैं, और है, तो उसके साथ खड़े होते हैं। बहरहाल, यहाँ उनकी कहानी ‘चतुरी चमार’  के बहाने ऐसी ही कुछ बातों को जानने/समझने की कोशिश होगी। एक बात और प्रस्तावना-स्वरूप, कि ‘चतुरी चमार’ कहानी अपने कथा-सत्य में औपन्यासिक है, भले ही अपनी लम्बाई में वह छोटी रचना है।

सामाजिक यथार्थ और वस्तुनिष्ठ लेखन

चतुरी चमार कहानी अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक सच्चाइयों की कई परतों को खोलती है या यथार्थ के कई रूप उद्घाटित करती है। एक बात यह भी समझनी चाहिए कि ऑब्जेक्टिव राइटिंग अगर है, तो उसमें सच्चाई सहज रूप में उपस्थित होती है। और, जिसके पास यथार्थ की समझ है, वे यथार्थ के रूपों की पहचान भी उसमें कर सकते हैं। चतुरी चमार कहानी की शुरुआत इस तरह होती है- “चतुरी चमार डाकखाना चमियानी मौजा गढ़ाकोला, जिला उन्नाव का एक कदीमी बाशिंदा है। मेरे ही नहीं, मेरे पिताजी के, बल्कि उनके भी पूर्वजों के मकान के पिछवाड़े, कुछ फासले पर जहां से होकर कई और मकानों के नीचे और ऊपर वाले पनालों का, बरसात और दिन रात का शुद्धाशुद्ध जल बहता रहता है, ढाल से कुछ ऊंचे एक बगल चतुरी चमार का पुश्तैनी मकान है।”

यह निराला की ऑब्जेक्टिव नैरेशन की शैली है, जिसमें चतुरी चमार कहाँ रहता है, उसी का वर्णन है। लेकिन इस वर्णन से पुश्त दर पुश्त चले आते दलित जीवन की सामाजिक स्थिति और उसकी ऐतिहासिकता का पता चल जाता है।

आगे एक और सामाजिक डिटेल- “पासी हफ्ते में तीन दिन हिरण, चौगड़े और बनैले सूअर खदेड़ कर फाँसते हैं, किसान अरहर की ठूठियों पर ढोर भगाते हुए दौड़ते हैं- कँटीली झाड़ियों को दबा कर चले जाते हैं; छोकड़े बेल, बबूल, करील और बेर के कांटो के भरे रुँधवाये बागों से सरपट भागते हैं, लोग जेंगरे पर मड़नी करते हैं, द्वारिका नाई न्योता बांटता हुआ दो साल में दो हजार कोस से ज्यादा चलता है…।” बाकी चतुरी मजबूत जूते बनाता है। “दूर-दूर तक उसके मजबूत जूतों की तारीफ है।”

इन विवरणों/ब्यौरों में गांव के सामाजिक जीवन की दिनचर्या सामने आती है। इस दिनचर्या के ब्यौरे में ही जाति, श्रम और उसका स्टेटस पता चल जाता है। पीढ़ियों से इस जीवन में कोई बदलाव नहीं हुआ है। कहानी 1934 ईस्वी की छपी है। यह 1934 ईस्वी का अवधी भाषी सामाजिक संरचना का एक गांव है।

पासी, जाति संरचना में नीचे पड़ी जाति है। इसका पेशा कहानी के हिसाब से जानवरों का मांस और चमड़ा इकट्ठा करना है। यह इनकी आजीविका का साधन भी हो सकता है और मुख्य भोजन भी। दालें और अनाज इनके भोजन में शायद ही शामिल हो क्योंकि इसी कहानी में यह भी जाहिर होता है कि मुख्य उपभोक्ता वर्ग जमीदार/तालुकेदार और उसके सिपाही हैं। ब्रिटिश प्रशासनिक अमला भी इसमें शामिल होगा। यह वर्ग श्रम-मूल्य चुकाये बिना ऐसा करता है। यह प्रेमचंद के उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ के साथ मिलाकर देखने पर और स्पष्ट हो जाएगा। अवध में हरी-बेगारी का सवाल किसान आन्दोलन का प्रमुख सवाल था। यह दो पद किसान और दलित दो वर्गों के श्रम-हरण को इंगित करते हैं। अवध के किसान आन्दोलन में हरी-बेगारी बंदी मुख्य नारा बनता है और किसान-दलित एकता का आधार भी। यह कहानी में आगे आता भी है।

