सदानन्द शाही
सोशल मीडिया से शुरू हुई शिकायतों को इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उठा लिया . देखते देखते #MeToo एक आन्दोलन बन गया। हर तरफ इसकी चर्चा हो रही है। टिप्पणियां की जा रही हैं , लेख लिखे जा रहे हैं. कुछ लोग मजाक बना रहे हैं,कुछ लोग विरोध भी कर रहे हैं और कुछ लोग उन ‘बेचारों’ के प्रति गहरी सहानुभूति से भर उठे हैं जोकि मी टू के आरोपित हैं. किस्सा कोताह यह कि अधिकांश चर्चाएं नकारात्मक हैं। आइए इस पर ठहर कर विचार करें.
निर्भया कांड के बाद से पहली बार स्त्री के मुद्दे पर इतनी चर्चा हो रही है. हालांकि दोनों की प्रकृति अलग- अलग है।निर्भया का मामला स्त्री के प्रति हिंसा का क्रूरतम रूप था जिसके विरोध में लोग सड़कों पर उतर आये थे. यद्यपि उस समय भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो निर्भया को ही इस बात के लिए दोषी ठहरा रहे थे कि उसे इतनी रात गये नहीं निकलना चाहिए था, कि ऐसे कपड़ों में नहीं होना चाहिए था. आदि -आदि इत्यादि. लेकिन प्रकट तौर पर मजाक उड़ाने वाले नहीं थे . सडकों पर जो भीड़ उतरी थी उसमें स्त्री-पुरुष दोनों थे. अभी लोग बाग मजाक और विरोध कर रहे हैं . कहा जा रहा है कि जब घटना हुई थी तब क्यों नहीं कहा ? आज इतने साल बीत जाने के बाद बात का बतंगड़ बनाने आ गयीं. कि वजह कुछ और है . #MeToo के नाम पर बेचारे को नाहक बदनाम किया जा रहा है.
संभव है कि कुछेक मामलों में ऐसा हो भी, लेकिन सभी मामले गलत हैं ऐसा कहना दर असल अपने नागरिक होने की जिम्मेदारी से बचना है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह मामला बुनियादी तौर पर एक सत्ता संघर्ष है. बल्कि थोड़ा और आगे बढकर इसे तख्ता पलट भी कह सकते हैं. स्त्री और पुरुष के बीच जो रिश्ते बनते हैं उनके बीच एक सत्ता समीकरण काम करता है. सत्ता समीकरण में स्त्री दूसरे पायदान पर स्थित है. उसका पुरुष के अधीन होना , उसे श्रेष्ठ करार देना -श्रेष्ठ स्वीकार करना ही प्रचलित समीकरण है. पुरुष ने जो कर दिया उसे चुपचाप स्वीकार कर लेने में ही भलाई है, इज्जत भी इसी में बची है.
यह आंदोलन इस यथास्थिति को तोड़ता है. कुछ स्त्रियां इस संकल्प के साथ आ खड़ी हुई हैं कि हम चुपचाप स्वीकार नहीं करेंगे ,कहेंगे हां कहेंगे. यह कहना भी उस पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था के लिए चुनौती है. वह अपनी सत्ता को यों ही जाने नहीं दे सकता. इसलिए वह मजाक उड़ायेगा, व्यंग्य लेख लिखेगा, चर्चा करके माहौल बनायेगा. दर असल यही वह श्रेष्ठता बोध और सत्ता का गुरूर है जिसकी परिणति निर्भया जैसे काण्डों में होती है.
निर्भया कांड के बाद से भले बहुत सख्त कानून बने लेकिन इसके बावजूद स्त्री के प्रति होने वाली हिंसा में बढोत्तरी ही हुई है. इसका सबसे प्रमुख कारण स्त्रियों द्वारा पुरुष विशेषाधिकार को दी जाने वाली चुनौती है. सदियों से जो समीकरण बना हुआ है उसमें न तो स्त्री को ना कहने का अधिकार है और न ही पुरुष को ना सुनने की आदत. स्त्री की ना को पुरुष ने लज्जा रूपी आभूषण का एक रूप माना हुआ है. अब यह समीकरण बदल रहा है . वह ना कहने का अधिकार हासिल कर रही है और इस अधिकार के लिए संघर्ष कर रही है.
जाहिर है इससे स्त्री-पुरुष के बीच का सत्ता समीकरण बदल रहा है या कहें पुनर्परिभाषित हो रहा है. पुरुष के हाथ से सत्ता निकल रही है. जब सत्ता हाथ से निकलने लगती है तो प्रभु वर्ग एक खास तरह की खिसियाहट से भर उठता है. हमारे समाज में स्त्री के प्रति होने वाली हिंसा का संबंध इस खिसियाहट से है. यह हिंसा कभी उपेक्षा में ,कभी उपहास में तो कभी मारपीट और बलात्कार के रूप में प्रकट होती है.
