कोरस के फेसबुक लाइव में रविवार 9 अगस्त को “आज का समय और मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियां (स्त्री के विशेष सन्दर्भ में)” विषय पर डॉ. निस्का सिन्हा से रुचि दीक्षित ने बात की।
मानसिक स्वास्थ्य हमारे लिए कितना ज़रूरी है? अपने काम-काज के लिए आपने मनोचिकित्सा का ही क्षेत्र क्यों चुना? एक महिला होने के नाते इस क्षेत्र में काम करते हुए आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा? सवालों का जवाब देते हुए डॉ. निस्का ने कहा कि आखिर मनोचिकित्सा ही क्यों? यह सवाल बहुत रोचक है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, “हेल्थ एक शारीरिक मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य का प्रतीक है। केवल बीमारियों से दूर रहने को हम स्वस्थ रहना नहीं कहते हैं।” हमारा मन स्वस्थ नहीं है, तो हम अपने शरीर का भी ध्यान नहीं रख पाएंगे।
हाल ही में हुए एक अध्ययन के आंकड़ों के अनुसार, 2020 में भारत में करीब 10% लोग किसी ना किसी प्रकार की मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं, जिनमें तंबाकू सेवन करने वाले लोगों को शामिल किया जाए तो यह संख्या और बढ़ जाएगी। तंबाकू सेवन को भी एक प्रकार की मानसिक समस्या का कारण माना जाता है। इन 10% लोगों में से करीब डेढ़ सौ मिलियन लोगों को उपचार की जरूरत है। चार में से केवल एक व्यक्ति को ही वह उपचार उपलब्ध है। इससे ‘ट्रीटमेंट गैप’ का पता चलता है। डब्लू.एच.ओ के द्वारा हुए “हैप्पीनेस स्टडीज” के अनुसार 155 देशों की सूची में हमारा देश खुशी के मापदंडों में 134वें स्थान पर हैं। इसका कारण है कि हम जागरूक नहीं हैं। हम मदद के लिए पहुंच ही नहीं पा रहे हैं।
सबसे जरूरी है अवेयरनेस टॉक। ग्रामीण क्षेत्रों में मानसिक रोग के शिकार इस समस्या को समझ नहीं पाते हैं। जानकारी के अभाव में वह इन बीमारियों के इलाज के लिए झाड़-फूंक जैसी पद्धतियों का इस्तेमाल करते हैं। इस बारे में ज़िम्मेदारी समझना और लोगों को जागरूक करना बहुत जरूरी है।
गलत तरीके आसान चीजों को भी गंभीर बना देते हैं, और फिर हम मनोचिकित्सकों को भी उसे ठीक करने में काफी दिक्कत आती है। अवसाद सुसाइड की हद तक पहुँच जाता है, जब हम उसे गंभीरता से नहीं लेते।
मनोचिकित्सा का क्षेत्र चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि यहां हम एक इंसान की सोच, उसकी संवेदना, उसकी अंदरूनी शक्ति, उसकी समझ और उसके मनोबल, इन सब का अध्ययन करते हुए एक वैज्ञानिक शैली से उसका इलाज करते हैं। लोगों की झिझक मिटाना, उनको कॉन्फिडेंस में लेकर एक वैज्ञानिक इलाज देना, जिससे वह अपने जीवन में खुशहाल हो सकें, यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। पिछले 12 सालों से इस क्षेत्र में काम करते हुए लोगों के चेहरे पर खुशी देखना अच्छा अनुभव है, और अनुभव से सीखना किताबों से सीखने से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