प्रजा जातियों की स्थिति को इस वाक्य से समझा जा सकता है कि द्वारिका नाई दो साल में दो हजार कोस से ज्यादा चलता है। नाई-धोबी बंदी भी उसी दौरान चला था अवध में। द्वारिका नाई का जिक्र भी कहानी में उनके कठिन जीवन, मेहनत और बेगारी को दर्शाने के लिए होता है। किसान अरहर की ठुट्ठियों पर ढोर भगाते हैं, और कटीली झाड़ियों को दबा कर चले जाते हैं। बेल, बबूल, बेर, करील से भरे बाग़ हैं। अर्थात, किसानों को एक असिंचित और ऊसर जैसी जमीनों पर खेती करके पेट भी पालना है और लगान भी देना है। अरहर, बेल, बबूल, करील, बेर असिंचित या सूखे क्षेत्रों या जमीन में उगने वाले पौधे, फसल या वृक्ष हैं। अब ऐसे में इसका अनुमान लगाना सहज है कि किसान का जीवन कैसा रहा होगा! और दलितों का जीवन तो किसान से भी कठिन, बदहाल। श्रम के उत्पादन की बिना कीमत दिए हिस्सेदारी वाले सीढ़ियों पर कौन-कौन बैठा है, देखिए- अपने जूते की मजबूती की तारीफ सुनकर चतुरी की प्रतिक्रिया को निराला यूँ दर्ज करते हैं-चतुरी बोला, “हां, काका, दो साल चलता है।” उसमें एक दर्द भी दबा था। दुखी होकर कहा, “काका, जमीदार के सिपाही को एक जोड़ा हर साल देना पड़ता है। एक जोड़ा भगतवा देता है, एक जोड़ा पंचमा। जब मेरा ही जोड़ा मजे में दो साल चलता है, तब ज्यादा लेकर कोई चमड़े की बर्बादी क्यों करे?” कहकर डबडबाई आंखों देखता हुआ जुड़े हाथों सेवईं-सी बटने लगा। बाकी बातों को किनारे कर गांव में बैठी उस व्यवस्था को देखिए जहां जमीदार का एक सिपाही एक साल में तीन जोड़ी जूते लेता है। ऊपर औपनिवेशिक सत्ता और उसके सबसे नीचे गांव में उसकी पूंछ पकड़े बैठी जमीदारी/तालुकेदारी और सबका भार आखिरी रूप में सबसे अधिक किस सामाजिक वर्ग के ऊपर है- ‘डबडबाई आँखों’ देखते हुए चतुरी चमार को सामने दृश्यमान कर लेने पर सहज ज्ञात हो सकता है। यह निराला की कहानी के ऑब्जेक्टिव नैरेशन या राइटिंग से निकल आता है। अब उस थ्योरी का भी ध्यान करिए- जिसमें कहा गया, कि औपनिवेशिक या ब्रिटिश सत्ता के आने से दलितों को राहत मिली या सामाजिक बंधनों से छूटें मिली।

बतौर नैरेटर/कैरेक्टर निराला खुद कहानी में क्या और कितने हैं, उनके इस बात से जान सकते हैं- “वह एक ऐसे जाल में फंसा है, जिसे वह काटना चाहता है। भीतर से उसका पूरा जोर उभर रहा है, पर एक कमजोरी है, जिसमें बार-बार उलझ कर रह जाता है।” निराला चतुरी को पढ़ रहे हैं, पढ़ने की पूरी प्रक्रिया को जानिए फिर निराला को बतौर कहानीकार देखिए और यह जानते हुए कि वे स्वध्यवसायी हैं । चतुरी जिस जाल में फंसा है, क्या उसमें जाति का जाल भी नहीं है, और क्या निराला की निगाह उस पर नहीं है! सोलहो आने है।

कहानी का अंत सामाजिक प्रश्न की तरफ इशारा करके हल्के हास्य बोध के साथ होता है अर्थात जमीदारों/तालुके दारों के द्वारा किसानों के साथ-साथ निचली जातियों के ऊपर जातिगत पेशे के आधार पर जो अवैध, अनाधिकृत, जबरिया टैक्स वसूले जाते थे, श्रम मूल्य पर जो डकैती डाली जाती थी, पीढ़ी दर पीढ़ी जिसे एक सामाजिक वैध मूल्य/नियम की तरह बना दिया गया था और कहानी के अंत से यह भी स्पष्ट होता है कि यह औपनिवेशिक शासन और देसी सामाजिक शक्तियों के द्वारा की जाने वाली दोहरी लूट थी।

