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सोरांव में मुक्तिबोध पुस्तकालय का उद्घाटन तथा जन-शिक्षा और पुस्तकालय विषय पर संगोष्ठी

कॉ. मीना राय स्मृति पुस्तकालय अभियान का पहला आयोजन

जन संस्कृति मंच द्वारा इलाहाबाद के सोरांव कस्बे में स्थापित मुक्तिबोध पुस्तकालय का उद्घाटन रविवार, 10 दिसम्बर 2023 को किया गया।

पुस्तकालय का उद्घाटन हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अध्यक्ष प्रो. प्रणय कृष्ण ने फीता काटकर किया।

 

उद्घाटन-सत्र की शुरुआत जसम की सांस्कृतिक टीम के डी.पी.सोनी (बंटू) तथा अंकुर राय द्वारा मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ की लयबद्ध प्रस्तुति से हुई। उद्घाटन के अवसर पर समकालीन जनमत पत्रिका के प्रधान संपादक कॉ. रामजी राय, जसम-उ.प्र. के सचिव डॉ. राम नरेश राम, उपाध्यक्ष सुश्री रूपम मिश्र, पुस्तकालय अभियान के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. गीतेश सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. अंशुमान कुशवाहा, डॉ. जनार्दन, सी.एम.पी. डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद के प्राध्यापक डॉ. प्रेमशंकर सिंह, जसम-इलाहाबाद की सचिव शिवानी, मुक्तिबोध साहित्य के अध्येता डॉ. रामशिरोमणि शुक्ल समेत कई स्थानीय छात्र, युवा, साहित्यप्रेमी, संस्कृतिकर्मी उपस्थित रहे। उद्घाटन के अवसर पर मुक्तिबोध साहित्य के अध्येता डॉ. रामशिरोमणि शुक्ल ने मुक्तिबोध के रचना-कर्म पर केंद्रित अपनी एक कविता का पाठ भी किया। इस सत्र का संचालन युवा आलोचक दुर्गा सिंह ने किया।

उद्घाटन के पश्चात सभी आगंतुकों ने पुस्तकालय का अवलोकन किया जिसमें विभिन्न विधाओं की पुस्तकों को अलग-अलग अलमारियों और रैकों में प्रदर्शित किया गया था। साथ ही पुस्तकालय की दीवारों को कलात्मक कविता-पोस्टरों से सजाया गया था। पुस्तकालय की कलात्मक-सज्जा में एक प्रमुख आकर्षण महात्मा गाँधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय, चित्रकूट के फाइन आर्ट्स के छात्र और मुक्तिबोध पुस्तकालय से जुड़े उदीयमान चित्रकार आश्रय निगम द्वारा बनाया गया मुक्तिबोध का पेंसिल स्केच रहा, जिसकी सभी आगंतुकों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की।

 

पुस्तकालय के व्यवस्थापक आलोक कुमार श्रीवास्तव ने आगंतुकों को बताया कि जन-सहयोग से नि:शुल्क संचालित इस पुस्तकालय में आलोचना, कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, इतिहास और दर्शन, स्वास्थ्य संबंधी पुस्तकें, बाल-साहित्य इत्यादि श्रेणियों में फिलहाल एक हजार से अधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं।

 

इसके अतिरिक्त साहित्यिक पत्रिकाओं का अच्छा संग्रह भी है। पुस्तकालय जाड़े के मौसम में प्रतिदिन अपराह्न तीन बजे से शाम छह बजे तक और गर्मी के मौसम में अपराह्न चार बजे से शाम सात बजे तक खुला करेगा, जहाँ आगंतुक बैठकर किताबें पढ़ सकेंगे।

आयोजन के दूसरे सत्र में ‘जन-शिक्षा और पुस्तकालय’ विषय पर केंद्रित एक संगोष्ठी रखी गयी थी। इस सत्र की शुरुआत कॉमरेड मीना राय स्मृति सभा से हुई। सत्र का संचालन कर रहे सी.एम. पी. डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद के प्राध्यापक डॉ. प्रेमशंकर सिंह ने मौजूदा समय में सत्ता-तंत्र की ज्ञान-विरोधी मंशा और जन-शिक्षा के प्रति उसके दमनकारी रवैये के संदर्भ में मुक्तिबोध की इतिहास-पुस्तक ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ पर लगाए गए सरकारी प्रतिबंध की चर्चा करते हुए जनता के इतिहास और संस्कृति को बचाने में पुस्तकालयों की ज़रूरत और मुक्तिबोध के विचारों की प्रासंगिकता की चर्चा की।