स्त्री-पुरुष में विभेद होने के बावजूद उम्मीद की बात यह है कि स्त्रियाँ पहले से कहीं ज्यादा आत्मनिर्भर हैं। मनोचिकित्सक के रूप में एक स्त्री होने नाते महिला मरीज खुलकर अपने दिल की बात मेरे सामने रख पाती हैं, हालांकि इसी वजह से पुरुष मरीज अपनी बात कहने में हिचकिचाते भी हैं। यह एक टीमवर्क है जिसमें मुझे पुरुष मित्रों का भी सहयोग मिलता है।
“अवसाद, डिप्रेशन, एंजाइटी, सेक्सुअल डिसऑर्डर, फोबिया, पैनिक डिसऑर्डर, बाईपोलर मूड डिसऑर्डर, सिजोफ्रेनिया, जैसी बीमारियों को एक आम आदमी किस तरह समझे? इन बीमारियों के लिए क्या हमें अलग-अलग चिकित्सक के पास जाना चाहिए या एक मनोवैज्ञानिक इन सभी बीमारियों के लिए पर्याप्त हैं?” का जवाब देते हुई वह कहती हैं कि इतनी ही नहीं, वास्तव में 2000 से ज्यादा तरह की मानसिक समस्याएं होती हैं। सवाल है कि आप कैसे जानेगें कि आपको कोई मानसिक समस्या है? अगर आपमें पहले जैसी खुशी या पहले जैसा आत्मबल नहीं रहा या फिर आपके व्यवहार में कोई बदलाव दिखाई दे रहा है, जैसे आपकी कार्यशैली, नींद, खान-पान पर असर पड़ रहा हो तो यह संकेत है कि आपको कुछ ना कुछ मानसिक समस्या आ रही है। जिसके लिए बेझिझक आपको सलाह लेनी चाहिए। संकोच से छोटी सी समस्या भी गंभीर रूप ले सकती है और फिर मनोचिकित्सकों के लिए भी इलाज करना मुश्किल हो जाता है।
अवसाद के लक्षण हैं उदासी, बहुत खुश हो जाना, बहुत उत्तेजित हो जाना, चिड़चिड़ापन, घबराहट, नींद की कमी, सर दर्द, उत्साह की कमी आदि। बच्चों में इसके लक्षण अलग होते है जैसे- ज्यादा उत्पात मचाना, पढ़ाई पर कम ध्यान देना। आजकल इन्टरनेट, गेम जैसे एडिक्शन घर-घर की समस्या की बन चुके हैं, जो सिर्फ बच्चों में ही नहीं हम बड़ों में भी है। यह भी एक तरह की मानसिक समस्या है। इससे रिश्तों में तनाव होना, व्यक्तित्व संबंधी समस्याएं, सेक्स संबंधी समस्याएं होना, मिर्गी आना, बार-बार बेहोश होकर गिर जाना, चिंता करना आदि समस्याएँ हो सकती हैं। स्त्री या पुरुष किसी में भी इस तरह की समस्या हो सकती है, जिसके परिणामस्वरुप उनमें कुछ बदलाव या लक्षण देखने को मिलते हैं, जैसे कि बार-बार हाथ धोना, बार-बार जाकर यह देखना कि ताला बंद है या नहीं, गैस कहीं खुला तो नहीं छूट गया या ज़रूरत से ज्यादा साफ-सफाई पर समय देना आदि।
इन लक्षणों के बहुत बढ़ जाने से आप में अपनी जिंदगी ख़त्म करने तक का ख़्याल आने लगता है। ऐसे में बेझिझक मनोचिकित्सक से मिलना चाहिए। मनोचिकित्सक सिर्फ दवाएं ही नही देता, वह आपके मन को भी स्वस्थ बनाता है।
हम मनोचिकित्सकों की भी अलग-अलग श्रेणी होती है। जैसे एक मनोचिकित्सक मेडिकल प्रोफेशनल्स होते हैं, साइकोलॉजिस्ट जो काउंसलर होते हैं, वो होते हैं उसी तरह जब बहुत सारे लोगों की फैमिली प्रॉब्लम्स आती हैं तब ‘साइको सोशल वर्कर्स’ जरूरत पड़ती है। ‘साइकाइट्रिक नर्सिंग’ भी एक अलग चेन होती है। यह बहुत बड़ा क्षेत्र है और हम सबलोग हैं आपकी मदद के लिए। जरूरत है कि आप हमसे मिलें, बातें करें अपनी परेशानी हमसे साझा करें।