जातिगत विभेदीकरण और श्रम लूट का एक स्तर इसमें दिखा।

जाति-वर्ण का प्रश्न और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन

जातिगत विभेदीकरण का दूसरा स्तर कहानी के उस प्रसंग में  आता है, जब  नैरेेटर/कैरेक्टर निराला का पुत्र चतुरी के लड़के को पढ़ाता है। उम्र में छोटा होने के बावजूद ब्राह्मण का पुत्र होने के चलते  वह  अर्जुन पर धौंस जमाता है,  मारता है। कारण बहुत मानीखेज है- अर्जुन शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता। भाषा में शुद्ध-अशुद्ध का निर्णय वही वर्ण/वर्ग  कर रहा है,  जो शरीर के छुआछूत को विधिक बना चुका है। कहानी का यह एक प्रसंग सामाजिक भेदभाव की पूरी ऐतिहासिक प्रक्रिया को खोल देता है। “अर्जुन वर्ण के उच्चारण में विवर्ण हो रहा था। तरह-तरह के मुंह बना रहा था, पर खुलकर कुछ कहता न था। उसके मुंह बनाने का आनंद लेकर चिरंजीव ने फिर डाटा, बोलता है या लगाऊं झापड़, नहा लूंगा, गर्मी तो है!” यानी छूने से जो विधिक अशुद्ध होने का पाप लगेगा उसके लिए है- नहा लूंगा।  बाकी भाषा की अशुद्धि के लिए झापड़।