 

उन्होंने मुक्तिबोध की ही कविता पंक्तियों को उद्धृत करते हुए कॉमरेड मीना राय (जिन्हें लोग स्नेहपूर्वक मीना भाभी कहकर बुलाते थे) को भी याद किया। कॉ. मीना राय स्मृति सभा में समकालीन जनमत के सम्पादक मंडल के सदस्य और अनुवादक दिनेश अस्थाना ने ‘समर न जीते कोय’ की लेखिका और समकालीन जनमत पत्रिका की प्रबंध सम्पादक कॉमरेड मीना राय को भावपूर्वक याद करते हुए इस आंदोलन में उनके योगदान को रेखांकित किया।

संगोष्ठी का विषय-प्रवर्तन करते हुए जसम के पुस्तकालय अभियान के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. गीतेश सिंह ने कहा कि सरकारी संस्थानों में घटते हुए पुस्तकालयों और लिखने-पढ़ने की संस्कृति में गिरावट, डिजिटलीकरण के नाम पर सरकारों द्वारा जन-शिक्षा की जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लेने के बाद जन-सहयोग से संचालित इस प्रकार के पुस्तकालयों की आवश्यकता और प्रासंगिकता बढ़ गयी है। पुस्तकालय अभियान से जुड़े कॉमरेड मीना राय के विज़न की चर्चा करते हुए उन्होंने प्रस्ताव किया कि आज से इस अभियान को कॉमरेड मीना राय पुस्तकालय अभियान के नाम से जाना जाएगा। इस प्रस्ताव का उपस्थित जन-समूह ने करतल-ध्वनि से स्वागत किया। इस अवसर पर मुक्तिबोध पुस्तकालय द्वारा तैयार किए गए पुस्तकालय अभियान के विज़न डॉक्यूमेंट का पाठ पुस्तकालय के व्यवस्थापक आलोक कुमार श्रीवास्तव द्वारा किया गया। 

संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए कवयित्री रूपम मिश्र ने ‘कल्याण’ जैसी पत्रिकाओं के कारण समाज में तेजी से बढ़ रहे धार्मिक पाखंड, जातीय और लैंगिक भेदभाव की शिनाख़्त की और बताया कि जिन गाँवों में पाठ्यक्रम की किताबों के अलावा अन्य किसी भी प्रकार के साहित्य की पहुँच नहीं है वहाँ भी ‘कल्याण’ जैसी पत्रिकाओं की पहुँच है। उन्होंने पिछले दिनों बनारस में सर्व सेवा संघ के पुस्तकालय की लगभग दो लाख पुस्तकों को सड़क पर फेंक दिये जाने की घटना का ज़िक्र करते हुए कहा कि इस समय पुस्तकालय, स्मृति, इतिहास, भाषा को नष्ट करना राज्यसत्ता और कॉरपोरेट के एजेंडे पर है।

ऐसे में पुस्तकालयों की स्थापना और संरक्षण हम नागरिकों की जिम्मेदारी बन गयी है। हमें बच्चों को पाठ्यक्रम से इतर पुस्तकें भी पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। उन्होंने प्रश्न उठाया कि क्या भगत सिंह जैसे महान क्रांतिकारी पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढ़कर ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ जैसी रचना लिख सकते थे। उन्होंने बताया कि सत्ता और पूँजीवादी व्यवस्था को तर्कशील, वैज्ञानिक चेतना-संपन्न समाज से समस्या इसलिए है क्योंकि इससे बाज़ार को घंटों चुपचाप खटने वाले नये तरह के मजदूर मिलने में दिक्कत होती है। आज विज्ञान पढ़ने वालों के भीतर कोई वैज्ञानिक चेतना नहीं दिखती क्योंकि वे बाज़ार की आवश्यकता के अनुसार एक उत्पाद के रूप में तैयार किए जा रहे हैं। नागरिकों को लोकतांत्रिक चेतना से सम्पन्न करने के लिए भारत की आज़ादी के समय शुरू किए गए पुस्तकालय अभियान अब पूरी तरह दम तोड़ चुके हैं।

 