अगले सवाल “बॉर्डर लाइन पर्सनालिटी डिसऑर्डर एवं बॉर्डर लाइन डिसऑर्डर जैसी मानसिक स्थितियों में कई समस्याएं आती हैं जिनमें एक नेरेसिस्म (अहंकार) भी है। क्या यह स्थिति महिलाओं की तुलना में पुरुषों में होना ज्यादा खतरनाक है क्योंकि हमारी सोसायटी के पितृसत्तात्मक तत्व कैटेलिस्ट (उत्प्रेरक) का कार्य करते हैं।” का जवाब देते हुए उन्होंने कहा ‘बॉर्डरलाइन पर्सनैलिटी डिसऑर्डर’, व्यक्तित्व संबंधी समस्या है, जो कि आज के समय में बहुत सामान्य है। इसकी वजह से लोगों में सहनशीलता की कमी होने लगती है, आपसी रिश्तों में तनाव आना शुरू हो जाता है, किसी चीज में मन नहीं लगता, अपने जीवन में हमेशा कुछ कमी महसूस करने लगते हैं, कई बार नाराजगी में अपने हाथ काट लेते हैं। आज के युवाओं में यह बहुत ही गंभीर समस्या है। वैसे तो यह स्त्री-पुरुष दोनों में होता है लेकिन स्त्रियों में थोड़ा ज्यादा देखने को मिलता है। इसके इलाज में काफी समय देना पड़ता है। इसके लिए कई दवाइयां भी उपलब्ध हैं। ऐसा नहीं है कि यह पुरुषों को ज्यादा प्रभावित करता है, इसकी गंभीरता इस बात पर निर्भर करती है कि आप इस मानसिक स्थिति के किस स्टेज पर हैं।
मानसिक रोगों के प्रति हमारे समाज में जागरूकता के अभाव में अक्सर लोग मनोरोगियों को पागल और मनोचिकित्सकों को पागलों का डॉक्टर कहते हैं। इस तरह के मिथकों को कैसे तोड़ा जा सकता है और पागल होना अपने-आप में क्या है? इस सवाल के जवाब में निस्का जी कहती हैं – इंग्लिश में एक शब्द है ‘Shrink’ जिसे आजकल हम मनोचिकित्सकों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। अगर आप इस डर से यह सोचते रहेंगे कि आपकी समस्या बस पागलपन है और इस वजह से आप उसे आगे बढ़ने दे देंगे तो शायद वह समस्या सही में गंभीर हो जाए और फिर उसे संभालना आपके लिए मुश्किल हो जाए। साइको, क्रेजी, मेंटल जैसे शब्द पूरी तरह से लेमन टर्म्स हैं। इन शब्दों की साइंटिफिक साइंस में कोई जगह नहीं है। इसे समझने के लिए मैं एक उदहारण देना चाहूंगी – मान लीजिये आप अवसाद में हैं या किसी नशे का सेवन कर रहे हैं या आपको कोई गंभीर मानसिक बीमारी है तो एक स्टेज के बाद जब वह बढ़ने लगेगा तब आपको अजीबोगरीब अनुभूति होनी होने लगती है, आप दुनिया से कटने लगते हैं और इस स्थिति में आपको यह भी पता नहीं होता कि आप बीमार हैं। ऐसी परिस्थिति में आप खुद को इन शब्दों से रिलेट करने लगते हैं। सौ मरीजों में से वैसे चार-पांच मरीज भी हमारे पास आते हैं। लेकिन सारी बीमारियां उतनी गंभीर है यह सोचना गलत है। मेरा सुझाव यही होगा कि इसे पागलपन समझकर और गंभीर बनाने से बेहतर होगा कि आप इसका सही इलाज करायें।
ऐसा बिलकुल नहीं है कि डॉक्टर से मिलने पर जीवन भर दवाई लेनी पड़ेगी, जिस तरह से दो हजार से ज्यादा तरह की मानसिक बीमारियां होती हैं उसी तरह हमारे पास अभी काफी सारे उपाय, काफी सारी दवाइयां उपलब्ध हैं। शुरुआती दौर में दवाइयों के हल्के डोज़ या काउंसलिंग से बहुत चीजें ठीक हो जाती हैं। बीमारी और उसकी स्टेज पर निर्भर करता है कि इलाज कितना लंबा चलेगा।