चतुरी चमार कहानी में हर प्रसंग अपना एक अलग सामाजिक सत्य लिए हुए है, इसीलिए हिंदी की  यह बेहद दुर्लभ,  अप्रतिम और क्लासिक कहानी है। एक और प्रसंग इसी क्रम में, कि  कैसे औपनिवेशिक शासन से मुक्ति का जो संघर्ष चल रहा है कांग्रेस के नेतृत्व में, उसमें निचली जातियों को लेकर क्या धारणा है,  इसका भी खुलासा इस कहानी में होता है। बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में अवध का किसान आंदोलन चलता है। यह किसान आंदोलन अपने फैलाव में छोटी जोत के किसानों के साथ  निचली जातियों को भी एकजुट कर देता है।  अपने अपने सवालों के साथ दोनों वर्गों की लड़ाई जमीदारों/तालुकेदारों  से है। दुश्मन एक है, इसलिए स्वाभाविक मित्रता बन जाती है। लेकिन, जो इनका दुश्मन है वह कांग्रेस का दुश्मन नहीं है। इसीलिए देहात के इस आंदोलन को कांग्रेस नेतृत्व अपने आंदोलन के लिए नुकसानदेह मानता है। अभी एक पुस्तक आयी है, राजीव कुमार पाल की- ‘एका’, जो अवध के किसान आंदोलन के साथ कांग्रेस नेतृत्व के अंतर्विरोध/हिचक/उलझन/ दुविधा को सामने लाती है। किसान आंदोलन के देहाती नेता कांग्रेसी नेतृत्व में अविश्वास करते हैं, तो  कांग्रेसी नेतृत्व किसान आंदोलन को आजादी की लड़ाई की विफलता का कारण मानती है। कहानी का अंश देखिए- “इन्हीं दिनों देश में आंदोलन जोरों का चला।” निराला ने यहां सिर्फ ‘आंदोलन’ शब्द का इस्तेमाल किया है, इससे साफ है कि वे देश के भीतर चल रहे सारे आंदोलनों के बारे में कह रहे हैं। अगर उनको अवध के आंदोलन को अलग करना होता तो वे इस बात का जिक्र जरूर करते, लेकिन वे लिखते हैं- “इन्हीं दिनों देश में आंदोलन जोरों का चला, यही जो चतुरी आदिक के कारण फिस्स  हो गया है। होटल में रहकर देहात से आने वाले शहरी युवक मित्रों से सुना करता था।” एक अवध का किसान आंदोलन है, दूसरा है कांग्रेस का सविनय अवज्ञा आंदोलन। सविनय अवज्ञा आंदोलन की विफलता का ठीकरा किसानों और छात्रों पर फोड़ा गया, क्योंकि सविनय अवज्ञा आंदोलन में असहयोग आंदोलन के सापेक्ष किसानों और छात्रों ने एकदम भागीदारी नहीं की। इसका कारण बड़ा स्पष्ट था, किसान और छात्र युवाओं के सवालों को सविनय अवज्ञा आंदोलन जगह नहीं दे रहा था। असहयोग आंदोलन में पढ़ाई छोड़कर राजनीति में कूदे छात्र युवा अपने को किसानों और मजदूरों के संघर्ष से जोड़ते हैं। इसी युवाओं-छात्रों के यहां, पहली बार अपने को 1857 के संघर्ष से जोड़ने की बात भी दिखती है। जबकि कांग्रेस अभी भी किसानों और मजदूरों को लेकर असुविधा महसूस कर रही थी। कहानी का यह अंश   देखिए, “जो चतुरी ‘आदिक’   के कारण फिस्स  हो गया है”। यह रियलाइजेशन किसका है? तो, शहरी युवकों का, जो कांग्रेस की तरफ से आंदोलन में संभावना तलाशने गए हैं। इन शहरी युवकों  की सामाजिक बुनावट जानने के लिए कहीं और नहीं जाना है,  निराला की कहानियों में ही वह व्यापक रूप से वर्णित मिल जाएगा। ये युवक आदर्शवाद और यथार्थ के बीच उलझे हैं, और अधिकांश का आदर्शवाद चकनाचूर हो जाता है यथार्थ के सामने आते ही। आदर्श है राष्ट्रीय मुक्ति का आन्दोलन और यथार्थ है, जाति-भेद और वर्ग हित। शहरी लोगों का यह हिस्सा उन्हीं जमीदारो/तालुकेदारों /महाजनों के बीच से आता है, जिनके खिलाफ किसानों और निचली जातियों का आंदोलन है। किसानों में भी मध्यवर्ती जातियां- जैसे, कुर्मी-कोइरी आदि हैं, जो सामाजिक सीढ़ी  में नीचे पड़ती हैं। इनसे एकता बनाने में दिक्कत है। युवकों की  यह दिक्कत कांग्रेस की भी दिक्कत है। छोटे से वाक्यांश  से कहानी में यह बात स्पष्ट हो जाती है। “होटल में रहकर”, “देहात से आने वाले शहरी युवक मित्रों”, मित्रों से ही यह स्पष्ट होता है, कि यह युवक कांग्रेसी हैं, क्योंकि खुद निराला कांग्रेस के अधिवेशन  में जाते थे। आगे और स्पष्ट होता है, “मेरे गांव की कांग्रेस ऐसी थी कि जिले के साथ उसका कोई ताल्लुक न था। किसी खाते में वहां के लोगों के नाम दर्ज न थे।” नाम क्यों नहीं दर्ज थे? इसलिए, कि यह जो गांव की कांग्रेस थी, उसका सामाजिक आधार मध्यवर्ती और निचली जातियों से मिलकर बना था और जिसका संघर्ष स्थानीय जमीदारों/तालुकेदारों/महाजनों से था। इसीलिए “गांव में कांग्रेस है इसका पता न सब डिवीजन में लगा न जिले में।”

तो फिर यह कांग्रेस, कौन सी  कांग्रेस थी? इस कांग्रेस को जानना चाहिए! इसके लिए 1919 से 1931 ईस्वी  के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में आए परिवर्तनों को देखना चाहिए! स्थानीय आन्दोलनों के नेचर को समझना चाहिए! 1920 में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में अवध का किसान  आंदोलन फूट पड़ा। पंजाब में किरती सभा के अंतर्गत  किसान और छात्र, कांग्रेस से अलग आजादी के  मायने लेकर आने लगे थे,  जिसकी अभिव्यक्ति  ज्यादा ठोस ढंग से भगत सिंह और उनके साथियों के संगठनों में हुआ। जो,   1922 ईस्वी के असहयोग आंदोलन के किसान भागीदारी से कांग्रेस के पीछे हटने से लेकर 1931 तक अपनी सक्रियता/गतिविधि और विचारों के कारण राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर पहचान बना चुका था। और, लगभग  पूरे देश में  लोकप्रिय हो चुका था। इनकी आजादी की लड़ाई कांग्रेस की आजादी की लड़ाई से तात्विक रूप से  भिन्न  थी। इनकी आजादी की लड़ाई में, निशाने पर अंग्रेजी शासन था, तो साथ ही,  देसी शासन था। जमीदार/तालुकदार/महाजन था। इनके निशाने पर जाति व्यवस्था थी, सामाजिक भेदभाव था। कांग्रेस की तरह इनके पास संगठन नहीं था, जिसके चलते आमजन में यह कांग्रेस के रूप में ही चिन्हित किए जाते थे।