ऐसे समय में वैकल्पिक जन-शिक्षा केंद्र के रूप में जन-सहयोग से संचालित पुस्तकालय की स्थापना के लिए उन्होंने स्थानीय लोगों को बधाई दी और आशा प्रकट की कि यह पुस्तकालय एक जागरण-केंद्र के रूप में अपनी भूमिका निभाने में सफल होगा।

संगोष्ठी के दूसरे वक्ता और गोरखपुर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर डॉ. राम नरेश राम ने मुक्तिबोध पुस्तकालय को सोरांव के चिराग की संज्ञा देते हुए यह विश्वास प्रकट किया कि यह पुस्तकालय इस क्षेत्र में व्याप्त अज्ञान के अँधेरे को दूर करने में सहायक होगा और सोरांव में नयी चेतना के विकास, जनता की प्रतिरोधी चेतना और वैकल्पिक शिक्षा का केंद्र बनेगा। उन्होंने अध्यापकों और छात्रों का आह्वान किया कि वे पढ़ने-लिखने की संस्कृति के विकास और विस्तार में अपनी भूमिका तय करें। उन्होंने कहा कि इस अभियान से परिचित अध्यापकों को अपने छात्रों के बीच और छात्रों को अपने मित्रों के बीच इस अभियान को ले जाना चाहिए।

उन्होंने यह भी कहा कि प्रतिगामी शक्तियों से मुकाबला करने के लिए इस अभियान में निरंतरता बहुत आवश्यक है।

युवा आलोचक डॉ. दुर्गा प्रसाद सिंह ने सोरांव में जनता के लिए नि:शुल्क उपलब्ध मुक्तिबोध पुस्तकालय के उद्घाटन को एक महत्वपूर्ण घटना बताते हुए जन-शिक्षा के क्षेत्र में इस कार्य के महत्व को रेखांकित किया। उन्होंने आजादी के आंदोलन में किताबों और पुस्तकालयों की भूमिका की चर्चा करते हुए इतिहास के हवाले से बताया कि उस समय इलाहाबाद में नेहरू परिवार की स्त्रियाँ किताबें लेकर लोगों के बीच जाया करती थीं और महिलाओं द्वारा सामूहिक रूप से किताबें पढ़ी जाती थीं। उन लोगों ने पत्रिकाएं भी निकालीं। इस प्रकार राजनीतिक परिवारों के लोग अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वाह करते थे। साहित्यकार भी अपने सामाजिक दायित्व को समझते थे।

 

‘निराला’ ने 1933-34 में ‘पुस्तकालय और जन-शिक्षा’ विषय पर टिप्पणी के रूप में एक स्वतंत्र लेख लिखकर पुस्तकालयों की आवश्यकता और महत्ता की बात उठायी थी जिस पर आज हम विचार कर रहे हैं। उस लेख में निराला ने लिखा था कि पुस्तकालय के संचालन के लिए संगठन का होना बहुत आवश्यक है। यद्यपि निराला स्वयं किसी संगठन से नहीं जुड़े थे लेकिन उन्होंने कहा कि ऐसे पुस्तकालय खोले जाने चाहिए और उनके संचालन के लिए संगठन होना चाहिए। यह विचार रखने वाले ‘निराला’ उस समय हिंदी के अकेले लेखक थे। इलाहाबाद की पहचान से जुड़े साहित्यकार ‘निराला’ के इस विचार का महत्व हमें आज समझना चाहिए।

उन्होंने आगे बताया कि जन-शिक्षा के उद्देश्य से आजादी के बाद भी भारत में बहुत सारे नि:शुल्क पुस्तकालय खोले गए। बहुत-से लोगों ने व्यक्तिगत प्रयासों से भी ऐसे पुस्तकालय खोले और लम्बे समय तक ये पुस्तकालय संचालित हुए। ऐसे पुस्तकालयों में इलाहाबाद के प्रसिद्ध साहित्यकार मार्कण्डेय जी द्वारा अपने गाँव में खोला गया पुस्तकालय विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जहाँ जब तक पुस्तकालय चलता रहा, कोई प्रतिक्रियावादी विचारधारा उस क्षेत्र में कभी प्रभावी नहीं होने पायी। यह उस पुस्तकालय का सामाजिक योगदान रहा।

