इलाहाबाद, 31 जुलाई 2024 को मोहम्मद रफ़ी स्मृति आयोजन समिति द्वारा उनके पुण्यतिथि पर बाल भारती स्कूल के प्रांगण में याद-ए-रफ़ी आयोजित किया गया।
मोहम्मद रफी स्मृति आयोजन समिति का गठन रफ़ी साहब से प्रेम करने वाले लेखकों संस्कृतिकर्मियों ने मिलकर किया. जिसके इस वर्ष के संयोजन का दायित्व अंशु मालवीय को सौंपा गया. समिति की कार्यकारिणी के अन्य सदस्य हरीशचन्द्र पांडे, अनिता गोपेश, प्रियदर्शन मालवीय, अशरफ अली बेग़, बसंत त्रिपाठी, सन्ध्या नवोदिता और प्रेमशंकर हैं.
रफ़ी याद किये जाने के मोहताज़ तो नहीं हैं; लेकिन, रफ़ी को याद करना अपनी स्मृति के साथ न्याय करने जैसा है। वह स्मृति, जो सिर्फ़ व्यक्तिगत ही नहीं है—जिसमें प्रेम से लेकर साम्प्रदायिकता के दंश तक का विस्तार है, वह स्मृति जो सामाजिक और ऐतिहासिक परिधि को नापती है, उसमें भारतीय सिनेमा के लगभग एक शताब्दी के गौरव में रफ़ी एक सुनहरी-चमकीली आवाज़ हैं, जिसमें एक कोई मींड भी जाया नहीं हो रही है।
यूँ तो रफ़ी की आवाज़ उनके सुनने वालों के दिलों में हमेशा अमर रहेगी, लेकिन उस आवाज़ को बराबर दोहराते रहना, इस देश की सांस्कृतिक वैविध्यता को याद करते-समझते रहना है।
31 जुलाई का दिन इलाहाबाद में लगातार बरसता रहा था और कार्यक्रम खुले में आयोजित था. इसलिए आयोजक सांसत में थे. लेकिन शाम होते-होते रफ़ी के चाहने वालों को यकीन हो चला कि यह उमस से भरी शाम अब बरसेगी नहीं. और हुआ भी ऐसा ही.
संचालन करते हुए अंशु मालवीय ने सौम्य मालवीय की कविता ‘रफ़ी साहब’ के पाठ से कार्यक्रम का आगाज़ किया।
…बड़ी चुप्पी है रफ़ी साहब
बड़ी दूरियां हैं
कोई आवाज़ नहीं जो पुकार ले
कोई साज़ जो उबार ले…
अंशु मालवीय ने कहा कि मोहम्मद रफ़ी उस गंगा-जमुनी तहज़ीब के एक आवश्यक सूत्रधार रहे हैं जिसे ख़त्म करने की कवायद लगातार हो रही है. उन्होंने धीरेन्द्र जैन और राजू कोरती द्वारा लिखित मुहम्मद रफ़ी की जीवनी, मोहम्मद रफ़ी: गॉड्स ओन वोइस का ज़िक्र करते हुए कहा वह सचमुच खुदा की ही आवाज़ थी जो संगीत पर इल्हाम हुई।
यूँ भी हम देखें तो बैजू बावरा के गानों में रफ़ी ने अपनी आवाज़ को ही दांव पर लगा दिया था। मन तरपत हरि दरसन को आज और ओ दुनिया के रखवाले जैसे गीतों से लेकर तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा जैसे गीतों से रफ़ी की आवाज़ ने भारत की साम्प्रदायिकता को चुनौती दी ही है।
इस आयोजन की संकल्पना के वास्तविक सूत्रधार प्रणय कृष्ण ने कार्यक्रम में उपस्थित लोगों का स्वागत करते हुए तत्कालीन परिदृश्य में रफ़ी की आवश्यकता के बारे में जोर देते हुए कहा रफ़ी को याद करना नफरत से सुलगते इस मुल्क में मोहब्बत का पैगाम है. हम लोग अध्यापक हैं. रस सिद्धांत पढ़ाते हैं. सदियों से इस बात पर बहस चल रही है की भक्ति एक रस है कि नहीं. कुछ लोग कहते हैं शांत को ही भक्ति मान लिया जाए लेकिन भक्ति में केवल शांति नहीं विकलता भी है, बावलापन भी है.