निराला इस अंतर को, विभाजन को देखते हैं, इसे जानने की प्रक्रिया में खुद को डालते हैं, स्वयं बदलते हैं और बदलाव के वाहक भी बनते हैं। 1930 के दशक में कांग्रेस के अधिवेशन अटेंड करने वाले निराला 1940 के दशक में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता बन जाते हैं। यह सब उनकी कहानियों में ही है, कहीं और जाने की जरूरत नहीं इसके लिए। कहानी में, निराला अगर गांव के आंदोलन को कांग्रेस के आंदोलन से अलग देखते हैं, तो गांव के आंदोलन में भी किसान और दलितों के बीच के विभाजन को भी देखते हैं। कहानी का यह अंश देखा जाए- “इससे तो बचाव हुआ, पर मुकदमा चलता रहा। ऑनरेरी  मजिस्ट्रेट ने जिनके एक रिश्तेदार जमीदार की तरफ से वकील थे, किसानों पर जमीदार को डिगरी दे दी।”

ध्यान देने की बात है कि मजिस्ट्रेट का रिश्तेदार वकील है और वह जमीदारों की तरफ से केस लड़ता है। अन्याय जिधर है, उधर शक्ति और इस शक्ति का सामाजिक संबंध चक्र है कहानी में- मजिस्ट्रेट-वकील-जमीदार।

कहानी में आगे का अंश देखिए- “बाद को चतुरी वगैरह की बारी आयी” किसानों से अलग चतुरी ‘वगैरह’ है। “दावे दायर हो गये। अब तक जो सम्मिलित धन मुकदमों में लग रहा था, अब सब खर्च हो गया। पहले की डिगरी में कुछ लोगों के बैल वगैरह नीलाम कर लिए गए। लोग घबरा गए। चतुरी को मदद की आशा न रही। गांव वालों ने चतुरी आदि के लिए दोबारा चंदा न लगाया।”

चतुरी, ‘आदि’ में आते हैं। निराला ने ‘आदि’ के प्रयोग से अवध के किसान आन्दोलन के भीतर की तहों को उभार दिया है। चतुरी के लिए दोबारा चंदा नहीं लगा।

 

यथार्थ की जटिल और स्तरों में बँटी  परतें  इस कहानी में इतने सहज ढंग से कहन शैली में व्यक्त हुई हैं, जो प्रेमचंद की कहानियों में  तो नहीं, हाँ, उपन्यासों में मिलेगी। जैसे चतुरी चमार को प्रेमाश्रम के साथ मिलाकर पढ़ा जा सकता है। और प्रेमचंद के लिए जो टेल्स ऑफ माइजरी  की जो बात  नामवर सिंह ने की है, वह निराला की कहानियों में भी मिलेगा। अर्थात, ग़म की कहानी मजे लेकर कहना। खैर

कहानी का अंत जिस सामाजिक चेतना के उदय के साथ हुआ है, उसकी भी मिसाल हिंदी कहानी में उस दौर में नहीं है।

“मैंने गांव में कुछ पक्के गवाह ठीक कर दिये। सत्तू बांधकर, रेल छोड़कर, पैदल दस कोस उन्नाव चलकर, दूसरी पेशी के बाद पैदल ही लौट कर हंसता हुआ चतुरी बोला, काका, जूता और पुर वाली बात अब्दुल अर्ज  में दर्ज नहीं है।” वाज़िब उल अर्ज़ में किसान और जमीदार के बीच में तयशुदा अधिकार दर्ज़ होते थे, जो भू-बंदोबस्ती की ब्रिटिश व्यवस्था के साथ चलते रहे, अवैध थे, फिर भी। कहानी का मुख्य विचार तत्व प्रकट होता है। चतुरी इस प्रक्रिया में स्वयं इस नतीजे पर पहुंचता है, कि पुश्त दर पुश्त जमीदार की  गुलामी का कोई आधार नहीं है। इसे निराला ने चतुरी को नहीं बताया, चतुरी ने खुद अपने जीवन के अनुभवों से इसे पाया। चतुरी जिस जाल में घिरा है, उस जाल का एक सिरा कटता है।