उस पुस्तकालय ने जौनपुर जिले की केराकत तहसील क्षेत्र में विचारों से आधुनिक और प्रगतिशील मनुष्यों की दो पीढ़ियों के निर्माण का कार्य किया। उन्होंने बताया कि सरकारी संस्थाओं द्वारा पुस्तकालय-संस्कृति के प्रति बेरुखी बरते जाने के कारण आज हमें ऐसे अभियान लेने की ज़रूरत पड़ रही है। सरकारी संस्थाओं द्वारा संचालित पुस्तकालयों में ऐसी स्थिति बना दी गयी है कि लोग वहाँ जाना ही न चाहें।

यह बहुत शातिर तरीके से पुस्तकालयों को नष्ट करने की एक सुनियोजित साजिश है जिसका उदाहरण पिछले दिनों बिहार में एक पुस्तकालय को जलाया जाना है। ऐसी पृष्ठभूमि में सोरांव में खुला मुक्तिबोध पुस्तकालय सिर्फ सोरांव का चिराग ही नहीं है बल्कि हम सबको यह प्रेरणा देता है कि हम भी अपने-अपने गाँवों में, छोटे ही सही, ऐसे स्थान विकसित करें जहाँ लोग बैठकर पढ़ना चाहें ताकि शिक्षा के निजीकरण से उत्पन्न बेतहाशा महँगाई के कारण स्कूलों की शिक्षा से वंचित लोग भी ज्ञान से वंचित न रहें।

संगोष्ठी के मुख्य वक्ता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर प्रणय कृष्ण ने अपने वक्तव्य की शुरुआत कॉमरेड मीना राय को याद करते हुए की और कहा कि हम सभी लोग मीना भाभी के परिवार का विस्तार हैं, उन्होंने जीवन में केवल अपना परिवार नहीं चलाया बल्कि अपने कार्य से उन्होंने कई परिवारों को इकट्ठा कर दिया, जिसका केंद्रबिंदु वे स्वत: बन जाती थीं। वह एक सम्पूर्ण इंसान थीं जिसकी कहानी अधूरी रह गयी। उन्होंने अपने जीवन की कथा लिखनी शुरू की थी, उनका वह कार्य अधूरा रह गया, जिसकी ख़लिश रहेगी लेकिन मीना भाभी का जीवन-कर्म हमें यह बतलाता है कि किताबें पाठकों तक कैसे पहुँचाई जानी चाहिए। इसलिए इस अभियान को उनका नाम देना बिल्कुल सार्थक है। उन्होंने आगे कहा कि हम जिस तरह के सांस्कृतिक केंद्र के रूप में पुस्तकालयों की कल्पना करते हैं, आज उसकी एक झलक देखने को मिली है। आज मुक्तिबोध पुस्तकालय के उद्घाटन कार्यक्रम में गीत गाए गए, गोष्ठी हो रही है, हो सकता है भविष्य में फिल्में भी दिखायी जाएं। इस प्रकार की अनेकमुखी गतिविधियों के माध्यम से ऐसे पुस्तकालय अपने आसपास के लोगों को इस अभियान से जोड़ने और उनकी चेतना के द्वार खोलने का कार्य करते हैं। जैसे-जैसे यह आंदोलन आगे बढ़ेगा, वैसे-वैसे इसकी परिकल्पना के कुछ और नये क्षितिज भी खुलेंगे। हम अपने अनुभवों से सीखते हुए आगे बढ़ते हैं, इसलिए इस अभियान में भी बहुत-सी चीज़ें हमें आगे चलकर दिखेंगी। यह आंदोलन एक तरह का जन-जागरण है जो अभी और आगे चलेगा। आज मीना भाभी को याद करते हुए, उनके सपनों को पूरा करने के क्रम में हमें खुद में भी लोकतांत्रिक और कम्युनिस्ट चेतना के वे परिवर्तन करने की कोशिश करनी चाहिए जिन उद्देश्यों के लिए मीना भाभी जीवन भर समर्पित रहीं। यह भी उन्हें एक तरह से श्रद्धांजलि होगी।

संगोष्ठी का अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए ‘समकालीन जनमत’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक कॉमरेड रामजी राय ने पुस्तकों की संज्ञा के साधारणीकरण से बचने की चेतावनी दी। उन्होंने अपने वक्तव्य के आरम्भ में ही श्रोताओं को किताबों के चयन में सावधान रहने की सलाह दी और बताया कि सब किताबें रोशनी ही नहीं देती हैं, कुछ पुस्तकें आपको अंधा भी बनाती हैं, आपको नष्ट भी करती हैं, और कुछ पुस्तकें आपको आगे ले जाती हैं, आपकी धारणाओं से लड़ती हैं, आपके पुराने ख़यालात और पिछड़े विचारों को समाप्त करती हैं।

