इलाहाबाद। प्रसिद्ध कहानीकार मार्कण्डेय की पुण्यतिथि के अवसर पर एक संवाद-गोष्ठी का आयोजन हिन्दुस्तानी एकेडमी के गाँधी सभागार में किया गया। इस अवसर पर मार्कण्डेय पर केन्द्रित ‘कथा’ के नये अंक का लोकार्पण हुआ। यह कथा का 25वां अंक है।इसी के साथ नीरज खरे द्वारा सम्पादित और संकलित ‘मार्कण्डेय: चुनी हुई कहानियाँ’ का भी लोकार्पण हुआ। यह पुस्तक नयी किताब प्रकाशन से छपी है।
इस मौके पर एक गोष्ठी भी हुई। गोष्ठी का विषय ‘नयी कहानी आन्दोलन और मार्कण्डेय की कहानियाँ’ था। गोष्ठी का आरंभ करते हुए बसंत त्रिपाठी ने ‘कथा’ के सम्पादन से जुड़ी बातें साझा करते हुए कहा, कि नए रचनाकार और लेखक मार्कण्डेय की रचनाओं के साथ कैसा अंतर संबंध विकसित करते हैं, उसे कथा के इस अंक का सम्पादन करते समय ध्यान में रखा गया है। भूमि संबंध और जाति व्यवस्था को समझे बिना मार्कण्डेय की रचनाओं को नहीं समझा जा सकता। आजादी के बाद के नए भारत की जितनी बेचैनियां थीं, मार्कण्डेय जी अपनी रचनाओं में उसे रचते हैं। साथ ही, तरल संवेदना, मानवीय अनुभूति भी उनकी कहानियों में है। उन्होंने कहा कि मार्कण्डेय को पढ़ना आजादी के बाद के भारत की बेचैनी को पढ़ना है।
कथाकार और कथा आलोचक तथा पुस्तकनामा के सम्पादक राकेश बिहारी ने गोष्ठी में अपनी बात रखते हुए कहा कि अंतर विरोध और अंतर्द्वंद्व को रचनात्मक ढंग से सामने लाने का काम मार्कण्डेय की कहानियाँ करती हैं। नई कहानी आंदोलन में नगर और ग्रामीण के द्वन्द्व और बहस हैं। उन्होंने कहा कि नई कहानी आंदोलन के दौर में स्त्री की उपस्थिति को जिस तरह देखा गया है, इसे फिर से विश्लेषित करने की जरूरत है। इसे उन्होंने मार्कण्डेय की कहानी ‘हंसा जाई अकेला’ में सुशीला के चरित्र के माध्यम से स्पष्ट किया। उन्होंने आगे कहा कि परिस्थितियों को मनःस्थितियों में और मनःस्थितियों को परिस्थितियों में बदलने का हुनर मार्कंडेय की कहानियों में मिलता है।
कथा आलोचक और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापक नीरज खरे ने कहा कि नई कहानी को किसी खांचे में देखना उसे सीमित करना है। मार्कण्डेय के यहां स्त्री की उपस्थिति कई रूपों में है। ‘महुए का पेड़’ की दुखना ‘कल्यानमन’ की मंगी ग्रामीण स्त्री चरित्र हैं। प्रेमचंद के यहां जो चेतना है वह मार्कण्डेय के यहां मौजूद है। उन्होंने कहा कि विकास का एजेंडा पेड़ों का विरोधी है। ऐसे में दुखना का महुए के पेड़ से लगाव और उसे बचाने का द्वन्द्व महत्वपूर्ण है।
कहानी में पशुओं को चरित्र के रूप में प्रस्तुत करना भी प्रेमचंद की परंपरा है। यह मार्कण्डेय के यहां भी है। इस क्रम में उन्होंने ‘सवरइया’ और ‘पानफूल’ कहानी की चर्चा की।
उन्होंने ‘भूदान’ व ‘आदर्श कुक्कुट गृह’ कहानी के सन्दर्भ से कहा कि राजनीतिक आंदोलन की जमीनी हकीकत को मार्कण्डेय अपनी कहानियों में उठाते हैं। मार्कण्डेय की मूल चेतना ग्रामीण कहानियों से बनती है।
आजाद भारत के गांव की चिंता मार्कंडेय की मूल चिंता है। आजादी के पहले जो किसान चिंता प्रेमचंद में है वह आजादी के बाद मार्कण्डेय में मिलती है। गांव धीमी गति से बदल रहे थे। मार्कण्डेय इस बदल रहे गांव के कथाकार हैं। ग्रामीण जीवन के उत्साह के साथ उसके मोहभंग की भी कहानी मार्कंडेय कहते हैं।
काशी विद्यापीठ के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. सुरेंद्र प्रताप ने पहली नयी कहानी पर चर्चा करते हुए कहा कि निर्मल वर्मा की ‘परिंदे’ कहानी का पूरा संगठन पश्चिमी है। मार्कण्डेय की ‘गुलरा के बाबा’ कहानी का पूरा संगठन भारतीय है। गुलरा के बाबा में उभरता वर्ग संघर्ष भी है। उन्होंने इसे चैतू के चरित्र के सन्दर्भ से स्पष्ट किया।
कवि हरीश्चंद्र पांडे ने गोष्ठी में अपनी बात रखते हुए कहा कि आजादी के बाद नए विचार आए तो थे लेकिन अंधविश्वास भी अपनी जगह था। मार्कण्डेय दोनों बातों को कहानी में लाते हैं। मासूमियत को बचाने की कोशिश मार्कंडेय में है। मार्कंडेय में संकेतिकता है। ‘पानफूल’, ‘जूते’ कहानी में यह सांकेतिकता है। मार्कण्डेय वर्गीय सत्य को सांकेतिक ढंग से कहानी में लाते हैं।
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए राजेंद्र कुमार ने कहा कि समय के साथ साहित्य की प्रवृत्तियां बदलती हैं लेकिन कुछ प्रतिज्ञाएं होती हैं जो हर समय में होती हैं। मार्कंडेय के यहां वैकल्पिक आधुनिकता बोध को पहचानने की कोशिश है। वे ग्रामीण चरित्रों के माध्यम से इस आधुनिकता बोध को अभिव्यक्ति देते हैं। ग्राम कहानी में मार्कंडेय का जीवनबोध व्यक्त होता है। गांव के चरित्र को मार्कण्डेय कहानियों में लाते हैं।
इस अवसर पर मार्कण्डेय की बेटियां डा. स्वस्ति सिंह, डाॅ. सस्या नागर, बेटे सौमित्र सिंह सहित शहर के बुद्धिजीवी, लेखक, संस्कृतिकर्मी, छात्र, शोधार्थी, पत्रकार, साहित्यप्रेमी उपस्थित थे। संचालन दुर्गा सिंह ने किया। इस कार्यक्रम का आयोजन कथा प्रकाशन की तरफ से हुआ