यह कहानी की कथावस्तु/कथासत्य का एक पक्ष/स्तर है, जिसमें सामाजिक भेदभाव, दलित जातियों की स्थिति, जमीदारी/तालुकदारी व्यवस्था, राष्ट्रीय आंदोलन में जाति के सवाल, राष्ट्रीय आंदोलन की सीमाएं/कन्फ्लिक्ट उभर कर सामने आते हैं।

नैरेटर का ‘स्व’ और उसकी सामाजिकता

कहानी का दूसरा पक्ष नैरेटर  के आत्म/स्व/सेल्फ़  से जुड़ा है। जैसा कि, पहले हो आया है, कि निराला अपने स्व/आत्म/सेल्फ/स्वाधीनता  को एक व्यापक,  आधुनिक और जनतांत्रिक दायरे तक विस्तृत करते हैं। यह सब उनके खुद के लिए बहुत मूल्यवान है। और, इसीलिए वे स्वयं की जिंदगी में बेहद त्रासद स्थितियों से गुजरते हैं। पूरा जीवन उनका विकट, भीषणतम दुनियावी और आत्मिक  संघर्ष से गुजरता है। स्वाधीनता निराला के खुद के जीवन में कितना बड़ा मूल्य है, आधुनिकता उनके खुद के जिंदगी का कितना जरूरी हिस्सा है, उसे इसी कहानी में देखा जा सकता है। खुद के लिए कोई और जगह, दूसरे के लिए और जगह- यह निराला की नैतिकता नहीं। अर्जुन के साथ अपने पुत्र के बर्ताव पर वे हस्तक्षेप करते हैं, लेकिन अर्जुन के साथ मनुष्योचित व्यवहार चाहने वाले निराला, पुत्र के साथ पिछड़ी हुई नैतिकता के साथ खड़े पिता जैसा व्यवहार नहीं करते। उसके साथ भी मनुष्योचित व्यवहार ही है, आधुनिक मनुष्य का ही व्यवहार है। पुत्र के वर्णवादी, हायरार्की वाले दंभी व्यवहार की प्रतिक्रिया वे इस तरह देते हैं-

“मैंने सोचा प्रकट होना चाहिए। मुझे देखकर अर्जुन खड़ा हो गया। आंखें मलमल कर रोने लगा। मैंने पुत्र रत्न से कहा, कान पकड़कर उठो बैठो दस दफे उसने नजर बदल कर कहा मेरा कुसूर कुछ नहीं और मैं यूं ही कान पकड़कर उठूं-बैठूं, तो मैंने कहा, तुम इससे गुस्ताखी कर रहे थे। उसने कहा, तो आपने भी की होगी। इससे गुण कहला दीजिए, आपने पढ़ाया तो है। इसकी किताब में लिखा है। मैंने कहा, तुम हंसते क्यों थे? उसने कहा क्या मैं जानबूझकर हंसता था? मैंने कहा, अब आज से तो तुम इससे बोल न सकोगे! लड़के ने जवाब दिया, मुझे मामा के यहां छोड़ आइए! चिरंजीव को नाई के साथ भेज कर मैंने अर्जुन और चतुरी को सांत्वना दी।”