कोरोना और लॉकडाउन के समय जब ज्यादातर लोग घरों में बंद हो गए हैं, ऐसे में मानसिक परेशानियां बढ़ रही हैं, मनोरोगियों की संख्या भी बढ़ रही है। आंकड़ों के अनुसार घरेलू हिंसा भी लगातार बढ़ी है। ऐसी स्थिति में हम अपने मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान कैसे रखें? इस महत्वपूर्ण सवाल पर बात करते हुए वह कहती हैं – बदलते हुए इस दौर में सबसे ज्यादा प्रभावित बच्चे और बूढ़े हैं और वर्किंग वुमेन है। मनोचिकित्सकों की एक रिसर्च के अनुसार इस समय कोविड के डर की वजह से मानसिक समस्याओं में करीब 30% वृद्धि हुई है। यह डर सही भी है। खासकर हमारे कुछ ऐसे मरीज जो पहले से थोड़ा ठीक हैं, जिनको कभी ये बीमारियां हुई थीं और वह अपना इलाज करवा रहे थे, अपनी दवाइयां ले रहे थे, उसकी वजह से ठीक हो रहे थे, उन लोगों में भी फिर से ये लक्षण आने शुरू हो गए हैं या उनकी बीमारियां और गंभीर हो गई हैं। जिन लोगों में यह समस्या नहीं थी उनमें भी उदासी या चिंता जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। कई लोगों की नौकरी छीन गई, जिससे उन्हें फाइनेंसियल प्रॉब्लेम आ रही है। आप तनाव में हैं, क्योंकि आप घर में कैद हैं। आपका कामकाज नहीं चल रहा है, पैसा नहीं आ रहा है, पहले जहाँ आप दूसरों से मिलते थे, खुद को अभिव्यक्त करते थे, आपका एक सपोर्ट सिस्टम था, वह अब बिल्कुल बंद हो गया है। दूसरी तरफ अब हमारी जिम्मेदारी बढ़ गई है खासकर कि महिलाओं की। उन्हें घर भी देखना है, बच्चों की ऑनलाइन क्लासेज़ चल रही हैं, अपना ऑफिस भी देखना है। एक तरफ जहाँ महिलाओं का काम मल्टीटास्किंग हो गया है वही दूसरी तरफ कोविड से संबंधित एंजाइटी भी है कि अगर मैं बाहर गयी तो खुद को या अपने बच्चों या परिवार के किसी अन्य सदस्य को इनफेक्ट ना कर दूं।
एक रिसर्च के अनुसार पहले लोग दोस्तों से मिलते थे, रिलैक्स होने के लिए थोड़ा नशा करते थे, वह भी अब बंद हो चुका है। वह टेंशन अब ‘शारीरिक या वर्बल वायलेंस’ के रूप में एक दूसरे पर ही निकल रहा है।
कोविड के बारे में तीन बहुत महत्वपूर्ण चीजें हैं-अनिश्चितता है, ‘विकल्प की कमी है’, और तीसरा ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ । हम मनोचिकित्सकों को इस शब्द से आपत्ति है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अगर हम सोशल डिस्टेंसिंग करेंगे तो शायद हम रह ही ना पाएं। यहां सही शब्द है ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग’। हमें शारीरिक रूप से एक दूसरे से अलग रहना है ना कि सामाजिक रूप से। हमें नए तरीकों से लोगों से जुड़े रहना है, अपनी दिनचर्या ठीक रखनी है और अवसाद से बचने के लिए खुद को रचनात्मक कामों में व्यस्त रखना है।
अवसाद में जाने के क्या कुछ खास कारण होते हैं? अवसाद और मनोरोग पर समाजिक-आर्थिक, परिस्थितियों का क्या असर पड़ता है? आजकल ऐसा भी देखने में आता है कि पढ़ी-लिखी और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाओं में भी अवसाद की समस्या प्रायः होती हैं। इसके क्या कारण हो सकते हैं?