यह लाइब्रेरी पुराने ख़यालात के खिलाफ, नये विचारों वाली किताबों की लाइब्रेरी है, इस पर हमले हो सकते हैं, प्रतिबंध लग सकता है। मुक्तिबोध की कविता की दो पंक्तियों “जल रही है लाइब्रेरी पोर्सेपोलिस की/ हमने सिर्फ नालिश की, हमने सिर्फ नालिश की” को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि सत्य को योद्धा होना पड़ेगा, वह केवल निवेदन-सौंदर्य बनकर नहीं रहता। मीरा का जीवन इसका उदाहरण है। उन्होंने बताया कि किताबों को जाँचने का  तरीका यही है कि जो किताब हमारी धारणाओं से टकराए, वही श्रेष्ठ है।

पुराने समय में शिक्षा का उद्देश्य भी यही कहा गया था – ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात विद्या वह है जो बंधनमुक्त करती है। जीवन-चक्र से बंधनमुक्त नहीं, अज्ञान से, रूढ़ियों से, सामाजिक बंधनों से मुक्त करने का रास्ता दिखाने का कार्य विद्या करती है। दूसरी सारी चीजें अविद्या ही हैं। आज के जमाने में ‘विद्या ददाति विनयम’ का श्लोक पूरी तरह पलट गया है और सब कुछ धन-केंद्रित करने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में पुस्तकालय इस घेराबंदी में एक सेंध है। इसलिए यह लाइब्रेरी धीरे-धीरे हमारे चौतरफा विकास का केंद्र बनेगी।

बुद्धिजीवी होने का आशय यह है कि यदि सूरज में भी धब्बे हों तो हममें उसकी ओर उँगली उठाकर यह कहने का साहस होना चाहिए कि सूरज में धब्बे हैं। उन्होंने अपने वक्तव्य का समापन इस संकल्प के साथ किया कि अपनी दृष्टि और स्मृतियों को बचाने के लिए हमें धीरे-धीरे इन पुस्तकालयों से आगे नये विद्यापीठों के निर्माण की ओर बढ़ना है।

 

संगोष्ठी का समापन आलोक कुमार श्रीवास्तव द्वारा सभी आगंतुकों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ। कार्यक्रम के अंत में सभी उपस्थित लोगों ने पुस्तकालय की छत पर ही अनौपचारिक बातचीत करते हुए चाय पी और इस आयोजन की स्मृतियों को संरक्षित करने के लिए समूह-फोटो खिंचवाए। लगभग पूरे दिन चले इस आयोजन की व्यवस्था से जुड़े कार्य पुस्तकालय टीम के कौशल कुमार श्रीवास्तव (संचालक, पूर्वांचल पुस्तक भवन), जितेंद्र कुमार राव, पुरुषोत्तम द्विवेदी, रौनक कुमार, आदेश निगम, अविकल्प श्रीवास्तव और आर्यन यादव द्वारा सम्पन्न कराए गए। स्थानीय केटरर श्री सुशील कुमार यादव द्वारा इस आयोजन में आये लोगों के लिए बेहद किफायती दरों पर भोजन और चाय की व्यवस्था की गयी थी। आयोजन में रेखारानी, शिवानी श्रीवास्तव, दीपक सिंह, कामिनी त्रिपाठी, प्रतिमा सिंह, सोनम श्रीवास्तव, रवींद्र कुमार पाण्डेय, गुंजना श्रीवास्तव, जावेद, प्रतिष्ठा, सत्यम यादव समेत पचास से अधिक लोग उपस्थित रहे और उद्घाटन के बाद पुस्तकालय रात लगभग 10 बजे तक खुला रहा। स्थानीय निवासी और बी.ए. तृतीय वर्ष के छात्र सत्यम यादव ने स्वेच्छा से प्रतिदिन निर्धारित समय पर पुस्तकालय को खोलने और बंद करने की जिम्मेदारी स्वीकार की। स्थानीय बच्चों में पुस्तकालय को लेकर विशेष उत्साह देखा गया।

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