कहानी में अन्य प्रसंग भी हैं, जिनसे निराला के सामाजिक व्यवहार की प्रकृति को समझा, जाना जा सकता है। “अर्जुन को नयी और इतनी बड़ी उम्र में इतने छोटे से काका को श्रद्धा देते हुए प्रकृति के विरुद्ध दबना पढ़ता था।” अर्थात, अपने से छोटी उम्र के ब्राह्मण को दलित द्वारा दी गई श्रद्धा को निराला ‘प्रकृत के विरुद्ध’ कह रहे हैं। जबकि, ब्राह्मण ग्रंथ और वर्णवादी व्यवस्थाकार इसे ही दैवीय विधान, नैतिक और धर्मसम्मत मानते हैं। जिसे, ‘प्रकृति के विरुद्ध’ व्यवहार कहकर निराला ने वर्णवादी, धर्मसम्मत, शास्त्रों के अनुकूल नैतिक व्यवहार को अप्राकृतिक बता दिया। जबकि, उस समय साहित्य में शुक्ल जी और राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी  जाति को लेकर स्पष्ट नहीं  थे और गोल गोल भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे। जब निराला को उनके समय के बौद्धिकों, राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य लीडरशिप के सापेक्ष रखकर देखा जाएगा, तो यह ज्यादा स्पष्ट होगा कि निराला इतिहास/परंपरा/समस्त मनुष्य-व्यवहार/सामाजिकता/राष्ट्रीय आंदोलन को किस कसौटी पर रख कर देख रहे थे। और, तभी समझ में आएगा कि निराला अपने दौर के हिंदी भाषा और समाज के विरले इनलाइटेंड व्यक्तित्व हैं। यह इनलाइटमेंट उनके खुद के भीतर घटित हो रहा है। इसीलिए हिंदी में सिर्फ निराला के यहां इतना भीषण संघर्ष, त्रासदी  है। इसकी इंटेंसिटी काव्य की रचना प्रक्रिया में इतनी ज्यादा  है कि उन्हें शिजोफ्रेनिक,  पागल मान लिया गया और रांची के पागलखाने में भी रख दिया गया। लेकिन, गद्य में यह व्यापक दायरे तक अपना विस्तार करता है, तमाम चरित्रों से होकर गुजरता है। इसीलिए, गद्य में बात और स्पष्ट होती है और इंटेंसिटी का वह रूप नहीं मिलता। पर, काव्य में जो है, उसका संकेत मिल जाता है। चतुरी चमार कहानी के कुछ गद्यांश और-

“मैं ब्राह्मण संस्कारों की सब बातों को समझ गया, पर उसे उपदेश क्या देता? चमार दबेंगे, ब्राह्मण दबाएँगे। दवा है, दोनों की जड़े मार दी जाए, पर यह सहज साध्य नहीं। सोच कर चुप हो गया।”

‘सहज साध्य’ नहीं सोच कर ‘चुप’ हो गया। दोनों  को एक साथ रखकर राम की शक्ति पूजा के भीतर के भीषण संघर्ष और पराजित व्यक्ति की ट्रेजडी से गुजरिए!  एक इनलाइटेंड व्यक्ति और पिछड़े हुए सामाजिक स्थिति, पिछड़े हुए राष्ट्रीय आंदोलन की स्थित का द्वन्द्व,  संघर्ष भीषणतम ही होगा। बाहर कम, भीतर ज्यादा।

बाहर कम हैः इसे कहानी के ही एक गद्यांश से देखिए-  “घृतपक्व  मसालेदार मांस की खुशबू से जिसकी भी लार टपकी, आप निमंत्रित होने को पूछा। इस तरह मेरा मकान साधारण जनों का अड्डा, बल्कि हाउस आफ कॉमन्स हो गया।” बाहर का यह ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’  जब भीतर उतरता है, तो शुरू होता है भीषण संघर्ष। निराला का आत्म/स्व/सेल्फ इसी  हाउस ऑफ कॉमन्स  से घिरा रहता है। यह हाऊस ऑफ कॉमन्स  कौन है? कहानी में ही है- लोध, पासी, धोबी, नाई और चमार। इसका अगला स्तर, बढ़ाव मुक्तिबोध में मिलेगा।

‘चतुरी चमार’ कहानी में कथावस्तु के और भी स्तर/पक्ष हैं, जैसे हिंदी साहित्य, पत्रकारिता और आलोचकों को लेकर की गई चुटकियाँ, जो बहुत ही मानीखेज  है,  लेकिन यह निराला की सभी कहानियों में है, तो इसे उनकी कहानियों में अलग से देखा जा सकता है, एक साथ रखकर। इस कहानी के लिए आखिरी बात यह कि इसे निराला की ‘श्यामा’ कहानी के साथ रखकर पढ़ना चाहिए! औपनिवेशिक भूमि-सम्बन्ध और जाति-वर्ण का प्रश्न वहाँ और स्पष्ट ढंग से मिलेगा!

(‘बनास जन’ में पूर्व में प्रकाशित)

फीचर्ड इमेज गूगल से साभार

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