इन सवालों का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि जब भी हम मानसिक समस्याओं की बात करते हैं तो ‘अवसाद’ बहुत ही सामान्य समस्या लगती है। कई बार लोगों को ऐसा लगता है कि अवसाद एक कमजोरी की निशानी है। आप डिप्रेस्ड हो मतलब आप कमजोर हो, या आपके जीवन में कुछ कमी है, आपके जीवन में कोई ऐसी घटना हो गई होगी जिसकी वजह से आपको अवसाद की समस्या हो रही है। यह बिल्कुल ही गलत बात है। जब भी हम मनोरोग संबंधी बीमारियों के बारे में बात करते हैं, उसके पीछे एक बायो-साइको-सोशल मॉडल होता है। यह मॉडल हमारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक फैक्टर्स के बीच के सम्बन्ध को दिखता है। इसके अलावा एक और चीज है ‘न्यूरोट्रांसमीटर्स’। यह एक तरह का रसायन होता है जो सिग्नल देने वाले अणुओं के रूप में कार्य करता है। सफल व्यक्ति भी उदासी का शिकार हो सकता है। इसके निवारण के लिए कई बार दवाइयां लेने की जरूरत होती हैं। मैं कई बार अपने मरीजों को समझाने के लिए कहती हूं कि खुशी का भी एक केमिकल होता है। यह समझना जरूरी है और उससे भी महत्वपूर्ण है कि हम इस विषय पर बात करें। अगर हमें इस तरह की कोई समस्या महसूस होती है तो उसको सहने की बजाये, हमें उसके बारे में खुलकर बात करनी चाहिए। हर 40 सेकंड में एक व्यक्ति खुदकुशी करता है, इससे यह बात समझ आती है कि मानसिक समस्याओं को गंभीरता से लेने की कितनी जरूरत है।
महिलाओं में एंजायटी, डिप्रेशन, सुसाइड की कोशिश, खान पान वाली समस्याएं ज्यादा देखने को मिलती हैं। अपनी अनेक व्यस्तताओं के बीच महिलाओं को अपने लिए भी समय जरूर निकालना चाहिए। अगर आपके परिवार का व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार होता है, तो उसको कभी भी अकेला न छोड़े। उसका खयाल रखें और उसकी बातों को समझने की कोशिश करें।
मेन्टल स्ट्रेंथ को बढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए, क्या इसके लिए कोई शारीरिक व्यायाम भी है? हमारी जीवन शैली, खान पान, आदि का मन की स्थितियों पर क्या प्रभाव पड़ता है? मानसिक रोग बाकी बीमारियों से किस तरह भिन्न हैं? क्या इसे नॉर्मल रोगों की श्रेणी में रखा जाता है?
इन सवालों के जवाब में डॉ. निस्का ने बताया कि ‘मन की शक्ति’ या ‘मेंटल स्ट्रेंथ’ का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। आप मानसिक रूप जितने मजबूत होगें उतनी ही अच्छी तरह से आप परीस्थितियों को सामना कर पाएंगे। मेन्टल स्ट्रेंथ को बढ़ाने की ऐसी कोई दवा नहीं है जिसकी मैं सलाह दूँ। इसमें काफी चीजों की भूमिका होती है। एक कांसेप्ट है “वी टाइम और मी टाइम”। यह बहुत जरूरी है कि हम दोस्तों के साथ, परिवार के साथ, बच्चों के साथ समय बिताएं, इसके साथ यह भी जरूरी है कि हम खुद को भी समय दे।
जहां तक बात हमारी जीवन-शैली, हमारे खान-पान की आती है तो बिल्कुल यह रोग से या बीमारियों से बचने में हमारी मदद करते हैं और शारीरिक संरचना में बदलाव लाते हैं। यह सारी चीजें किसी भी बीमारी से हमारा बचाव करेंगी, ना की उसका इलाज करेंगी। मान लीजिये आपको डायबिटीज हो गया है और वह बहुत ज्यादा बढ़ चुका है, आप सोचते हो कि एक अच्छी डाइट से या एक्सरसाइज करने से काम चल जाएगा। ऐसा नहीं है, उस समय आपको दवाइयों की जरूरत होगी।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य के लिए ही कोई व्यायाम करना चाहिए। हमारा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य आपस में जुड़ा हुआ है। हां, कुछ टेक्निक्स होते हैं जो मानसिक समस्याओं को दूर करने के लिए उपयोगी हैं जैसे की योगा। अगर आपको किसी तरह की कोई एंजाइटी है जैसे सांस लेने में दिक्कत होना, तो इसके लिए ब्रीथिंग एक्सरसाइज, रिलैक्सेशन टेक्निक्स होती हैं जिनकी काफी भूमिका होती है मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए।
मानसिक रोग भी उतना ही नार्मल है जितना शारिरिक बीमारियां हैं, इसलिए ये सोचना गलत है कि मानसिक बीमारियां कोई स्पेशल बीमारी होती है। यह नसों का खेल है। अगर आपकी नसें मजबूत नहीं हैं, तो आप अपना पूरा शरीर संभाल नहीं पाएंगे, क्योंकि आपके दिमाग की जो इतनी सारी नसें हैं, वही आपके शरीर को नियन्त्रित करती हैं। कई बार ऐसा होता है कि आपको गैस की समस्या है, लेकिन जब हम इसकी जाँच कराते हैं तो पता चलता है कि वह गैस आपके शरीर में आपकी एंजाइटी की वजह से बन रही है। जब आप अंदर से चिंतित हो तो गैस बनता है। शरीर दिमाग से जुड़ा हुआ है। ऐसा कुछ भी नहीं है कि मानसिक समस्याएं अलग है। इसका उतना ही महत्व है जितना शारीरिक समस्याओं का होता है। हां, यह कुछ दृष्टि से अलग है। जैसे मलेरिया या टीवी जैसी बीमारियां ठीक करने के लिए कुछ टेस्ट कराया, कुछ महीनों के लिए दवा का कोर्स चलाया और मरीज ठीक हो गया। लेकिन मानसिक समस्या में होलिस्टिक अप्रोच (समग्र दृष्टिकोण) अपनाना पड़ता है।
क्या बच्चों में भी अवसाद और मनोरोग की समस्या आती है? ऐसी स्थिति से निपटने के लिए क्या किया जाना चाहिए? इस समस्या के निराकरण के लिए स्कूलों की क्या भूमिका हो सकती है। क्या स्कूलों में मनोचिकित्सक या डॉक्टर्स के लिए कोई स्थायी पोस्ट बनाई जानी चाहिए?