#MeToo के भीतर उठने वाले सभी मामले प्राय: सत्ता के दुरुपयोग के मामले हैं. जिन लोगों के उपर ऐसे आरोप लगाये जा रहे हैं उनमें पुरुष होने के साथ- साथ प्रायः सत्ता का कोई और रूप मौजूद है. ऐसी सत्ता जिसके दुरुपयोग से स्त्री का शोषण किया जा सके. कोई बडा फिल्मकार, अभिनेता या पत्रकार जो किसी को नौकरी या रोजगार ले या दे सकता है, किसी नवप्रवेशी का जीवन बना या बिगाड़ सकता है. मामला करेले के नीम चढ़े होने का हो जाता है.
पुरुष होने के नाते उसके पास एक ऐसी सत्ता है जो उसे बेखौफ बनाती है. उसे किसी से कोई चरित्र प्रमाणपत्र नहीं चाहिए. बल्कि बाज दफे स्त्री का शिकार उसे मर्द होने के अतिरिक्त गौरव से भर देता है . जबकि औरत को चरित्र प्रमाण देने वाले कदम -कदम पर तैनात हैं.
कहीं कोई बात हुई तो ‘लोग’ नाम की संस्था ,जिसमें स्त्री पुरुष सब शामिल होते हैं , तुरंत घोषित करेगी कि जरूर इस स्त्री में ही कोई दोष या कमी होगी. उससे न कोई सफाई मांगेगा और न ही कोई उसकी सफाई पर यकीन करेगा और फैसला सुना देगा।ऐसे में यह कहना कि उसने तब क्यों नहीं कहा था आज क्यों कह रही है ? अनुचित है. क्योंकि यह क्यों इतना बड़ा हो जाता है जिसके आगे हर तरह के काईंयापन और मक्कारी को अपना चेहरा छुपाने की जगह मिल जाती है. पुरुष को अनधिकार चेष्टा का अतिरिक्त साहस इसलिए भी होता है कि उसे पूरा यकीन रहता है कि यह कहीं कुछ कहेगी नहीं और कहा भी तो सुनेगा कौन ? स्त्रियां कई बार इसलिए खून का घूंट पीकर रह जाती हैं क्योंकि वे इस एहसास से भरी होती हैं कि कौन सुनता है कहानी मेरी और वह भी जुबानी मेरी.
कभी -कभी कमजोर वर्गों के हाथ ऐसा हथियार लग जाता है जो सत्ता समीकरण को बदल देता है. मी टू भी ऐसा ही हथियार है जिसने कुछ स्त्रियों को साहस दिया है कि वे आप बीती कह पा रही हैं और कुछ इस तरह कि यह आपबीती सुनी भी जा रही है. इसमें सहभागी स्त्रियों को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि जरा सी असावधानी या दुरुपयोग इस हथियार को निष्प्रभावी या व्यर्थ कर सकता है.
मेरी समझ में इस आंदोलन की आलोचना करने ,मजाक बनाने या विरोध करने की बजाय पूरे प्रसंग की गहराई को समझने की जरूरत है।
यह सब लिखते हुए मुझे इस बात का जरा भी भ्रम नहीं है कि यह कोई ऐसा सुविचारित आन्दोलन है जो स्त्री की सभी समस्याओं का हल करने जा रहा है या उन्हें उत्पीड़न से बचने की गारंटी करने या मुक्ति का विधान रचने जा रहा है. मुझे यह भी भ्रम नहीं है कि यह अशिक्षित,ग्रामीण और श्रमशील स्त्रियों के जीवन में कोई फर्क पैदा करने जा रहा है.
यह भी सही है कि इसमें कानूनी लोचा इतना ज्यादा है कि किसी आरोपी को कोई सजा नहीं होने जा रही है मगर इतनी बात तो है ही कि सत्ता के मद में संकोच जैसे बेहतरीन भाव (जो हमें ज्यादतियां करने से रोकता है और बेहतर मनुष्य बनाता है) को पूरी तरह छोड़ चुके पुरुष को यह एहसास कराता है कि वह बेलगाम नहीं है. यदि उसने अपनी सत्ता का दुरुपयोग किया और किसी स्त्री से बदसलूकी की तो बात दबी ढंकी नहीं रहेगी और दूर तक जायेगी. ऐसे में वह जवाबदेही से नहीं बच सकेगा. यह बोध ‘मर्दों’ को मनुष्य बनने में कुछ मदद करेगा और आगे स्त्रियों के साथ अनधिकार चेष्टा करने के पहले हजार बार सोचेगा. इसलिए बेहतर है कि मी टू का मजाक बनाने ,चिढ़ने और विरोध करने के बजाय सामाजिक कारणों से मिली सत्ता के दुरुपयोग से बचें. पाखंड छोड़ें और स्त्री का सम्मान करना सीख लें.
(लेखक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं )
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