भक्ति एक रस है ये बात अगर स्थापित किसी चीज से होती है तो वो रफ़ी साहब की भक्ति के गीतों को सुनकर. किसानों की कई- कई पीढ़ियों ने मेड़ों पर अपने कंधे पर ट्रांजिस्टर रखकर रफ़ी को सुना है, नौजवान ‘ये देश है वीर जवानों का‘ पर चाहे शादी का ही माहौल क्यों न हो, नाचते हैं, ट्रक ड्राइवर लंबी-लंबी यात्राओं पर धचके और गड्ढे इसी स्वर के बूते बर्दाश्त कर जाते हैं और मोहब्बत करने वालों के लिए तो वो आवाज तो ज़रूरी आवाज़ है.
मोहब्बत करने वालों पर भी हमला बहुत है पिछले दस -पंद्रह- बीस सालों में, इतने हमले हो रहे हैं, कानून तक बनाए जा रहे हैं, रोमियो स्क्वायड, उनको भी रफ़ी साहब की आवाज की बहुत ज़रूरत है.
जब देश- विभाजन की घोषणा हुई और लोग स्वेच्छा से अपने धर्म के हिसाब से अपना वतन चुनने लगे ऐसे समय में मोहम्मद रफ़ी लाहौर से मुंबई आए. वतन ने जब आज़ादी की खुशियां मनाई, इसी आवाज ने वो आज़ादी की खुशियां जाहिर की ‘अब कोई गुलशन न उजड़े अब वतन आजाद रहे’.
बदनसीब हैं वो जिनको आज़ादी 2014 में प्राप्त हुई है, रफ़ी साहब को सुनने से जिस आज़ादी की याद ताजा होती है वह दरअसल 1947 की आज़ादी है.
उनकी आवाज़ पंजाब के मेहनतकश खेतिहरों-सी थी. अवधी और भोजपुरी उनके कंठ में इस तरह से विराज गई जैसे की अवधी मलिक मोहम्मद जायसी और तुलसी की शायरी हो. उत्तर भारत का शायद ही कोई कस्बा, कोई शहर होगा जहां पर मोहम्मद रफी को गाने वाले एक-दो दर्जन लोग न हों. आज उन्हीं में से एक बानगी आप लोगों के सामने प्रस्तुत होगी.
इस कार्यक्रम में बाहर से आये हुए कलाकारों ने रफ़ी के गाये हुए गीतों को श्रोताओं के लिए पेश किया। यूसुफ़ अज़ीज़ ने संगीत से समां बाँध तो दिया था लेकिन गीतों की इन प्रस्तुतियों को सुनने के बाद समझ आया कि रफ़ी की आवाज़ का कोई जोड़ नहीं है।
रफ़ी के गाये गानों की प्रस्तुति शरद त्रिपाठी, महुआ, प्रतीक्षा, डॉ. अंकिता चतुर्वेदी, दिवाकर झा, प्रो. सुनील विक्रम सिंह, डॉ. एस. पी. मिश्र और पद्मभूषण ने अपनी-अपनी आवाजों में दी।
ऐसे कार्यक्रम आयोजित होते रहने चाहिए। ऐसे कार्यक्रमों से एक कलाकार स्मृतियों की राजनीति में घिरने से बच जाता है। आज के बदलते मानवीय मूल्यों में जब वह आवाज़ गाती है, जाने वालों, ज़रा मुड़ के देखो मुझे, एक इंसान हूँ मैं तुम्हारी तरह… तब कुछ देर के लिए ही, पर हमें याद आता है कि हम और हमारे साथ ‘वो’, सब इंसान हैं ।
कुछ इसी सुर पर कार्यक्रम ख़तम हुआ। धन्यवाद ज्ञापन प्रकर्ष मालवीय विपुल ने किया।
लौटते हुए लोगों के जेहन में रफ़ी साहब की आवाज़ गूँज रही थी और लोग लगातार दुहरा रहे थे कि इसे अब हर वर्ष किया जाना चाहिए.
रफ़ी की पुण्यतिथि प्रेमचंद के जयंती के अवसर पर थोड़ी-सी जगह घेरे खड़ी थी। अपनी-अपनी दुनियाओं से दो मुस्कुराहटें उतरीं और उस शाम पर फैल गयीं, और रफ़ी का गीत ज़ेहन में घूमता रहा बड़ी देर तक:
तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे
जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे…
रिपोर्ट : प्रज्वल चतुर्वेदी