इन सवालों के जवाब में डॉ. निस्का ने बताया कि बच्चों में यह बहुत ही ज्यादा कॉमन है। बच्चों पर लगातार पढ़ाई, कैरियर, ऑनलाइन क्लास आदि के दबाव में ये समस्याएँ भी बढ़ रही हैं। आजकल स्कूलों में बच्चों के लिए काउंसलिंग, अवेयरनेस टॉक, मेंटल हेल्थ चेकअप की सुविधाएं उपलब्ध हैं। अभिभावकों को बच्चों को समझना चाहिए और समय देना चाहिए।
स्कूलों में आजकल बहुत सामान्य समस्या है ‘bully’। सीनियर जूनियर्स को काफी तंग करते हैं। दूसरा, नशे की लत आदि। बच्चों में इस प्रभाव के लक्षण वयस्कों से अलग होते हैं। वे ऊंचा सुनने लगेंगे, उनका परफॉर्मेंस घटने लगेगा, बाकी बच्चों से अलग रहने लगेंगे। इन सब बातों का बहुत बारीकी से ध्यान रखना पड़ता है। कई बार हमारे पास ऐसे बच्चे आते हैं जो हाइपर एक्टिव होते हैं या कुछ बच्चों में लर्निंग डिसेबिलिटी होती है और हमारी सलाह यही होती है कि उन बच्चों पर ज्यादा ध्यान दिया जाए। कई स्कूलों में उन बच्चों के लिए अलग से सेशन रखे जाते हैं, जिनमें उनको थोड़ा ज्यादा टाइम दिया जाता है। कई स्कूल रूटीन चेकअप के लिए भी मनोचिकित्सकों को बुलाते हैं, रेगुलर बेसिस पर काउंसलर रखते हैं। दिल्ली में गंगाराम में काम करते हुए मैंने वहां के स्कूलों में यह देखा था। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि काउंसलर या मनोचिकित्सकों की काफी कमी है, तो चाह कर भी स्कूल उन्हें नहीं रख पाते हैं। अगर मैं आंकड़ों की बात करूं तो हर एक लाख की जनसंख्या पर करीब 3 मनोचिकित्सकों की जरूरत होती है। देश भर में करीब 9000 मनोचिकित्सक हैं। डॉक्टरों की कमी होने की वजह से एक डॉक्टर को 507 मरीजों को देखना पड़ता है। जो मनोचिकित्सक हैं भी वे एक जगह केंद्रित हैं, हर जगह वे उपलब्ध नहीं हो पाते। इसी तरह से काउंसलर्स और साइको सोशल वर्कर्स की भी कमी है। ऐसी स्थिति में स्कूल यह कर सकता है कि दो या तीन या छः महीने में एक बार काउंसलिग के लिए किसी मनोचिकित्सक या काउंसलर को बुला ले। आपका बचपन आपके फ्यूचर को रूप देता है, इसलिए अगर आपका बचपन मजबूत हो तो आगे दिक्कतें कम आएंगी।
प्रस्तुति: मात्सी
(पी. जी. आई. चंडीगढ़ और श्री गंगाराम, दिल्ली की पूर्व रेजीडेंट मनोचिकित्सक डॉ. निस्का सिन्हा इन्दिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइन्सेज, पटना में असिस्टेंट प्रोफेसर, एम्स पटना में सीनियर रेजीडेंट और सी आई पी कांके रांची में एम. डी. साइकेट्री हैं।)